भारतीय चिंतन और पर्यावरण-संरक्षण

भारतीय ऋषियों ने वनस्पतियों और पशुओं की रक्षा करने की शिक्षा दी है तथा उनको हानि न पहुंचाने का भी आदेश दिया है। आचार्यों ने वनस्पति देवी की कल्पना की। वनस्पति देवी का ही बिगड़ा हुआ रूप वनस्पती देवी है। कहने का आशय है कि भारतीय ऋषियों, महर्षियों एवं आचायों को प्रकृति-प्रदत वनस्पतियों का पर्यावरणीय लाभ भलीभांति ज्ञात था। उन्हें ज्ञात था। कि प्रकृति के विधानांतर्गत ये वनस्पतियां अपने विकास के लिए मात्र दस प्रतिशत भाग मृदा से प्राप्त करती हैं और नब्बे प्रतिशत भाग के लिए वायुमंडल पर निर्भर होती हैं। भारतीय धर्म, दर्शन, अध्यात्म, संस्कृति और सभ्यता के उत्कर्ष का विराट् चिंतन भारतीय साधकों, ऋषियों, तपस्वियों और आचायों की महनीय मेधा का परिणाम है। ज्ञानालोक से आलोकित भारतीय ऋषि अद्वितीय वैज्ञानिक, अनुसंधानकर्ता, मानवता के अनन्य हित-चिंतक, दूरदृष्टि संपन्न पथ-प्रदार्शक थे। वे स्वाध्याय द्वारा इस सत्य से भलीभांति परिचित थे कि प्रकृति द्वारा स्थापित विधानांतर्गत कुछ भी निरर्थक नहीं है। सुर्य, हवा, जल, भूमि, वनस्पति, जीव-जंतु प्रकृति सभी एक-दूसरे के हित में सदैव सहयोगी बने रहते हैं। ये मनुष्य के शुभैषी हैं। अत: मनुष्य का नैतिक धर्म है कि वह इन पर्यावरणीय पदार्थों का यथोचित उपयोग करे और सदैव इनके संरक्षण में निरत रहे।

भारतीय ऋषियों ने मानव-मस्तिष्क को उचित दिग्दर्शन कराने के लिए वेद, पुराण, उपनिषद्, ब्राह्मण, आरण्यक प्रभृति उत्कृष्ट ग्रंथों की उद्भावना की, जिससे मानव-समुदाय समष्टिगत चिंतन में निरत रहते हुए, सामाजिक सद्भाव बनाए रखे और प्रकृति में अंगीभूत जीयो और जीने दो के विधान का पालन करते हुए, विकास के प्रत्येक सोपान पर अपने चरण-चिन्ह अंकित तो करे ही, साथ ही आत्मोद्धार भी करे। इस सद्भाव को बनाए रखने की प्रेरणा यजुर्वेद के शांति मंत्र से प्राप्त होती है, जिसमें घुलोक, अंतरिक्ष, पृथ्वी, जल, वनस्पति प्रभृति में सर्वत्र परम् शांति बने रहने की उद्दात भाव अनुस्यूत है। प्रत्येक घटक में शांति की कामना तत्कालीन ऋषयों की सामाजिक और पर्यावरणीय सद्भावना का द्योतक है। यहीं से भारतीय चिंतन के मार्तंड का उष:आलोक प्रकीर्णित होता है-

‘द्यौ शांतिरंतरिक्षः शांतिः पृथिवी शांति रापः
शांतिरोषधयः शांति। वनस्पतयः शांतिर्विश्वे
देवाः शांतिर्ब्रह्म शांतिः सर्वङ शांतिः शांतिरेव
शांतिः सा मा शांतिरेधि।।’


उपर्युक्त शांति मंत्र में पर्यावरण-संतुलन या सद्भाव को बनाए रखने हेतु भारतीय ऋषियों द्वारा प्रार्थना की गई है, जिससे स्पष्ट होता है कि वैदिककालीन ऋषि पर्यावरण के प्रत्येक रूप की संरक्षा एवं संतुलन के प्रति कितने सजग थे। उन्होंने जन सामान्य में श्रद्धाभाव जागृत कर प्रकृति के समस्त रूपों को अशांत अर्थात् सांप्रतिक परिप्रेक्ष्य में प्रदूषित न करने की प्रेरणा दी। साथ ही जीवन के प्रति संकट में बन रहें प्रदूषण से सजग रहने के लिए न केवल सत्परामर्श दिया, अपितु प्रेरित भी किया। इसी क्रम में मैत्री भावना स्थापित करने के लिए मंत्र पाठ का विधान किया गया है-

मित्रस्य मा चक्षुषा सर्वाणि भूतानि समीक्षंताम।
मित्रस्याहं चक्षुषा सर्वाणि भूतानि समीक्षे।मित्रस्य
चक्षुषा समीक्षामहे।।

अर्थात् सब जीव मेरी ओर मित्रता की दृष्टि से देखें। मैं सबकी ओर मित्रता की दृष्टि से देखूं। सब एक-दूसरे की ओर की दृष्टि से देखें। वस्तुत: वैदिककालीन भारतीय ऋषियों का चिंतन मैत्री-भावना से अनुप्राणित था। इसलिए उन्होंने न केवल मनुष्य की मैत्री-भावना की कल्पना की, अपितु मनुष्य के प्रति प्रकृति की और प्रकृति के प्रति मनुष्य की मैत्री-भावना को व्यावहारिक धरातल पर चरितार्थ किया। ऋषियों ने पर्यावरण-संरक्षण के लिए प्रकृति के प्रत्येक घटक की प्रार्थना की है। प्रदूषण मुक्त वायु के लिए पवनदेव से प्रार्थना की गई-
शं नो वात: पवताङ।

अर्थात् हे पवनदेव: वायु हमारे सिए शुद्ध होकर बहे।यजुर्वेद में अंतरिक्ष (वायुमंडल) के पवित्र रहने की भी कामना की गई है। मृदा संरक्षण की एक प्रार्थना में कहा गया है-
पृथिवीं यच्छ पृथिवीं दृङह पृथिवीं मा हिङसी।।

अर्थात् मृदा को उर्वर बनाएं तथा उसके प्रति हिंसा (प्रदूषण) न करें। एक मंत्र में भारतीय ऋषियों ने बादलों से कामना की है कि वे हमारे लिए सुखकारी हों-
शं योरिभि स्त्रवंतु न:।

भारतीय ऋषियों ने वनस्पतियों और पशुओं की रक्षा करने की शिक्षा दी है तथा उनको हानि न पहुंचाने का भी आदेश दिया है। आचार्यों ने वनस्पति देवी की कल्पना की। वनस्पति देवी का ही बिगड़ा हुआ रूप वनस्पती देवी है। कहने का आशय है कि भारतीय ऋषियों, महर्षियों एवं आचायों को प्रकृति-प्रदत वनस्पतियों का पर्यावरणीय लाभ भलीभांति ज्ञात था। उन्हें ज्ञात था। कि प्रकृति के विधानांतर्गत ये वनस्पतियां अपने विकास के लिए मात्र दस प्रतिशत भाग मृदा से प्राप्त करती हैं और नब्बे प्रतिशत भाग के लिए वायुमंडल पर निर्भर होती हैं। इन क्रियाओं को संपन्न करने के लिए प्रकृति ने वनस्पतियों को प्रकाश संश्लेषण जैसी अदूभुत क्षमता प्रदान की है। इसके माध्यम से वे सौर-ऊर्जा से मिलकर वायुमंडल में उपस्थित कार्बन डाइऑक्साइड तथा पानी के अणुओं को ऑक्सीजन तथा कार्बोहाइडेट (खाद्द पदार्थ) में परिवर्तित करते रहने में निरंतर सक्रिय रहती हैं। पार-श्वसन क्रिया द्धारा वनस्पतियां वायुमंडल के भीतर समुचित मात्रा में जल-स्तर स्थापित रखने में योगदान करती हैं। सूर्यमुखी का एक छोटा पौधा दो लीटर और सेब का एक-बड़ा पेड़ तीस लीटर पानी प्रतिदिन वायुमंडल में त्यागता है। जंगल की हरित लतिकाएं, नन्हीं-नन्हीं घासें भी इसी प्रकार का योगदान करती हैं इसी कारण तीव्र आपातकाल में बाग-उद्यान-जंगल की हरिताभा ताप-कष्ट से मुक्ति प्रदान करती है। वनस्पतियों के पारश्वसन और जलाशयों के सौर-वाष्पीकरण द्वारा पानी के कण वायुमंडल में पहुंचते हैं और पुन: हिम तथा वर्षा के रूप में मनुष्य को प्राप्त होते हैं। यह कभी न समाप्त होने वाली दोतरफा आवागमन क्रिया है। इसी के माध्यम से पृथ्वी के जल-भंडार प्राकृतिक रूप से सतत् समृद्ध होते रहते हैं। भारतीय आर्षग्रंथ इस उपयोगिता को ध्यान में रखकर इनको स्वच्छ रखने का आदेश एवं परामर्श देते हैं।

इस संसार में जीवित रहने के लिए समस्त जीवधारियों को स्वच्छ हवा के पश्चात् दूसरी सबसे बड़ी अनिवार्यता जल की है। इन दोनों के अभाव में पृथ्वी पर जीवन कल्पना ही निराधार है। ‘जल’ और ‘वायु’ के संयोग से ही ‘जलवायु’ का सृजन होता है। जलवायु की स्वच्छता एवं उत्कृष्टता पर ही खाद्य पदार्थों की उपलब्धता निर्भर है। मिट्टी, जल, वायु, और ऊष्मा को यथोचित संस्कार प्राप्त कर खाद्य पदार्थ या खाद्यान्न उत्पन्न होता है। खाद्य पदार्थ या खाद्यन्न को ग्रहण करते हुए आत्मोद्धार की ओर कदम बढ़ाते रहना सभी जीवधारियों की नियति है। इन खाद्य पदार्थों का आधार वनस्पति है। वनस्पतियों के माध्यम से ही शाकाहारी जीवों के लिए फल, फूल, खाद्यान्न उपलब्ध होते हैं। मांसाहारी जीवों के लिए उनकी रुचि के अनुरूप भोज्य जीवों की श्रृंखला का विकास होता है। इस प्रकार की अद्भुत खाद्य-श्रृंखला की स्थापना स्वयं प्रकृति ही करती है।

भारतीय ऋषियों ने पारिस्थितिकीय विश्लेषण की पराकाष्ठा को प्राप्त कर पर्यावरण-संरक्षण के लिए अनेक सरल तथा सामाजिक-आचरण के लिए हितकर नियम प्रतिपादित किए थे, जिनका उद्देश्य था कि समाज का प्रत्येक सदस्य अपने दैनंदिन कर्म के संपादन के साथ ही इस महत्वपूर्ण संरक्षण-क्रिया में जाने-अनजाने अपना योगदान करता रहे। उन दूरदर्शी ऋषियों ने नियमों को स्थायित्व प्रदान करने के लिए उन्हें व्यावहारिकता एवं मानव-मनोविज्ञान से अनुस्यूत करते हुए स्वर्ग-नरक, शुभाशुभ, धर्माधर्म, पाप-पुण्य प्रभृति की संज्ञा प्रदान कर सन्मार्ग निबद्धित किया। संप्रति वैज्ञानिकता की दृष्टि से विचार-विनिमय करने वाली एवं शिक्षित होने के अहंकार में दिग्भ्रांत युवा पीढ़ी प्राक्तन महर्षियों के धर्माभिप्रेरित पारिस्थितिकीय विश्लेषण की पराकाष्ठा को समझे बना ही भारतीय धर्माचरण को मिथ्या ढोंग एवं आडंबर सिद्ध करने में ही अपनी योग्यता समझती है। तब और अब में इतना ही अंतर है कि तब का मनुष्य ऋषियों के नियमों के गूढ़ रहस्य को समझे बिना उनका पालन करते हुए स्वतः अनुशासित रहता था और प्राकृतिक संतुलन के साथ-साथ पर्यावरण का अनजाने ही संरक्षण करता था, जबकि आज का मनुष्य भूगोल एवं खगोल के रहस्य को अनावृत कर चुका है। उसके लिए कुछ भी अज्ञेय नहीं है, संपूर्ण ब्रह्मांड उसके लिए हस्तामलकवत् है, किंतु सब कुछ जानते हुए भी वह स्वार्थसिद्धि के कारण प्रकृति का दोहन करते हुए पर्यावरण को प्रदूषित करता है। तब का मनुष्य अशिक्षित होते हुए भी पर्यावरण की दृष्टि से संपन्न था और आज का मनुष्य शिक्षित होकर भी पर्यावरण की दृष्टि से विपन्न है। इसका मूल कारण भारतीय चिंतन से विमुख होना है। ऋषियों ने इतने व्यावहारिक नियमों का निर्माण किया था कि उनके अनुरूप आचरण से ही पर्यावरण संरक्षित हो जाता था।

आर्षग्रंथ पीपल, वट, तुलसी प्रभृति कतिपय वृक्षों को पूजनीय बताते हुए उनके काटने का निषेध करते हैं। वट, पीपल आदि देववृक्ष हैं। वटवृक्ष के मूल में भगवान् ब्रह्रा, मध्य में भगवान् जनार्दन तथा अग्रभाग में देवाधिदेव शिव प्रतिष्ठित रहते हैं। देवी सावित्री भी वटवृक्ष में स्थित रहती हैं-

वटमूले स्थितो ब्रह्मा वटमध्ये जनार्दन:।
वटाग्रे तु शिवो देव: सावित्री वटसंश्रिता।।


ज्येष्ठ कृष्ण अमावस्या को वटसावित्री व्रत में वट का विशेष पूजन होता है। इससे सौभाग्य की वृद्धि होती है। ऐसे ही पीपल के मूल में भगवान् ब्रह्मा, त्वचा में भगवान् विष्णु, शाखा में भगवान् शिव एवं पत्र में देवताओं का अधिवास है-
मूले ब्रह्रा त्वचा विष्णु: शाखा शंकरमेव च।
पत्रे-पत्रे देवानाम वासुदेव नमस्तुते।।


पीपल वृक्ष रूप में श्रीहरि का स्वरूप है। भगवान् ने उसे अपनी विभूति बताया है-
अश्वत्थ: सर्ववृक्षाणाम्।

छांदोग्योपनिषद्, में संपूर्ण संसार की उपमा अश्वत्थ (पीपल) से दी गई है-

अस्य सोम्य महतो वृक्षस्य यो मूले Sभ्यहन्याज्जीवन् स्त्रवेद्यो...
स एष जीवेनात्मनानुप्रभूत: पेपीयमानो मोदमानस्तिष्ठति।।


अर्थात् हे सौम्य! यदि कोई इस महान् वृक्ष के मूल में आघात करे तो वह जीवित रहते हुए भी केवल रसस्त्राव करेगा। यह वृक्ष जीव-आत्मा से ओत-प्रोत है और जल-पान करता हुआ आनंदपूर्वक स्थिर है।

गीता में मानव के स्नायु-संस्थान की उपमा उपमा उल्टे अश्वत्थ से दी गई है-
ऊधर्वमूलमध: शाखमश्वत्थं प्राहुरव्ययम्।

वस्तुत: पीपल वृक्ष को भगवान् विष्णु और वटवृक्ष को भगवान् शिव का स्वरूप प्रदान करने पर इन वृक्षों के स्थायी की व्यवस्था इतनी सफल सिद्ध हुई कि आज भी भारतीय जन-मानस में अधर्म के भय से इन वृक्षों के न काटने की भावना कूट-कूटकर भरी हुई है। तत्वत: ये चिरंजीवी, वृहद्, छतनार, औषधीय तथा प्रदूषण नियंत्रण, गुण-संयुक्त होने के साथ ही भारतीय पर्यावरणीय परिवेश में सहस्त्राब्दियों से स्थापित सबसे उपयुक्त वृक्ष हैं। ये महदाकार वृक्ष मृदा-निर्माण, संरक्षण, जैविक उर्वरा-वृद्धि, जीवधारियों के लिए वायुमंडल में सही वायु-मिश्रण-वृद्धि के साथ उसे स्वच्छता प्रदान करते रहने एवं भूजल भंडारण की वृद्धि में सहायक होने की भूमिका का निर्वाह करते हैं। अश्वत्थ (पीपल) का वृक्ष तुलसी के समान अहोरात्र प्राणवायु (ऑक्सीजन) का प्रसारण करता है। अनुमानत:पीपल का वृक्ष एक घंटे में 1713 लीटर प्राण-वायु (ऑक्सीजन) का उत्सर्जन करता है और 2252 लीटर कार्बन डाइऑक्साइड (Co2) का प्रभक्षण कर अपना भोजन बनाता है। इसके अतिरिक्त इस प्रकार के वृक्ष कई प्राणियों के लिए भोजन तथा आवास के माध्यम भी होते हैं।

वनस्पतियों में सोम का उल्लेख वन के राजा के रूप में हुआ है। ऋग्वेद के पूरे नवम् मंडल में तथा अन्य मंडलों में सोम की स्तुतियां हैं। वस्तुतः सोम एक शक्तिवर्धक तत्व है, उससे मानसिक और शारीरिक दोनों प्रकार की शक्तियों में वृद्धि होती है। वैदिक सूक्तों में सोम लता को भगवान् का रूप कहा गया है।
त्वमिमा औषधिः सोम विश्वास्त्वमपो अजनय स्त्वं गाः।
त्वमा ततन्योर्वंतरिक्षं त्वं ज्योतिषा वि तमो ववर्थ।।


अर्थात् हे सोम! आपने ये सब औषधियां, जल और गौएं उत्पन्न की हैं। आपने यह विशाल अंतरिक्ष फैलाया है और प्रकाश से अंधकार को दूर किया है।

सोम के अतिरिक्त ऋग्वेद में शाल्मली, खदिर, सिन्सोपा, विभिदक, शमी और प्लक्ष आदि वृक्षों का नामोल्लेख हुआ है। फलदार वृक्षों में उर्वारुक, कर्कंधु, कुवलय, उदुंबर, खजूर, बिल्व प्रभृति का उल्लेख संहिताओं में प्राप्त होता है। भारतीय ऋषियों ने अपने प्रातिभ ज्ञान से वनस्पतियों द्वारा दिव्य औषधियों का निर्माण कर वनस्पति-जगत् की अलौकिक महत्ता का प्रतिपादन किया। वेदों में औषधियों की भी प्रार्थनाएं की गई हैं। एक प्रार्थना में विवृत्त है-

मधुमतीरोषधीर्द्याव आपा मधुमन्नो भवत्वंरिक्षम्।
क्षेत्रस्य पतिर्मधुमान्नो अस्त्वरिष्यंतो अन्वेनं चरेम्।।


अर्थात् औषिधियां-वनस्पतियां हमारे लिए मधुमती हों। द्यु, जल, अंतरिक्ष हमारे लिए मधुर हो। भूमि भी हमारे लिए मधुरतायुक्त हो और हम किसी भी तरह से हिंसित न होते हुए क्षेत्रपति का अनुसरण करें।

वृक्षों के विकास के लिए मंगलानुशंसा की जाती थी और उन्हें सुखी जीवन के लिए अपरिहार्य माना जाता था-

वनस्पते शतवल्शो वि रोह
सहस्त्रवल्शा वि वयं रुहेम।
यं त्वामयं स्वधितिस्तेजमानः
प्रणिनाय महते सौभगाय।।


हे वनस्पते! इस अत्यंत तीक्ष्ण फरसे ने तुझे बनाया है, तू शताधिक शाखाओं वाला होकर उत्पन्न हो और हम भी सहस्त्राधिक शाखाओं से युक्त होकर उन्नति करें।

भारतीय ऋषि इस तथ्य से भली-भांति परिचित थे कि मनुष्य और वनस्पति-जगत् अन्योन्याश्रित रूप से परस्पर निर्भर हैं। इसलिए ऋषियों ने वनस्पतियों और औषधियों के गुणों की वृद्धि के लिए मंत्रों का विधान किया है-

यः सुपर्णा आङ्गिरसीर्दिव्या या रघटो विदुः।
वयांसि हंसा या विदुर्याश्च सर्वे पतत्रिणः।।


इसी में वृक्षों को वन का स्वामी कहा गया है, जो मनुष्य को पाप से बचा सकते हैं-

अग्निं ब्रूमो वनस्पतीनोषधीरुत वीरुधः।
इंद्र बृहस्पतिं सूर्य ते नो मुञ्चंत्वंहसः।।


वृक्षों को साक्षात ब्रह्म मानते हुए कहा गया है कि दस कुआं के बराबर एक बावड़ी, दस बावड़ी के बराबर एक तालाब, दस तालाब के बराबर एक पुत्र एवं दस पुत्रों के बराबर एक वृक्ष है-

दश कूप समो वापी दश वापी समो सरः।
दश सरः समो पुत्रः दश पुत्र समो तरुः।।


प्राचीनकाल से ही भारतीय समाज ऐषणात्रयी-पुत्रैषणा, वित्तैषणा, लोकैषणा की कामना करता रहा है। इनमें भी पुत्रैषणा का महत्व सर्वाधिक है। दस पुत्र के समतुल्य एक वृक्ष कहकर ऋषियों ने न केवल वृक्ष की महत्ता को प्रतिपादित किया, अपितु वृक्षारोपण को ही अगले जन्म की पुत्रैषणा की पूर्ति का भी साधन बताया-

वृक्षारोपयितुर्वृक्षाः परलोके पुत्रा भवति।

ऋषियों ने बताया है कि जो व्यक्ति पीपल, नीम और बरगद के एक-एक चिंचिड़ी (इमली) के दस, कपित्थ, बिल्व और आमलक (आंवला) के तीन-तीन और आम के पांच पेड़ लगाता है, वह कभी नरक में नहीं जाता-

अश्वत्थमेकं पुचिमर्दमेकं न्यग्रोधमेकं दश चिञ्चिणीकम्।
कपित्थबिल्वामकलत्रयं च पञ्चाग्रवापी नरकं न पश्येत्।


वस्तुतः भारतीय समाज स्वर्गकामी एवं मोक्षकामी है। भारतीय जन नरकगामी होना तो दूर नरक का दर्शन भी नहीं करना चाहते। ऋषियों को भली-भांति ज्ञात था कि भोले-भाले भारतीयों को नरक का सर्वाधिक भय है। इसी बात का फायदा उठाते हुए उन्होंने वृक्षारोपण के विधान से पर्यावरण-संतुलन का मार्ग प्रशस्त किया।

वैदिक संहिताओं के अतिरिक्त उपनिषद् ग्रंथ भी वृक्षों के महत्व को यथावत् स्वीकार करते हैं। ‘बृहदारण्यकोपनिषद्’ में महर्षि याज्ञवल्क्य ने मानव-शरीर से वृक्ष की तुलना करते हुए उनके निर्विवाद महत्व का प्रतिपादन किया है-

यथा वृक्षो वनस्पतिस्तथैव पुरुषोSमृषा।
तस्य लोमानि पर्णानि त्वगस्योत्पाटिका बहिः।।
त्वच एवास्य रुधिरं प्रस्यंति त्वच उत्पटः।
तस्मात् तदा तृष्णात् प्रैति रसो वृक्षादिहतात्।।
मांसान्यस्य शकराणि की नाटङस्नावत् स्थिरम्।
अस्थीन्यंतरतो दारुणि मज्जा मज्जोपमा कृता।।


अर्थात जैसा अरण्य का वृहद वृक्ष है, वैसा ही मानव शरीर भी है। मानव शरीर में रोम हैं, वृक्ष में पत्र हैं, मानव की त्वचा है, वृक्ष का बाह्य छाल है। जैसे मानव की त्वचा से रक्त प्रवाहित होता है, वैसे ही वृक्ष की बाह्य छाल से रक्तपात होता है। मानवीय मांस और मांसपेशियों की तरह वृक्ष की बाह्य छाल का आभ्यांतर भाग है। मनुष्य में जैसे नाड़ी-जाल है, वैसे ही वृक्ष का कीनाट (लकड़ी से संपृक्त कोमल भाग) है। उसकी अंदर की लकड़ियां मानों अस्थियां हैं। वृक्ष की मज्जा मनुष्य की मज्जा-सदृश है।

यद्यपि ‘बृहदारण्यकोपनिषद्’ में महर्षि याज्ञवल्क्य ने मानव-शरीर से वृक्ष का तुलनात्मक विश्लेषण पुनर्जन्म संबंधी चर्चा के अंतर्गत किया है, तथापि इस विश्लेषण से वृक्ष-वनस्पतियों में जीवनानुसंधान की सुस्पष्ट दृष्टि विद्यमान है। आधुनिक वैज्ञानिकों द्वारा वृक्ष में जीवनानुसंधान से बहुत पहले भारतीय ऋषि इस तथ्य से परिचित थे। इस तथ्य का प्रमाणन ‘छांदोग्योपनिषद्’ से भी होता है-

अस्य यदेकाङशाखां जीवों जहात्यथ सा शुष्यति
द्वितीयां जहात्यथ-सा शुष्यति तृतीयां जहात्थ सा
शुष्यति सर्वं जहाति सर्वः शुष्यति।


भारतीय ऋषियों ने वृक्षों पर न केवल जीवानानुसंधान किया, अपितु उन्हें अवध्य बताया। ऋषियों ने बताया कि वृक्षों को काटना अपराध है। इस अपराध है। इस अपराध के लिए दंड एवं प्रायश्चित का प्राविधान है। व्यर्थ में वृक्ष काटने वाला व्यक्ति ‘असिपत्र’ (एक नरक जहां तलवार के समान पत्ते वाले वृक्ष हैं में स्थान पाता है। ऋषियों ने वृक्षों को काटने पर दंड का विधान दर्शा कर पारिस्थितिकीय संतुलन बनाए रखने में वृक्षों की अनिवार्यता का बोध कराया है। आज इस प्रकार के नियम विश्व के कई देशों में बनाए जा रहे हैं।

प्राचीन भारतीय चिकित्सा-पद्धति के अनुसार पृथ्वी में ऐसी कोई भी वनस्पति नहीं है, जो औषध न हो। इसलिए यजुर्वेद में वानस्पतिक औषधियों को अच्छा मित्र बताकर उनके फलन-फूलने की कामना की गई है, ताकि वातावरण शुद्ध रहे तथा प्राणी निरोगी हों-

माध्वीर्नः संत्वोषधीः।

महर्षि पराशर ने ‘वृक्ष आयुर्वेद’ संज्ञक ग्रंथ का प्रणयन किया है, जिसमें बीजोत्पत्ति, वानस्पत्य, गुल्म, वनस्पति, लता तथा चिकित्सा नामक छह कांड हैं। अथर्वेवेद में आकृति तथा लक्षण के आधार पर पादपों को सात भाग-वृक्ष, तृण, औषधि, गुल्प, लता, अवतान तथा वनस्पति में वर्गीकृत किया गया है। आयुर्वेद ही नहीं अपितु विश्व की चिकित्सा पद्धति मूलतः वनस्पतियों पर निर्भर हैं। अतः वृक्ष औषधि है, जीवन है। ‘चरकसंहिता, सुश्रुतसंहिता, शार्ङ्गधरसंहिता, राजनिघंटु, मदननिघंटु प्रभृति ग्रंथों में इस तथ्य का विस्तार के साथ विवेचन किया गया है।’

आचार्य रामकृष्ण झा ने ‘द्रौपदी’ शब्द की वन के संदर्भ में व्याख्या करते हुए लिखा है, “द्रौपदी राजा द्रुपद की पुत्री थी। ‘द्रुपद’ शब्द का ‘द्रु’ शाखा और ‘पद’ मूल का द्योतक है। ‘द्रु’ से ही ‘द्रुम’ शब्द बना है, जिसका अर्थ पेड़ अथवा वृक्ष है। द्रुपद-संस्कृति अर्थात् ‘वन-संस्कति के अप्रतिष्ठित होने के कारण ही ‘महाभारत’ का युद्ध हुआ। वस्तुतः वन संस्कृति को आघात पहुंचाना, सृष्टि-विनाश का कारण बन सकता है’ वर्तमान संदर्भ में पर्यावरण-संरक्षण अत्यंत प्रासंगिक एवं ज्वलंत विषय है। इसका निदान वन-संस्कृति के माध्यम से ही संभव है।

भारतीय ऋषियों ने पर्यावरण के अन्य घटकों को भी संरक्षित करने का आदेश एवं परामर्श दिया है। जल को देव स्वरूप मानते हुए नदियों को ‘जीवनदायिनी’ कहा गया है। ‘अथर्ववेद’ में विवृत्त है कि जल एक विश्वसनीय औषध है। जल विश्वभेषज (दवा) है-

आप इद् वा उ भेषजीरापो अभिवचातनीः।
आपो विश्वस्य भेषजीस्तास्त्वा मुञ्चंतु क्षत्रियात्।।


नदियों, तालाबों आदि में मल-मूत्र, थूक अथवा अन्य दूषित पदार्थों का विसर्जन अशुभ कार्य है। बावड़ी, पोखर, तालाब आदि से पांच मुट्ठी मिट्टी बाहर निकालकर स्नान करना शुभ माना गया है। इसके पीछे भावना यह थी कि यदि प्रत्येक व्यक्ति स्नान करने से पूर्व पांच मुट्ठी मिट्टी बाहर निकालेगा तो सरोवर कभी उथला नहीं होगा।

आर्ष ग्रंथों में इष्टपूर्तधर्म की बड़ी महिमा गाई गई है। यज्ञ-यगादि का संपादन ‘इष्ट’ और निःस्वार्थभाव से कुआँ, बावड़ी, तालाब, देवालय, धर्मशाला, मंदिर, पौसाला प्रभृति का निर्माण एवं जीर्णोद्धार कराना, छायादार एवं फलदार वृक्ष लगाना ‘पूर्त’ है। ‘यमस्मृति’ में वर्णित है कि इष्टकर्मों से स्वर्ग पूतकर्मों से मोक्ष की प्राप्ति होती है-

इष्टेन लभते स्वर्गं पूर्ते मोक्षां समश्नुते।।

‘मत्स्यपुराण’ तथा ‘पद्मपुराण’ के सृष्टिखंड में वृक्षारोपण की विधि बताकर वृक्षारोपण महोत्सव मनाने का माहात्म्य बताया गया है। जो व्यक्ति विधि-विधान से वृक्षारोपण करता है, उसकी सारी मनोकामनाएं पूर्ण हो जाती हैं और वह अक्षय फल का भागी होता है।

सर्वान् कामानवाप्नोति फलं चानन्त्यमश्नुते।

भविष्यपुराण में कहा गया है कि जो व्यक्ति छाया, फूल और फल प्रदान करने वाले वृक्षों का रोपण करता है या मार्ग एवं मंदिर-परिसर में वृक्षारोपण करता है, वह अपने पितरों का उद्धार कर देता है, साथ ही शुभ परिणाम को प्राप्त होता है। जिसको पुत्र नहीं है, उसके लिए वृक्ष ही पुत्र हैं। अश्वत्थ वृक्ष संतानप्रद, अशोकवृक्ष आनंदप्रद (शोकनाशक), फ्लक्ष (पाकड़) वृक्ष उत्त ज्ञानप्रद, बिल्व वृक्ष दीर्घायुष्यप्रद, वट वृक्ष मोक्षप्रद, आम्र वृक्ष अभीष्ट कामनाप्रद तथा कदंब वृक्ष विपुल वैभवप्रद होता है। इस प्रकार शास्त्रों में वृक्षारोपण से लौकिक-पारलौकिक फल की प्राप्ति बताई गई है।

आज एक वैज्ञानिक युग में भले ही ऊपर निर्दिष्ट वृक्ष विशेष के महात्म्य विशेष को लोग अवैज्ञानिक एवं कपोल-कल्पित मान लें, किंतु यह अनुभूत सत्य है। भारतीय ऋषियों ने अपने आश्रम की प्राकृतिक प्रयोगशाला में परीक्षण करने के पश्चात् ही किसी मत का प्रतिपादन किया था।

यजुर्वेद में वनस्पतियों की रक्षा के साथ-साथ पशुओं की रक्षा का भी उल्लेख है-

अभयं नः पशुभ्यः।
द्विपादव चतुष्पात् पाहि।


यजुर्वेद में मनुष्य को स्पष्ट निर्देश दिया गया है कि वे पशुओं को निर्भय होकर रहने दें, उनके साथ हिंसक व्यवहार न करें। शास्त्रों में छोटे-बड़े कई पशु-पक्षियों को देवी-देवताओं का वाहन बताकर उनको श्रेष्ठता प्रदान की गई है। भारतीय ‘गोवंश’ को ‘गोमाता’ के रूप में प्रतिष्ठित कर उसे ‘अघ्न्या’ (न मारने योग्य जीव) जैसी संज्ञा प्रदान की गई है। वेदों में गाय के साथ-साथ वृषभ (बैल) को भी ‘अघ्न्य’ माना गया है-

गवां यः पतिरघ्न्यः।

यहां बैल को गाय का पति बतलाया गया है। शास्त्रों में गायों को चरने आदि के लिए ‘गोचरभूमि’ छोड़ने की बात कही गई है। जिस गोचरभूमि में सौ गाय और एक बैल स्वतंत्र रूप से विचरण करते हों, वह भूमि ‘गोचर्यभूमि’ कहलाती है, ऐसी भूमि का दान करने से सभी पापों का नाश होता है-

गवां शतं वृषश्चैको यत्र तिष्ठत्ययंत्रितः।
तद् गोचर्मेति विख्यातं दत्रं सर्वाधनाशनम्।।


‘गोचर्मभूमि’ परती छोड़ने के वैज्ञानिक तथ्य हैं, उसके लाभ कुछ समय पहले तक प्रत्यक्षतः दृष्टिगोचर होते रहे हैं। संप्रति यह परंपरा लुप्त-सी होती जा रही है, जिससे गोधन की बहुत हानि हो रही है।

गाय से मात्र दूध भर ही नहीं, अपितु अनेक जैविक आवश्यकताओं की पूर्ति भी होती है। भारत कृषि-प्रधान देश है। यहां कि सर्वाधिक प्रजा कृषि पर आद्धृत है। भारतीय कृषि को उन्नत बनाने में गोवंश का योगदान किसी से छिपा नहीं है। गोधन-पंचगव्य-गोबर, गोमूत्र, गोक्षीर, गोदधि एवं गोघृत से निर्मित विभिन्न प्रकार की आयुर्वेदिक एवं जैविक औषधियां बिना किसी उत्तर प्रभाव (साइड इफेक्ट) के असाध्य रोगों को ठीक कर रही हैं।

कृषि-कार्य तथा भूजल भंडारण को समृद्धि प्रदान करते रहने में ‘भूसत ही मृदा’ की उपस्थिति एक अन्य अनिवार्यता है, जिसे केवल वनस्पतियां ही संरक्षित कर सकती हैं। इस मृदा के अस्तित्व में रहने पर ही पेड़-पौधे उगते हैं और कुछ समय में ही जंगलों का रूप धारण कर स्थानीय मृदा परत को सुरक्षा कवच प्रदान कर उसके क्षरण को न केवल रोकते हैं, अपितु भूजल भंडारण को समृद्ध करते हैं। वैज्ञानिकों का कहना है कि 2.6 सेंटीमीटर सतही उपजाऊ मृदा निर्माण में 500 से 1000 वर्ष लग जाते हैं और इस मृदा निर्माण में मात्र प्राकृतिक वनस्पतियां ही सहायक हैं। संप्रति वृक्षों की अंधाधुंध कटाई एक भयावह वास्तविकता की ओर इंगित कर रही है कि करोड़ों रुपए व्यय करने के बाद भी उपजाऊ मृदा कहीं से क्रीत नहीं की जा सकती। डॉ. अनंतराम मिश्र ‘अनंत’ की निम्न पंक्तियां इस संदर्भ को भली-भांति रेखांकित करती हैं-

वरदहस्त-सी मानव के सिर पर जिनकी शाखाएं
वसुंधरा के विशद गर्भ की मौन-मुखर गाथाएं
जिनकी डालें सृष्टि-यज्ञ की हैं पावन समिधाएं
फहराती हैं हरित-क्रांति की जिनसे विजय ध्वजाएं
वृक्ष भुजाएं सृजन-पुरुष की व्योमोन्मुख सुषमाएं
पत्र-पत्र पर सत्र प्रगति के सुमन-सुमन कविताएं।

हरे पेड़ काटना पुत्र-हत्या-सा पाप घृणित है
दल-प्रसून तोड़ना कुवेला में नितांत वर्जित है
ये भी मानव के समान ही जगते हैं, सोते हैं
हर्षित होते लहराते हैं, गाते हैं, रोते हैं
अगर चाहते हो जीना, तो इनको भी जीने दो
अमृत न दो, तो विष ही इन्हें प्रदूषण का पीने दो
इनका जनन, निषेचन, संरक्षण, संवर्द्धन कर ले
ब्रह्मपुत्र मानव! दुकूल में शस्य संपदा कर ले।


निश्चय ही वृक्ष प्रदूषण के विष को पीकर मनुष्य को अमृत प्रदान करने वाले नीलकंठ हैं। संभवतः इसलिए भगवान् शिव के वैदिक स्तोत्र ‘रुद्राष्टाध्यायी’ में वृक्षों को पशुपति का हरित-विग्रह कहा गया है, ‘नमों वृक्षेभ्यो हरिकेशेभ्यः पशूनाम्पतये नमः’। वृक्ष हरे-हरे केशों वाले पशुपति हैं। अतएव ये नमस्कार के योग्य हैं।

वृक्ष वनस्पतियों में प्राकृतिक रूप से विद्यमान गुण-धर्म की वैज्ञानिक व्याख्या करते हुए आयुर्वेद के महान आचार्य चरक ने कहा है कि प्राकृतिक रूप में उगने वाली सभी वनस्पतियां किसी-न-किसी रूप में औषधीय गुणों से युक्त एवं मानवोपयोगी हैं।

भारतीय भूगोल तथा जलवायु-परिवेश के अंतर्गत भौतिक रूप में तालाब-निर्माण के ऋषियों-महर्षियों द्वारा प्रोत्साहन देना पारिस्थितिकीय विधान के उच्च-स्तरीय ज्ञान से उभरा नियम है। एक अनुमान के अनुसार अगर भारत के प्रत्येक जिले के तीन प्रतिशत भूभाग में तालाबों का निर्माण कर दिया जाए तो देश में जल-समस्या का स्थायी निदान हो जाए। तालाबों में वर्षा का पानी एकत्र रहता है और शनैः-शनैः मृदा में रिसते हुए भूमिगत जल-भंडारण को समृद्धि प्रदान करता है। इससे कुओं एवं नलकूपों में वांछित जल-स्तर विद्यमान रहता है। इसलिए भारतीय आचार्यों ने तालाबों के रख-रखाव पर अधिकाधिक बल दिया है। तालाब की गहराई निरंतर बनी रहे, इसलिए आचार्यों ने यह विधान बनाया कि प्रत्येक व्यक्ति पांच मुट्ठी मिट्टी निकालने के बाद ही तालाब में स्नान करें। भारत में लगभग 53,330 लाख टन मृदा का क्षरण प्रतिवर्ष हो रहा है, जिसका 21 प्रतिशत प्रवाहित होकर समुद्र में और 10 प्रतिशत जलाशयों की तह में जमा होकर जलग्रहण क्षमता को एक से दो प्रतिशत वार्षिक दर से न्यून कर रहा है। अतएव तालाब, पोखर, जलाशय, सरोवर आदि की गहराई को बनाए रखने में पांच मुट्ठी मिट्टी निकालने वाली क्रिया का निर्विवाद महत्व है। तालाब के बंध को सुरक्षित रखने के लिए अश्वत्थ, बरगद, उदुंबर, आम्र, निंब, बिल्व, प्लक्ष, वंकुल (मौलश्री), कदंब, कपित्थ, जंबु (जामुन) मधूक प्रभृति भारतीय वृक्ष लगाने की चिरंतन प्रथा रही है। शास्त्रों में वृक्षविहीन बंध की तुलना मूर्तिविहीन मंदिर से की गई है। कतिपय स्थानों पर अरहर के पेड़ बंध में लगाए जाते हैं। नए तालाब के बंध में सरसों की खली का धुआं करने की प्रथा के दर्शन होते हैं, जिससे मूषक आदि जीव उसमें बील बनाकर उसे क्षीण न करें। तालाब के जल को स्वच्छ बनाए रखने के लिए उसमें मत्स्य, कच्छप, कर्क प्रभृति प्राणी में छोड़े जाते हैं।

प्रकृति ने स्थानीय स्थलाकृति-परिवेश में वर्षा तथा पानी-संचयन क्षमतानुरूप ही नदी-नालों का निर्माण किया है। इसलिए आरण्यक स्वरूप को निर्वृक्ष करने से प्रकृति असंतुलित हो जाती है, जिससे सतही मृदा-क्षरण-क्रिया सक्रिय हो जाती है और कालांतर में मृदा-कवच के अभाव में भूमिगत चट्टानें सतह पर प्रकट होकर प्रकृति द्वारा स्थापित ऊर्जा निर्णायक स्रोतों-सौर, पवन, वृष्टि के प्रभाव में भूजल भंडारण प्रभावित होने लगते हैं, जिससे कृषि-उत्पादन क्षमता दुष्प्रभावित होती है। ऐसी स्थिति में वर्षाकाल का जल वसुधा के अंतर में समाविष्ट होने के अपेक्षा नव-निर्माणाधीन बालू के साथ स्थानीय नदी-नालों में प्रवाहित होकर उन्हें दिन-प्रतिदिन उथला कर उनके जल-प्रवाह की क्षमता को निरंतर न्यून करता रहता है। इससे वर्षा ऋतु में इन नदी-नालों के आवाह क्षेत्र में त्वरित बाढ़ की संभावना बलवती हो जाती है। ऐसे क्षेत्रों के नदी-नाले वर्ष की अन्य ऋतुओं में ‘सदानीरा’ की मर्यादा से च्युत हो जाते हैं।

आज विश्व में जल-भंडारण को समृद्ध करने के लिए ‘जलसंभर-प्रबंध कौशल’ कार्य के दौरान प्राचीन भारतीय नियम व्यवहार रूप में अपनाए जा रहे हैं।

भारतीय ऋषियों ने जिन पुनीत सरिताओं को जीवनदायिनी एवं संस्कृति-स्रोतस्विनी कहा है, उन्हीं को वर्तमान मनुष्य ने स्वार्थ के वशीभूत होकर विषाक्त कर दिया है। बिहार की प्रसिद्ध दामोदर नदी बोकारो एवं राउरकेला इस्पात संयंत्र, बंगाल पेपर मिल्स एवं सिंदरी उर्वरक कारखाने के अपशिष्ट पदार्थों का संवहन करने के कारण प्रदूषित हो गई है। ‘राजनिघंटु’ के अनुसार ‘रुचिदं संतापशोषापहं पश्यं बह्रिकरं तथा च बलदं क्षीणाङंग पुष्टिप्रदम्’ गुणयुक्त महानद शोणभद्र की स्थिति बिहार में दामोदर नदी से भी बदतर है। यही स्थिति पश्चिम बंगाल की हुगली नदी, तमिलनाडु की कावेरी नदी, केरल की चालियार नदी, महाराष्ट्र की थानेक्रीक नदी, ओड़िशा की राकुल्या नदी एवं उत्तर प्रदेश की सई आदि नदियों की है। यही नहीं गंगा, यमुना, चर्मण्यवती, नर्मदा, महानदी, कृष्णा, कावेरी, वैगे प्रभृति पवित्र नदियों का भी यही हाल है। वस्तुतः प्राकृतिक संसाधनों का अधिकाधिक दोहन करने में मनुष्य प्राचीन ऋषियों के आदेश एवं सत्परामर्श को भूल बैठा है, जिसके कारण उसे ऐसी भयावह परिस्थितियों का सामना करना पड़ रहा है। यद्यपि जल-प्रदूषण की गंभीर समस्या से मुक्ति प्राप्त करने के उद्देश्य से केंद्र सरकार ने 1947 ई. में ‘जल प्रदूषण रोकथाम एवं नियंत्रण अधिनियम’ पारित किया तथा 1985 ई. में ‘केंद्रीय गंगा प्राधिकरण’ का गठन किया, तथापि इसे किसी स्थाई निदान की अपेक्षा नहीं की जा सकती, क्योंकि स्वात्मानुशासन की प्रेरणा से ही जल-प्रदूषण जैसी गंभीर समस्या का निदान हो सकता है।

मानवीय गतिविधियों के फलस्वरूप विश्व में चतुर्दिक पारिस्थितिकीय असंतुलन से पर्यावरण-प्रदूषण स्तर में वृद्धि और प्राकृतिक खाद्य-श्रृंखलाओं के ध्वस्त होने का सिलसिला चल पड़ा है। वनस्पति के लुप्त होने से उस पर आश्रित जीव-जंतुओं की प्रजातियां भी विलुप्त होती जा रही हैं।

पर्यावरण प्रदूषण के संदर्भ में भगवान महावराह द्वारा हिरण्याक्ष-वध एवं वसुमत्योद्धार-कथा में अंतर्निहित प्रतीकों का निर्विवाद महत्व है। हिरण्याक्ष कोई राक्षस नहीं, अपितु सोने की आंखवाला धनलोलुप मनुष्य है, जो निजी स्वार्थ के वशीभूत होकर पृथ्वी को प्रदूषित कर रहा है। अंततः प्रदूषित पृथ्वी को भगवान महावराह द्वारा ही मुक्ति प्राप्त हो सकती है। इसमें किंचित् संदेह नहीं-

जलौघमग्ना सचराचराधरा
विषाणकोट्याSखिल विश्वमूर्तिना।
समुद्धृता येन वराहरूपिणा
स मे स्वयं भूगर्भवान् प्रसीदतु।।


संदर्भ
1. यजुर्वेद, 36/17
2. वही, 36/18
3. वही, 36/10
4. वही, 36/18
5. वही, 36/12
6. छांदोग्योपनिषद्, 6/11/1
7. श्रीमद्भगवद् गीता, 15/1
8. ऋग्वेद, 1/91/22
9. वही, 4/57/3
10. वही, 3/8/11
11. अथर्ववेद, 8/7/24
12. वही, 11/6/1
13. विष्णुध्रमसूत्र, 19/4
14. भविष्यपुराण (उत्सर्गमयूख)
15. वृहदारण्यकोपनिषद्, 3/9/28
16. छांदोग्योपनिषद्, 6/11/2
17. यजुर्वेद, 13/27
18. भारतीय संस्कृति में ‘वृक्ष’ का महत्व : सलम इंडिया, आचार्य रामकृष्ण झा, वर्ष : 25 अंक : 8, अगस्त, 2010, पृ. 38
19. अथर्ववेद, 3/7/5
20. याज्ञवल्क्यस्मृति, 1/137
21. यमस्मृति, 68
22. मत्स्यपुराण, 59/16
23. यजुर्वेद, 36/22
24. वही, 14/8
25. अथर्ववेद, 9/4/17
26. कल्याण वर्ष : 82, संख्या : 6 जून, 2008, पृ. 728
27. जलदाकर्षी वृक्ष, डॉ. अनंतराम मिश्र ‘अनंत’, सुलभ इंडिया, वर्ष : 25 अंक : 8, अगस्त, 2010, पृ. 37

असिस्टेंट प्रोफेसर
हिंदी एवं आधुनिक भारतीय भाषा विभाग,
अवधूत भगवान राम पी.जी. कॉलेज,
अनपरा-231225, सोनभद्र (उ.प्र.)

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