भारतीय कृषि: अतीत और भविष्य

स्वतन्त्र भारत के लिए गाँधीजी की पहली प्राथमिकता भूख से मुक्ति थी। इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए हमें कृषि में पर्यावरण की दृष्टि से स्वीकार्य और सामाजिक दृष्टि से न्यायपूर्ण हरित क्रान्ति की जरूरत है क्योंकि कृषि देश की 70 प्रतिशत जनता को जीविका प्रदान करती है।

स्वतन्त्रता से कुछ पहले अविभाजित भारत को इस शताब्दी के सबसे भयंकर अकाल ‘बंगाल के अकाल’ का सामना करना पड़ा था। गाँधीजी ने 1946 में नोअखाली में कहा था- ‘‘भूखे के लिए रोटी ही भगवान है और स्वतन्त्र भारत का कर्तव्य है कि वह यह सुनिश्चित करे कि हर व्यक्ति अपनी दैनिक आवश्यकता की रोटी अर्जित कर सके।’’ गाँधी जी इस बात पर जोर देते थे कि ‘सभी को मानवीय गरिमा के साथ भोजन मिले’। वे भिखारियों का राष्ट्र नहीं चाहते थे। वे यह भी नहीं चाहते थे कि भोजन का अधिकार दया समझा जाए। इस प्रकार वे चाहते थे कि हम गरीबों और भूखों के प्रति अनुग्रह का लहजा नहीं अपनाएँ हमारे पहले प्रधानमन्त्री जवाहरलाल नेहरू ने गाँधीजी के इस आह्वान के उत्तर में 1948 में कहा था- ‘‘हर वस्तु इन्तजार कर सकती है लेकिन कृषि नहीं।’’

हम अब स्वतन्त्रता के 50वें वर्ष में हैं। सरकारी आँकड़ों के अनुसार आज लगभग 20 करोड़ बच्चे, औरतें और पुरुष बिना पर्याप्त भोजन के सो जाएँगे। तथापि हमने पिछले 50 वर्षों के दौरान बहुदिशा की रणनीति अपनाकर देश में अकाल की स्थिति पैदा नहीं होने दी है। इस नीति के मुख्य तत्व है- (क) अधिक अन्न उत्पादन, (ख) खाद्यान्न का सुरक्षित भंडारण, (ग) व्यापक सार्वजनिक वितरण प्रणाली की स्थापना, (घ) सामाजिक सुरक्षा प्रदान करने वाले उपाय अपनाना जैसे कि काम के बदले अनाज, दोपहर को स्कूली बच्चों को पोषाहार वितरण और रोजगार गारंटी कार्यक्रम, (ङ) भूमि सुधार और परिसम्पत्ति निर्माण के उपाय करना। कुछ वर्ग के लोगों में निरन्तर पाई जाने वाली भूख की समस्या का मुख्य कारण लोगों में क्रय शक्ति का अभाव है। इसका कारण लाभप्रद रोजगार के अवसरों की कमी है।

उन्नीसवीं शताब्दी के अन्तिम भाग में अनेक अकाल पड़े। तब भारत, बांग्लादेश और पाकिस्तान की सम्मिलित जनसंख्या 29 करोड़ थी। अब अकेले हमारी जनसंख्या इसकी तीन गुनी से अधिक है। इसलिए अकाल रोकने की भारत सरकार की नीति की अभूतपूर्व सफलता के प्रति हमें आभारी होना चाहिए। अब समय आ गया है कि भुखमरी को पूरी तरह समाप्त करने के लिए अन्तिम कदम उठाए जाएँ। भुखमरी समाप्त करना गरीबी को समाप्त करने से आसान है।

खाद्य सुरक्षा के अन्तरराष्ट्रीय प्रयास


हमारी धरती के प्रत्येक बच्चे, औरत और पुरुष को खाद्य और पोषाहार सुरक्षा प्रदान करने का वचन इस दशक के दौरान आयोजित अनेक अन्तरराष्ट्रीय सम्मेलनों में दिया जा चुका है। इनमें से कुछ हैं: - 1990-बच्चों के लिए शिखर बैठक, न्यूयार्क; 1992-पोषाहार के लिए अन्तरराष्ट्रीय सम्मेलन, (आई.सी.एन. 1992) रोम; 1992-संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण और विकास सम्मेलन (यू.ए.सी.ई.डी. 1992), रियोडिजेनिरो; 1993-मानवाधिकारों पर विश्व सम्मेलन, (डब्ल्यू.सी.एच.आर. 1993) वियेना; 1994-जनसंख्या और विकास पर अन्तरराष्ट्रीय सम्मेलन, काहिरा; 1995-संयुक्त राष्ट्र सामाजिक विकास सम्मेलन, कोपेनहेगन; 1995-चौथा विश्व महिला सम्मेलन, बीजिंग; 1996-विश्व खाद्य शिखर बैठक, रोम।

‘सभी के लिए भोजन’ का लक्ष्य प्राप्त करने के संकल्प को इतने ऊँचे राजनीतिक स्तर पर दोहराने के बावजूद 80 करोड़ लोग भूख और कुपोषण से पीड़ित हैं। निरन्तर भूख की स्थानीय समस्या अब आय की कमी के कारण अधिक है, न कि बाजार में अन्न की कमी के कारण। गरीबी और अन्य कारण जैसे कि पर्यावरण हाइजीन, सफाई और पीने के लिए स्वच्छ जल की कमी अब सामुदायिक और व्यक्तिगत स्तर पर खाद्य असुरक्षा के प्रमुख कारण बन रहे हैं।

अब लोग इस बात से भी चिन्तित हैं कि क्या विश्व की बढ़ती हुई जनसंख्या के लिए हमारी धरती पर्याप्त खाद्यान्न उत्पन्न कर सकती है। जनसंख्या में वृद्धि जो इस समय विकासशील देशों तक सीमित है, बढ़ी हुई क्रयशक्ति और बढ़ते शहरीकरण के परिणामस्वरूप खाद्यान्न और तरह-तरह के खाद्य पदार्थों की मांग 21वीं शताब्दी में और बढ़ेगी। इस प्रकार एक ओर तो कृषि में तीव्रता और विविधता लानी होगी, विशेष रूप से विकासशील देशों में, और दूसरी ओर पर्यावरण सम्बन्धी आधार, जो फसलों और पशुओं की उत्पादकता बनाए रखने के लिए आवश्यक है, को कमजोर होने से बचाना होगा। इस स्थिति के कारण विशेषज्ञों ने धरती की पर्याप्त खाद्यान्न उत्पादन क्षमता के बारे में खतरे की घंटी बजानी शुरू कर दी है। लेस्टर ब्राउन का कहना हैः ‘‘धरती की प्राकृतिक व्यवस्था द्वारा लगाए गए बंधन, भूमि और जल-संसाधनों के प्रदूषण और उपज बढ़ाने की टेक्नोलॉजी के निरन्तर घटते प्रभाव के कारण विश्व खाद्य उत्पादन में कमी आ रही है और यह प्रश्न उठ रहा है कि क्या हमारी धरती बढ़ती जनसंख्या का बोझ वहन कर सकेगी।’’

सुप्रसिद्ध अर्थशास्त्री मालथस द्वारा जनसंख्या के बारे में लिखित लेख को 1998 में दो सौ वर्ष पूरे हो जाएँगे। विज्ञान और टेक्नोलॉजी की प्रगति और समुचित सार्वजनिक नीतियों ने अब तक जनसंख्या और खाद्यान्न आपूर्ति के मामले में मालथस की भविष्यवाणी को सच नहीं होने दिया है। तथापि, अब यह दिनों-दिन स्पष्ट होता जा रहा है कि अगर पर्यावरण को प्रदूषण से बचाने, आर्थिक विकास, स्त्री-पुरुषों की समानता सुनिश्चित करने और जनसंख्या वृद्धि रोकने के राष्ट्रीय और अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर प्रयास नहीं किए गए तो मालथस की बात अगली शताब्दी तक जरूर सही साबित हो सकती है। इसलिए संयुक्त राष्ट्र के खाद्य और कृषि संगठन ने 13 से 17 नवम्बर 1996 तक रोम में विश्व खाद्य शिखर बैठक आयोजित की। इस शिखर बैठक में विश्व खाद्य सुरक्षा और विश्व खाद्य शिखर की कार्ययोजना के बारे में रोम घोषणा स्वीकार की गई। घोषणा में सन 2015 तक कुपोषण-ग्रस्त लोगों की संख्या उनकी वर्तमान संख्या से आधी करने का वचन दिया गया। इसमें यह भी कहा गया कि ‘‘हम उच्च और कम क्षमता के क्षेत्रों में खाद्यान्न, कृषि, मत्स्य पालन, वानिकी और ग्रामीण विकास की ऐसी नीतियों और तरीकों का अनुसरण करेंगे जिनमें सभी लोग भाग लें और जो सभी के हित में हों। पर्याप्त और विश्वसनीय खाद्यान्न सप्लाई सुनिश्चित करने के लिए यह जरूरी है।’’ कार्य योाजना में निम्नलिखित सात वचनबद्धताएँ शामिल हैं:

1. इस तरह का राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक पर्यावरण बनाया जाए जिसमें गरीबी उन्मूलन और स्थाई शान्ति की स्थापना के लिए सर्वोत्तम स्थिति हो।

2. ऐसी नीतियाँ कार्यान्वित की जाएँ जिनका उद्देश्य गरीबी और असमानता का उन्मूलन हो और लोगों को पौष्टिक और सुरक्षित भोजन पर्याप्त मात्रा में आसानी से उचित दामों पर मिल सके।

3. उच्च और कम क्षमता के क्षेत्रों में खाद्यान्न, कृषि, मत्स्य पालन, वानिकी और ग्रामीण विकास की ऐसी नीतियाँ अपनाई जाएँ जिनमें सभी भाग लें और जो सभी के हित में हों।

4. खाद्यान्न, कृषि व्यापार और समग्र व्यापार नीतियाँ ऐसी हों जो सभी को खाद्य सुरक्षा प्रदान कर सकें।

5. राष्ट्रीय विपदाओं और मनुष्य-निर्मित आपात स्थिति को रोका जाए और उनका सामना करने के लिए तैयार रहा जाए।

6. उच्च और कम क्षमता वाले क्षेत्रों में मानव संसाधनों और सभी के हित की खाद्यान्न, कृषि, मत्स्य पालन और वानिकी व्यवस्था और ग्रामीण विकास को बढ़ावा देने के लिए आवंटन किया जाए और अधिकतम सार्वजनिक और निजी निवेश को बढ़ावा दिया जाए।

7. अन्तरराष्ट्रीय समुदाय के सहयोग से रोम की कार्ययोजना को लागू किया जाए, उस पर नजर रखी जाए और उसे आगे बढ़ाया जाए।

उपर्युक्त कार्ययोजना में इन सिद्धान्तों को शामिल किया गया हैः (क) कृषि उत्पादकता और उत्पादन को बनाए रखने के लिए पारिस्थितिक आधारशिला का संरक्षण, (ख) पारिस्थितिक टेक्नोलॉजी के जरिए उत्पादन बनाए रखना, और (ग) हकदारी और रोजगार के क्षेत्र में उपयुक्त राष्ट्रीय और अन्तरराष्ट्रीय कार्रवाई को मिलाकर खाद्यान्न तक सभी की पहुँच को न्यायपूर्ण व्यवस्था करना। जुलाई, 96 में चेन्नई में हुई विज्ञान अकादमी की शिखर बैठक में सिफारिश की गई कि सभी देशों को तीन स्तरों पर समग्र सार्वजनिक नीति के जरिए राष्ट्रीय खाद्यान्न और जीविका सुरक्षा अधिनियम बनाकर नीति-सम्बन्धी समर्थन देना चाहिए। इस अधिनियम का उद्देश्य इन लक्ष्यों की प्राप्ति होना चाहिए:

(1) हर व्यक्ति को भौतिक, आर्थिक, सामाजिक और पर्यावरण की दृष्टि से ऐसा सन्तुलित आहार उपलब्ध हो जिसमें आवश्यक सभी छोटे-बड़े पोषक तत्व, सुरक्षित पेयजल, सफाई, पर्यावरण सम्बन्धी स्वच्छता, प्रारम्भिक स्वास्थ्य सम्बन्धी देखभाल और शिक्षा शामिल हो ताकि वह एक स्वस्थ और उत्पादक जीवन बिता सके।

(2) खाद्यान्न का उत्पादन कुशल और पर्यावरण की दृष्टि से लाभप्रद उत्पादन टेक्नोलॉजी से होता हो जो फसल, पशुपालन, वानिकी और देश के भीतरी और बाहरी भाग के प्राकृतिक संसाधन आधार की रक्षा करती हो और उसे बढ़ाती हो।

खाद्यान्न-खपत और पोषाहार का स्तर


अनाज की प्रति व्यक्ति 501.9 ग्राम निवल उपलब्धता के विरुद्ध अनाज की प्रति व्यक्ति अनुमानित खपत 394 ग्राम अर्थात निवल उपलबधता का 78.6 प्रतिशत है। इसी प्रकार दालों के मामले में प्रति व्यक्ति खपत 28.05 ग्राम अर्थात निवल उपलब्धता का 75.8 प्रतिशत है। विभिन्न आय वर्गों की खाद्यान्न खपत असमानता समग्र अनुमानों से स्पष्ट हो जाती है। गरीब अपनी आय का लगभग 80 प्रतिशत खाद्यान्न पर खर्च करते हैं। हाल ही में किए गए सर्वेक्षणों से पता चलता है कि:-

1. पिछले कुछ वर्षों के दौरान प्रतिव्यक्ति खाद्यान्न की खपत में कमी आई है जो अनुशंसित ऊर्जा ग्रहण 2200 के.केल से घटकर 1859 के.केल रह गई है।

2. 47.7 प्रतिशत घरों को पर्याप्त कैलोरी नहीं मिल रही है और 19.8 प्रतिशत घरों को पर्याप्त मात्रा में प्रोटीन नहीं मिल रहा है। 19.5 प्रतिशत घरों को पयाप्त मात्रा में कैलोरी और प्रोटीन दोनों नहीं मिल रहे हैं।

3. स्कूल न जाने वाले छोटे बच्चों के विकास में साधारण से भयंकर कमी अनुभव की जा रही है। केरल में 34 प्रतिशत बच्चे इस कमी के शिकार थे और गुजरात में 72 प्रतिशत बच्चे।

4. 47 प्रतिशत वयस्कों का शरीर द्रव्यमान सूचक 18.5 से कम था जो इस बात का परिचायक है कि समाज बड़े पैमाने पर दीर्घकालिक ऊर्जा की कमी से ग्रस्त है।

5. गर्भवती महिलाओं के हीमोग्लोबिन स्तर से पता चला है कि 87.5 प्रतिशत माताएँ एनीमिया अथवा रक्त की कमी से पीड़ित थीं।

6. जन्म के समय लगभग 30 प्रतिशत शिशुओं का वजन सामान्य से कम था।

7. 16 करोड़ 70 लाख लोगों में आयोडीन की कमी से बीमारी उत्पन्न होने का खतरा है और 5 करोड़ 40 लाख लोग घेंघा अथवा गलगण्ड से पीड़ित हैं।

8. विटामिन ए की कमी से होने वाली अंधता अब भी व्यापक है।

भुखमरी-नियन्त्रण की ओर बढ़ते कदम


खाद्य सुरक्षा उपलब्ध कराने क लिए अब तक जो दूरी तय की गई है और जो महत्त्वपूर्ण कदम उठाए गए हैं, देश उन पर गर्व कर सकता है। भूख से मुक्ति की अंतिम मंजिल पर पहुँचने के मार्ग में अनेक बाधाएँ हैं। इनमें से प्रमुख हैं खेती योग्य भूमि की कमी, मिट्टी की उर्वराशक्ति में कमी, मिट्टी में पोषक तत्वों की कमी, समुचित जल प्रबंध का अभाव और भूमिगत जल का अत्यधिक उपयोग, खाद्यान्न उत्पादन में उत्साह की कमी, पर्यावरण की शोचनीय अवस्था और जनसंख्या वृद्धि के कारण प्रयुक्त किए गए पोषकों का अकुशल जैविक उपयोग। जल-स्रोतों के अत्यधिक दोहन के कारण प्राकृतिक भूमिगत स्रोतों से पश्चिम बंगाल के हजारों कुँओं में काफी संखिया (आर्सेनिक) घुलकर बाहर आ रहा है। अनुमान है कि 2 लाख लोग संखिया के संसर्ग से चर्म रोगों के शिकार हुए हैं।

अनुमान है कि पौधों की लगभग 2 करोड़ किस्में हैं जिनमें से 50,000 खाने योग्य हैं लेकिन हम भोजन के लिए 200 से कम का ही इस्तेमाल करते हैं। हमारी 80 प्रतिशत खाद्यान्न आपूर्ति लगभग आठ किस्मों से प्राप्त होती है। हम लोग आजकल इन थोड़ी-सी किस्मों से नई किस्में विकसित करने पर जोर दे रहे हैं। हमें अपनी खाद्यान्न टोकरी में अतिरिक्त किस्में शामिल करनी चाहिए। ‘मोटे अनाज’ वर्ग में अनेक पोषक अनाज आते हैं। समय आ गया है जब हम उन्हें ‘पोषक अनाज’ कहना शुरू करें।

‘मौन भूख’ की चुनौती


मनुष्य का जीवन और उसकी शक्ति कुछ थोड़े से विटामिनों और खनिजों पर निर्भर करती है जो दिमाग, प्रतिरक्षण व्यवस्था, पुनरुत्पत्ति और ऊर्जा उपापचयन को कुशलता से काम करने में सहायता पहुँचाते हैं। शरीर को इन पोषक तत्वों की थोड़ी मात्रा में जरूरत रहती है लेकिन वह इनका कृत्रिम उत्पादन नहीं कर सकता। शरीर में भोजन के जरिए उनकी आपूर्ति की जानी चाहिए। अगर शरीर में इन आवश्यक तत्वों की थोड़ी भी कमी हो जाती है तो उससे सीखने की शक्ति क्षीण हो जाती है, कार्यक्षमता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है, बीमारी और मौत समीप आ जाती हैं। सूक्ष्म-पोषक कुपोषण (मौन भूख) छोटे बच्चों और गर्भवती महिलाओं के लिए बहुत हानिकारक होता है लेकिन यह सभी उम्र के लोगों को कमजोर कर देती है। यह राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था को भी कमजोर बनाती है। सबसे महत्त्वपूर्ण सूक्ष्म-पोषक जिनका भली-भाँति अध्ययन किया गया है विटामिन ए, आयोडीन और लोहा है। लगभग सभी विकासशील देशों को सूक्ष्म-पोषक कुपोषण की समस्या का सामना करना पड़ता है और वहाँ यह जन-स्वास्थ्य के लिए खतरा बन गई है। अनेक विकासशील देशों को कई तरह की कमियों का सामना करना पड़ता है। (तालिका-3)। सूक्ष्म-पोषक तत्वों की कमी विश्व में प्रोटीन-ऊर्जा कुपोषण की अपेक्षा कहीं ज्यादा लोगों को प्रभावित करती है। एक अरब 60 करोड़ लोग उन जगहों में रहते हैं जहाँ धरती में पर्याप्त आयोडीन नहीं है। 65 करोड़ 50 लाख लोग घेंघा या गलगण्ड से पीड़ित हैं। 2 करोड़ 26 लाख लोगों के मस्तिष्क को हानि पहुँची है और 57 लाख लोग शारीरिक विकृति और मानसिक मन्दन (क्रोटिनिज्म) से पीड़ित हैं। 2 अरब छोटे बच्चे लोहे की कमी से उत्पन्न एनीमिया (रक्त की कमी) से पीड़ित हैं। 25 करोड़ 40 लाख छोटे बच्चे विटामिन ए की कमी से होने वाले रोगों से पीड़ित हैं।

भारत में 16 करोड़ 70 लाख लोग आयोडीन की कमी से पीड़ित हैं। इनमें से 5 करोड़ 40 लाख लोगों को घेंघा या गलगण्ड है। स्वास्थ्य सेवा महानिदेशक द्वारा कराए गए सर्वेक्षण से संकेत मिलता है कि देश में आयोडीन की कमी वाले 186 जिले हैं। इनमें 10 प्रतिशत से अधिक लोगों को घेंघा या गलगण्ड है। जहाँ तक लौह तत्वों की कमी से एनीमिया या खून की कमी का सम्बन्ध है, भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद द्वारा कराए गए अध्ययन से पता चलता है कि 87.5 प्रतिशत लोगों को एनीमिया है। अंधता एक बड़ा कारण विटामिन ए की कमी है।

सूक्ष्म-पोषकों की कमी रोकने की मुख्य रणनीति में शामिल हैंः कमजोर वर्ग के लेागों के लिए अतिरिक्त पोषाहार की व्यवस्था; आहार में सुधार, और सामान्य भोजन को पौष्टिक बनाना।

सूक्ष्म-पोषकों का सबसे प्रचुर स्रोत हरी पत्तेदार सब्जियाँ और फल हैं। भारत में तरह-तरह की सब्जियाँ होती हैं। इनमें से कुछ में काफी कैरोटीन (गाजर आदि में पाया जाने वाला गुलाबी तत्व जिसमें विटामिन ए होता है) होता है। साग-सब्जी उगाने के भावी कार्यक्रम में उन किस्मों की खोज और खेती पर जोर दिया जाना चाहिए जिनमें काफी मात्रा में सूक्ष्म पोषक हों। जब लोगों को भूख लगती है तो उन्हें उसका पता लग जाता है लेकिन वे यह नहीं जान पाते कि उनके शरीर में विटामिन ए, लौह तत्व, आयोडीन और अन्य सूक्ष्म-पोषकों की कमी है अथवा नहीं।

मिट्टी में पोषक तत्वों की कमी उस पर उगाए गए पौधों से प्रकट हो जाती है। सभी विकासशील देशों की लगभग आधी धरती में सूक्ष्म-पोषकों की कमी है। सघन और अंधाधुंध सिंचाई और उच्च शक्ति के रासायनिक उर्वरकों के प्रयोग से मिट्टी में अनेक पोषक तत्वों की कमी हो जाती है। इसलिए हमें यह सुनिश्चित करना चाहिए कि राष्ट्रीय मृदा स्वास्थ्य कार्यक्रम धरती की पोषक तत्वों की सभी आवश्यकताएँ पूरी करें।

कृषि में सदा-हरित (एवर-ग्रीन) क्रान्ति की ओर


‘हरित क्रान्ति’ शब्द को अमेरिका के डा. विलियम गैड ने 1968 में उस समय जन्म दिया जब हमारे किसानों ने बड़े उत्साह से अर्ध-बौनी किस्म के विदेशी गेहूँ के बीजों को अपनाकर गेहूँ की उपज में अभूतपूर्व सफलता प्राप्त की और ऐसी ही सफलता चावल के क्षेत्र में भी सम्भव लगी। इस मामले में पंजाब ने अग्रणी भूमिका निभाई क्योंकि एक ओर पंजाब ने कृषि विश्वविद्यालय के माध्यम से किसानों को वैज्ञानिक और शैक्षणिक जानकारी उपलब्ध कराई, दूसरी ओर इस तरह के प्रयोग को सफल बनाने के लिए सभी आवश्यक व्यवस्था की जैसे कि भूमि की चकबंदी और समतलीकरण, ग्रामीण संचार, ग्रामीण विद्युतीकरण और सबसे बढ़कर भूमि पर किसानों का स्वामित्व।

‘हरित क्रान्ति’ के जन्म के 28 वर्ष बाद आज हम इस स्थिति में हैं कि इसका लेखा-जोखा करके भविष्य की रणनीति बना सकें। इसके परिणामस्वरूप भारत न केवल खाद्यान्न के मामले में आत्मनिर्भर हुआ है बल्कि इससे अधिक उपज देने वाली किस्मों के कारण उत्पादकता में वृद्धि हुई है और वनों का विनाश रुका है। इस वर्ष भारतीय किसानों ने 6 करोड़ टन गेहूँ पैदा किया जबकि 1947 में स्वतन्त्रता के समय केवल 60 लाख टन गेहूँ का उत्पादन हुआ था। पंजाब के किसानों ने औसतन प्रति हेक्टेयर 40 क्विंटल की उपज प्राप्त की है। इसी तरह तमिलनाडु के किसानों ने चावल की औसतन 50 क्विंटल प्रति हेक्टेयर उपज प्राप्त की है। अगर हरित क्रान्ति के साथ गेहूँ और धान की उपज में वृद्धि नहीं होती तो जो गेहूँ-चावल हम पैदा कर रहे हैं उसके लिए 7 करोड़ हेक्टेयर अतिरिक्त भूमि की जरूरत पड़ती। इस प्रकार हरित क्रान्ति के फलस्वरूप उत्पादकता में हुए सुधार को वास्तव में वन और भूमि रक्षा कृषि कहा जा सकता है। उत्पादकता में यह सुधार न केवल गेहूँ और चावल में बल्कि दूध और अंडों में भी हुआ है। केवल दालों के मामले में हम पीछे रहे हैं (तालिका-1 और 2)।

भारत की जनसंख्या 1.8 प्रतिशत प्रतिवर्ष की दर से बढ़ रही है। अगर यह प्रवृत्ति जारी रही तो 40 से कम वर्षों में वह दुगुनी हो जाएगी। केवल केरल, तमिलनाडु, गोवा और मिजोरम ने अब तक कम जन्म और मृत्यु दर का जनांकिकीय परिवर्तन प्राप्त किया है। जनसंख्या वृद्धि के अलावा गरीबों में क्रयशक्ति में सुधार से खाद्यान्न की मांग बढ़ेगी, क्योंकि कुपोषण की समस्या गरीबों में व्याप्त है। इसके विपरीत खेती योग्य भूमि की प्रति व्यक्ति उपलब्धता कम हो रही है। जल का अभी भी पूरी कुशलता से इस्तेमाल नहीं किया जाता और जल सम्बन्धी विवाद बढ़ रहे हैं। प्रति व्यक्ति भूमि और पानी की उपलब्धता में धीरे-धीरे कमी होने के साथ-साथ विभिन्न किस्म के जीवीय और अजीवीय दबाव बढ़ रहे हैं। अभी भी उत्पादन और फसल कटाई के बाद की टेक्नोलाॅजी में व्यापक अन्तर है। नष्ट हो जाने वाले जिन्स जैसे फल, सब्जी, फूल, मांस और अन्य पशु उत्पादों में यह अन्तर काफी उग्र है और उत्पादकों और उपभोक्ताओं दोनों के हितों को प्रभावित करता है। यही कारण है कि विदेशी विशेषज्ञ अक्सर हरित क्रान्ति की थकान की चर्चा करते हैं। लेस्टर ब्राउन और हाल केन ने अपनी पुस्तक ‘फुल हाउस’ में भविष्यवाणी की है कि जनसंख्या वृद्धि की वर्तमान दर और पर्यावरण प्रदूषण के साथ गरीबों की खपत क्षमता में सुधार को देखते हुए सन 2030 तक भारत को प्रतिवर्ष 4 करोड़ टन खाद्यान्न का आयात करना होगा। यह उस मात्रा से जो हमने 1966 में ‘हरित क्रान्ति’ से पहले आयात की थी, चार गुना अधिक है। हमें इस विषय पर गम्भीरता से विचार करना होगा और यह देखना होगा कि हमारा कृषि क्षेत्र सिर्फ इसलिए निश्चिंत होकर न बैठ जाए कि हमारे खाद्य भंडारों में 3 करोड़ टन से अधिक खाद्यान्न हैं।

विश्व पर्यावरण समस्याओं जैसे कि तापमान में वृद्धि, अवपात (हिमवृष्टि और ओलापात), समुद्र का स्तर और पराबैंगनी बी विकिरण के लिए अधिकतर औद्योगिक देश जिम्मेदार हैं। जहाँ औद्योगिक देशों में कृषि कार्य को सघन करना पर्यावरण की दृष्टि से विनाशकारी होगा, वहीं विकासशील देशों में जहाँ खेती रोजगार के अधिकांश अवसर पैदा करती है, कृषि का तीव्रीकरण और विविधीकरण न करना सामाजिक दृष्टि से विनाशकारी होगा। खेत जितना छोटा होगा, बिक्री के लिए फालतू उपज तैयार करना आय बढ़ाने के लिए उतना ही जरूरी होगा। भारत में हर वर्ष 1 करोड़ 10 लाख जीविका के नये साधन बनाने होंगे और इनमें से अधिकांश कृषि और ग्रामीण उद्योग क्षेत्र में होने होंगे। अतः खाद्यान्न और अन्य कृषि जिन्स आयात करने का वही प्रभाव होगा जो बेरोजगारी आयात करने का होता है। इस प्रकार हमें जरूरत है पर्यावरण की दृष्टि से अनुकूल और सामाजिक दृष्टि से न्यायपूर्ण उस हरित क्रान्ति की जिसे ‘सदा-हरित क्रान्ति’ भी कहा जा सके।

वे लोग जो पुराने ढंग की खेती की वकालत करते हैं, इस बात की उपेक्षा करते हैं कि केवल सौ वर्ष पहले अविभाजित भारत की जनसंख्या 28 करोड़ 10 लाख थी। 1870 और 1900 के बीच तीन करोड़ लोग अकाल के कारण मौत के मुँह में पहुँच गए। अकाल को दूर करने की भारत की रणनीति शायद स्वतन्त्र भारत की सबसे महत्त्वपूर्ण उपलब्धि है। इस रणनीति के महत्त्वपूर्ण तत्व हैं: (क) उत्पादन और उत्पादकता में बढ़ोत्तरी; (ख) सार्वजनिक वितरण व्यवस्था के जरिए बेहतर वितरण; (ग) पर्याप्त खाद्यान्न भंडार; (घ) विभिन्न रोजगार और रोजगार गारन्टी योजनाओं के अन्तर्गत क्रयशक्ति में वृद्धि; और (ङ) बच्चों, गर्भवती महिलाओं और जच्चाओं, बूढे एवं अशक्त लोगों की सहायता के विशेष कार्यक्रम।

यद्यपि अकाल पर काबू पा लिया गया है, आर्थिक दृष्टि से दुर्बल लोगों में कुपोषण व्याप्त है। क्योंकि खाद्येतर कारण जैसे कि स्वास्थ्य की देखभाल, पर्यावरण सम्बन्धी हाइजीन और साक्षरता वैयक्तिक स्तर पर निर्वहनीय खाद्य सुरक्षा व्यवस्था में महत्त्वपूर्ण भूमिका करते हैं, हमें सुरक्षा को फिर से परिभाषित करना होगा।

निर्वहनीय खाद्य सुरक्षा के लिए निम्नलिखित उपाय जरूरी हैं: पहला, खाद्यान्न तक भौतिक पहुँच बनाए रखने के लिए रासायनिक और सघन यांत्रिक खेती के स्थान पर खेती की परिस्थितिक टेक्नोलॉजी अपनानी होगी। दूसरा, आर्थिक प्रवेश पर जोर इस बात की आवश्यकता को रेखांकित करता है कि आय अर्जित करने के एकाधिक अवसर पैदा किए जाएँ। तीसरा, पर्यावरण सम्बन्धी प्रवेश में शामिल है एक ओर मृदा के स्वास्थ्य की देखभाल, जल-सिंचाई प्रबंध और वनों एवं जैव-विविधता का संरक्षण और दूसरी ओर सफाई, पर्यावरण सम्बन्धी हाइजीन, प्रारम्भिक स्वास्थ्य देखभाल और प्रारम्भिक शिक्षा।

अगर इस मिशन को पूरा करने के लिए राजनीतिक दृष्टि सुलभ है तो जनसंख्या की स्थिरता का उद्देश्य अधिक आसानी से प्राप्त किया जा सकता है। तब मार्जिन डी कोनडोरसेट द्वारा 1795 में की गई यह भविष्यवाणी सच सिद्ध होगी कि “जनसंख्या तब स्वयं स्थिर हो जाएगी जब बच्चों का जन्म आनन्द के लिए होगा, केवल संख्या वृद्धि के लिए नहीं।”

व्यक्ति पर जोर देना महत्त्वपूर्ण है क्योंकि परिवार अक्सर समरूप इकाई नहीं होता। औरतें और लड़कियाँ पुरुषों और लड़कों की अपेक्षा कुपोषण से अधिक पीड़ित रहती हैं। संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम की 1995 की मानव विकास रिपोर्ट में औरतों में बढ़ती गरीबी के कष्टदायक आँकड़े दिए गए हैं। इस तरह की खाद्य सुरक्षा को ठोस स्वरूप प्रदान करने के लिए हमें भूख-रहित क्षेत्र कार्यक्रम शुरू करना चाहिए। उसके निम्नलिखित संघटक होने चाहिएः-

(क) खाद्य उत्पादन में वृद्धि जनसंख्या वृद्धि के ऊपर बनाए रखकर खाद्यान्न उपलब्धता बनाए रखना। खाद्य उत्पादन में यह बढ़ोत्तरी पारिस्थितिक विज्ञान सम्बन्धी टेक्नोलॉजी के विकास और उसकी सूचना फैलाकर प्राप्त की जाए। सेवाओं के समुचित पैकेज और सार्वजनिक नीतियाँ विकसित कर इस कार्य में सहायता प्रदान की जाए। पारिस्थितिक विज्ञान सम्बन्धी टेक्नोलॉजी में शामिल हैं पारिस्थितिकी समझदारी और पुरानी टेक्नोलॉजी के मिश्रण के साथ आधुनिक टेक्नोलॉजी की सर्वोत्तम उपलब्धियाँ, विशेष रूप से जैव-टेक्नोलॉजी, सूचना टेक्नोलॉजी, अन्तरिक्ष टेक्नोलॉजी फिर से प्रयुक्त की जा सकने वाली ऊर्जा टेक्नोलॉजी और प्रबंध टेक्नोलॉजी। पारिस्थितिक विज्ञान सम्बन्धी टेक्नोलॉजी के बिना किसान कम भूमि, पानी और ऊर्जा साधनों से पर्यावरण की रक्षा करते हुए अधिक खाद्यान्न और अन्य जिन्सें पैदा नहीं कर सकेंगे।

(ख) फसलों और पशुओं की उत्पादकता को निरन्तर बढ़ाने के लिए आवश्यक पारिस्थितिकीय आधार की रक्षा करके और उसमें सुधार करके प्राकृतिक संसाधन आधार की उत्पादकता को बनाए रखना।

(ग) सामाजिक सुरक्षा, परिसम्पत्तियों तक पहुँच, रोजगार संगठन और बिक्री आदि के जरिए पर्याप्त घरेलू आय की व्यवस्था करना। कृषि कार्यक्रमों का यह उद्देश्य होना चाहिए कि वे अधिक खाद्यान्न, अधिक रोजगार और अधिक आय के अवसर जुटाएँ। आय बढ़ाने और ग्रामीण आजीविका सुरक्षा के लिए यह आवश्यक होगा कि कृषि और गैर-कृषि रोजगार की ओर समन्वित ध्यान दिया जाए और प्राथमिक कृषि जिन्सों को संसाधित करके उनका मूल्य बढ़ाया जाए।

(घ) समाज के कमजोर वर्गों को संरक्षणात्मक सामाजिक सुरक्षा के उपायों जैसे कि रोजगार गारंटी और पोषाहार के लिए खाद्यान्न कार्यक्रमों के जरिए खाद्यान्न पाने का अधिकारी बनाया जाए।

(ङ) राष्ट्रीय खाद्यान्न और आजीविका सुरक्षा, अधिनियम प्रवर्तित किया जाए ताकि निम्नलिखित की ओर समन्वित ध्यान दिया जा सकेः

i. भूमि, पानी, वन, जैव-विविधता का संरक्षण और पर्यावरण की रक्षा।
ii. पारिस्थितिक टेक्नोलॉजी के जरिए उत्पादकता बढ़ाना।
iii. स्थानीय भूख की समस्या को समाप्त करने के लिए वितरण व्यवस्था में सुधार।
iv. पर्याप्त खाद्य सुरक्षा भंडार बनाए रखना।
v. तकनीकी आधारभूत सुविधाओं में सुधार ताकि फसल के बाद बेहतर टेक्नोलॉजी उपलब्ध हो और सफाई के उपायों का विस्तार किया जा सके, और
vi. कुशल अनुसंधान, शिक्षा, विस्तार, विपणन व्यवस्था आदि के द्वारा अन्तरराष्ट्रीय व्यापार में पैदा हुए सभी अवसरों का पूरा लाभ उठाना और यह सुनिश्चित करना कि सार्वजनिक भलाई को बढ़ावा देने वाले अनुसंधान और विस्तार को पर्याप्त समर्थन मिले।

भारत को भूख-मुक्त करने के प्रयास


तमिलनाडु के मुख्यमन्त्री ने अपने 17 जुलाई 1996 के बजट भाषण में निम्नलिखित घोषणा की:

‘‘जो भूखे हैं उन्हें भोजन दो, विश्व के उत्थान के लिए लोगों को शिक्षित करो।’’

महाकवि भरतियार के स्वप्न को पूरा करने के लिए यह सरकार एक नया ‘भूख मुक्त क्षेत्र कार्यक्रम’ शुरू करेगी। इसका उद्देश्य गरीबी के कारण उत्पन्न भूख को समाप्त करना एवं जनसंख्या के विभिन्न वर्गों की पोषाहार सम्बन्धी जरूरतों को पूरा करना होगा। इस कार्यक्रम की कमियों की पहचान की जाएगी और भूख मुक्त क्षेत्र कार्यक्रम के अन्तर्गत उनकी ओर विशेष ध्यान दिया जाएगा। बजट में इस कार्यक्रम को डा. एम.एस. स्वामीनाथन के सहयोग से लागू करने की विस्तृत रणनीति तैयार करने की व्यवस्था की गई है।

एम.एस.एस.आर.एफ में किए गए अध्ययनों से पता चलता है कि अनेक उर्ध्वाधर संरचित कार्यक्रमों में अनुप्रस्थ आयाम जोड़कर तथा भूख और अभाव की समाप्ति के काम में लगे सभी लोगों का सहयोग लेकर अब यह संम्भव है कि सभी के लिए स्वस्थ और उत्पादक जीवन की व्यवस्था की जा सके।

भूख-मुक्त क्षेत्र कार्यक्रम (भू.मु.क्षे.का.) बनाना


व्यक्ति के स्तर पर खाद्य और पोषाहार सुरक्षा की समस्या को तीन आयामों में देखा जाना चाहिए। पहला, अपर्याप्त क्रयशक्ति होने पर कैलोरी-प्रोटीन की कमी वाला आहार लेना पड़ता है। दूसरा, भोजन में आवश्यक मात्रा और विविधता में सूक्ष्म पोषक तत्वों और विटामिनों की कमी से अनेक पोषण सम्बन्धी रोग हो जाते हैं। इनमें विटामिन ए की कमी से होने वाली अंधता शामिल है। इस तरह की समस्या को ‘छिपी भूख’ कहा जाता है। इस समस्या से आज विश्व में दो अरब से अधिक लोग प्रभावित हैं। तीसरा, पर्यावरण सम्बन्धी हाईजीन और सफाई की कमी से आँतों में संक्रमण और अतिसार के कारण कम जैवकीय अवशोषण होता है। इस प्रकार भोजन और भोजनेतर कारण किसी व्यक्ति की पोषाहार सम्बन्धी सुरक्षा निर्धारित करने में महत्त्वपूर्ण हो जाते हैं। भूख मुक्त क्षेत्र कार्यक्रम में इन सभी स्तरों पर मध्यवर्ती कार्रवाई जरूरी है। इस प्रक्रिया में शामिल विभिन्न चरणों का वर्णन नीचे दिया गया है।

चरण-1: पोषाहार की कमी और कुपोषण के बुनियादी कारणों की पहचान की जाए।

चरण-2: भूख की समाप्ति के लिए तैयार किए गए उपलब्ध कार्यक्रमों और अवसरों की सूचना एकत्र की जाए।

चरण-3: भूख की समाप्ति का उद्देश्य प्राप्त करने के लिए जो तत्व कार्यक्रम में न हों, उन्हें साफ-साफ प्रकट किया जाए।

चरण-4: नौवीं पंचवर्षीय योजना के अंत तक स्थानीय स्तर पर भूख की समाप्ति के लिए सामुदायिक कार्रवाई और वचनबद्धता जुटाई जाए। इस कार्य के लिए सूचना-माध्यमों का समर्थन प्राप्त किया जाए।

चरण-5: इनकी सीमा निर्धारित की जाए:
(1) वित्तीय संसाधन; (2) लोगों को टेक्नोलॉजी प्रदान करने के लिए तकनीकी संसाधन; (3) आवश्यक प्रबंधात्मक और संगठनात्मक संसाधन।

चरण- 6: हर भू.मु.क्षे. का. के क्षेत्र में निचले स्तर पर एक गठजोड़ संगठन बनाया जाए और उनमें निम्न प्रतिनिधि शामिल किए जाएँ:
i. जनता; ii. सरकारी एजेंसी; iii. नागरिक संगठन-गैर सरकारी संगठन, स्वैच्छिक एजेंसी, सेवा संगठन यानि रोटरी क्लब, लायन्स क्लब आदि; iv. अकादमी-अनुसंधान, प्रशिक्षण संस्थान और विश्वविद्यालय; v. निगम क्षेत्र; vi. वित्तीय संस्थान और; vii. सूचना माध्यम।

यह भूख समाप्ति संगठन भू.मु.क्षे.का. तैयार करने, उसे लागू करने और उस पर नजर रखने के लिए उत्तरदायी होगा।

विचार से निचले स्तर तक की कार्रवाई


चुनौती इस बात में है कि भू.मु.क्षे.का. को कैसे एक विचार से कार्यरूप में बदला जाए। इस तरह के कार्यक्रम में इस शताब्दी के शेष वर्षों के दौरान इस बात पर जोर देना होगा कि गाँवों और कस्बों में गरीबी की रेखा के नीचे रहने वालों को अतिरिक्त जीविकोपार्जन के अवसर उपलब्ध कराए जाएँ। महिलाओं में फैलती गरीबी के कारण यह जरूरी है कि औरतों और लड़कियों की ओर अधिक ध्यान दिया जाए। इन आवश्यकताओं पर आधारित राष्ट्रीय भू.मु.क्षे.का. के लिए निम्नलिखित परिचालन ढाँचा सुझाव योग्य है:-

फेज-1: अन्तर और नियन्त्रण विश्लेषणः यह चरण अन्तर और नियन्त्रण के विश्लेषण से सम्बन्धित है। अंतर विश्लेषण कार्यक्रम के अन्तर्गत उन सभी अधिकारों की एक सूची बनाई जाएगी जो इस समय गरीबी की रेखा से नीचे रहने वालों को केन्द्र और राज्य सरकारों के कार्यक्रमों के अन्तर्गत मिलते हैं। इस सूची का समुचित वर्गीकरण किया जाएगा ताकि सामाजिक सुरक्षा और पोषक आहार कार्यक्रमों को रोजगार के अवसर पैदा करने वाले कार्यक्रमों से अलग किया जा सके।

एक बार अधिकारों के आँकड़ों का आधार तैयार हो जाने के बाद किसी जिले के सौ गाँवों में स्वैच्छिक नमूना तकनीक के आधार पर एक विस्तृत अध्ययन किया जाएगा जिससे यह पता लगाया जाएगा कि अधिकार वास्तव में उन परिवारों को मिले हैं या नहीं, जिनके लिए वे बनाए गए थे। परिवारों के अन्दर अधिकार प्राप्ति में स्त्री-पुरुषों के अंतर का पता लगाने के लिए विशेष अध्ययन किए जाएँगे। गरीबों के हक क्या हैं और वास्तव में उन्हें क्या मिल रहा है, इसका अन्तर लिंग और आर्थिक हैसियत के अनुसार दर्ज किया जाएगा (उदाहरण के लिए वे लोग जिनके पास भूमि, जानवर या मछली पालने के लिए पोखर-सरोवर या पेड़ हैं और वे जिनके पास कोई उत्पादक सम्पत्ति नहीं है)।

एक बार अन्तर विश्लेषण पूरा हो जाने पर इस अन्तर के कारणों और अधिकार-प्राप्ति में आने वाली बाधाओं को सही ढँग से पहचाना जाएगा। इस तरह का अन्तर और नियन्त्रण विश्लेषण इस बात को समझने का प्रारम्भिक प्रयास होगा कि कैसे प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष गरीबी उन्मूलन कार्यक्रम उन लोगों तक पहुँचाए जा सकते हैं जिन तक अभी वे नहीं पहुँचे हैं। अन्तर विश्लेषण के अन्तर्गत शामिल गाँवों में कार्यरत स्वैच्छिक संगठनों की एक सूची बनाई जाएगी। इसी के साथ इस बात का निर्धारण किया जाएगा कि सरकारी एजेंसियों और गरीबों के बीच पुल का काम करने में वे कितने प्रभावी है। स्वैच्छिक संगठनों और निर्वाचित पंचायतों तथा नगरपालिकाओं के सदस्यों के साथ इस बारे में विचार-विमर्श किया जाएगा कि इस अन्तर या खाई को कैसे पाटा जा सकता है।

फेज-2: संदेश का प्रचार एवं रणनीति: यह चरण रणनीति का होगा। इसमें निम्न बातों पर विशेष ध्यान दिया जाएगा:
क. हकदारी और वास्तविक वितरण की खाई को पाटने के लिए आवश्यक उपाय।
ख. वर्तमान कार्यक्रमों में वितरण की कुशलता में सुधार लाने के लिए सम्बन्धित क्षेत्रों में मानव, वित्तीय और तकनीकी संसाधन जुटाना और जनसंख्या की अपूर्ण न्यूनतम मांगों को पूरा करने के लिए नए कार्यक्रम शुरू करना।
ग. सभी सरकारी एवं गैर-सरकारी कार्यक्रमों के बीच समन्वय स्थापित करने के तरीकों की पहचान।
घ. कृषि और गैर-कृषि कार्यों पर आधारित नए जीविका अवसरों की स्पष्ट पहचान।
ङ. ऐसे संगठनात्मक और प्रबंधात्मक तरीकों की शुरुआत, जो उन कार्यक्रमों के क्रियान्वयन में प्रारम्भिक लाभार्थियों का निरीक्षण और प्रभावी भागीदारी सुनिश्चित करें और
च. सम्बन्धित गाँवों में भूख के विरुद्ध संघर्ष करने वाले युवा स्त्री-पुरुषों के दल की पहचान। ये युवा लड़ाके इस तरह की जिम्मेदारियाँ ग्रहण करेंगे जैसे कि अधिकारों या हकदारी की चेतना फैलाना, वितरण प्रणाली को सुधारना, पर्यावरणीय स्वच्छता बढ़ाना और कूड़ा-करकट और दूषित जल के पुनरुपयोग को बढ़ावा देना। इन भूख के लड़ाकों को अपने यात्रा खर्च और अन्य खर्च तथा समय की क्षतिपूर्ति के लिए मामूली मानदेय दिया जाएगा। इस दल के सदस्य वे लोग होंगे जिनके सामाजिक और आर्थिक हित अपने-अपने गाँवों से जुड़े हैं। इस दल में स्त्री-पुरुष बराबर संख्या में होंगे।

फेज-3: कार्ययोजना को अन्तिम रूप देना: फेज-1 और 2 के दौरान किए गए कार्य के परिणामस्वरूप भूख और अभाव की समाप्ति की चेतना, वांछित लक्ष्य प्राप्ति के तरीकों का विश्लेषण और उन्हें लागू करने योग्य एक कार्ययोजना प्रकट हो चुकी होगी। कार्ययोजना को कारगर बनाना है तो उसे गरीब परिवारों के साथ विचार-विमर्श के बाद उनकी सलाह से बनाया जाना चाहिए। इसलिए भूख और अभाव को समाप्त करने के लिए व्यापक आधार वाला एक स्थानीय गठबंधन बनाने के लिए यह चरण उपयुक्त होगा। भूख को समाप्त करने के लिए इस तरह के गठबंधन में स्थानीय स्वशासन संस्थाओं, गरीबी और भूख से संघर्ष करने वाली सरकारी एजेंसियों, विद्वत समुदाय, असैनिक समाज, निगम क्षेत्र महिला और युवक संगठन, वित्तीय संस्थाओं और सूचना माध्यमों के प्रतिनिधि होने चाहिए। इस तरह का गठबंधन अपने प्रत्येक सदस्य को चेतना पैदा करने, संसाधन जुटाने, कार्यक्रम लागू करने, उनकी देख-रेख और उनके मूल्यांकन का निर्दिष्ट कार्य सौंपेगा। गठबंधन सरकारी कार्यक्रमों को क्षैतिजिक आयाम प्रदान करेगा। गठबंधन के सदस्य स्त्री-पुरुषों के बीच एकता बढ़ाने दहेज और शराब जैसी सामाजिक बुराईयों को समाप्त करने उपाय भी सुझायेंगे।

तलिका-1
1994-95 के दौरान विभिन्न खाद्यान्न उत्पादन

क्र.सं.

जिन्स

उत्पादन (करोड़ टन में)

प्रतिव्यक्ति उत्पादन (ग्राम प्रतिदिन)

1.

चावल

8.11

243.97

2.

गेहूँ

6.55

197.04

3.

मोटा अनाज

3.04

91.45

4.

दालें

1.41

42.42

खाद्यान्न योग

19.11

574.88

5.

तिलहन

2.14

64.30

6.

दूध

6.58

197.26

7.

फल

3.30

99.18

8.

सब्जियाँ

7.10

213.50

9.

अंडे (करोड़ में)

24.75

0.07

10.

मांस

0.42

12.63

11.

मछली

0.48

14.44

12.

वनस्पति तेल

0.68

20.55

13.

चीनी

1.46

43.92

स्रोत: आर्थिक सर्वेक्षण 1995-96 और कृषि आँकड़ा संहिता, खंड 1,1996

 


तालिका-2
प्रतिव्यक्ति निवल उपलब्धता

वर्ष

खाद्यान्न

दालें

योग

1991

468.5

41.6

510.1

1992

434.5

34.3

468.8

1993

427.9

34.8

462.7

1994

434.0

35.5

489.5

1995

464.9

37.0

501.9

स्रोतः आर्थिक समीक्षा 1995-96

 


फेज-4: निर्वहनीय खाद्य एवं पोषाहार सुरक्षा की ओर: इस अवधि में भू.मु.क्षे.का. एक वांछनीय विचार से कार्यान्वयन योग्य स्थानीय स्तर की कार्ययोजना में परिवर्तित हो जाएगा। इस बात के विशेष प्रयास किए जाएँगे कि समाज के सभी वर्गों को भूख से मुक्ति का लक्ष्य प्राप्त करने के असाधारण अवसरों के प्रति सुग्राही बनाया जाए। इस चरण की योजना बनाने और उसे लागू करने में गरीब स्वयं सक्रिय भूमिका निभाएँगे। भूख से संघर्ष करने वाले दल के अनेक सदस्य भूमिहीन परिवारों के होंगे। लड़ाकों के इस दल में पंचायतों और नगरपालिकाओं के निर्वाचित सदस्य शामिल होंगे ताकि वे निर्वाचित संस्थाओं और जनता के बीच कड़ी का काम करें। प्रत्येक गाँव/कस्बे से कम-से-कम दो सदस्य होंगे ताकि वे पर्यावरण स्वच्छता और सफाई के सुधार में अपनी भूमिका अदा कर सकें और साथ ही गाँवों/कस्बों में रहने वाले परिवारों को स्वास्थ्य और पोषाहार सुरक्षा प्रदान कर सकें।

हमारा देश युवकों का देश है। लगभग 40 करोड़ औरतें और पुरुष 21 वर्ष से कम आयु के हैं। राष्ट्र का भविष्य इस बात पर निर्भर है कि इन्हें उत्पादक और स्वस्थ जीवन का अवसर मिले। युवक खेती की ओर आकृष्ट हो सकते हैं और उसमें लग सकते हैं बशर्ते खेती बौद्धिक रूप से प्रेरणा देने वाला और आर्थिक रूप से लाभप्रद व्यवसाय हो।

तालिका-3
खतरे से ग्रस्त और सूक्ष्म-पोषण कुपोषण से पीड़ित जनसंख्या (दस लाख में)

क्षेत्र

आयोडीन की कमी

स्कूल जाने से पूर्व बच्चों में विटामिन ए की कमी

स्कूल जाने से पूर्व बच्चों में लौह तत्व की कमी

 

खतरे में

प्रभावित

खतरे में

व्यापकता (प्रतिशत में)

 

अफ्रीका

181

86

53

49

206

अमेरिका

168

63

16

20

94

दक्षिण और दक्षिण-पूर्व एशिया

627

272

127

69

643

यूरोप

82

14

-

-

27

पूर्वी भूमध्य सागर

173

193

16

22

149

पश्चिमी प्रशांत और चीन

423

141

42

27

1058

योग

1654

669

254

-

2177

स्रोतः विश्व स्वास्थ्य संगठन 1995 उप-वैदानिक, तीव्र और मामूली कमी से पीड़ित जनसंख्या

 


तालिका- 4
25 देशों के विश्वव्यापी सर्वेक्षण में 190 मृदाओं में पोषक तत्वों की कमी वाली मृदा का प्रतिशत

 

कमी के स्तर का अनुमान

 

तीव्र

प्रच्छन्न

योग

नाइट्रोजन

71

14

85

फास्फोरस

55

18

73

पोटेशियम

36

19

55

बोरोन

10

21

31

कॉपर

4

10

14

आर्थन

0

3

3

मैंगनीज

1

9

10

मोलिबडेनूम

3

12

15

जिंक

25

24

49

स्रोतः सिल्लम्पा 1990, इन्टरनेशनल फूड पालिसी रिसर्च इंस्टीट्यूट, वाशिंगटन डीसी।

 


हमारे समाज की विशेषता है हमारी सांस्कृतिक, धार्मिक और राजनीतिक विविधता। केन्द्र सरकार के स्तर पर राजनीतिक बहुलवाद इस बात का अवसर प्रदान करता है कि भूख की समाप्ति और गरीबी से राहत के मुद्दे को इस दर्जे की प्राथमिकता प्रदान की जाए कि वह राजनीतिक बाधाओं को लांघकर राजनीतिक कार्यसूची में सर्वोच्च स्थान प्राप्त करे। तमिलनाडु सरकार ने गरीबी के कारण उत्पन्न भूख को समाप्त करने का निर्णय लेकर पहला साहसी कदम उठाया है। हमें चाहिए कि अगली शताब्दी में प्रवेश करने से पूर्व हम भू.मु.क्षे.का. को समूचे देश में लागू करने का संकल्प करें।

(लेखक यूनेस्को के इको-टेक्नोलॉजी प्रोफेसर और ‘एम.एस. स्वामीनाथ अनुसंधान फाउन्डेशन’ के अध्यक्ष हैं।)

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