भारतीय हिमालय पर्वतमाला : एक नजर


हालाँकि पिछली सहस्त्राब्दी में भारतीय हिमालय पर्वतमाला पर काफी कुछ कार्य किया गया है, फिर भी अभी काफी कुछ करना शेष है। युगों-युगों से खड़े नगाधिराज हिमालय के लिये 1000 वर्ष मायने भी क्या रखते हैं। आज जब हम अन्तरराष्ट्रीय पर्वत वर्ष मना रहे हैं, हमें इस पर्वत-शृंखला के बारे में अधिक जानने तथा इसे संरक्षित करने का प्रण लेना चाहिए।

उत्तर दिशा में एक सुहृदय पर्वत हिमालय है। वह नगाधिराज है, जिसकी दो भुजाएँ पूर्वी और पश्चिमी सागरों तक फैली हैं। पृथ्वी के मापदंड के रूप में वह अजेय खड़ा है। - ‘कुमारसंभव’ में कालीदास

भारतीयों ने सदैव ही हिमालय को बर्फ के घर के रूप में देखा है। प्रसिद्ध भारतीय कवि की उपर्युक्त सूक्ति की तरह ही अनंतकाल से हिमालय को विश्व का मणिमुकुट कहा जाता रहा है। इस पर्वत-शृंखला में कई हिन्दू तीर्थ- देवालय हैं जहाँ भारी संख्या में श्रद्धालु दर्शनार्थ पहुँचते हैं। हिन्दू पुराणों में हमेशा ही हिमाच्छादित पर्वतों को आध्यात्मिक शांति के साथ जोड़कर देखा गया है। वर्णन मिलता है कि भारतीय आदि गुरु शंकराचार्य 800 ई. में बद्रीनाथ से माना दर्रे को पार कर तिब्बत के गुगे जिले में पहुँचे थे। यूरोप से जेसु पादरियों के माना दर्रा पार करके तिब्बत में जाने के रिकार्ड मिलते हैं। 1624 में पादरी एंटोनियो द अंद्रादे और ब्रदर मैनुएल मारक्वी इस दर्रे से होकर तिब्बत में त्सापारांग प्रांत में गुगे पहुँचे थे।

कई स्थानीय गाँव वालों ने व्यापार के सिलसिले में इन पर्वतों को पार किया। लेकिन आधुनिक अर्थ में अन्वेषण और आरोहण का कार्य अंग्रेजों के आने के बाद ही शुरू हुआ। काराकोरम में ‘महान शिकार’ की जरूरतों को देखते हुए अन्वेषकों को इस पर्वतमाला में भेजा गया। इसके बाद सैनिकों ने पर्वतमाला में प्रवेश किया, जिनमें से सिक्किम को पार करके ल्हासा पहुँचने वाला फ्रांसिस यंगहस्बैंड अभियान अत्यन्त प्रसिद्ध हुआ। इसके बाद सर्वेक्षण वहाँ गए। तब अंग्रेज अफसरों के अधीन भारतीय सर्वेक्षण संगठन ने हरेक क्षेत्र के व्यवस्थित ढंग से मानचित्र बनाए जिनके परिणामस्वरूप विश्व के सबसे ऊँचे पर्वत शिखर, एवरेस्ट की खोज हुई। अंत में आए पर्वतारोही। विश्वयुद्ध से पूर्व के सभी एवरेस्ट अभियानों ने उत्तर की तरफ से सिक्किम होते हुए इस शिखर पर चढ़ने के प्रयास किए तथा कई शिखरों पर विजय भी प्राप्त की।

भारतीय हिमालय पर्वतशृंखला में आरोहण के लिये कोई ‘ऐवरेस्ट’ नहीं है, क्योंकि 8000 मीटर का एकमात्र पर्वत शिखर भारत में ‘कंचनजंगा’ है। लेकिन अगर किसी की छोटे शिखरों में दिलचस्पी हो तो 7000 मीटर से ऊँचे कई पर्वत शिखर हैं। और, अगर सामान्य में से कठिन मार्गों, ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्यों और अछूती घाटियों की बात हो, तो भारतीय हिमालय में ऐसे कई आकर्षण मौजूद हैं। लेख में पिछले 100 वर्षों के भारतीय हिमालय के इतिहास का संक्षिप्त विवरण है, जो मेरे अवलोकन और मेरी यात्राओं पर आधारित है।

पर्वतमाला


हिमालय पर्वत शृंखला एशियाई महाद्वीप में दक्षिण पूर्व से उत्तर पश्चिम तक फैली हुई है। आमतौर से हिमालय, काराकोरम और हिंदुकुश की एक शृंखला के अंग के रूप में चर्चा की जाती है। जब हम ‘भारतीय हिमालय’ की बात करते हैं, तो हम हिमालय पर्वत शृंखला के उस भाग की बात करते हैं जो भारतीय क्षेत्र में पड़ता है। पूर्व से आरम्भ होकर भारतीय हिमालय बर्मा-चीन और भारत के बीच एक गाँठ से शुरू होता है। शृंखला भूटान की सीमा तक चलती है। उसके बाद सिक्किम आता है जो 1974 से भारत का एक पूर्ण राज्य है। इसमें कई शिखर हैं, जिनमें विश्व की तीसरी सबसे ऊँची चोटी कंचनजंगा भी शामिल है। इसके पूर्व में हिमालय की पर्वतमाला नेपाली क्षेत्र में पड़ती है, जो कुमाऊं और गढ़वाल सीमा तक चलती है। यहाँ से बिना किसी व्यवधान के भारतीय हिमालय शृंखला किन्नौर, स्पीती, लद्दाख और अंत में पूर्व काराकोरम तक चली जाती है। आगे के पश्चिम के इलाके पाकिस्तान और अफगानिस्तान के नियन्त्रण में आते हैं।

आरम्भिक वर्ष


शिमला में जाखू पहाड़ी के नीचे भूमि पर दो अधिकारी सैर कर रहे थे। उनकी इस सहज सैर से ही वहाँ आने वाले अंग्रेज पर्वतारोहियों की मदद के लिये 1928 में ‘हिमालयन क्लब’ का जन्म हुआ। क्लब का मुख्य उद्देश्य भारत में आने वाले पर्वतारोहण अभियानों की मदद करना था। यह अधिक संख्या में अन्वेषकों और आरोहियों के आगमन की शुरुआत थी। इस पर्वतमाला में हुए कुछ प्रसिद्ध आरम्भिक पर्वतारोहणों में ह्यू रटलेज द्वारा कुमाऊं का अन्वेषण शामिल है। इसके अलावा 1905 और 1907 में आर्नोल्ड मम और चार्ल्स ब्रूस ने गढ़वाल में पाँच महीने बिताए और उन्होंने कई शिखरों पर आरोहण किया। 7102 मीटर ऊँची त्रिशूल चोटी पर डॉ. लांगस्टाफ ने विजय हासिल की। यह चोटी कई वर्ष तक विश्व की सबसे ऊँची चोटी के नाम से विख्यात रही। फ्रैंक स्माइथ 1931 में कामेत शिखर पर पहुँचे और उन्होंने एक नया कीर्तिमान बनाया। इसके फौरन बाद 1936 में नंदा देवी पर विजय से रिकार्ड कायम हुआ।

द्वतीय विश्व युद्ध और 1947 में भारत की आजादी के बाद गम्भीर संदेह व्यक्त किए गए कि रोमांचक खेल जारी भी रह पाएँगे या नहीं। जैक गिब्सन और जाॅन मार्टिन जैसे ‘यहीं रह गए’ लोगों ने भारतीयों को पर्वतारोहण के लिये उत्साहित किया और यह खेल जारी रहा। उनके एक शिष्य, गुरदयाल सिंह ने 1951 में त्रिशूल शिखर पर जीत हासिल की। 1953 में एवरेस्ट विजित किया गया। शिखर पर पहुँचने वालों में एक भारतीय, तेंजिंग भी थे। इस अवसर पर दार्जिलिंग में एक पर्वतारोहण संस्थान स्थापित किया गया जिसने कई भारतीयों को प्रशिक्षण दिया है। अब कम से कम तीन ऐसे संस्थान अपनी पूर्ण क्षमता से कार्य कर रहे हैं और इससे इस रोमांचक खेल का विकास हुआ है। 1958 में भारतीय पर्वतारोहण संस्थान का जन्म हुआ और सरकार ने इसे इस खेल के लिये मान्यता प्रदान की। सरकारी नौकरशाहों और अन्य अधिकारियों की सदस्यता के अपने आधार से इसने प्रक्रियाएँ विकसित कीं तथा 23 साल तक इसकी कमान एच.सी. सरीन के हाथों में रही। इन वर्षों में भारतीय पर्वतारोहण की जिम्मेदारी उन्हीं की थी। आज उनके प्रयासों के फलस्वरूप संस्थान का एक शानदार भवन खड़ा है और संस्थान की नींव मजबूत हो पाई है।

कुमाऊं


अगर मुझसे पूछा जाए कि मुझे सबसे अच्छा भारतीय शिखर कौन-सा लगता है तो मेरा जवाब होगा- नंदा देवी। मैंने इसे लगभग हर दिशा और बड़े ही करीब से देखा है। दरअसल यह भारतीय हिमालय का केन्द्र बिन्दु है। इसके आधार तक के मार्गों की एरिक शिप्टन और बिल टिलमैन द्वारा 1934 में खोज, 1936 में इस पर आरोहण तथा बाद के सभी अभियान पर्वतारोहण के इतिहास का हिस्सा बन चुके हैं। इन गतिविधियों ने इतिहास पर अमिट छाप छोड़ी है। इसके पूर्व में मिलाम ग्लेशियर है। 1939 में जिन पौलैंडवासियों ने इस घाटी में आरोहण किया, उन्होंने नंदा देवी पूर्व से पहली बार चढ़ाई की लेकिन दुर्भाग्यवश तिरसूली चोटी पर चढ़ते हुए उनमें से दो पर्वतारोही मारे गए। कुमाऊं में इसके आगे पूर्व में ‘दीर्घायु पर्वत’- चिरिंगवे हैं जो कलबलंद ग्लेशियर पर स्थित है। 1979 में बंबई के मेरे दल ने चिरिंगवे पर पहली बार आरोहण किया और इसके बाद से इस पर चढ़ाई नहीं की गई है। कलबलंद ग्लेशियर में कई आकर्षक पर्वतशिखर हैं। इस सिलसिले में, अविजित ‘सुईटिल्ला’ का उल्लेख करना जरूरी है जिसे ‘कुमाऊं का चांगाबांग’ कहा जा सकता है।

नंदादेवी के पश्चिम में अभ्यारण्य के बाहरी छोर पर ‘बेथारटोली हिमल’ चोटियाँ हैं। 1970 में दक्षिणी चोटी पर चढ़ा, लेकिन एक हिमखंड के गिरने से हमारे चार पर्वतारोही मारे गए। उनमें से एक आंगकामी था, जो दार्जिलिंग का एक प्यारा सा इंसान था। बिल मुरे ने 1950 में पहली दफा इस मुख्य चोटी पर चढ़ने की कोशिश की थी। अंत में हमारे प्रयास के बाद इतालवी पर्वतारोहियों ने इस पर विजय हासिल की। निकट ही ‘त्रिशूल’ पर्वत है जिसे लांग-स्टाफ पर्वत’ भी कहते हैं। 1907 में लांगस्टाफ इस पर्वत शिखर पर बडी तेजी से चढ़े थे और एक लंबे समय तक यह उनका उच्चतम कीर्तिमान बना रहा। मेरे ख्याल से 1951 में जब गुरदयाल सिंह ने त्रिशूल पर्वत पर चढ़ाई की, तब भारतीयों के लिये पर्वतारोहण के युग की शुरुआत हुई। नंदादेवी के शिखर पर कोई परमाणु यंत्र रखा जा रहा था, जिसके दौरान भीतरी अभ्यारण्य को अभियानों के लिये बंद कर दिया गया था। इस अवधि के समाप्त होते ही 1974 में पहले अभियान ने इस क्षेत्र में कदम रखे। क्रिस बोनिंगटन और उनके भारत-ब्रिटिश दल ने भीतरी अभ्यारण्य के एकदम उत्तर के शिखर, चांगाबांग को विजय किया। किसी भी दृष्टि से देखा जाए तो यह एक असाधारण उपलब्धि थी। उपरोक्त विजय के कुछ ही दिनों के भीतर मेरे दल ने भीतरी अभ्यारण्य के एकदम दक्षिणी शिखर ‘देवटोली’ पर चढ़ाई की। शिखर से लौटते समय मैं एक खड्डे में गिर गया और मुझे 13 दिन तक एक कामचलाऊ स्ट्रेचर या कमर पर लादकर लाया गया, जिसके बाद मुझे हेलीकॉप्टर से निकाला गया। तब आसमान से इस शिखर को देखते हुए मैंने लिखा था ‘देवटोली, सम्मान अब बराबर है’।

1992 में भारतीय वायुसेना के दो बहादुर हेलीकाॅप्टर पायलटों ने पंचचुली-पंचक की ऊँचाई वाली ढलानों से घायल स्टीफन वेनेबल्स को निकाला। हेलीकॉप्टर के रोटर से कुछ ही इंच की दूरी पर बर्फीली ढलान होने पर भी इन लोगों ने अपने हेलीकॉप्टर को उसकी ‘स्की’ पर उतारा और वेनेबल्स को वहाँ से उठाकर सुरक्षित स्थान पर पहुँचाया। इस भारतीय ब्रिटिश दल ने पंच चुली-2 को विजित कर लिया था और पंचम शिखर पर पहले आरोहण का प्रयास किया ही था कि यह दुर्घटना घटी और वेनेबल्स इसके शिकार हो गए। बर्फ में गाड़ी गई एक कील के ढीले हो जाने के कारण सैकड़ों फुट नीचे गिरते चले गए और उनके घुटने और टखने पर चोटें आईं। इस बहादुराना बचाव-प्रयास से ही उनके प्राण बच पाए।

सिक्किम


दो साल तक बैसाखियों के सहारे चलने के बाद मैं उस चोट से उबर पाया। तब मैं उत्तरी सिक्किम के लिये रवाना हुआ। 1974 में सिक्किम भारत का राज्य बन गया और हम वहाँ जाने की अनुमति पाने वाले पहले ट्रैकरों में से थे। ग्रीन लेक की अपनी यात्रा के दौरान जर्कसिस बोगा और मैं ऊँचे दर्रों से होकर ल्होनाक घाटी गए।

फ्रैशफील्ड ने लिखा है कि यहाँ के जुलाई के तूफान बड़े ‘कुख्यात’ होते हैं। एक नमूना हमने भी देखा। एक बार जब हम थांगु बोगा के पास पहुँचे, तो हम अचानक एक पुल के पास बैठ गए। नीचे की ढलान पर ढेरों पीले रोडेंड्रोन फूल खिले हुए थे। ये सिक्किम के अपने ही आनंद हैं। मैंने उनका एक फोटो खींच लिया। तब उसने दृढ़ता से मुझे रोकते हुए कहा, ‘‘मेहरबानी करके और फोटो मत खींचो। हरीश, यह सौंदर्य केवल यादों में रहने दो।’’

सिक्किम में ट्रैकिंग के दौरान अक्सर मुझे इस क्षेत्र के इतिहास की याद आ जाती थी। विश्व युद्ध से पहले एवरेस्ट के लिये अभियान उत्तर दिशा से होते थे जो सिक्किम से गुजरते थे। इस तरह विश्रामगृह के रजिस्टर में कई प्रसिद्ध नाम दर्ज दिखाई देते थे। कलकत्ता ब्रिटिश राज का मुख्यालय था। इसलिये सिक्किम के लिये रास्ता आसान और जल्दी का था। कुक, हंट और केलस ने यहाँ कुछ शानदार पर्वतारोहण किया था। हिमालयन क्लब ने सेला दर्रे की तलहटी में एक कुटिया बनाई थी। इससे ट्रैकरों को बिना तंबू या अधिक भोजन साथ रखे लाचेन से लाचुंग घाटियों में जाने में सुविधा होती थी। जब मैं इस कुटिया में पहुँचा, तो यह खस्ताहाल थी। लेकिन चाय लाने के लिये खानसामाओं को मेम साहिबों की पुकार मेरे दिमाग में गूँज उठी थी।

हिमालयकंचनजंगा सिक्किम-हिमालय का मुख्य आकर्षण है। पाल बेयर और उनके दल ने बार-बार इस पर चढ़ने की कोशिश की लेकिन उत्तर-पूर्वी नोकीली चट्टान ने हर बार उनका रास्ता रोक लिया। इसे वे पार ही नहीं कर पाए। आखिरकार 1977 में भारतीय सेना की एक टीम इस नोकीली चट्टान को पार कर इस ओर से शिखर पर पहुँचने में कामयाब रही। जेमू ग्लेशियर से कंचनजंगा एकदम सीधी उठती है, इतनी सीधी कि दोपहर के अंतिम भाग से ही डूबता सूरज दिखाई देना बंद हो जाता है। डाउग फ्रैशफील्ड 1899 में यहाँ आए थे। उन्होंने ‘पूर्वी सूर्यास्त’ के बारे में जो लिखा था हम उसे कई साल बाद देख पाए थे। कंचनजंगा की सीधी चढ़ाई पश्चिमी क्षितिज को ढक लेती है और सूर्य उसके पीछे गायब हो जाता है। इस तरह दोपहर के आरम्भ में ही ग्लेशियर पर घनी परछाइयाँ उतरने लगती हैं। भूटान तक पूर्व, काफी देर तक काफी रोशन रहता है। इस बीच यह इस तरह रंग बदलता रहता है कि विचित्र सा धोखा होने लगता है।

असम हिमालय


इससे आगे पूर्व में अरुणाचल प्रदेश की घने जंगल वाली घाटियों का विशेष अन्वेषण नहीं हुआ है। जिन क्षेत्रों में लोग आए हैं, वे अक्सर अपने मठ के लिये प्रसिद्ध त्वांग घाटी में स्थित हैं। तिलमैन इस इलाके में 1939 में आए और उन्होंने ‘असम हिमालय अनविजिटिड’ में अपने अनुभव लिखे 1913 में एफ.एम. बेली और एच.टी. मोर्सहैड ने गोरीचेन की तलहटी में पहुँचने की कोशिश की थी। इस मार्ग का नाम ‘बेली ट्रेल’ पड़ा। 1962 में इस रास्ते से चीनी नीचे आए। युद्ध के बाद इस इलाके को नागरिकों के लिये निषिद्ध कर दिया गया। सेना ने इस इलाके की निगरानी के लिये ‘एडवांस लैंडिग ग्राउंड का निर्माण किया। अधिक घनी घाटियों को इससे अलग रखा गया है। हाल के वर्षों में अलग-अलग मार्गों से गोरीचेन शिखर पर चढ़ाई की गई। कांग्तो और न्येगी कोंगसांग के रास्ते खोजे गए हैं। लेकिन अभी भी काफी कुछ करना बाकी है।

अरुणाचल प्रदेश में 1995 में न्येगी कांगसांग का अभियान विवादों में घिर गया था। कर्नल एम.पी. यादव के नेतृत्व में इस अभियान को भारतीय पर्वतारोहण प्रतिष्ठान ने प्रायोजित किया था। यह शिखर अज्ञात अरुणाचल प्रदेश और तिब्बत की सीमा पर पड़ता है। पर्वतारोही तिब्बत में चले गए और असली शिखर से लगभग 600 मीटर नीचे एक प्वाइंट पर पहुँच गए। साक्ष्यों और अध्ययनों के आधार पर अभियान दल के नेता और आरोहियों को इस तथ्य को स्वीकार करना पड़ा। अपने कार्यकाल में आरोहण की सत्यता का समर्थन करने वाले प्रतिष्ठान के अध्यक्ष, डॉ. एम.एस. गिल ने रिकार्डों को सही करने के भरसक प्रयास किए। लेकिन यह पिछली सहस्राब्दी में दूसरा सबसे बड़ा विवादास्पद मामला था जिससे मैं संबद्ध था।

विवाद


हरेक पर्वतमाला के अपने विवाद रहे हैं। भारतीय पर्वतारोही शायद अधिक विवादों में उलझे रहे हैं। न्येगी कांगसांग के बाद दूसरी ‘मणि’ (ज्वैल) का ब्यौरा मुझे देना ही होगा।

कर्नल एन. कुमार के नेतृत्व में पर्वतारोहण दल द्वारा 1961 में ‘नीलकंठ’ पर विजय का दावा सबसे अधिक कुप्रसिद्ध घटना है। इस अभियान को इस शिखर का और इसकी शिखर पहाड़ी का कोई अंदाजा नहीं था। जिसे इन्होंने ‘जेंटल ट्रज’ (आसान पदयात्रा) कहा था। 13 जून को ‘प्रथम आरोहण’ का दावा किया गया था। जब हिमालयन क्लब के मानेय अध्यक्ष, जे.सी. नानावटी ने पर्याप्त साक्ष्य प्रस्तुत किए तो नौकरशाही अपने बचाव में लग गई। भारतीय पर्वतारोहण प्रतिष्ठान के तत्कालीन अध्यक्ष, एच.सी. सरीन राजनीतिक दबाव में इन निष्कर्षों को स्वीकार न करने पर अड़े रहे। यहाँ तक कि हिमालयन जर्नल ने भी इस सुधार को दर्ज नहीं किया, जो बड़ी विचित्र-सी बात थी। लेकिन जब सत्तर के दशक के अंत में सोली मेहता और मैं सम्पादक बने, तब जाकर इस भूल को सुधारा गया। पिछले चार दशकों से दुनिया इसे सफल आरोहण नहीं मानती रही है, जबकि अधिकारिक रूप से यह अन्यथा बना रहा।

ध्यान रखना होगा कि उपरोक्त दोनों कुप्रसिद्ध मामलों में तथा अन्य कई मामलों में गलती सुधारने के लिये स्वयं भारत में ही पर्याप्त आंतरिक विशेषज्ञता तथा दिलचस्पी मौजूद थी।

गढ़वाल


वापिस मध्य भारतीय हिमालय चलते हैं गंगोत्री ग्लेशियर एक ऐसी घाटी रही है, जहाँ काफी पदयात्रा और पर्वतारोहण किया गया है। सतोपंथ, चौखम्बा, सुदर्शन पर्वत, शिवलिंग और थाले सागर कुछ ऐसे शिखर हैं जो इस क्षेत्र के गौरव समझे जाते हैं। इस क्षेत्र का पर्वतारोहण इतिहास का एक पूरा पोथा बन सकता है। यहाँ मुझे एक कहानी याद आ रही है। गंगोत्री देवालय से बद्रीनाथ जाने के लिये नाममात्र का भोजन लिये चार अधनंग साधुओं ने कालिंदी खाल को पार किया। तभी प्रसिद्ध स्विस पर्वतारोही, आंद्रे रोश भी इसी इलाके में कई शिखरों पर चढ़ रहे थे। उनकी मुलाकात साधुओं की इस टोली से हुई और वे उनके इस कारनामे से बड़े प्रभावित हुए। उन्होंने साधुओं को एक आल्टी मीटर ऊँचाई मापी यंत्र) भेंट किया। यह यंत्र, घड़ी की तरह, भारतीय पर्वतारोहियों की पीढ़ी दर पीढ़ी चलता चला आ रहा है। जब एक दल चढ़ाई बंद कर देता है, तो इसे अगले पर्वतारोही को देना होता है। इस तरह, एक लम्बी यात्रा के बाद यह मुझ तक पहुँचा।

गढ़वाल में एक और विशिष्टता है कामेत, जो सरस्वती घाटी में गर्व से सीना ताने खड़ा है। यही वह घाटी थी जिसे हिन्दू गुरू शंकराचार्य और स्पेनी पादरी, फादर अंद्रादे ने माना दर्रे से होकर तिब्बत जाने के लिये इस्तेमाल किया था। कामेत शिखर पर कई बार चढ़ने की कोशिश हुई लेकिन 1931 में जाकर फ्रैंक स्माइथ और एरिक शिप्टन ने कुछ अन्य के साथ इसे विजित किया। इनके साथ जाने वाले, आर.एल. होल्ड्सवर्थ ने शिखर पर पाइप पिया था। मैं समझता हूँ सबसे अधिक ऊँचाई पर धूम्रपान करने का रिकार्ड होल्ड्सवर्थ का ही होगा (हाँ, अगर किसी ने एवरेस्ट पर ऐसा आनंद लिया हो, तो और बात है।

उत्तर गढ़वाल की ओर बढ़ते हुए पहले जाध गंगा घाटी पड़ती है जिसका जे.बी. आदेन ने सर्वेक्षण किया था। मैं 1990 में इस घाटी पर गया और हमलोग एक खूबसूरत आकार वाले पर्वत शिखर, त्रिमुखी पर्वत-पूर्व पर चढ़े। मेरा नौजवान साथी, मोनेश तेंदुए के एक बच्चे को पकड़कर अपने स्लीपिंग बैग में गर्माहट में रखना चाहता था। आदेन ने भी ऐसा किया था। मुझे डर था कि उसकी माँ को यह पसंद नहीं आएगा, क्योंकि यह उसका इलाका था, यानी हिम तेंदुओं की घाटी। सौभाग्य से अक्ल काम आ गई।

पश्चिमी गढ़वाल को ‘गिब्सन क्षेत्र’ कहा जा सकता है क्योंकि उनहोंने नौजवान भारतीय पर्वतारोहियों को प्रशिक्षित किया था। यहाँ कालानाग, स्वर्गारोहिणी में भारतीयों ने आरोहण के गुर सीखे। महत्त्वपूर्ण बात यह थी कि उन्होंने हर-की-दून के पुष्पों, टोन्स घाटी के पक्षियों और गढ़वाल की संस्कृति का भी परिचय प्राप्त किया। गिब्सन का छोटे और मैत्रीपूर्ण अभियानों में पक्का विश्वास था और मैं कामना करता हूँ कि हम भारतीय उसके दर्शन के अनुयायी बने रहेंगे।

किन्नौर


गढ़वाल से आगे हिमालय पर्वतमाला उत्तर-पश्चिम की ओर मुड़ जाती है। यह मोटे तौर पर पश्चिमी हिमालय के नाम से प्रसिद्ध क्षेत्र में प्रवेश कर जाती है। एकदम उत्तर की ओर किन्नौर घाटी है। यहीं रुडयार्ड किपलिंग ने अपने प्रतिनिधि बेटे किम को, इसी शीर्षक की पुस्तक में भेजा था। हिंदुस्तान-तिब्बत मार्ग पर अब मोटर-गाड़ी से यात्रा की जा सकती है। इस पर यात्रा करते समय उसने आश्चर्यचकित होकर कहा था, ‘यह स्थान तो आदमी के लिये है ही नहीं।’ काल्पा का बंगला लार्ड डलहौजी का प्रिय ठिकाना था। चीड़ के पेड़ों के नीचे जोर्कांदेन शिखर के सामने बैठकर उन्होंने भारतीय रेलों का नक्शा बनाया था। बंबई में किसी एक्सप्रेस गाड़ी में बैठकर क्या इस जगह की आप कल्पना भी कर सकते हैं। जब किन्नौर की बात चलती है, तब पर्वतारोहियों में मार्को पालिस की याद आ जाती है। 1933 में उन्होंने लियो पर्गियाल शिखर का आरोहण किया और एक शानदार पुस्तक ‘पीक्स एंड लामाज’ लिखी। जोर्कांदेन, गंगचुआ और राशो समूह की सबसे ऊँची रांगरिक रांग जैसी यहाँ की कई चोटियों ने पर्वतारोहियों को आकर्षित किया है। इसी अंतिम चोटी पर क्रिस बोनिंगटन ने अपना 60वां जन्मदिन मनाया था। भारत-ब्रिटिश अभियान का नेतृत्व क्रिस और मैंने किया था। शिखर पर एक खास अंदाज में आरोहण किया गया था तथा हरेक ने इस प्रयास का मजा लिया था। आधार-शिखिर में हमने क्रिकेट खेली। कहने की जरूरत नहीं कि हम भारतीयों ने अंग्रेजों को उन्हीं के खेल में मात दी, क्योंकि फील्डिंग के लिये हमारे पास कुली जो थे।

स्पीती


इसके उत्तर में स्पीति की नंगी घाटियाँ हैं या यूं कहें हिमालय-पार का क्षेत्र है। 1983 और 1987 में हमने तत्कालीन सबसे बड़ी अछूती घाटी, पूर्वी स्पीति की लिंग्ती घाटी का सर्वेक्षण किया। हमने कई शिखरों को विजित किया लेकिन शिखर ‘ग्या’ की तस्वीर खींचकर ही हमें संतुष्ट होना पड़ा।

शीघ्र ही ग्या एक कीमती लक्ष्य बन गया और पिछली सहस्राब्दी के अंत तक इसके चारों ओर प्रभावमंडल सा बन गया। लिंग्ती घाटी से और उत्तर में चुमार से प्रयासों के फलस्वरूप शीघ्र ही इसके उत्तरी शिखर और ग्या सुम्पा (तीसरे शिखर) पर जीत हासिल हो गई। लेकिन मुख्य शिखर पर गलत-सलत दावे होते रहे तथा यह पर्वतारोहियों के लिये दुर्जेय बना रहा। आखिरकार भारतीय पर्वतारोहण प्रतिष्ठान की एक टीम ने 1999 में इस पर कदम रख ही दिए। और शिखर पर इसे एक ध्वज और कील (पिटन) मिली। घटिया खबरों और फोटोग्राफों के बावजूद सेना के पर्वतारोहियों ने 1998 में ही इस शिखर को जीत लिया था। इस तरह ‘ग्या’ पर दो बार जीत दर्ज हुई। लेकिन इसकी भी कीमत चुकानी पड़ी। उन्हीं दिनों प्रथम विजेता होने के चक्कर में बंबई के एक पर्वतारोही को निचले शिखर पर अपनी जान गंवानी पड़ी। अभी कई अविजित मार्गों के चलते ग्या इस सहस्राब्दी में भी पर्वतारोहियों की परीक्षा लेता रहेगा।

स्पीति की ओर पर्वतारोहियों का ध्यान जिमी राबर्ट और बाद में 1955 और 1956 में सर पीटर होम्स के रतांग और पिन के दो अभियानों ने खींचा। इन घाटियों में जाने वाले अगले व्यक्ति 1993 में काइवन और मैं थे। इससे आप अंदाजा लगा सकते हैं कि ये घाटियाँ कितनी दुर्गम हैं।

स्पीति के साथ एक ही सांस में लाहौल की चर्चा की जाती है क्योंकि प्रशासनिक दृष्टि से ये दोनों जुड़ी हैं। इन दोनों का लाहौल, केलौंग में एक ही मुख्यालय है। लाहौल कुंजुम ला की पश्चिमी दिशा में है। इसका मध्यवर्ती क्षेत्र चंद्रभागा क्षेत्र है जिसमें 6000 मीटर से ऊँची कई चोटियाँ हैं और एक विस्तृत घाटी है। ये सभी पर्वतारोहियों के लिये स्वर्ग हैं। पदयात्री अक्सर चंद्रताल जाते हैं और अब तो मनाली-लेह राजमार्ग लाहौल से होकर गुजरता है। पश्चिमी लाहौल में पर्वतमाला के पीरपंजाल में मिलने से पूर्व मुल्किला और फाब्रांग जैसी कुछ आकर्षक चोटियाँ हैं।

चंद्रभागा बहती हुई किश्तवार में जाती है जहाँ यह चिनाब कहलाती है। किश्तवार एल्प्स पहाड़ियों का भारतीय संस्करण कहा जा सकता है। यहाँ के पर्वतशिखर एल्प्स से ऊँचे हैं। दुर्भाग्य से एक दशक से अब यह क्षेत्र कश्मीर की अन्य घाटियों की तरह राजनीतिक उथल-पुथल में घिरा हुआ है और पर्वतारोहियों को यहाँ न जाने की सलाह दी जाती है।

कुल्लू


रोहतांग के दक्षिण में कुल्लू घाटी पड़ती है। यह हिमालयी घाटी की सर्वाधिक दुर्गम घाटियों में गिनी जाती है। जब जनरल चार्ल्स ब्रूस धौलाधार से कुल्लू और वहाँ से रोहतांग के पार गए थे, तब से कई पर्वतारोही इन घाटियों में आ चुके हैं। इन पर्वतमालाओं में कई आरोहण और अन्वेषण बाॅब पेटीग्रू के खाते में हैं। पाप्सुरा आरोहण के बाद वे गिर गए थे और उन्हें लादकर 13 दिन तक कई दर्रों से गुजार कर ऑपरेशन के लिये लाया गया था। मैंने उनके साथ अनुभवों का आदान-प्रदान किया, क्योंकि हम दोनों को ही एक तरह की चोट लगी थी। समान स्थितियों में दोनों के ही कूल्हे अपनी जगह से हट गए थे।

जांस्कार


कुल्लू घाटी में पहुँच की दृष्टि से सबसे अधिक सुविधाजनक जांस्कार घाटी है जहाँ अधिकांश पदयात्री आते हैं। कई तो शिंगोला को पार करके पदम और वहाँ से लेह जाने के लिये यहाँ पहुँचते हैं। मार्ग में इस क्षेत्र का आकर्षण फुकतल मठ पड़ता है। बहुत ऊँचाई पर लगभग एक गुफा में बने इस मठ का दूसरे मठों की तरह एक लम्बा इतिहास है। हंगेरियाई विद्वान, सोमा द कोरोस यहाँ कई साल ठहरे। यहाँ आने वाले अतिथियों को सगर्व उनकी स्मृति में उत्कीर्ण शिला दिखाई जाती है।

नुन और कुन पर्वतशिखरों पर पर्वतारोहियों की नजर सबसे पहले 1889 में पड़ी। कुन पर 1913 में विजय प्राप्त की गई, जबकि नुन पर पहली चढ़ाई बर्नाड पियरे के दल ने 1953 में की। जांस्कार के लोग बड़े मेहनती हैं और कड़ी ठंड झेलते हैं, हालाँकि उन दिनों सब तरफ से यह लोग कट जाते हैं। जब गर्मियाँ आने लगती हैं, तब ये पारम्परिक तौर पर नीमो के लिये जांस्कर नदी के साथ-साथ का रास्ता पकड़ते हैं। इस मार्ग में अब कई बार इनकी मुलाकात पदयात्रियों से भी हो जाती है।

लद्दाख


हिमालयलेह एशिया का चौराहा है। लद्दाख का केन्द्र स्थल होने के नाते और व्यापार मार्ग पर होने के कारण कारवां यहाँ मिलते रहे हैं। व्यापारी यहाँ सभी दिशाओं से आते थे। पूर्व में तिब्बत, दक्षिण में कुल्लू से, पश्चिम में बाल्टी घाटियों से मुस्लिम और उत्तर से मध्य एशिया के कारवां यहाँ आते थे। आज भी विमान भरकर यात्री यहाँ उतरते हैं, और इसका जादू कम नहीं हुआ है। पदयात्रियों और पर्वतारोहियों की दिलचस्पी के यहाँ कई स्थान हैं। रूप्शू की दक्षिण-पूर्वी घाटी में कई शिखर हैं जिनमें सबसे ऊँचा लुंगसेर कांगड़ी है (6666 मीटर), जिस पर हमलोग 1995 में चढ़े थे। तीन अन्य ऊँचे शिखरों- पोलोगोंग्का, कुला और छमसेर कांगड़ी पर एक के बाद एक पर्वतारोही दलों ने चढ़ाई की। ये लोग अलग-अलग देशों के थे। चाकुला तथा ऐसी कई अन्य चोटियाँ अभी भी पर्वतारोहियों की प्रतीक्षा कर रही हैं। विस्तृत ऊसर घाटियाँ, त्सो मोरीरि झील का नीला जल, आकर्षक घुमक्कड़ (चंगपा) और अन्वेषक पदयात्रा मार्ग, यही सब कुछ रूपशू के पास है देने को।

पूर्वी काराकोरम


लेह शहर के पीछे खारदुंग पर्वतमाला लगातार पश्चिम से पूर्व की ओर चली जाती है। शायोक और सिंधु नदी के संगम से और पूर्व की ओर बढ़ते हुए यह पर्वतमाला पांगोंग पर्वतशृंखला से मिलती है। इन दोनों पर्वतमालाओं के उत्तर में कराकोरम पड़ता है। भारतीय हिमालय की कुछेक सबसे ऊँची चोटियाँ इस क्षेत्र में पड़ती हैं। दुनिया का एक सबसे ऊँचाई वाला मोटर गाड़ियों वाला मार्ग खारदुंग ला को पार करके शायोक घाटी में प्रवेश करता है। सासेर कांगड़ी-II दर्रे से यह आसान दिखता है। इसके पश्चिम शिखर पर भारत-जापानी पर्वतारोहण दल ने विजय प्राप्त की थी, जबकि इतनी ही ऊँचाई वाली पूर्व चोटी (7518 मीटर) अभी भी अविजित है। सासेर पर्वत समूह का जिमी राबर्ट्स द्वारा अन्वेषण किया गया था और इसकी सभी प्रमुख चोटियाँ विजित कर ली गई हैं। बस सासेर कांगड़ी-1 पर पूर्वी और पश्चिमी दोनों रास्तों से चढ़ाई हुई थी तथा इस पर आरोहणों का एक लंबा रिकार्ड है। सासेर कांगड़ी-3 पर पूर्व की ओर से एक भारतीय दल ने विजय पाई थी। 7287 मीटर ऊँचा शिखर जिसे राबर्ट्स ने ‘पठारी पहाड़ी’ का नाम दिया था, यहाँ का प्रमुख अविजित शिखर है।

आगे उत्तर की ओर मध्य एशिया व्यापार मार्ग है जो सासेर ला से होता हुआ इस पर्वतमाला को पार करता है। बदलती मौसमी स्थितियों के कारण बदलते स्वरूप वाले इस ऐतिहासिक दर्रे ने कई खच्चरों और कुछ व्यक्तियों की जान ली है। इस दर्रे में और आगे के रास्ते में अक्सर हड्डियाँ मिल जाती हैं, इसीलिये इसे ‘स्केलेटन ट्रेल’ यानि ‘अस्थिपंजर मार्ग’ भी कहा जाता है। इस मार्ग तथा इसके उपमार्गों पर खड़ा है मामोस्टोंग कांगड़ी शिखर, जिस पर सबसे पहले 1984 में विजय हासिल की गई थी और यहाँ एक बहुत ऊँचा पथरीला पिरामिड, ‘अक ताश’ भी है। मैंने दो बार सासेर को पार किया है और अपनी दूसरी यात्रा में हम शायोक में अज्ञात चोंग कुमदान ग्लेशियर गए थे। इस समूह के 7071 मीटर वाले मुख्य शिविर समेत तीन शिखरों पर हम तथा कई अन्य लोग चढ़े थे। चोंग कुमदान शायोक पर बनाए गए अपने कई बाँधों के लिये प्रसिद्ध है। बढ़ता हुआ चोंग कुमदान ग्लेशियर सर्दियों में शायोक को रोक देता है। गर्मियों में नदी के उफान से बाँध टूट जाता है और इससे बाढ़ आती है तथा कई सौ किलोमीटर नीचे तक तबाही आ जाती है। रास्ता काराकोरम दर्रे तक और अंत में मध्य एशिया तक चला जाता है।

सियाचिन ग्लेशियर


वापिस नुब्रा घाटी और सासोमा चलें, जहाँ से रास्ता आरम्भ हुआ था। उत्तर में है सियाचिन ग्लेशियर। यह दुनिया के सबसे लंबे ग्लेशियरों में से एक है। यह पर्वतारोहण का एक प्रमुख आधार भी है। इसका बड़ा लम्बा इतिहास है। सर फ्रांसिस यंगहस्बैंड, बुलक वर्कमैंस और टाॅम लांगस्टाफ पहले यात्री थे जो यहाँ आए और यहाँ की लम्बाई, स्थिति और पर्वतों की जानकारी लेकर लौटे। इसकी पश्चिमी छोर पर साल्टोरो कांगड़ी-1, के-12, सिया कांगड़ी तथा अन्य चोटियों पर विभिन्न देशों के पर्वतारोहियों ने विजय प्राप्त की। 1970 के दशक में कई जापानी अभियान दलों ने पश्चिम में बिलाफोंड ला को पार किया, इस ग्लेशियर पर पहुँचे और तेराम कांगड़ी-1, अप्सरासास और सिंधी कांगड़ी पर आरोहण किया। पाकिस्तान की ओर से हुए इन आरोहणों ने भारतीय सेना को कार्रवाई करने के लिये मजबूर किया और 1984 में सेनाएँ इस ग्लेशियर की ऊँचाइयों पर आकर जम गई। यह ‘ग्लेशियर युद्ध’ की शुरुआत थी, जो आज भी जारी है। इससे पूर्व भारतीय सेना के कुछ अभियान दल इस ग्लेशियर पर चढ़ते रहे थे और उपरोक्त शिखरों पर कई बार उन्होंने चढ़ाई की। अब यह चढ़ाई भारत की ओर से हुई थी।

इस ग्लेशियर पर तथा साथ की घाटियों में भारत की तरफ से कई दलों को आरोहण की अनुमति दी गई। साथ की घाटी में पहला संयुक्त अभियान 1985 में रिमो शिखरों पर हुआ। दल का नेतृत्व मैंने किया और डेविड विल्किंसन रीमो-3 पर चढ़े तथा रीमो-1 पर चढ़ते-चढ़ते रह गए, जिस पर अगले वर्ष जापानी पर्वतारोही दल ने विजय प्राप्त की। एक भारत-अमरीकी टीम ने सिया कांगड़ी पर चढ़ाई की जो इस ग्लेशियर के शीर्ष पर थी। इसके बाद कई सालों तक कोई भी पर्वतारोही ऊपर ग्लेशियर में नहीं गया। 7705 मीटर ऊँचा सल्तोरो कांगड़ी-2 शिखर आज भी दुनिया के ऊँचे अविजित शिखरों में गिना जाता है। जब वहाँ स्थिति शांत हो, काफी पर्वतारोहण किया जा सकता है।

1998 में मेरा एक सपना पूरा हुआ, जब सियाचिन ग्लेशियर को पार करते हुए मैं इसके शीर्ष, इंदिरा कोल पर जा खड़ा हुआ। ऐतिहासिक पर्वतों और ऐतिहासिक महत्व के खास स्थलों को देखना एक भव्य अनुभूति थी। ग्लेशियर से जुड़ी वर्तमान लड़ाई के बावजूद यह ग्लेशियर पर्वतारोहियों के लिये भविष्य की पर्वतमाला है।

हालाँकि भारतीय हिमालय में 8000 मीटर से ऊँची पर्वतचोटियाँ नहीं हैं, जिनके लिये प्रमुख पर्वतारोही दूसरी जगह अपनी बारी की प्रतीक्षा करते हैं, फिर भी भारतीय हिमालय पर्वतमाला अपने बूते पर ही अलग खड़ी है। एवरेस्ट समेत सभी ऊँची चोटियों पर 100 से भी अधिक बार चढ़ाई हो चुकी है। एक बार उनमें दिलचस्पी खत्म हो गई, तब उम्मीद है भारत जैसी पर्वतमालाएँ, पर्वतारोहियों की क्रीड़ास्थली बन जाएँगी।

यह भारतीय हिमालय में घटनाक्रम का संक्षिप्त व्यक्तिगत इतिहास है। पर्वतारोहण के अलावा भी इस पर्वतमाला के कई अन्य पहलू हैं। इस पर्वतमाला में दिलचस्पी रखने वाले पर्वतारोही के लिये मेरा एक सुझाव है। ‘बे आफ पिग्स’ की नाकामी के बाद कहा जाता है कि एक बार नार्मल मिलर ने राष्ट्रपति जाॅन एफ कैनेडी से मजाक में कहा था, ‘‘बिना वहाँ के संगीत का समझे आपने एक देश पर हमला कर दिया।’’ मैं भी यही बात कहूँगा कि अगर आप इसके समृद्ध इतिहास और विविधतापूर्ण संस्कृति को समझ पाएँगे, तो भारतीय हिमालय की आपकी यात्रा अधिक आनंददायक होगी। हालाँकि पिछली सहस्राब्दी में भारतीय हिमालय पर्वतशृंखला में काफी कुछ किया गया है, फिर भी काफी कुछ करना अभी शेष है। युगों से खड़े नगाधिराज हिमालय के लिये 1000 वर्ष की अवधि क्या होती है। आज जब हम अन्तरराष्ट्रीय पर्वत वर्ष मना रहे हैं, हमें इस पर्वतमाला के बारे में अधिक जानने और इसे संरक्षित रखने की प्रतिज्ञा लेनी होगी।

(लेखक श्री हरीश कपाड़िया एक अनुभवी पर्वतारोही हैं।)

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