भारतीय कृषि भविष्य की चुनौतियाँ


भारतीय कृषि के सामने जो चुनौतियाँ है, उनका गहराई से विश्लेषण करते हुए लेखक का कहना है कि उनका सामना समेकित नीति/कार्यक्रम से ही किया जा सकता है। किसी एक या दो पहलुओं पर ही जोर देने से लक्ष्य की पूर्ति अधूरी रह सकती है।

कृषि भारतीय अर्थव्यवस्था का मुख्य आधार रहा है और अब भी है। इसे सिर्फ सकल घरेलू उत्पाद में कृषि क्षेत्र के योगदान के रूप में ही नहीं देखा जाना चाहिए बल्कि कृषि पर बड़ी संख्या में लोगों की निर्भरता और औद्योगिकीकरण में कृषि क्षेत्र की भूमिका के रूप में भी देखा जाना चाहिए। देश में कई महत्त्वपूर्ण उद्योग कृषि उत्पाद (उपज) पर निर्भर हैं जैसे कि वस्त्र उद्योग, चीनी उद्योग या फिर लघु व ग्रामीण उद्योग, जिनके अंतर्गत तेल मिलें, दाल मिलें, आटा मिलें और बेकरी आदि आते हैं।

आजादी के बाद से भारतीय कृषि ने काफी बढ़िया काम किया है। वर्ष 1950-51 में खाद्यान्न उत्पादन 5.083 करोड़ टन था जो 1990-91 में बढ़कर 17.6 करोड़ टन हो गया। इस प्रकार खाद्यान्न उत्पादन में लगभग 350 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की गयी। तिलहन, कपास और गन्ने के उत्पादन में भी इसी प्रकार की वृद्धि दर्ज की गई है। परिणामस्वरूप, जनसंख्या में भारी वृद्धि होने के बावजूद अनेक कृषि जिन्सों की प्रति व्यक्ति उपलब्धता में सुधार आया है। विकास प्रक्रिया की एक महत्त्वपूर्ण विशेषता यह है कि इस बात का प्रमाण हमें इस तथ्य से पता चलता है कि हाल के वर्षों में सूखे वाले वर्ष में खाद्यान्न उत्पादन और उससे पहले के अधिक उत्पादन वाले वर्ष के खाद्यान्न का अंतर, पचास और साठ के दशकों की तुलना में कम है। अब हमें कुपोषण या अल्प-पोषण की वजह से अकाल व महामारी जैसी स्थितियों का सामना नहीं करना पड़ता है जैसा कि सदी के आरम्भिक दौर में करना पड़ता था।

मुख्य रूप से सिंचाई सुविधाओं के विस्तार की बदौलत यह स्थिति आई है। इस समय कुल बुआई क्षेत्र के 32 प्रतिशत हिस्से में सिंचाई सुविधाएँ उपलब्ध हैं। कृषि विकास की प्रक्रिया में बड़ी संख्या में किसानों द्वारा आधुनिक तौर तरीके अपनाया जाना और सरकारी निजी व सहकारी क्षेत्रों में किसानों की आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए संस्थानों के जाल बिछाने से भी मदद मिली है।

चुनौतियाँ


फिर भी, भारतीय कृषि के सामने न सिर्फ अपने मामले में बल्कि समग्र आर्थिक स्थिति के एक हिस्से के रूप में भी अनेक बड़ी चुनौतियाँ हैं। यहाँ इस बात को ध्यान में रखा जाना चाहिए कि भारतीय कृषि अर्थव्यवस्था, अर्थव्यवस्था के अन्य क्षेत्रों से महत्त्वपूर्ण रूप से जुड़ी हुई है। और अर्थव्यवस्था दूसरे क्षेत्रों को प्रभावित करती है तथा उनसे प्रभावित होती है। कृषि अर्थव्यवस्था के अस्तित्व को अब समग्र आर्थिक स्थिति के बाहर देखना संभव नहीं है। ऐसा इसलिये है क्योंकि विभिन्न क्षेत्रों में कृषि बाजार एक दूसरे से जुड़ते जा रहे हैं। कृषि के आधुनिकीकरण से अभिप्राय आदानों पर बढ़ती निर्भरता से भी है। यह निर्भरता सिर्फ स्थानीय रूप से उपलब्ध आदानों तक ही सीमित नहीं है बल्कि औद्योगिक क्षेत्रों के उत्पादनों पर भी है जैसे रसायन उद्योग, आटोमोबाइल मशीन निर्माण से जुड़े उद्योग आदि। इस क्रम (प्रक्रिया) में देश में कृषि का विकास कोई विलक्षण बात नहीं है बल्कि कमोवेश वैसी ही प्रवृत्ति की तरह है जैसी यह विश्व के अन्य हिस्सों, विशेषकर विकसित देशों मे देखी गई है। इस प्रकार जब हम भारतीय कृषि की चुनौतियों पर दृष्टिपात करते हैं तो पाते हैं कि कुछ चुनौतियाँ स्वयं उस (कृषि) क्षेत्र के लिये विशिष्ट हैं जबकि अन्य चुनौतियाँ कमोवेश बाकी सभी आर्थिक गतिविधियों में समान है।

देश के सामाजिक-आर्थिक विकास प्रक्रिया क्रम में जो बड़ी चुनौतियाँ हैं, उन पर नीचे विचार किया गया हैः

रोजगारः- भारतीय अर्थव्यवस्था की प्रगति के बावजूद हम बेरोजगारी अथवा अल्प रोजगार जैसी बड़ी समस्या के समाधान के आस-पास भी नहीं हैं। अन्य देशों की तुलना में भारतीय श्रमिकों की गतिशीलता कहीं अधिक सीमित है। इस वजह से कृषि कार्यकलापों के प्रभावी संचालन में जिस प्रकार की दक्ष श्रम-शक्ति की जरूरत पड़ती है उसमें कमी और अधिकता के रूप में असंतुलन पैदा होता है। रोटी, कपड़ा और मकान के अलावा राष्ट्रीय कल्याण की किसी भी कोशिश में प्रत्येक को लाभदायक रोजगार मुहैया कराना एक आवश्यक और महत्त्वपूर्ण बात है। सामाजिक-आर्थिक व्यवसाय में रोजगार न सिर्फ समाज में सद्भाव व भाईचारे को बनाए रखने के लिये महत्त्वपूर्ण हैं बल्कि व्यक्ति के विकास के लिये भी आवश्यक है। आज हमारे सामने जो चुनौती है, वह यह है कि क्या अर्थव्यवस्था में रोजगार के अवसर पैदा हो सकें हैं? इस क्षेत्र में अनेक मुद्दों पर विचार करने की जरूरत है। व्यवसाय संतोषप्रद हो, रहन-सहन के स्तर में सुधार सुनिश्चित करने वाली आय हो, अपने काम में विकास के साथ दक्षता प्राप्त करने और प्रगति का अवसर हो, ये सभी महत्त्वपूर्ण बातें हैं।

विकासः- देश के सामने दूसरी बड़ी चुनौती यह है कि विकास की गति इतनी अधिक नहीं है कि वह अधिक संपत्ति पैदाकर सकें और और न्याय संगत वितरण के जरिए बेहतर जीवन स्तर उपलब्ध करा सके। देश की जनसंख्या अस्सी के दशक में भी 2.1 प्रतिशत से भी अधिक की दर से बढ़ने और आने वाले वर्षों में इसमें कोई नाटकीय कमी नहीं होने की सम्भावना होने से देशवासियों के सामान्य कल्याण को सुनिश्चित करने के लिये अर्थव्यवस्था का विकास त्वरित गति से होना जरूरी है।

निर्वहन योग्य विकासः- तीसरा महत्त्वपूर्ण प्रश्न हमारे सामने यह है कि हमने जो विकास प्रक्रिया तय की है, क्या वह निर्वहन योग्य है? यह मुद्दा, हमारी उस कुशलता से बहुत अधिक जुड़ा है, जिससे हम प्राकृतिक साधनों का उपयोग करते हैं। साधनों का बड़े पैमाने पर दुरुपयोग होने से केवल वर्तमान पीढ़ी को ही नुकसान नहीं होगा, उससे कहीं अधिक नुकसान आने वाली पीढ़ियों को होगा। विज्ञान और टेक्नोलॉजी ने पहले भी मानव जाति की समस्याओं का समाधान दिया है। हमारे समाज के सामने प्रश्न यह है कि क्या हम अपने प्राकृतिक साधनों के उपयोग में किफायत बरतते हैं और आवश्यक सर्वांगीण जागरूकता के कारण क्या हम उनकी बर्बादी और दुरुपयोग रोक सकते हैं। उपयोग में कुशलता के बहुआयामी पक्ष हैं। बेहतर कुशलता का निहित उद्देश्य साधनों के उपयोग के स्तर से समाज के लिये अधिक संपत्ति पैदा करना है, या दूसरे शब्दों में पूँजी-निवेश पर बेहतर लाभ पाना है। पर्यावरण संरक्षण और पारिस्थितिकी संतुलन के दृष्टिकोण से ये बातें अत्यधिक महत्त्वपूर्ण हो गई है। इन पहलुओं पर पूरी अर्थव्यवस्था के लिये ही नहीं, बल्कि विशेषकर कृषि के लिये विचार करने की जरूरत है।

मांग


अक्सर यह कहा जाता है कि विज्ञान और प्रौद्योगिकी में हुई प्रगति की वजह से विश्व के विभिन्न समाज एक दूसरे के और अधिक निकट आ गए हैं तथा पृथ्वी एक विश्वव्यापी गाँव का रूप तेजी से लेती जा रही है। अधिकाधिक जीवन पद्धतियाँ विश्वव्यापी रूप धारण करती जा रही हैं। मानव की आवश्यकताएं और आकांक्षाएं समान होती जा रही हैं। इस परिप्रेक्ष्य में यह ध्यान में रखना चाहिए कि ऐसे समाज का निर्माण बहुत कठिन है जो अन्य सभी समाजों से बिल्कुल अलग हो। विभिन्न समाजों का आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक दर्शन कुछ मानदंडों व नियमों की तरफ अभिमुख होता नजर आता है।

इसके परिणामस्वरूप ऐसी परिस्थितियाँ पैदा होती है, जिनसे ऐसी वस्तुओं और सेवाओं के आयात की मांग होती है जो केवल देश में ही उत्पादित नहीं होती लेकिन उनकी मांग पैदा होती है और राज्य किसी एक या दूसरे तरीके से इन मांगों को पूरा करते हैं। ऐसी स्थिति में यह मान लिया जाता है कि देश उन संसाधनों का आयात करेगा जो स्थानीय स्तर पर उत्पादित नहीं किए जाते हैं अथवा समाज की मांग को पूरा करने के लिये पर्याप्त नहीं हैं। निर्यात और आयात में उचित संतुलन के बिना भुगतान संतुलन की समस्या का पैदा होना अवश्यंभावी है। ऐसी स्थिति में भारतीय अर्थव्यवस्था के विश्व अर्थव्यवस्था के साथ एकीकरण की तरफ ध्यान देना होगा और इस क्रम में निर्यात पर ज्यादा ध्यान देगा होगा। अतः अर्थव्यवस्था के सभी क्षेत्रों को इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिये सहायता देनी होगी और विशेषकर कृषि क्षेत्र को जिसकी निर्यात की क्षमता काफी अधिक हैं।

अर्थव्यवस्था के अन्य क्षेत्रों की भांति भारतीय कृषि को इस प्रकार की चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है। मोटे तौर पर ये चुनौतियाँ निम्नलिखित हैंः

1. खाद्य सुरक्षा बनाए रखने की देश की क्षमताः

2. सिर्फ जनसंख्या वृद्धि से उत्पन्न कृषिगत वस्तुओं की बढ़ती मांग को पूरा करने की क्षमता ही न हो बल्कि आय में वृद्धि से उत्पन्न बढ़ती मांग को पूरा करने की क्षमता भी हो। साथ ही समाज के उन तबकों की कृषिगत जरूरतों को पूरा करना जिनके पास पहले क्रय शक्ति कम थी।

3. सकल घरेलू उत्पाद में द्वितीयक और सेवा क्षेत्र के महत्त्वपूर्ण योगदान के बावजूद कृषि पर निर्भर जनंसख्या में सापेक्षिक गिरावट बहुत कम रही है। कृषि पर ग्रामीण जनसंख्या की निर्भरता में कमी का अनुपात मात्र 17 प्रतिशत रहा है अर्थात 80 प्रतिशत से घटकर 63 प्रतिशत रह गया है। अतः ग्रामीण क्षेत्र में बेरोजगारी और अल्प रोजगार की समस्या ज्यादा गम्भीर है। कृषि पर ज्यादा बड़ी जनसंख्या की निर्भरता का मतलब है कि हो सकता है, ग्रामीण इलाके में प्रति व्यक्ति आधारपर आय में वृद्धि अन्य क्षेत्रों में हो रही वृद्धि से मेल नहीं खाती हो, इसका शिक्षा, स्वास्थ्य जैसी अनेक सुविधाएँ पाने पर असर पड़ता है। परिणामस्वरूप इससे सामाजिक तनाव पैदा होता है सिर्फ न्याय संगत आय के पुनर्वितरण मात्र के प्रयासों का अर्थ होगा, सभी वर्गों को निर्बल बनाना। साथ ही, इसका प्रभाव प्रतिकूल हो सकता है।

4. पिछले कई वर्षों से कृषि जोतों का औसत आकार घटा है और साथ ही जोतों के छोटे-छोटे टुकड़ों के बंटने की समस्या भी पैदा होती है। खेती से जुड़ा एक बड़ा तबका अलाभकर जोतों पर निर्भर रहने के लिये बाध्य है। अधिकांश छोटे व सीमांत किसान अधिक उत्पादकता वाली प्रौद्योगिकी को अपनाने की स्थिति में नहीं है। और वे अपनी ही जमीन पर खेती के काम-काज के वास्ते जीवन-यापन के लिये अनियत मजदूरी करने को बाध्य हैं। इस सम्बंध में छोटे व सीमांत किसानों को उनकी छोटी व सीमित जोत में बागवानी, पशुपालन जैसे अधिक आय देने वाले उद्यमों के लिये सहायता देकर देखा जाना चाहिए। दूसरा, हमें आर्थिक रूप से व्यवहार्य कृषि जोतों के न्यूनतम आकार को प्रोत्साहित करने की आवश्यकता पर विचार करना चाहिए। जिन चुनौतियों का हम सामना कर रहे हैं उन पर गम्भीरतापूर्वक विचार करने की जरूरत है कि क्या कृषि क्षेत्र के विकास के लिये पचास के दशक में अपनाया गया दर्शन (नीति) आज भी उतना ही महत्त्वपूर्ण है?

5. भारतीय कृषि को विशेषकर नब्बे के दशक में जिस बड़ी चुनौती का सामना करना पड़ रहा है। वह है कृषि में पूँजी निर्माण और निवेश में वृद्धि की आवश्यकता। अस्सी के दशक में निवेश में सापेक्षिक निष्क्रियता आ गई थी इससे हमारे उत्पादन और उत्पादकता में सुधार लाने की क्षमता प्रभावित होती है। कृषि में सार्वजनिक क्षेत्र का निवेश, निजी क्षेत्र के निवेश के लिये कुछ हद तक उत्प्रेरक का काम कर सकता है। उदाहरण के लिये सिंचाई सुविधाओं की व्यवस्था के परिणामस्वरूप भूमि विकास पर निवेश होगा और इससे भूसम्पत्ती में वृद्धि होगी। सिंचाई, खेती और फसल बुआई में भी महत्त्वपूर्ण परिवर्तन ला सकता है। फलस्वरूप किसानों को फलों के बगान लगाने, डेरी के लिये आवश्यक मशीनों की स्थापना और मुर्गी पालन जैसी अधिक उत्पादक परिसम्पत्तियों में निवेश करने की जरूरत होगी। निवेश से सम्बंधित एक महत्त्वपूर्ण मसला यह है कि क्या कृषि में परिसम्पत्ति निर्माण के लिये परिचालन लागत की तुलना में अर्जित सम्पत्ति पर्याप्त है।

यह तभी सम्भव होगा जब कृषि से किसानों को उनकी उपज से लाभदायक प्रतिफल प्राप्त हो और उसे निवेश के लिये अधिक पूँजी प्राप्त हो सके। बाजार व्यवस्थाओं को विकसित किया जाना चाहिए ताकि किसानों को ऊँची कीमत मिल सके और उनके प्रयासों का उचित प्रतिफल मिल सके। साथ ही वे चालू खर्चों और परिचालन लागत की पूर्ति हेतु निवेश कर सकें। इस समस्या का एक आयाम यह है कि कृषि उत्पादन से लेकर अंतिम उपभोक्ता तक पहुँचने तक के बीच में होने वाले नुकसान को कम किया जाए। कई मामलों में विशेषकर खराब हो जाने वाली वस्तुओं के मामले में नुकसान की मात्रा काफी ऊँची होती है। बेहतर बाजार व्यवस्था फसल कटाई के बाद की सुविधाओं का विस्तार और प्रोसेसिंग सुविधाओं के जरिए इन नुकसानों को कम किया जा सकता है, फलस्वरूप प्राथमिक उत्पादकों को अधिक ऊँची कीमत प्राप्त होगी और साथ ही वस्तुओं की उचित मांग को बनाए रखने के लिये उपभोक्ता कीमतों को यथोचित स्तर पर बनाए रखा जा सकता है।

6. लगभग 65-70 प्रतिशत कृषि भूमि असिंचित और वर्षा पर निर्भर है। अतः वर्षा पर निर्भर रहने वाले किसानों की आर्थिक स्थिति को उचित उत्पादन व्यवस्था के जरिए सुधारना एक मुख्य चुनौती है। इसके लिये उन्हें इस प्रकार की उत्पादन प्रणाली उपलब्ध करानी होगी जो परम्परागत खेती की तुलना में आर्थिक दृष्टि से ज्यादा लाभप्रद हो और पर्यावरण की दृष्टि से भी उचित हो। वर्षा पर निर्भर रहने वाले किसानों की विकसित प्रौद्योगिकी में निवेश करने की क्षमता कम होती है क्योंकि अनिश्चित वर्षा के कारण उत्पादन में गिरावट होने का जोखिम बना रहता है। दूसरे, एक ही फसल उत्पादन की स्थिति में कृषिगत क्रियाओं के संचालन में सीमित पूँजी परिसम्पत्ति के कारण किसान, संसाधनों में कमी की वजह से उत्पादन व्यवस्था में पर्याप्त निवेश नहीं कर पाता है। कृषि क्रियाओं के सामाजिक संचालन के लिये प्रचलित सेवाओं को किराए पर लिये जाने की व्यवस्था को अत्यधिक महत्त्वपूर्ण समझा गया है। वर्षा पर निर्भर रहने वाले किसानों को किस प्रकार जोखिम से बचाया जाए तथा उनके लिये सेवाओं की उपलब्धता किस प्रकार बनाई रखी जाए, ऐसे मसले नीतिगत महत्त्व के हैं। अतः और किसानों को समर्थन देने के लिये इन उपायों पर विचार करने की जरूरत है।

क्षमता का उपयोग


जब तक कृषि से जुड़े विभिन्न वर्ग अधिक उत्पादकता के लिये उपयुक्त प्रौद्योगिकी नहीं अपनाता, तब तक इस बात की आशा नहीं की जा सकती है कि देश में औसत उत्पादकता में वृद्धि होगी।

इन चुनौतियों का सामना करने में हमारी क्षमता इस बात पर निर्भर है कि हम भूमि और जल जैसे दुर्लभ प्राकृतिक संसाधनों के संदर्भ में किस प्रकार उत्पादकता अधिक से अधिक बढ़ा सकते हैं। दूसरा, क्या कृषिगत उत्पादन व्यवस्था मौसमी, वार्षिक अथवा बारहमासी फसल बुआई के तरीके पर आधारित है या फिर अन्य कृषि व्यवस्था जैसे पशुपालन, कृषि वानिकी, रेशम उत्पादन, मत्स्य पालन पर आधारित है जोकि इतनी सुव्यवस्थित है कि विभिन्न इलाकों के विभिन्न कृषि जलवायु मानदण्डों में भी अधिक उत्पादकता व उत्पादन देने में सहायक सिद्ध होते हैं। कुल मिलाकर कुछ खास राष्ट्रीय उद्देश्यों की प्राप्ति के लिये आवश्यक है कि प्रत्येक क्षेत्र के लिये इस प्रकार की उत्पादन व्यवस्था में विशेषता हासिल करनी चाहिए और उनका प्राथमिक ध्येय किसानों को अधिकतम प्रतिफल देने और पर्यावरण की दृष्टि से निर्वाह योग्य होना चाहिए। अतः यह आवश्यक है कि उत्पादन व्यवस्था में विशेषता के तहत योजना प्रक्रिया में किसानों को केन्द्र बिन्दु बनाना चाहिए न कि किसी खास जिंस को।

भारत में कृषि जलवायु और मृदा के मामले में व्यापक विविधता पाई जाती है। विभिन्न क्षेत्रों व राज्यों की तुलना की बात करना तब तक बेमानी है जब तक कि उत्पादन को प्रभावित करने वाले आधारभूत तत्वों को ध्यान में नहीं रखा जाए। यहाँ तक कि इन विविधताओं को ध्यान में रखने के बावजूद यह कहने में कोई हिचकिचाहट नहीं होनी चाहिए कि एक या दो फसलों को छोड़कर देश की वर्तमान स्थिति समान कृषि जलवायु क्षेत्रों वाले अन्य विकसित देशों की तुलना में अनुकूल नहीं है। तालिका-एक उत्पादन के मामले में भारत और कृषि की दृष्टि से विकसित देशों की तुलनात्मक स्थिति को दिखाता है।

उत्पादन में अंतर


अन्य देशों की तुलना में भारत में कम पैदावार के अनेक ठोस कारण हैं। पैदावार में अंतर की व्याख्या बहुत हद तक अन्य जगहों की तुलना में भारत में अपनाई गई प्रौद्योगिकी स्तर के माध्यम से की जा सकती है। यहाँ इस बात का उल्लेख करना रूचि-कर होगा कि देश की पैदावार विभिन्न राज्यों और लाखों किसानों पर निर्भर है। देश के कृषि परिदृश्य पर यदि हम नजर दौड़ाएं तो पाएंगे कि कुछ राज्य राष्ट्रीय औसत से काफी बेहतर परिणाम दे रहे हैं। यदि हम जिलों और उप-जिलों के पैदावार सम्बंधी आँकड़ों को देखें, यहाँ तक कि उन राज्यों में भी जहाँ पैदावार का स्तर काफी ऊँचा है तो पाएंगे कि कृषि से जुड़े खास वर्ग जिले/उप जिलों के औसत से अधिक बेहतर परिणाम दे रहे हैं। मुख्य रूप से कृषि से जुड़े विभिन्न वर्गों को ध्यान में रखते हुए उत्पादकता में सुधार लाने की चुनौती हमारी क्षमता पर निर्भर करती है। जब तक कृषि से जुड़े विभिन्न वर्ग अधिक उत्पादकता के लिये उपयुक्त प्रौद्योगिकी नहीं अपनाता, तब तक इस बात की आशा नहीं की जा सकती है कि देश में औसत उत्पादकता में वृद्धि होगी।

उत्पादकता अंतर की चुनौती का सामना करने के लिये यहाँ तक कि निर्धारित कृषि जलवायु क्षेत्र में उत्पादकता के अंतर की चुनौती का सामना करने के लिये निम्नलिखित महत्त्वपूर्ण मसलों पर विचार करने की जरूरत है ताकि इसमें अपेक्षित सुधार हेतु उपाय अपनाए जा सकेंः

1. क्या खास कृषि जलवायु क्षेत्र के लिये उपयुक्त और उचित प्रौद्योगिकी की सिफारिश की गई है और क्या ये पर्याप्त है?
2. क्या विस्तार मशीनरी इतनी प्रभावी (सक्षम) है कि वह लाखों किसानों के लिये प्रौद्योगिकी की सिफारिश कर सके?
3. उद्योग स्वैच्छिक अभिकरणों, कृषक संगठनों आदि के विस्तार प्रयासों से सार्वजनिक क्षेत्र के बाहर प्रौद्योगिकी उन्नयन की शुरूआत होने लगी है। किसानों की प्रौद्योगिकी और सूचना समर्थन की जरूरतों को पूरा करन के लिये जुटे विभिन्न अभिकरणों के बीच तालमेल और समन्वय स्थापित करने की जरूरत है।
4. मात्र सामान्य जानकारी किसानों के लिये अनुशासित प्रौद्योगिकी को स्वीकार करने के लिये प्रेरित करने में असमर्थ है। प्रौद्योगिकी को व्यावहारिक स्तर पर अपनाने में निम्नलिखित बातें प्रभावित करती हैंः

क. साधनों और सेवाओं की उपलब्धता।
ख. बाहर से प्राप्त साधनों और सेवाओं की प्राप्ति का इंतजाम करना और उसके पैसे चुकाने के लिये किसानों का संसाधन आधार और पर्याप्त वित्त की उपलब्धता।
ग. खेत जोतने वाले असली किसान और उसके मालिक के बीच में जो कृषि सम्बंध है, उनसे भी अनुशासित प्रौद्योगिकी की स्वीकार्यता प्रभावित होती है। किसान को खेती से क्या प्राप्त होता है उससे भी किसान की उत्पादकता में सुधार लाने हेतु अतिरिक्त निवेश क्षमता प्रभावित होती है।

संक्षेप में यह कहा जा सकता है। कि भारतीय कृषि एकीकृत कार्यक्रमों को अपनाकर ही चुनौतियों का सामना कर सकती है। कृषि विस्तार, बाजार, साधनों की प्रभावी पूर्ति, सेवाएं या फिर कृषि सम्बंधों जैसे पहलुओं में किसी एक या दो पर ही जोर देने से हमारे लक्ष्य की पूर्ति अधूरी रहेगी। कृषि से जुड़े विभिन्न वर्गों को कम उत्पादकता और निवेश व प्रयासों के उचित प्रतिफल की समस्याओं से निपटने के लिये आवश्यक है कि किसी विशिष्ट क्षेत्र में अपनाए गए विभिन्न उपायों पर जो एक दूसरे को प्रभावित करते हैं, ध्यान दिया जाए और उपायों के क्रियान्वयन के लिये उचित प्रयास किया जाए। चुनौतियों का सामना सिर्फ अभियान चला करके नहीं किया जा सकता है। बल्कि किसानों को मद्दे नजर रखते हुए रास्ते में आने वाली बाधाओं का निरंतर मूल्यांकन और नीतियों व कार्यक्रमों में उपयुक्त व अपेक्षित परिवर्तन करके किया जा सकता है। इन उपायों को निरंतर चलने वाली प्रक्रिया के रूप में देखा जाना चाहिए जिसके तहत किसी खास उद्देश्य की पूर्ति के लिये उठाए गए हर उपाय को मजबूती प्रदान करने की जरूरत है।

तलिका-1

प्रमुख फसलों की पैदावार

(उत्पादकता कि.ग्रा/हेक्टेयर)

फसल

वर्ष

देश

 

 

भारत

चीन

जापान

इंडोनेशिया

एशिया

उत्तरी अमरीका

दक्षिणी अमरीका

यूरोप

अफ्रीका

विश्व

चावल

1979-81

1558

4244

5581

3527

2807

4397

1832

5132

1711

2757

 

1989

2635

5500

6168

4247

3571

5150

2517

5080

1972

3488

 

1990

2691

5728

6328

4319

3641

5075

2422

5237

1992

3557

गेहूँ

1979-81

1545

2047

3100

-

1702

2174

1315

3600

1087

1886

 

1989

2244

3043

3468

-

2316

2112

1892

4605

1448

2399

 

1990

2117

3179

3662

-

2356

2560

1724

4829

1554

2570

दालें

1979-81

461

635

1254

882

626

962

520

1006

572

674

 

1989

578

932

1555

1282

675

892

484

1964

571

809

 

1990

553

956

1562

1299

728

978

516

2116

563

863

मूंगफली

1979-81

838

1487

1854

1460

1022

2253

1511

2146

729

995

 

1989

929

1821

1850

1436

1160

2427

1579

1789

810

1114

 

1990

900

2127

2000

1463

1238

2048

1785

1676

811

1157

रेपसीड़ सरसों

1979-89

499

927

1692

-

691

1171

1066

2097

999

969

 

1989

906

1089

2000

-

982

1076

1661

2784

1596

1318

 

1990

826

1317

2000

-

1070

1274

1419

2760

1348

1409

बिनौला

1979-81

495

1613

-

717

1002

1624

638

2407

897

1252

 

1989

766

2186

-

537

1442

1817

1098

2697

1021

1551

 

1990

694

2395

-

543

1496

1918

1165

2476

962

1596

आलू

1979-81

12639

10888

26465

8701

11989

26521

9807

19224

8520

14167

 

1989

15870

11067

29892

12975

13119

28554

12579

20961

9276

15290

 

1990

15873

11588

29661

12308

13341

28743

12460

21195

8846

15098

गन्ना

1979-81

52105

54170

-

104252

51973

58619

58428

-

63205

56566

 

1989

66062

54003

-

80526

60321

67410

62727

-

59909

62671

 

1990

64140

59897

-

69114

58930

64146

62322

-

60717

61329

स्रोत – विश्व खाद्य संगठन की 1990 वार्षिकी

 



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