हम विकसित देशों की ओर देखें तो खाद्य पदार्थ का जितना इस्तेमाल होता है उससे ज्यादा बर्बाद होता है। यही बात पानी के सन्दर्भ में भी है। सारी व्यवस्था बिजली पर टिकी हुई है और ये देश बिजली के बिना व्यवस्थित जीवनशैली और सरकार की कल्पना भी नहीं कर सकते। बिजली मुलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति और देश की अर्थव्यवस्था के लिये जरूरी है लेकिन उस पर पूरी तरह निर्भर हो जाना जिसके बिना जीवन सम्भव न हो, शुभ संकेत नहीं देता है। भारतीय शास्त्रीय ज्ञान से ही ग्लोबल वार्मिंग और जलवायु परिवर्तन जैसे संकट का समाधान ढूँढा जा सकता है। दिसम्बर में पेरिस में होने वाले कोप की बैठक में एक महत्त्वपूर्ण समझौता होने वाला है जिस पर दुनिया भर के सभी लोगों की नजर लगी हुई है। लेकिन हमारी समझ से यह समझौता एक कृत्रिम समाधान मात्र है, जहाँ मुद्दा यह होगा कि कौन सा देश कितना कार्बन उत्सर्जन कम करे।
दुनिया भर के लोग भ्रमित हो रहे हैं कि इस समझौते से विश्व का भला और संकट का समाधान नहीं होने वाला है। यह कहना है राज्यसभा सांसद और भोपाल में जलवायु परिवर्तन पर होने जा रहे राष्ट्रीय सम्मेलन के अध्यक्ष अनिल माधव दवे का।
उन्होंने कहा कि प्राचीन भारतीय जीवन दर्शन में प्रकृति व मनुष्य के बीच आत्मीय सम्बन्ध की परिकल्पना की गई जिसमें पंचमहाभूतों के आपसी समन्वय से सृष्टि के विकास का सारगर्भित चिन्तन दिखाई पड़ता है। और मनुष्य से यह अपेक्षा की गई है कि पंच तत्वों के इस समन्वय में बिना बाधा पहुँचाते हुए प्रकृति के विकास में भागीदार बने। किन्तु आज पंच महाभूतों की सुसंगति अन्धाधुन्ध प्रकृति के शोषण की वजह से तहस-नहस होती जा रही हैं। परिणामस्वरूप आज हम जलवायु परिवर्तन जैसी गम्भीर समस्या का सामना कर रहे है।
दवे आगामी 21-22 नवम्बर, 2015 को भोपाल में ‘जलवायु परिवर्तन व ग्लोबल वार्मिग : समाधान की ओर’ विषय पर होने जा रहे राष्ट्रीय सम्मेलन के सन्दर्भ में बुलाई गई प्रेस वार्ता में बोल रहे थे। उन्होंने कहा कि उज्जैन में आगामी अप्रैल 2016 में होने जा रहे सिंहस्थ (कुम्भ) से पूर्व विकास से जुड़े विभिन्न विषयों पर आयोजित कार्यक्रमों की शृंखला में जलवायु परिवर्तन पर सम्मेलन प्रस्तावित है। जो कि भोपाल विधानसभा परिसर में आयोजित होगा।
मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की उपस्थिति में इस सम्मेलन में आध्यात्मिक गुरू श्री श्री रविशंकर जी का मुख्य उद्बोधन होगा। दो दिवसीय आयोजन इस रूप में विशिष्ट होगा कि पहली बार देश में जलवायु परिवर्तन के मुद्दे पर आध्यात्मिक चिन्तक, तकनीकी विशेषज्ञ, ख्याति प्राप्त शिक्षाविद्, राष्ट्रीय अन्तरराष्ट्रीय विकास व नीतियों से जुड़े विशेषज्ञ, परम्परागत ज्ञान रखने वाले और ज़मीनी स्तर पर कार्य कर रहे संगठनों व संस्थाओं के प्रतिनिधि एक मंच पर जलवायु परिवर्तन से जुड़े विभिन्न पहलुओं पर अपने विचार व अनुभव रखेंगे।
दवे ने बताया कि भोपाल सम्मेलन के पश्चात महाकाल की धरती उज्जैन में आयोजित सिंहस्थ के दौरान एक अन्तरराष्ट्रीय सम्मेलन का आयोजन किया जाएगा और वैचारिक मंथन के बाद जलवायु परिवर्तन के विभिन्न पक्षों पर भारतीय चिन्तन परम्परा के सन्देश को विश्व समुदाय तक पहुँचाया जाएगा।
उन्होंने कहा कि मूल समस्या ऊर्जा की खपत और उत्सर्जन नहीं है। समस्या एक जीवनशैली की है। समस्या एक सोच की है जिस पर शायद बहुत जोर नहीं है। ऐसे सम्मेलनों में हमें लगता है कि यहाँ हमारी शास्त्रीय जीवनशैली एक रास्ता दिखाती है। यहाँ हमारा अभिप्राय किसी धर्म विशेष की जीवनशैली से नहीं है। बल्कि भारतीय जीवनशैली है।
वैदिक परम्परा में पंचमहाभूत का पर्यावरण और जीवनशैली में जो महत्त्व है उसके बारे में दुनिया को सोचना होगा और इनके सन्तुलन से ही जलवायु का संकट दूर किया जा सकता है। वैदिक परम्परा के अलावा जो हमारे यहाँ पारम्परिक ज्ञान है, जो अपराग्रही जीवनशैली है, महात्मा गाँधी का दर्शन जो सिखाता है कि आवश्यकता से अधिक समय या प्रकृति से नहीं लो और आदिवासी परम्पराएँ व जीवन पद्धति, सब हमें प्रकृति के साथ सामंजस्य स्थापित करना सिखाती हैं। हमारी परम्परागत शैली में कुछ भी उच्छृष्ट नहीं है, उत्सर्जन नहीं है। प्रत्येक वस्तु का कुछ-न-कुछ उपयोग अवश्य है। और हमें आज इसी तरह की जीवनशैली की जरूरत है।
इसके विपरीत यदि हम विकसित देशों की ओर देखें तो खाद्य पदार्थ का जितना इस्तेमाल होता है उससे ज्यादा बर्बाद होता है। यही बात पानी के सन्दर्भ में भी है। सारी व्यवस्था बिजली पर टिकी हुई है और ये देश बिजली के बिना व्यवस्थित जीवनशैली और सरकार की कल्पना भी नहीं कर सकते। बिजली मुलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति और देश की अर्थव्यवस्था के लिये जरूरी है लेकिन उस पर पूरी तरह निर्भर हो जाना जिसके बिना जीवन सम्भव न हो, शुभ संकेत नहीं देता है।
विज्ञान के अनुसार यदि प्रतिव्यक्ति उत्सर्जन को दो टन पर लाना है तो ऐसे उपभोगितावादी जीवनशैली का त्याग करना होगा। हालांकि यह आसान नहीं होगा और यही कारण है कि हम इस संकट से नहीं उबर पा रहे हैं। इस सम्मेलन के माध्यम से हम पूरी दुनिया को बताना चाह रहे हैं कि जलवायु संकट का समाधान की दिशा भारत ही दुनिया को दिखा सकती है।
दुनिया भर के लोग भ्रमित हो रहे हैं कि इस समझौते से विश्व का भला और संकट का समाधान नहीं होने वाला है। यह कहना है राज्यसभा सांसद और भोपाल में जलवायु परिवर्तन पर होने जा रहे राष्ट्रीय सम्मेलन के अध्यक्ष अनिल माधव दवे का।
उन्होंने कहा कि प्राचीन भारतीय जीवन दर्शन में प्रकृति व मनुष्य के बीच आत्मीय सम्बन्ध की परिकल्पना की गई जिसमें पंचमहाभूतों के आपसी समन्वय से सृष्टि के विकास का सारगर्भित चिन्तन दिखाई पड़ता है। और मनुष्य से यह अपेक्षा की गई है कि पंच तत्वों के इस समन्वय में बिना बाधा पहुँचाते हुए प्रकृति के विकास में भागीदार बने। किन्तु आज पंच महाभूतों की सुसंगति अन्धाधुन्ध प्रकृति के शोषण की वजह से तहस-नहस होती जा रही हैं। परिणामस्वरूप आज हम जलवायु परिवर्तन जैसी गम्भीर समस्या का सामना कर रहे है।
दवे आगामी 21-22 नवम्बर, 2015 को भोपाल में ‘जलवायु परिवर्तन व ग्लोबल वार्मिग : समाधान की ओर’ विषय पर होने जा रहे राष्ट्रीय सम्मेलन के सन्दर्भ में बुलाई गई प्रेस वार्ता में बोल रहे थे। उन्होंने कहा कि उज्जैन में आगामी अप्रैल 2016 में होने जा रहे सिंहस्थ (कुम्भ) से पूर्व विकास से जुड़े विभिन्न विषयों पर आयोजित कार्यक्रमों की शृंखला में जलवायु परिवर्तन पर सम्मेलन प्रस्तावित है। जो कि भोपाल विधानसभा परिसर में आयोजित होगा।
मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की उपस्थिति में इस सम्मेलन में आध्यात्मिक गुरू श्री श्री रविशंकर जी का मुख्य उद्बोधन होगा। दो दिवसीय आयोजन इस रूप में विशिष्ट होगा कि पहली बार देश में जलवायु परिवर्तन के मुद्दे पर आध्यात्मिक चिन्तक, तकनीकी विशेषज्ञ, ख्याति प्राप्त शिक्षाविद्, राष्ट्रीय अन्तरराष्ट्रीय विकास व नीतियों से जुड़े विशेषज्ञ, परम्परागत ज्ञान रखने वाले और ज़मीनी स्तर पर कार्य कर रहे संगठनों व संस्थाओं के प्रतिनिधि एक मंच पर जलवायु परिवर्तन से जुड़े विभिन्न पहलुओं पर अपने विचार व अनुभव रखेंगे।
दवे ने बताया कि भोपाल सम्मेलन के पश्चात महाकाल की धरती उज्जैन में आयोजित सिंहस्थ के दौरान एक अन्तरराष्ट्रीय सम्मेलन का आयोजन किया जाएगा और वैचारिक मंथन के बाद जलवायु परिवर्तन के विभिन्न पक्षों पर भारतीय चिन्तन परम्परा के सन्देश को विश्व समुदाय तक पहुँचाया जाएगा।
उन्होंने कहा कि मूल समस्या ऊर्जा की खपत और उत्सर्जन नहीं है। समस्या एक जीवनशैली की है। समस्या एक सोच की है जिस पर शायद बहुत जोर नहीं है। ऐसे सम्मेलनों में हमें लगता है कि यहाँ हमारी शास्त्रीय जीवनशैली एक रास्ता दिखाती है। यहाँ हमारा अभिप्राय किसी धर्म विशेष की जीवनशैली से नहीं है। बल्कि भारतीय जीवनशैली है।
वैदिक परम्परा में पंचमहाभूत का पर्यावरण और जीवनशैली में जो महत्त्व है उसके बारे में दुनिया को सोचना होगा और इनके सन्तुलन से ही जलवायु का संकट दूर किया जा सकता है। वैदिक परम्परा के अलावा जो हमारे यहाँ पारम्परिक ज्ञान है, जो अपराग्रही जीवनशैली है, महात्मा गाँधी का दर्शन जो सिखाता है कि आवश्यकता से अधिक समय या प्रकृति से नहीं लो और आदिवासी परम्पराएँ व जीवन पद्धति, सब हमें प्रकृति के साथ सामंजस्य स्थापित करना सिखाती हैं। हमारी परम्परागत शैली में कुछ भी उच्छृष्ट नहीं है, उत्सर्जन नहीं है। प्रत्येक वस्तु का कुछ-न-कुछ उपयोग अवश्य है। और हमें आज इसी तरह की जीवनशैली की जरूरत है।
इसके विपरीत यदि हम विकसित देशों की ओर देखें तो खाद्य पदार्थ का जितना इस्तेमाल होता है उससे ज्यादा बर्बाद होता है। यही बात पानी के सन्दर्भ में भी है। सारी व्यवस्था बिजली पर टिकी हुई है और ये देश बिजली के बिना व्यवस्थित जीवनशैली और सरकार की कल्पना भी नहीं कर सकते। बिजली मुलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति और देश की अर्थव्यवस्था के लिये जरूरी है लेकिन उस पर पूरी तरह निर्भर हो जाना जिसके बिना जीवन सम्भव न हो, शुभ संकेत नहीं देता है।
विज्ञान के अनुसार यदि प्रतिव्यक्ति उत्सर्जन को दो टन पर लाना है तो ऐसे उपभोगितावादी जीवनशैली का त्याग करना होगा। हालांकि यह आसान नहीं होगा और यही कारण है कि हम इस संकट से नहीं उबर पा रहे हैं। इस सम्मेलन के माध्यम से हम पूरी दुनिया को बताना चाह रहे हैं कि जलवायु संकट का समाधान की दिशा भारत ही दुनिया को दिखा सकती है।
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Post By: RuralWater