वर्ष 2014-15 के अन्तरिम बजट में किसान को कर्ज देने के लिए 8 लाख करोड़ रुपए का प्रावधान किया गया है, जो राष्ट्रीय बजट के 45 प्रतिशत के बराबर है। पूँजी केन्द्रित कारपोरेट खेती को बढ़ावा दे रही भारत सरकार ने किसान को बैंक का कर्ज पटाने वाला बँधुआ मजदूर बनाकर रख दिया है। घाटे का सौदा बना दी गई खेती से अब तक 1.5 करोड़ किसान पलायन कर चुके हैं और प्रतिदिन खेती छोड़ने वाले किसानों की संख्या 2 हजार से अधिक हो गई है। सरकारें, जो पूर्व में किसान को खाद्यान्न के समर्थन मूल्य में बोनस दिया करती थी, अब उन पर रोक लगा दी गई है। केन्द्रीय खुफिया विभाग द्वारा राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत कुमार डोवल को 19 दिसम्बर, 2014 को प्रस्तुत एक महत्वपूर्ण रिपोर्ट में जानकारी दी गई है कि पिछले कुछ महीनों में भारत में किसानों की आत्महत्या के मामले तेजी से बढ़े हैं। महाराष्ट्र, तेलंगाना, कर्नाटक और पंजाब राज्यों में यह तेजी देखी गई है। रिपोर्ट के अनुसार आत्महत्याओं के पीछे मुख्य कारण ऋण की अदायगी न कर पाना, कर्ज में वृद्धि, खाद्यान्न उत्पादन में कमी, खाद्यान्न के विक्रय मूल्य में कमी तथा फसल की लगातार बर्बादी है। इन सभी राज्यों में किसान मूलतः कपास और गन्ना जैसी नगदी फसलें उगाते हैं, जिसमें लागत बहुत अधिक आती है। इन राज्यों में किसान 24 से 50 प्रतिशत ब्याज पर निजी साहूकारों से ऋण लेते हैं, जिसे अदा करने की उनकी क्षमता नहीं होती।
राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो के अनुसार वर्ष 1995 से 2013 के दौरान 3 लाख से अधिक किसानों ने आत्महत्या की। इस दौरान मध्य प्रदेश में लगभग 28 हजार किसानों ने आत्महत्याएँ की और आत्महत्या करने वाले प्रति पाँच किसानों में एक महिला किसान होने का देशव्यापी रिकार्ड मध्य प्रदेश के खाते में दर्ज है।
भारत में किसानी के संकट के पीछे मुख्य रूप से तीन कारण हैं पहला खेती किसानी में लागत अधिक लगना और इसके अनुपात में मूल्य कम प्राप्त होना, दूसरा कृषि ऋण पर बैंककारी विनियमन अधिनियम की धारा -21(क) एवं तीसरा सकल घरेलू उत्पाद में कृषि क्षेत्र की हिस्सेदारी को निरन्तर घटाया जाना।
देश में सर्वाधिक रोजगार देने वाले कृषि क्षेत्र को विकास प्रक्रिया के केन्द्र में रखकर यदि उद्योगों को उसका सहायक बनाया जाएगा तभी राष्ट्र कृषि संकट से उबर सकता है। जबकि एक सोची-समझी नीति के तहत खेती किसानी में लागत निरन्तर बढ़ाई जा रही है और श्रम मूल्य को घटाया जा रहा है। इस प्रकार किसान को कर्ज लेकर खेती करने के लिए मजबूर कर उससे चक्रवृद्धि ब्याज वसूल कर उसे कर्ज के जाल में फंसा दिया जाता है। कर्ज लेने के बाद चक्रवृद्धि ब्याज के चक्कर में अदायगी राशि भी दो चार और सौ गुनी तक हो जाती है, जिसे लाचार किसान अपना खेत खलियान बेचकर भी नहीं चुका सकता। अन्ततः अपना आत्मसम्मान बचाने के लिए वह आत्महत्या कर लेता है।
किसानी के संकट के मूल में बैंककारी विनियमन अधिनियम की धारा-21(क) है, जो वर्ष 1918 में अंग्रेजी हुकूमत द्वारा साहूकारों पर अंकुश लगाने के लिए बनाए गए अति ब्याज उधार अधिनियम को बाधित करता है। इसके अनुसार किसी भी हालत में ब्याज की राशि मूलधन से ही अधिक नहीं वसूली जा सकती। अतः किसानों को राहत देने बैंककारी विनियमन अधिनियम धारा-21(क) को भूतलक्षी प्रभाव से समाप्त किया जाना चाहिए। बैंककारी विनियमन कानून में यह अन्यायपूर्ण धारा इन्दिरा गाँधी की कांग्रेस सरकार ने फरवरी, 1984 में जोड़ी थी।
1950-51 में भारत के सकल घरेलू उत्पाद में कृषि क्षेत्र की हिस्सेदारी 53.1 प्रतिशत थी जो वर्ष 2012-13 में घटकर मात्र 13 प्रतिशत रह गई। अटल बिहारी बाजपेयी की सरकार के कार्यकाल में योजना आयोग ने एक दृष्टिपत्र-2020 तैयार किया था। इसके अनुसार सन् 2020 में सकल घरेलू उत्पाद में खेती किसानी केे योगदान को घटाकर 6 प्रतिशत तक लाने का लक्ष्य रखा गया है। अर्थात् यूपीए और एनडीए में शामिल सभी राजनीतिक दल वर्ष 2020 में भारत के छोटे और सीमान्त किसानों को खेती से अलग करने की योजना पर अमल कर रहे हैं।
वर्ष 2014-15 के अन्तरिम बजट में किसान को कर्ज देने के लिए 8 लाख करोड़ रुपए का प्रावधान किया गया है, जो राष्ट्रीय बजट के 45 प्रतिशत के बराबर है। पूँजी केन्द्रित कारपोरेट खेती को बढ़ावा दे रही भारत सरकार ने किसान को बैंक का कर्ज पटाने वाला बँधुआ मजदूर बनाकर रख दिया है। घाटे का सौदा बना दी गई खेती से अब तक 1.5 करोड़ किसान पलायन कर चुके हैं और प्रतिदिन खेती छोड़ने वाले किसानों की संख्या 2 हजार से अधिक हो गई है।
सरकार खाद्यान्न के समर्थन मूल्य को जान बूझकर घटाकर किसानी को घाटे का सौदा बनाने पर आमादा है। अर्जुन सेनगुप्ता रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2005-06 में भारत में किसान की औसत प्रतिदिन आमदनी 14 रुपए मात्र थी। किसान को उड़ीसा में 6 रुपए और मध्य प्रदेश में 9 रुपए प्रतिदिन आमदनी होती है । डॉ. एम.एस. स्वामीनाथन की राष्ट्रीय किसान आयोग की रिपोर्ट में स्पष्ट लिखा है कि भारत के चालीस फीसदी किसान अब खेती छोड़ने को तत्पर हैं क्योंकि किसान को मिलने वाली खाद्यान्न की कीमत में 80 फीसदी लागत और मात्र 20 फीसदी उसका श्रम मूल्य होता है।
वर्ष 1960 में 10 ग्राम सोने का मूल्य 111 रुपए और एक क्विण्टल गेहूँ का दाम 41 रुपए था। आज 10 ग्राम सोने का मूल्य लगभग 30,000 रुपए और एक क्विण्टल गेहूँ का न्यूनतम समर्थन मूल्य 1,400 रुपए है। इसी प्रकार वर्ष 1960 में प्रथम श्रेणी शासकीय सेवक का जो वेतन था उसमें 6 क्विण्टल गेहूँ मिलता था। आज प्रथम श्रेणी शासकीय सेवक के एक माह के वेतन में 25 क्विण्टल गेहूँ मिलता है।
केन्द्रीय कृषि मन्त्रालय में एक भी अधिकारी ऐसा नहीं है, जिसने जीवन में कभी हल पकड़ा हो। भारत में कृषि की नीतियाँ बनाने वाला वर्ग किसानी की वास्तविकता से अनभिज्ञ है और वह एग्री-बिजनेस को बढ़ावा देने में लगा है।
नतीजा यह है कि किसान दिन-ब-दिन कंगाल हो रहा है और किसान के साथ धंधा करने वाला व्यापारी और कम्पनियाँ मालामाल हो रही हैं और सरकार कारपोरेट खेती को प्रोत्साहन देने का काम कर रही है। किसान के हाथ से जमीन निकलती जा रही है और वह भूमिहीन खेत मजदूर बनता जा रहा है।
सरकार की एक ताजा रिपोर्ट के अनुसार भारत में 60 प्रतिशत आबादी का देश की कुल खेतिहार भूमि के केवल 5 प्रतिशत पर अधिकार है जबकि 10 प्रतिशत जनसंख्या का 55 प्रतिशत जमीन पर नियन्त्रण है।
भारतीय जनता पार्टी ने अपने चुनाव घोषणा पत्र में यह वादा किया था कि खाद्यान्न का समर्थन मूल्य उसकी लागत में 50 प्रतिशत श्रममूल्य जोड़कर तय किया जाएगा। मई, 2014 में राजग सरकार के गठन के बाद समर्थन मूल्य में पूर्व की तरह नाममात्र की बढ़ोतरी की गई तथा केन्द्र सरकार द्वारा एक फरमान जारी कर दिया गया कि जो राज्य सरकारें खाद्यान्न के समर्थन मूल्य में बोनस जोड़कर किसान से खाद्यान्न खरीदेंगी, उनसे भारतीय खाद्य निगम द्वारा अनाज नहीं खरीदा जाएगा।
इस प्रकार मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान की भारतीय जनता पार्टी की सरकारें, जो पूर्व में किसान को खाद्यान्न के समर्थन मूल्य में बोनस दिया करती थी, अब उन पर रोक लगा दी गई है। केन्द्र सरकार छोटे और सीमान्त किसानों से कृषि भूमि छुड़ाना चाहती हैं। इसलिए खाद्यान्न का समर्थन मूल्य इतना घटाया जा रहा है कि किसान खेती छोड़ दें और उसकी भूमि बैंकों के माध्यम से कारपोरेट को हस्तान्तरित कर दी जाए।
अतएव किसानी को खत्म करके कृषि कार्य को कारपोरेट घरानों को हस्तान्तरित करने की सभी राजनीतिक दलों की संविधान विरोधी नीति के विरुद्ध देश के किसान संगठनों को आन्दोलन चलाना चाहिए।
राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो के अनुसार वर्ष 1995 से 2013 के दौरान 3 लाख से अधिक किसानों ने आत्महत्या की। इस दौरान मध्य प्रदेश में लगभग 28 हजार किसानों ने आत्महत्याएँ की और आत्महत्या करने वाले प्रति पाँच किसानों में एक महिला किसान होने का देशव्यापी रिकार्ड मध्य प्रदेश के खाते में दर्ज है।
भारत में किसानी के संकट के पीछे मुख्य रूप से तीन कारण हैं पहला खेती किसानी में लागत अधिक लगना और इसके अनुपात में मूल्य कम प्राप्त होना, दूसरा कृषि ऋण पर बैंककारी विनियमन अधिनियम की धारा -21(क) एवं तीसरा सकल घरेलू उत्पाद में कृषि क्षेत्र की हिस्सेदारी को निरन्तर घटाया जाना।
देश में सर्वाधिक रोजगार देने वाले कृषि क्षेत्र को विकास प्रक्रिया के केन्द्र में रखकर यदि उद्योगों को उसका सहायक बनाया जाएगा तभी राष्ट्र कृषि संकट से उबर सकता है। जबकि एक सोची-समझी नीति के तहत खेती किसानी में लागत निरन्तर बढ़ाई जा रही है और श्रम मूल्य को घटाया जा रहा है। इस प्रकार किसान को कर्ज लेकर खेती करने के लिए मजबूर कर उससे चक्रवृद्धि ब्याज वसूल कर उसे कर्ज के जाल में फंसा दिया जाता है। कर्ज लेने के बाद चक्रवृद्धि ब्याज के चक्कर में अदायगी राशि भी दो चार और सौ गुनी तक हो जाती है, जिसे लाचार किसान अपना खेत खलियान बेचकर भी नहीं चुका सकता। अन्ततः अपना आत्मसम्मान बचाने के लिए वह आत्महत्या कर लेता है।
किसानी के संकट के मूल में बैंककारी विनियमन अधिनियम की धारा-21(क) है, जो वर्ष 1918 में अंग्रेजी हुकूमत द्वारा साहूकारों पर अंकुश लगाने के लिए बनाए गए अति ब्याज उधार अधिनियम को बाधित करता है। इसके अनुसार किसी भी हालत में ब्याज की राशि मूलधन से ही अधिक नहीं वसूली जा सकती। अतः किसानों को राहत देने बैंककारी विनियमन अधिनियम धारा-21(क) को भूतलक्षी प्रभाव से समाप्त किया जाना चाहिए। बैंककारी विनियमन कानून में यह अन्यायपूर्ण धारा इन्दिरा गाँधी की कांग्रेस सरकार ने फरवरी, 1984 में जोड़ी थी।
1950-51 में भारत के सकल घरेलू उत्पाद में कृषि क्षेत्र की हिस्सेदारी 53.1 प्रतिशत थी जो वर्ष 2012-13 में घटकर मात्र 13 प्रतिशत रह गई। अटल बिहारी बाजपेयी की सरकार के कार्यकाल में योजना आयोग ने एक दृष्टिपत्र-2020 तैयार किया था। इसके अनुसार सन् 2020 में सकल घरेलू उत्पाद में खेती किसानी केे योगदान को घटाकर 6 प्रतिशत तक लाने का लक्ष्य रखा गया है। अर्थात् यूपीए और एनडीए में शामिल सभी राजनीतिक दल वर्ष 2020 में भारत के छोटे और सीमान्त किसानों को खेती से अलग करने की योजना पर अमल कर रहे हैं।
वर्ष 2014-15 के अन्तरिम बजट में किसान को कर्ज देने के लिए 8 लाख करोड़ रुपए का प्रावधान किया गया है, जो राष्ट्रीय बजट के 45 प्रतिशत के बराबर है। पूँजी केन्द्रित कारपोरेट खेती को बढ़ावा दे रही भारत सरकार ने किसान को बैंक का कर्ज पटाने वाला बँधुआ मजदूर बनाकर रख दिया है। घाटे का सौदा बना दी गई खेती से अब तक 1.5 करोड़ किसान पलायन कर चुके हैं और प्रतिदिन खेती छोड़ने वाले किसानों की संख्या 2 हजार से अधिक हो गई है।
सरकार खाद्यान्न के समर्थन मूल्य को जान बूझकर घटाकर किसानी को घाटे का सौदा बनाने पर आमादा है। अर्जुन सेनगुप्ता रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2005-06 में भारत में किसान की औसत प्रतिदिन आमदनी 14 रुपए मात्र थी। किसान को उड़ीसा में 6 रुपए और मध्य प्रदेश में 9 रुपए प्रतिदिन आमदनी होती है । डॉ. एम.एस. स्वामीनाथन की राष्ट्रीय किसान आयोग की रिपोर्ट में स्पष्ट लिखा है कि भारत के चालीस फीसदी किसान अब खेती छोड़ने को तत्पर हैं क्योंकि किसान को मिलने वाली खाद्यान्न की कीमत में 80 फीसदी लागत और मात्र 20 फीसदी उसका श्रम मूल्य होता है।
वर्ष 1960 में 10 ग्राम सोने का मूल्य 111 रुपए और एक क्विण्टल गेहूँ का दाम 41 रुपए था। आज 10 ग्राम सोने का मूल्य लगभग 30,000 रुपए और एक क्विण्टल गेहूँ का न्यूनतम समर्थन मूल्य 1,400 रुपए है। इसी प्रकार वर्ष 1960 में प्रथम श्रेणी शासकीय सेवक का जो वेतन था उसमें 6 क्विण्टल गेहूँ मिलता था। आज प्रथम श्रेणी शासकीय सेवक के एक माह के वेतन में 25 क्विण्टल गेहूँ मिलता है।
केन्द्रीय कृषि मन्त्रालय में एक भी अधिकारी ऐसा नहीं है, जिसने जीवन में कभी हल पकड़ा हो। भारत में कृषि की नीतियाँ बनाने वाला वर्ग किसानी की वास्तविकता से अनभिज्ञ है और वह एग्री-बिजनेस को बढ़ावा देने में लगा है।
नतीजा यह है कि किसान दिन-ब-दिन कंगाल हो रहा है और किसान के साथ धंधा करने वाला व्यापारी और कम्पनियाँ मालामाल हो रही हैं और सरकार कारपोरेट खेती को प्रोत्साहन देने का काम कर रही है। किसान के हाथ से जमीन निकलती जा रही है और वह भूमिहीन खेत मजदूर बनता जा रहा है।
सरकार की एक ताजा रिपोर्ट के अनुसार भारत में 60 प्रतिशत आबादी का देश की कुल खेतिहार भूमि के केवल 5 प्रतिशत पर अधिकार है जबकि 10 प्रतिशत जनसंख्या का 55 प्रतिशत जमीन पर नियन्त्रण है।
भारतीय जनता पार्टी ने अपने चुनाव घोषणा पत्र में यह वादा किया था कि खाद्यान्न का समर्थन मूल्य उसकी लागत में 50 प्रतिशत श्रममूल्य जोड़कर तय किया जाएगा। मई, 2014 में राजग सरकार के गठन के बाद समर्थन मूल्य में पूर्व की तरह नाममात्र की बढ़ोतरी की गई तथा केन्द्र सरकार द्वारा एक फरमान जारी कर दिया गया कि जो राज्य सरकारें खाद्यान्न के समर्थन मूल्य में बोनस जोड़कर किसान से खाद्यान्न खरीदेंगी, उनसे भारतीय खाद्य निगम द्वारा अनाज नहीं खरीदा जाएगा।
इस प्रकार मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान की भारतीय जनता पार्टी की सरकारें, जो पूर्व में किसान को खाद्यान्न के समर्थन मूल्य में बोनस दिया करती थी, अब उन पर रोक लगा दी गई है। केन्द्र सरकार छोटे और सीमान्त किसानों से कृषि भूमि छुड़ाना चाहती हैं। इसलिए खाद्यान्न का समर्थन मूल्य इतना घटाया जा रहा है कि किसान खेती छोड़ दें और उसकी भूमि बैंकों के माध्यम से कारपोरेट को हस्तान्तरित कर दी जाए।
अतएव किसानी को खत्म करके कृषि कार्य को कारपोरेट घरानों को हस्तान्तरित करने की सभी राजनीतिक दलों की संविधान विरोधी नीति के विरुद्ध देश के किसान संगठनों को आन्दोलन चलाना चाहिए।
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Post By: Shivendra