लोक-साहित्य ‘लोक’ और ‘साहित्य’ दो शब्दों से मिलाकर बना है जिसका शाब्दिक अर्थ लोक का साहित्य है।
आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने ‘लोक’ की विशेषता के संबंध में लिखा है – “लोक शब्द का अर्थ जनपद या ग्राम्य नहीं है, बल्कि नगरों या ग्रामों में फैली हुई समूची जनता है जिसके व्यावहारिक ज्ञान का आधार पोथियां नहीं है। ये लोग नगर में रहने वाले परिष्कृत रुचि संपन्न तथा सुसंस्कृत समझे जाने वाले लोगों की अपेक्षा अति सरल और अकृत्रिम जीवन के अभ्यस्त होते हैं। परिष्कृत रुचि वाले लोगों की समूची विलासिता और सुकुमारिता को जीवित रखने के लिए जो भी वस्तुएं आवश्यक होती हैं, उनको उत्पन्न करते हैं।” (जनपद, अंक 1952, पृ. 65)
‘लोक’ लोक जीवन के उस वर्ग का प्रतिनिधित्व करते हैं जो अपनी प्राचीन मान्यताओं, विश्वासों और परंपराओं के प्रति आस्थावान है। लोक – साहित्य मूलतः लोक की मौखिक अभिव्यक्ति है जो संपूर्ण जीवन का नेतृत्व करती है। लोक जीवन की अभिव्यक्ति को वाणी देना ही लोक साहित्य है। इसकी निम्नांकित विधाएं हैं:
लोक-गीत, लोक-कथा, लोक-नाट्य, लोक-भाषा और लोक-सुभाषित।
मानसून का प्रभाव केवल भारतीय कृषि व्यवस्था, उद्योग और वातावरण पर ही नहीं पड़ता अपितु भारतीय लोक-साहित्य पर भी पड़ता है। मानसून आने पर केवल दादुर ही नहीं टरटराते, मोर ही नहीं नाचते बल्कि भारतीय कृषक, युवक-युवतियां सभी उल्लासमय होकर नाचने-गाने लगती हैं, झूमने लगते हैं। इस आनंद को, इस सपने को लोग झूमर, झूला, कजली, बारहमासा आदि लोग-गीतों तथा जट-जटिन इत्यादि लोक नाटिका में अपनी वाणी देते हैं। फिर यह वाणी ‘श्रुति-परंपरा’ का अनुसरण करते हुए कंठ-कंठ से होकर समाज में व्याप्त हो जाती है। इन गीतों में स्वाभाविकता, सरलता, सहजता और स्वच्छता के गुणों का समावेश होता है।
संस्कृत, प्राकृत अपभ्रंश तथा हिंदी में अधिकतर ऋतु-वर्णन का प्रारंभ बसंत तथा चैतोत्सव से हुआ है। परंतु महाकवि कालिदास ने ऋतु वर्मन का प्रारंभ मानसून के पूर्व अर्थात ग्रीष्मकाल के बाद आकाश में उमड़े-घुमड़े आषाढ़ के प्रथम बादल से किया है। इस बादल को आधार मानकर ‘आम्रकूट’ का वर्णन किया गया है जो एक तरह से मानसून का स्वागत है। उन्होंने कहा कि अपनी मूसलाधार वर्षा से वनों में लगे दावानल को बुझाकर शांत कर देने वाले मेघ। तुम्हें थका देखकर यह ऊंची चोटी वाले आम्रकूट तुम्हें विश्राम देने के लिए अपने सिर पर धारण करेगा। साधारण व्यक्ति जब मित्रों के उपकारों को नहीं भूलता तो यह उच्च उदार पर्वत तुम जैसे परम हितैषी मित्रों के स्वागत में कोई कमी रहने देगा?
त्वमासार-प्रशमित वनोपल्लवं साधु-मूर्ध्ना।
वक्ष्मत्पध्वश्रमपरिगतं सानुमान् आम्रकूट।।
न क्षुद्रोदपि प्रथम-सुकृतापेक्षपया संश्रयाम।
प्राप्ते मित्रे भवति विमुखः कि पुनर्मस्तथोच्चैः।।
(मेघदूत-17)
बज्जिका भाषा के साहित्यकार डॉ. ब्रजनंदन वर्मा ने भी अपने लोक-गीत में प्रथम आषाढ़ का वर्णन किया है:
ताबा सन धीपल धरती के, खेत पथार भींजाने आएल।
पहिल आसाढ़ में मेघों बरसल, मनमा ओकर जुरावे आएल।।
टिपरि-टिपरि ओरियानी चूए, दूरा पर मोती छितराएला।
एन्ने-ओन्ने जेने ताकू, दाहर सन सगरो बुझाएला।।
(तपत धरती सहमल गांओ)
हिंदी में आषाढ़-सावन का महीना और अंग्रेजी में जून-जुलाई का महीना मानसून का समय होता है। दक्षिण भारत में मानसून का आगमन पहले होता है।
वर्ष को तीन, छह या बारह भागों में बांटकर प्रत्येक मास के निजी सौंदर्य के विशिष्ट वर्णन की शैली को बारहमासा कहते हैं। बारहमासा की परंपरा सभी लोक – भाषाओं में आई है। लोक-नारी की प्राकृतिक स्थितियों के परिप्रेक्ष्य में विरहावस्था की मनोदशाओं का वर्णन सभी लोक-भाषाओं में सभी लोक-साहित्यकारों ने किया है।
विद्यापति ने एक बारहमासा आषाढ़ से प्रारंभ किया है जो मानसून का आगमन काल है। उनकी नायिका कहती है कि “आषाढ़ मास आ गया है। सर्वत्र मेघ छाए हुए हैं किंतु मैं विरहिणी प्रियतम के वियोग के कारण निराश्रित हो गई हूं।” फिर श्रावण आने पर उनकी नायिका कहती है कि “मेघ मूसलाधार वर्षा कर रहे हैं। अंधेरी रात के कारण मार्ग भी दिखाई नहीं पड़ता तथा चारों ओर बिजली की रेखा दिखाई पड़ती है जिससे विरहणियों का जीवित रहना असंभव – सा हो गया है। भादो भी आ गया है। घनघोर घटाओं में प्रचुर मात्रा में वर्षा हो रही है। चारों ओर मोर और दादुर (मेंढक) शोर मचा रहे हैं। कामिनियां प्रियतम की गोद में छिप गई हैं। परंतु वियोगिनी के भाग्य में वह सुख कहां।”
माह आसाढ़ उनत नव मेघ, पिया विसलेख रहओं निरपेघ।
कोन पुरुष सखि कोन से देस, करब मोयें तहां जोगिनी भेस।।
साओन मास बरसि घन बारि, पंथ न सूझे निसि अधिआरि।
चौदसि देखए बिजुरि रेह, से सखि कामिनी जीवन संदेह।।
भादव मास बरसि घनघोर सभ दिसि कुहकए दादुर-मोर।
चेहुंकि चेहुंकि पिया छोर समाए, गुनमति सूतल अंक लगाए।
लोक साहित्य किसी भाषा और संस्कृति का जीवंत साहित्य होता है। मिथिलांचल, बज्जिकांचल और अंगिकांचल में मानसून के स्वागत में तरह-तरह के खेल, नृत्य एवं नाटिकाएं होती हैं।
मिथिलांचल और बज्जिकांचल में एक लघु लोक नाटिका होती है। महिलाएं मेंढक पकड़ती है। मेंढक को बेंग कहा जाता है। उसे उखल में रखकर मूसल से मारा जाता है। फिर उस मरे मेंढक को पड़ोसन के घर फेंक दिया जता है। कहीं-कहीं मटका या घड़ा में गोबर घोलकर पड़ोसन के घर फोड़ा जाता है। यह लोक विश्वास है कि पड़ोसन जितनी गालियां बकेगी, उस वर्ष उतनी ही अधिक वर्षा होगी।
मानसून के आह्वान करने वाले एक गीत की बानगी देखिएः
हाली-हाली बरसू हे इनर देवता।
पानी बिना पड़इअ अकाल हो राम।।
फलना बाबू के यहां कोठी भरण है धान।
फलना बाबू कोठीओ न खेलैअ हो राम।।
भूखे धिया-पूता कलमल करैइअ।
पानी बिन पड़इअ अकाल हो राम।।
मानसून आने के समय बज्जिकांचल या मिथिलांचल में अनुष्ठान के रूप में एक लोक नाटिका होती है – जट-जटिन नाटिका। मैथिली, अंगिका तथा बज्जिका में शब्दों के कुछ अंतर के सथ ये गीत गाए जाते हैं। मनोरंजन के ख्याल से इन लोक-गीतों में हास, उल्लास, व्यंग्य, उपालंभ आदि को जोड़ दिया जाता है।
जट विदेश जाना चाहता है, परंतु मानसून आने वाले है। जटिन मानसून की कल्पना मात्र से कामोद्दीप्त हो जाती है, जट लालच देता है। आभूषण महिलाओं की कमजोरी होती है परंतु जटिन मानने को तैयार नहीं।
जट कहता हैः
जाए देहि गे जटिन देस रे विदेस।
तोरा लागि लाएब जटिन हंसुलि सनेस।।
जटिन विरोध के स्वर में कहती है :गला के हंसुली जटा तरवा के धुलिया।
घर ही रहू जटा नयना के हुजूर।।
जट नहीं मानता। विदेश चला जाता है। फिर जब कमाकर आता है तो जटिन क्रोधवश मायके चली जाती है। जट अकेला हो जाता है और विरहाग्नि में जलते हुए कहता है कि सेज बहुत दिनों से खाली पड़ी थी और मकड़ी ने सेज पर अंडा-बच्चा दे दिया हैः
तोरे बिनु महल उदास भेलै गे जटिन,
सेजिया पर मकड़ा बिअएलै गे जटिन।
एक कांगड़ी बारहमासा का आनंद लेः नायिका कहती है कि आषाढ़ मास में मीठे आमों की बहार थी, आप परदेस थे, आपके बिना एक भी आम चखकर नहीं देखा। सावन आने पर सखियों ने झूले डाले, परंतु आपके परदेस रहने पर मैंने उनकी एक भी हिलोरे नहीं ली। भादो मास की अंधेरी रातें, जिनके प्रियतम घर पर थे, उन्होंने दीपक जलाए परंतु आपके बिना मैंने अंधेरी रातें अंधेरे में ही काटीः
हाड़ मासे अम्ब जे पक्के,
तुसां रेह परदेस, असां तोड़ निचक्खे।
लैरे महीने पींघ पईयां,
तुसां रेह परदेस, असां झूठ निलेया।
काले महीने नोरियां राती,
जिन्हा के घर ढोल, तिन्हां दीपक बाले,
तुसां रेह परदेस, असां न्हेरे रातीं कटियां
(झूमे धरती गाए लोक)
आदिवासी उरांव की आसाढ़ी करमा गीत का सौंदर्य देखेः
जशपुर में बिजली चमकी, पानी की धाराएं बह चली।
खेत पानी से भर गए, किसान हल जोतने निकले
सांपों ने बिल छोड़ा, मेढ़कों ने गीत गाए।
मानसून आने पर बागों में आम के पेड़ों पर टिकोले लगते हैं और हिंडोला भी लगाया जाता है। अंगिका में एक जूला गीत देखेः
बाबा के बगीचवा में अमुवां लगैलिये,
अमुवां के डाली लहरायै हो रामा।।
वही के बगीचवा में लागले हिंडोलवा,
डाली, पाती कोइली पुकारे हो रामा।।
लोकगीतों में कल्पना भी अपनी सीमा तोड़ देती है। लोकगीतों में साज-सज्जा, बुनावट व्याकरण का कसाव, छंद-अलंकार प्रयोग नहीं होता है। परंतु लोकगीत एक अल्हड़ नव यौवना की तरह अपना सौंदर्य छलकाते हैं।
मानसून के काले बादल को देखकर यौवना कहती है कि जहां मेरे पिया हैं, वहीं जाकर बरसना, मुझे क्यों तड़पाते और तरसाते हो :
‘अरे-अरे कारी बदरिया तुह मोरि बादरि।
बादरि जाइ बरसहू वहिं देस, जहां प्रिय हो छाये।’
सावन का महीना है और पति नहीं आए।
पत्नि विरह में तड़पती है :
अरी मेरी बहना, सावन सूनौ जाए,
वीरन नहीं आए लैन कूं।
वैन पपईयां पीउ-पीउ रट रइयौ,
अरि मेरी बहना! मोर बजावत सोर।
वीरन नहीं आए लैने कूं।
स्व. रामवृक्ष बेनीपुरी की पुत्री तथा पूर्व प्राचार्य डॉ. प्रभा बेनीपुरी ने अपने बज्जिका गीत में मानसून के आने पर विरह-व्यथा का वर्णन किया है।
पगला बादल बरस रहल हए
रिमझिम रिमझिम बूंद पड़इअ
नएना तरस रहल हए
की जानू काहे भीजल हए
नभ के नयना कोर।
विह गीत की एक औस बानगी देखियेः
हए निष्ठुर वेदना विकल
डब डब आंख करईअ
तोरा बिनु तड़ मउअत बेहतर
जीवन तरस रहल हए।
(बज्जिकालोक, अंक 2010)
भोजपुरी लोकगीत में पति पर पत्नी सर्वाधिकार नहीं रखना चाहती पति किसी का पुत्र, किसी का भैया भी है – मेरा तो पति है ही। मानसून आने पर बगीचा में आम के फल लटके हैं परंतु पत्नी को विश्वास है कि मेरे पति के सिवा उसे दूसरा कोई नहीं तोड़ सकता।
आम फरे अमरैया, हिंकोला कोई तोड़े न पावे हो।
तोड़ ननद जी के भैया, दोसर कोई तोड़े न पावे हो।।
महिलाएं मायके जाने के लिए सदैव तत्पर रहती हैं, परंतु मानसून आने पर सावन के महीने में भैया बुलाने आए हैं। सावन में पति के साथ रहने का आनंद ही कुछ और है। पत्नी कहती है – भैया भोजन करें न करें मैं तो सावन में मैके नहीं जाऊंगी:
सोने के थाल में जेवना परोसल,
चाहे भैया खावत चाहे जात रे,
सवनवा में ना जइबो ननदी।
भोजपुरी लोक-साहित्य के जनकवि भिखारी ठाकुर ने ‘विदेसिया’ नाटक लिखा है। इससे एक गीत की नायिका ने नायक को ‘विदेसिया’ संबोधित किया है। मानसून आने पर आम के पेड़ में टिकोला लग जाते हैं। अगर विदेसिया नायक नहीं आएगा तो अच्छा है कि जुल्मी हवा टिकोला को गिराकर नाश कर देः
आमवा मोजरि गइले लगले टिकोरवा रे
दिन पर दिन पियराला रे विदेसिया
एक दिन अइहें रामा जुलमी बयरिया रे
डार पात जइहें नसाई रे विदेसिया।
‘कजली’ सावन का सौंदर्यमय नृत्यगीत है परंतु भोजपुरी नायिका अकेले कैसे जाएगी, बादल घिर रहे हैः
कइसे खेले जाइब सावन में कजरिया,
बदरिया घिरे आइल ननदी।
घर से निकसी अकेली, संग में एको न सहेली,
गुंडा रोकि लेले बिचहीं डगरिया।
बदरिया घिरि आईल ननदी।
वास्तव में लोक-गीतों का ह्रदय से जन्म हुआ है और ये लोक-गीत जन-जन के हृदय में रचने-बसने को लालायित हैं। यही इनकी विशिष्टता है।
इस तरह लोक साहित्य भी मानसन से प्रभावित होकर सांस्कृतिक धरोहर के रूप में वाचिक परंपरा के माध्यम से विकसित होता है। इसमें स्वाभाविक लय, सौंदर्य और माधुर्य मिश्रित है। लोक साहित्य व्याकरण और शिष्टता के बंधन को भले ही तोड़ दे, सामाजिक जीवन की अभिव्यक्ति का सशक्त माध्यम बना रहना ही इसकी विशिष्टता है। यह निरालंकार होकर भी प्राणमय तथा रसयुक्त है। मानसून इसके उद्दीपन का कार्य करता है।
(लेखक साहित्यकार हैं)
आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने ‘लोक’ की विशेषता के संबंध में लिखा है – “लोक शब्द का अर्थ जनपद या ग्राम्य नहीं है, बल्कि नगरों या ग्रामों में फैली हुई समूची जनता है जिसके व्यावहारिक ज्ञान का आधार पोथियां नहीं है। ये लोग नगर में रहने वाले परिष्कृत रुचि संपन्न तथा सुसंस्कृत समझे जाने वाले लोगों की अपेक्षा अति सरल और अकृत्रिम जीवन के अभ्यस्त होते हैं। परिष्कृत रुचि वाले लोगों की समूची विलासिता और सुकुमारिता को जीवित रखने के लिए जो भी वस्तुएं आवश्यक होती हैं, उनको उत्पन्न करते हैं।” (जनपद, अंक 1952, पृ. 65)
‘लोक’ लोक जीवन के उस वर्ग का प्रतिनिधित्व करते हैं जो अपनी प्राचीन मान्यताओं, विश्वासों और परंपराओं के प्रति आस्थावान है। लोक – साहित्य मूलतः लोक की मौखिक अभिव्यक्ति है जो संपूर्ण जीवन का नेतृत्व करती है। लोक जीवन की अभिव्यक्ति को वाणी देना ही लोक साहित्य है। इसकी निम्नांकित विधाएं हैं:
लोक-गीत, लोक-कथा, लोक-नाट्य, लोक-भाषा और लोक-सुभाषित।
मानसून का प्रभाव केवल भारतीय कृषि व्यवस्था, उद्योग और वातावरण पर ही नहीं पड़ता अपितु भारतीय लोक-साहित्य पर भी पड़ता है। मानसून आने पर केवल दादुर ही नहीं टरटराते, मोर ही नहीं नाचते बल्कि भारतीय कृषक, युवक-युवतियां सभी उल्लासमय होकर नाचने-गाने लगती हैं, झूमने लगते हैं। इस आनंद को, इस सपने को लोग झूमर, झूला, कजली, बारहमासा आदि लोग-गीतों तथा जट-जटिन इत्यादि लोक नाटिका में अपनी वाणी देते हैं। फिर यह वाणी ‘श्रुति-परंपरा’ का अनुसरण करते हुए कंठ-कंठ से होकर समाज में व्याप्त हो जाती है। इन गीतों में स्वाभाविकता, सरलता, सहजता और स्वच्छता के गुणों का समावेश होता है।
संस्कृत, प्राकृत अपभ्रंश तथा हिंदी में अधिकतर ऋतु-वर्णन का प्रारंभ बसंत तथा चैतोत्सव से हुआ है। परंतु महाकवि कालिदास ने ऋतु वर्मन का प्रारंभ मानसून के पूर्व अर्थात ग्रीष्मकाल के बाद आकाश में उमड़े-घुमड़े आषाढ़ के प्रथम बादल से किया है। इस बादल को आधार मानकर ‘आम्रकूट’ का वर्णन किया गया है जो एक तरह से मानसून का स्वागत है। उन्होंने कहा कि अपनी मूसलाधार वर्षा से वनों में लगे दावानल को बुझाकर शांत कर देने वाले मेघ। तुम्हें थका देखकर यह ऊंची चोटी वाले आम्रकूट तुम्हें विश्राम देने के लिए अपने सिर पर धारण करेगा। साधारण व्यक्ति जब मित्रों के उपकारों को नहीं भूलता तो यह उच्च उदार पर्वत तुम जैसे परम हितैषी मित्रों के स्वागत में कोई कमी रहने देगा?
त्वमासार-प्रशमित वनोपल्लवं साधु-मूर्ध्ना।
वक्ष्मत्पध्वश्रमपरिगतं सानुमान् आम्रकूट।।
न क्षुद्रोदपि प्रथम-सुकृतापेक्षपया संश्रयाम।
प्राप्ते मित्रे भवति विमुखः कि पुनर्मस्तथोच्चैः।।
(मेघदूत-17)
बज्जिका भाषा के साहित्यकार डॉ. ब्रजनंदन वर्मा ने भी अपने लोक-गीत में प्रथम आषाढ़ का वर्णन किया है:
ताबा सन धीपल धरती के, खेत पथार भींजाने आएल।
पहिल आसाढ़ में मेघों बरसल, मनमा ओकर जुरावे आएल।।
टिपरि-टिपरि ओरियानी चूए, दूरा पर मोती छितराएला।
एन्ने-ओन्ने जेने ताकू, दाहर सन सगरो बुझाएला।।
(तपत धरती सहमल गांओ)
हिंदी में आषाढ़-सावन का महीना और अंग्रेजी में जून-जुलाई का महीना मानसून का समय होता है। दक्षिण भारत में मानसून का आगमन पहले होता है।
वर्ष को तीन, छह या बारह भागों में बांटकर प्रत्येक मास के निजी सौंदर्य के विशिष्ट वर्णन की शैली को बारहमासा कहते हैं। बारहमासा की परंपरा सभी लोक – भाषाओं में आई है। लोक-नारी की प्राकृतिक स्थितियों के परिप्रेक्ष्य में विरहावस्था की मनोदशाओं का वर्णन सभी लोक-भाषाओं में सभी लोक-साहित्यकारों ने किया है।
विद्यापति ने एक बारहमासा आषाढ़ से प्रारंभ किया है जो मानसून का आगमन काल है। उनकी नायिका कहती है कि “आषाढ़ मास आ गया है। सर्वत्र मेघ छाए हुए हैं किंतु मैं विरहिणी प्रियतम के वियोग के कारण निराश्रित हो गई हूं।” फिर श्रावण आने पर उनकी नायिका कहती है कि “मेघ मूसलाधार वर्षा कर रहे हैं। अंधेरी रात के कारण मार्ग भी दिखाई नहीं पड़ता तथा चारों ओर बिजली की रेखा दिखाई पड़ती है जिससे विरहणियों का जीवित रहना असंभव – सा हो गया है। भादो भी आ गया है। घनघोर घटाओं में प्रचुर मात्रा में वर्षा हो रही है। चारों ओर मोर और दादुर (मेंढक) शोर मचा रहे हैं। कामिनियां प्रियतम की गोद में छिप गई हैं। परंतु वियोगिनी के भाग्य में वह सुख कहां।”
माह आसाढ़ उनत नव मेघ, पिया विसलेख रहओं निरपेघ।
कोन पुरुष सखि कोन से देस, करब मोयें तहां जोगिनी भेस।।
साओन मास बरसि घन बारि, पंथ न सूझे निसि अधिआरि।
चौदसि देखए बिजुरि रेह, से सखि कामिनी जीवन संदेह।।
भादव मास बरसि घनघोर सभ दिसि कुहकए दादुर-मोर।
चेहुंकि चेहुंकि पिया छोर समाए, गुनमति सूतल अंक लगाए।
लोक साहित्य किसी भाषा और संस्कृति का जीवंत साहित्य होता है। मिथिलांचल, बज्जिकांचल और अंगिकांचल में मानसून के स्वागत में तरह-तरह के खेल, नृत्य एवं नाटिकाएं होती हैं।
मिथिलांचल और बज्जिकांचल में एक लघु लोक नाटिका होती है। महिलाएं मेंढक पकड़ती है। मेंढक को बेंग कहा जाता है। उसे उखल में रखकर मूसल से मारा जाता है। फिर उस मरे मेंढक को पड़ोसन के घर फेंक दिया जता है। कहीं-कहीं मटका या घड़ा में गोबर घोलकर पड़ोसन के घर फोड़ा जाता है। यह लोक विश्वास है कि पड़ोसन जितनी गालियां बकेगी, उस वर्ष उतनी ही अधिक वर्षा होगी।
मानसून के आह्वान करने वाले एक गीत की बानगी देखिएः
हाली-हाली बरसू हे इनर देवता।
पानी बिना पड़इअ अकाल हो राम।।
फलना बाबू के यहां कोठी भरण है धान।
फलना बाबू कोठीओ न खेलैअ हो राम।।
भूखे धिया-पूता कलमल करैइअ।
पानी बिन पड़इअ अकाल हो राम।।
मानसून आने के समय बज्जिकांचल या मिथिलांचल में अनुष्ठान के रूप में एक लोक नाटिका होती है – जट-जटिन नाटिका। मैथिली, अंगिका तथा बज्जिका में शब्दों के कुछ अंतर के सथ ये गीत गाए जाते हैं। मनोरंजन के ख्याल से इन लोक-गीतों में हास, उल्लास, व्यंग्य, उपालंभ आदि को जोड़ दिया जाता है।
जट विदेश जाना चाहता है, परंतु मानसून आने वाले है। जटिन मानसून की कल्पना मात्र से कामोद्दीप्त हो जाती है, जट लालच देता है। आभूषण महिलाओं की कमजोरी होती है परंतु जटिन मानने को तैयार नहीं।
जट कहता हैः
जाए देहि गे जटिन देस रे विदेस।
तोरा लागि लाएब जटिन हंसुलि सनेस।।
जटिन विरोध के स्वर में कहती है :गला के हंसुली जटा तरवा के धुलिया।
घर ही रहू जटा नयना के हुजूर।।
जट नहीं मानता। विदेश चला जाता है। फिर जब कमाकर आता है तो जटिन क्रोधवश मायके चली जाती है। जट अकेला हो जाता है और विरहाग्नि में जलते हुए कहता है कि सेज बहुत दिनों से खाली पड़ी थी और मकड़ी ने सेज पर अंडा-बच्चा दे दिया हैः
तोरे बिनु महल उदास भेलै गे जटिन,
सेजिया पर मकड़ा बिअएलै गे जटिन।
एक कांगड़ी बारहमासा का आनंद लेः नायिका कहती है कि आषाढ़ मास में मीठे आमों की बहार थी, आप परदेस थे, आपके बिना एक भी आम चखकर नहीं देखा। सावन आने पर सखियों ने झूले डाले, परंतु आपके परदेस रहने पर मैंने उनकी एक भी हिलोरे नहीं ली। भादो मास की अंधेरी रातें, जिनके प्रियतम घर पर थे, उन्होंने दीपक जलाए परंतु आपके बिना मैंने अंधेरी रातें अंधेरे में ही काटीः
हाड़ मासे अम्ब जे पक्के,
तुसां रेह परदेस, असां तोड़ निचक्खे।
लैरे महीने पींघ पईयां,
तुसां रेह परदेस, असां झूठ निलेया।
काले महीने नोरियां राती,
जिन्हा के घर ढोल, तिन्हां दीपक बाले,
तुसां रेह परदेस, असां न्हेरे रातीं कटियां
(झूमे धरती गाए लोक)
आदिवासी उरांव की आसाढ़ी करमा गीत का सौंदर्य देखेः
जशपुर में बिजली चमकी, पानी की धाराएं बह चली।
खेत पानी से भर गए, किसान हल जोतने निकले
सांपों ने बिल छोड़ा, मेढ़कों ने गीत गाए।
मानसून आने पर बागों में आम के पेड़ों पर टिकोले लगते हैं और हिंडोला भी लगाया जाता है। अंगिका में एक जूला गीत देखेः
बाबा के बगीचवा में अमुवां लगैलिये,
अमुवां के डाली लहरायै हो रामा।।
वही के बगीचवा में लागले हिंडोलवा,
डाली, पाती कोइली पुकारे हो रामा।।
लोकगीतों में कल्पना भी अपनी सीमा तोड़ देती है। लोकगीतों में साज-सज्जा, बुनावट व्याकरण का कसाव, छंद-अलंकार प्रयोग नहीं होता है। परंतु लोकगीत एक अल्हड़ नव यौवना की तरह अपना सौंदर्य छलकाते हैं।
मानसून के काले बादल को देखकर यौवना कहती है कि जहां मेरे पिया हैं, वहीं जाकर बरसना, मुझे क्यों तड़पाते और तरसाते हो :
‘अरे-अरे कारी बदरिया तुह मोरि बादरि।
बादरि जाइ बरसहू वहिं देस, जहां प्रिय हो छाये।’
सावन का महीना है और पति नहीं आए।
पत्नि विरह में तड़पती है :
अरी मेरी बहना, सावन सूनौ जाए,
वीरन नहीं आए लैन कूं।
वैन पपईयां पीउ-पीउ रट रइयौ,
अरि मेरी बहना! मोर बजावत सोर।
वीरन नहीं आए लैने कूं।
स्व. रामवृक्ष बेनीपुरी की पुत्री तथा पूर्व प्राचार्य डॉ. प्रभा बेनीपुरी ने अपने बज्जिका गीत में मानसून के आने पर विरह-व्यथा का वर्णन किया है।
पगला बादल बरस रहल हए
रिमझिम रिमझिम बूंद पड़इअ
नएना तरस रहल हए
की जानू काहे भीजल हए
नभ के नयना कोर।
विह गीत की एक औस बानगी देखियेः
हए निष्ठुर वेदना विकल
डब डब आंख करईअ
तोरा बिनु तड़ मउअत बेहतर
जीवन तरस रहल हए।
(बज्जिकालोक, अंक 2010)
भोजपुरी लोकगीत में पति पर पत्नी सर्वाधिकार नहीं रखना चाहती पति किसी का पुत्र, किसी का भैया भी है – मेरा तो पति है ही। मानसून आने पर बगीचा में आम के फल लटके हैं परंतु पत्नी को विश्वास है कि मेरे पति के सिवा उसे दूसरा कोई नहीं तोड़ सकता।
आम फरे अमरैया, हिंकोला कोई तोड़े न पावे हो।
तोड़ ननद जी के भैया, दोसर कोई तोड़े न पावे हो।।
महिलाएं मायके जाने के लिए सदैव तत्पर रहती हैं, परंतु मानसून आने पर सावन के महीने में भैया बुलाने आए हैं। सावन में पति के साथ रहने का आनंद ही कुछ और है। पत्नी कहती है – भैया भोजन करें न करें मैं तो सावन में मैके नहीं जाऊंगी:
सोने के थाल में जेवना परोसल,
चाहे भैया खावत चाहे जात रे,
सवनवा में ना जइबो ननदी।
भोजपुरी लोक-साहित्य के जनकवि भिखारी ठाकुर ने ‘विदेसिया’ नाटक लिखा है। इससे एक गीत की नायिका ने नायक को ‘विदेसिया’ संबोधित किया है। मानसून आने पर आम के पेड़ में टिकोला लग जाते हैं। अगर विदेसिया नायक नहीं आएगा तो अच्छा है कि जुल्मी हवा टिकोला को गिराकर नाश कर देः
आमवा मोजरि गइले लगले टिकोरवा रे
दिन पर दिन पियराला रे विदेसिया
एक दिन अइहें रामा जुलमी बयरिया रे
डार पात जइहें नसाई रे विदेसिया।
‘कजली’ सावन का सौंदर्यमय नृत्यगीत है परंतु भोजपुरी नायिका अकेले कैसे जाएगी, बादल घिर रहे हैः
कइसे खेले जाइब सावन में कजरिया,
बदरिया घिरे आइल ननदी।
घर से निकसी अकेली, संग में एको न सहेली,
गुंडा रोकि लेले बिचहीं डगरिया।
बदरिया घिरि आईल ननदी।
वास्तव में लोक-गीतों का ह्रदय से जन्म हुआ है और ये लोक-गीत जन-जन के हृदय में रचने-बसने को लालायित हैं। यही इनकी विशिष्टता है।
इस तरह लोक साहित्य भी मानसन से प्रभावित होकर सांस्कृतिक धरोहर के रूप में वाचिक परंपरा के माध्यम से विकसित होता है। इसमें स्वाभाविक लय, सौंदर्य और माधुर्य मिश्रित है। लोक साहित्य व्याकरण और शिष्टता के बंधन को भले ही तोड़ दे, सामाजिक जीवन की अभिव्यक्ति का सशक्त माध्यम बना रहना ही इसकी विशिष्टता है। यह निरालंकार होकर भी प्राणमय तथा रसयुक्त है। मानसून इसके उद्दीपन का कार्य करता है।
(लेखक साहित्यकार हैं)
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