नदियों का प्रवाह, मौटे तौर पर दो रूप में पाया जाता हैं - पहला है बाढ़ की मदद से बरसात के दिनों में गाद समेटता नदी का रौद्र रूप और दूसरा है धरती की कोख से बाहर आए भूजल के मदद से जीवन सवांरता सौम्य रूप। दोनों ही रूपों में उसे बरसात का अवदान प्राप्त होता है। पहले रूप में प्रत्यक्ष और दूसरे रूप में अप्रत्यक्ष। दोनों ही रूपों में वह, लाखों सालों से, कुदरत द्वारा सौंपे भौतिक (गाद को समुद्र में पहुँचाना) और जलीय जीवन के कुशलक्षेम से जुडे दायित्वों का पालन करती रही है। पिछली कुछ अरसे से मानवीय हस्तक्षेपों के कारण उसके दोनों दायित्वों पर विपरीत प्रभाव पड़ा है। आईए प्रयास करें हकीकत को समझने की।
नदियों के मार्ग में निर्मित बांध और बैराज अविरल प्रवाह में अवरोध पैदा करते हैं। इन अवरोधों के कारण मलवे का सही निपटान नहीं हो पाता। उसकी कुछ मात्रा उन संरचनाओं के पीछे जमा होने लगती है। अर्थात नदी अपनी कुदरती भौतिक जिम्मेदारियों को अच्छी तरह पूरी नहीं कर पाती। वहीं, भूजल की अनियंत्रित निकासी, नदी की जलधारा से पानी के सीधे उठाव एवं रेत के अवैज्ञानिक तरीके से खनन के कारण नदियों के सौम्य प्रवाह में लगातार कमी आ रही है। यह कमी हिमालयीन नदियों में सामान्यतः नवम्बर से मार्च के बीच और भारतीय प्रायद्वीप की नदियों में ग्रीष्म ऋतु में सर्वाधिक होती है। प्रवाह की कमी के कारण नदियों के कुदरती दायित्वों तथा जीवनरक्षक सेवाओं, पर संकट पनप रहा है। नदियों के पानी में लगातार बढ़ता प्रदूषण जलीय जीवन पर अतिरिक्त संकट बढ़ा रहा है। इन परिस्थितियों के चलते अल्प प्रवाह वाले दिनों में नदी की अविरलता और निर्मलता पर संकट बढ़ रहा है। कई जगह तो पर्यावरणी प्रवाह भी खत्म हो जाता है। किसी किसी हिस्से में नदी सूख जाती है। नदी के सूखने का अर्थ है-जलीय जीवन का पूरी तरह खत्म होना। उसकी कुदरती तथा जीवनरक्षक सेवाओं की समाप्ति। उसकी सामाजिक, आर्थिक तथा सांस्कृतिक जिम्मेदारियों का बाधित होना। नदियों के मामले में, बिना अपवाद, उपर्युक्त परिस्थितियाँ लगातार बढ़ रही हैं।
सभी जानते हैं कि नदियों के निर्मल जल और उसकी रेत में जलीय जीवन सुरक्षित रहता है और फलता-फूलता है। इस कारण, नदियों में पूरे 365 दिन न्यूनतम अविरल पर्यावरणीय प्रवाह मिलना ही चाहिए। वैज्ञानिकों ने इसी न्यूनतम निर्मल तथा अविरल प्रवाह को पर्यावरणीय प्रवाह कहा है। अध्ययनों से साबित हुआ है कि नदी में पर्यावरणीय प्रवाह की आवश्यकता, खंड-खंड में नहीं अपितु उसकी पूरी लम्बाई (उद्गम से लेकर डेल्टा तक) के लिए समान रूप से अनिवार्य है। पर्यावरणी प्रवाह रहित नदी, हकीकत में, मृत नदी होती है। वह रक्त विहीन शरीर की तरह होती है।
भारत सरकार (Ministry of Water Resources, River development and Ganga rejuvenation) के गजट नोटिफिकेशन दिनांक 09 अक्टूबर, 2018 में दर्ज है कि राष्ट्रीय नदी गंगा के मामले में - “GOI is committed to restore and monitor wholesomeness of the river ensuring appropriate Environmental Flow and simultaneously preventing the pollution ingress. ¨‘अर्थात भारत सरकार, वांछित पर्यावरणीय प्रवाह के साथ-साथ प्रदूषण का प्रवेश रोकना सुनिश्चित करते हुए नदी की सेहत की बहाली और मॉनिटरिंग के लिए प्रतिबद्ध है।’
केन्द्र सरकार ने विभिन्न परियोजनाओं को मंजूर करने के पहले पर्यावरण आकलन रिपोर्ट (Environmental Flow Assessment report) को अनिवार्य बनाया है। सरकार द्वारा अमूनन इस रिपोर्ट को विशेषज्ञों द्वारा तैयार कराया जाता है। इसके अतिरिक्त, प्रस्तावित योजनाओं के निर्माण से पर्यावरण को होने वाली हानियों से बचाने के लिए देश में अलग से न्यायिक व्यवस्था (National Green Tribunal -NGT) कायम की गई है।
पिछले कुछ सालों से मीडिया में परियोजनाओं के पर्यावरणीय पक्ष को स्थान मिलने लगा है। एन.जी.टी में भी पर्यावरणीय मुद्दों की अनदेखी के प्रकरण लगातार बढ़ रहे हैं। इससे लगता है कि समाज में पर्यावरण की समझ बेहतर हो रही है। विपरीत कव्हरेज और एनजीटी में लगातार बढते प्रकरणों का संदेश एकदम स्पष्ट है - लोग, संकल्प के विरुद्ध नहीं हैं। वे संकल्प पूरा करने के लिए बेहतर विकल्पों को तलाशने और उन्हें अपनाने की पैरवी कर रहे हैं।
विकास और पर्यावरण के बीच तालमेल के अभाव के कारण ही पर्यावरणी विसंगतियाँ पनपती हैं। कई बार गलत योजना का कारण अविवेकी मांग होता है। कई बार, पर्यावरणी विसंगतियाँ का कारण बेहतर विकल्पों की अनदेखी होता है। पूर्वाग्रह या परिपाटी या मान्यता भी होता है। कुछ मामलों में अनुदान देने वाली संस्था का सोच हावी होता है। कारण और भी हो सकते हैं पर गलत फैसलों के कारण, कालान्तर में कई प्रकार की पर्यावरणी विसंगतियाँ पनपती हैं। बीमारियों का प्रकोप बढ़ता है। योजना पर किया खर्च बेकार हो जाता है। समाज और आनेवाली पीढ़ियाँ उस अविवेकी हस्तक्षेप का दंश झेलती हैं। कई बार, उसे ठीक करना सरकारों के लिए भी लगभग असंभव हो जाता है।
विकास और पर्यावरण के बीच बेहतर तालमेल सुनिश्चित करने के लिए उपयुक्त कमेटी और पर्यावरण आकलन रिपोर्ट बेहद महत्वपूर्ण है। उदाहरण के लिए यदि पर्यावरणीय प्रवाह के आकलन के लिए गठित कमेटी में केवल स्टेकहोल्डर्स ही रखे जाते हैं तो संभावना है कि उस कमेटी की रिपोर्ट मात्र खानापूर्ति हो या अस्थायी लाभ देने वाली हो सकती है पर यदि उस कमेटी में परियोजना से सम्बन्धित सभी पर्यावरणीय पक्षों (हानि, लाभ, खतरे और विकल्प) पर समग्र चिंतन करने में सक्षम विशेषज्ञों को रखा जाता है तो पर्यावरणीय विसंगतियाँ का काफी हद तक निराकरण हो सकता है। यदि ऐसा होता है तो पर्यावरणीय हानियों को कम किया जा सकता है। उसके लाभ भी बहुत समय तक समाज को दिलाए जा सकते हैं।
एक और उदाहरण संज्ञान में लिया जा सकता है। मान लो यदि नदी के किसी हिस्से में पर्यावरणीय प्रवाह की कमी को दूर करने के लिए अशुद्ध जल काम मे लाया जाता है तो प्रवाह की कमी तो पूरी हो जावेगी पर अशुद्ध पानी के असर से जलीय जीवन असुरक्षित हो जावेगा। अर्थात इस प्रकार की खानापूर्ति अन्ततः नुकसान ही पहुँचाती है। इस तरह के कदम सरकार की प्रतिबद्धता जो 9 अक्टूबर, 2018 के गजट नोटिफिकेशन में उल्लेखित है, के भी विरुद्ध होगा। पानी की गुणवत्ता की जानकारी को पारदर्शी बनाने तथा जानकारी को पब्लिक डोमेन में उपलब्ध कराना चाहिए।
पर्यावरण आकलन कमेटी के सामने विचारार्थ ऐसा प्रस्ताव भी आ सकता है जिसके अनुसार नदी के किसी हिस्से से पानी उठाकर पेयजल या खेती या उद्योग को आपूर्ति की जाना है। सुझाव अनुचित नहीं है लेकिन अपनी रिपोर्ट देने के पहले कमेटी को अन्य स्थानीय विकल्पों की संभावना को तलाशना चाहिए। उसे यह देखना चाहिए कि उक्त मांग को पूरा करने से आने वाले दिनों में नया पर्यावरणीय संकट तो नहीं पनपेगा। यदि नए पर्यावरणीय संकट के पनपने की संभावना है तो उसके निराकरण के लिए सुझावों को रिपोर्ट में अनिवार्य शर्त के रूप दर्ज करना चाहिए और अपनी रिपोर्ट देना चाहिए।
पानी की सर्वकालिक जीवन-रक्षक गुणवत्ता जानने के लिए देशज संकेतकों का उपयोग करना चाहिए। इन देशज संकेतकों की जानकारी स्थानीय समाज के वरिष्ठ नागरिकों से मिल सकती है। उसे एकत्रित करना चाहिए तथा उसके आधार पर जलीय जीवन के कुशलक्षेम में आए बदलाव का आकलन करना चाहिए। इस मामले में सोशल आडिट की व्यवस्था लागू करना चाहिए।
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