यू.एन.ओ. द्वारा हाल में ही प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार विश्व के अल्पविकसित देशों के लगभग 15 करोड़ व्यक्तियों को स्वच्छ एवं पीने योग्य जल उपलब्ध नहीं है। इन देशों में करोड़ों लोगों की मौत दूषित जल से सम्बन्धित बीमारियों के कारण हो जाती है। इस रिपोर्ट के अनुसार विश्व में केवल 75 प्रतिशत शहरी और 40 फीसदी ग्रामीण क्षेत्रों में ही स्वच्छ पेयजल उपलब्ध है। इस तरह से स्पष्ट है कि मृदु जल की उपलब्धता सीमित है तथा आने वाले दिनों में जनसंख्या वृद्धि के कारण इसकी उपलब्धता घटती ही जाएगी। अतः जल उपयोग में मितव्ययिता तथा उचित जल प्रबन्धन की नीति अपनाकर ही पेयजल की आपूर्ति सुनिश्चित की जा सकती है।
भारतीय जनमानस की सहज अवधारण है कि देश में पेयजल प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है। अतः इसके संरक्षण और संपोषणीयता की ओर विशेष ध्यान देने की जरुरत नहीं है। किन्तु सरकार के विभिन्न स्तरों पर ध्यान देने के बाद भी भारत में स्वच्छ पेयजल की अपर्याप्ता बनी हुई है। स्वच्छ पेयजल पर भारत सरकार का निवेश वैश्विक मानकों से काफी कम रहा है।
भारत में कुछ स्वच्छ जल की मात्रा 19 अरब घनमीटर है, जिसका 86 फीसदी नदियों, झीलों व तालाबों में उपलब्ध है। स्वतन्त्रता के समय प्रत्येक व्यक्ति को हर वर्ष 5000 घनमीटर जल उपलब्ध था, किन्तु जनसंख्या बढ़ने के कारण वर्तमान में यह घटकर सिर्फ 2,000 घनमीटर ही रह गया है। एक अनुमान के मुताबिक सन् 2025 तक यह उपलब्धता घटकर 1500 घनमीटर रह जाएगी। भारत में 20 नदियों में से 6 की हालत दयनीय है, इसमें आज 1,000 घनमीटर से भी कम जल उपलब्ध है। आने वाले कुछ वर्षो में कई अन्य नदियों में जल एक दुर्लभ संसाधन बन जाएगा। अनुमान है कि सन् 2025 तक सिर्फ ब्रह्मपुत्र-बराक और ताप्ती से कन्याकुमारी तक पश्चिम की ओर बहने वाली नदियों में ही भरपूर पानी रह जाएगा। संयुक्त राष्ट्र संघ ने भारत को पानी की गुणवत्ता और उपलब्धा के मानकों के आधार पर 120 वां स्थान दिया है। हमारे देश के 30 फीसदी शहरों और 82 फीसदी गाँवों में पानी को शुद्ध करने की व्यवस्था नहीं है।
यद्यपि प्रकृति ने हमें प्रचुर मात्रा में जल प्रदान किया है, फिर भी हम पेयजल, सिंचाई तथा औद्योगिक उद्देश्यों के लिए जल की कमी का सामना कर रहे हैं। इसका कारण हमारे द्वारा जल संसाधन का दुरूपयोग व अत्यधिक प्रदूषित करना रहा है। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने जल प्रदूषण को स्पष्ट किया है- “प्राकृतिक अथवा अन्य स्रोतों से उत्पन्न अवांछित बाहरी पदार्थों के कारण जल प्रदूषित हो जाता है तथा वह विषाक्तता, एक सामान्य स्तर से कम आक्सीजन के कारण जीवों के लिए हानिकारक हो जाती है तथा संक्रामक रोग फैलाने में सहायक होता है।”
प्राकृतिक स्रोत:- जिनमें मृदा अपरदन, भूस्खलन, ज्वालामुखी उद्गार तथा पौधों एवं जीव-जन्तुओं का विघटन प्रमुख है।
मानवीय स्रोत:- इसमें नगरीकरण, औद्योगीकरण, कृषिय व सामाजिक स्रोत प्रमुख हैं।
भारत में लम्बे समय से बड़े पैमाने पर जल प्रदूषण हो रहा है जिससे सतही व भूमिगत जल दोनों ही अधिक मात्रा में प्रदूषित हो चुके हैं। विश्व के लगभग सभी भागों में औद्योगिक उन्नति के साथ-साथ जल प्रदूषण बड़े पैमाने पर हुआ है। औद्योगिकरण से भारत में लगभग 70 प्रतिशत नदी प्रवाहित जल प्रदूषित हो चुका है। भारत में सबसे पवित्र माने जाने वाली गंगा नदी आज सबसे अधिक दूषित नदी है। गंगा के किनारों पर रासायनिक, वस्त्र, चर्म शोधन, उर्वरक व भारी उद्योग बड़े पैमाने पर स्थापित किए गए हैं। ये सभी उद्योग भारी मात्रा में गन्दा जल व अन्य अपशिष्ट पदार्थ गंगा में प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप में बहा देते हैं। उदाहरणतया कानपुर में स्थित 151 चमड़े के कारखानों से प्रतिदिन 58 लाख लीटर दूषित जल गंगा नदी में बहा दिया जाता है।
भारत में उद्योगों ने सबसे अधिक प्रदूषण दामोदर नदी का किया है। पहले तो दामोदर नदी को बाढ़ों के कारण केवल ‘बंगाल का शोक’ ही कहते थे परन्तु अब तो यह नदी अत्यधिक प्रदूषण के कारण बंगाल व झारखण्ड दोनों ही राज्यों का शोक बन गई है। इस नदी के किनारों पर अनेक कोयला खाने, ताप विद्युत संयंत्र, रसायन उद्योग तथा लोहा-इस्पात संयंत्र स्थापित किए गए हैं। चम्बल, नर्मदा, कावेरी, गोदावरी, महानदी तथा अन्य नदियों की भी लगभग ऐसी ही स्थिति है।
औद्योगिकरण के साथ-साथ नगरीकरण से भी पेयजल प्रदूषित हुआ है। मानव विभिन्न प्रकार के घरेलू कार्यों के लिए जल का प्रयोग करता है। जल के प्रमुख घरेलू उपयोग जल को पीना, नहाना, भोजन बनाना, घर की सफाई आदि हैं। इन कार्यों के लिए एक नगरवासी प्रतिदिन औसतन 135 लीटर जल का प्रयोग करता है। उसका 70 से 80 प्रतिशत नालियों में गन्दे जल के रूप में बहकर नदियों, झीलों, तालाबों आदि में प्रवेश करता है। भारत की अधिकांश नदियों का जल नगरों के मल-जल द्वारा प्रदूषित हो गया है। सेन्टर फॉर साइंस एवं इनवायरमेंट रिपोर्ट के अनुसार नदियों का 75 प्रतिशत प्रदूषण सीवेज तथा नगरपालिका के कूड़ा-करकट द्वारा तथा शेष 25 प्रतिशत अन्य स्रोतों द्वारा होता है।
भूमिगत जल ही पेयजल का प्रमुख स्रोत है। भूमिगत जल का अधिकांश प्रदूषण कृषिजन्य है। कृषि उत्पादकता बढ़ाने के लिए रासायनिक उर्वरक, कीटनाशी तथा शाकनाशी रसायनों का प्रयोग किया जाता है। विश्व के अधिकांश भागों में हरितक्रान्ति के बाद इन रसायनों का प्रयोग तीव्र गति से हुआ हैं। खेतों में प्रयोग किए गए रसायनों के कुछ भाग धरातलीय प्रवाह द्वारा नदियों, तालाबों अथवा झीलों में तथा निक्षालन द्वारा भूमिगत जल में प्रवेश कर जाते हैं और जल प्रदूषण करते हैं। जब नाइट्रेट, फास्फोरस तथा पोटाश जैसे रसायन पेयजल में मिल जाते हैं तो इससे मानव व पशु समान रूप से प्रभावित होते हैं। ग्रामीण व नगरीय कचरे, कच्चे सेप्टिक टैंक आदि से भी भूमिगत जल प्रदूषित हो रहा है। भूमिगत जल का प्रदूषण, स्थलीय जल प्रदूषण से कहीं अधिक खतरनाक है क्योंकि प्रदूषित भूमिगत जल के शुद्धिकरण के लिए अभी कोई प्रौद्योगिकी विकसित नहीं हुई है।
नागपुर स्थित नीरी नेशनल एनवायरमेंट इंजीनियरिंग एवं रिसर्च इंस्टीट्यूट के अनुसार भारत में उपलब्ध कुल जल का 70 प्रतिशत भाग दूषित हो चुका है। भूमिगत जल प्रदूषण के दूरगामी तथा भयानक परिणाम होते हैं। सन् 1832 में न्यूयार्क में कुओं से प्रदूषित जल पीने के कारण 3500 लोगों की मृत्यु हो गई। सन् 1989 में हैदराबाद के निकट पाटनचेरु औद्योगिक क्षेत्र के रासायनिक कारखानों सहित लगभग 300 औद्योगिक इकाईयों से निकलने वाले रसायन भूमि में रिस गए और 14 गाँवों के भूमिगत जल को प्रदूषित कर दिया जिससे गाँवों का जल पीने योग्य नहीं रहा।
पेयजल प्रदूषण का प्रभाव सभी प्रकार के प्रदूषणों से अधिक है। प्रदूषित पेयजल के सेवन से अनेक प्रकार की बीमारियाँ फैल जाती हैं। प्रदूषित जल के सेवन से फैलने वाली मुख्य बीमारियाँ हैजा, टायफाइड, पीलिया, तपेदिक, पेचिश, हेपेटाइटिस, पोलियो, मियादी ज्वर आदि हैं। इनमें से बहुत से संक्रामक तथा जानलेवा रोग हैं। प्रदूषित पेयजल से गिनीवर्म रोग भी लग जाता है। अकेले भारत में ही 18 लाख व्यक्ति इस रोग से ग्रस्त हैं। अस्बेस्टास रेशों से युक्त जल के सेवन से असबेस्टोसिस नामक जानलेवा बीमारी लग जाती है। इससे फेफड़ों का कैंसर तथा पेट रोग उत्पन्न हो जाता है। पारायुक्त जल को पीने से छोटी माता नामक रोग हो जाता है। जापान में इस रोग से बहुत लोग पीड़ित हैं।
जल प्रदूषण का सबसे अधिक प्रभाव जलीय जीवन पर पड़ता है क्योंकि उनका समस्त जीवन जल पर ही निर्भर करता है। जल में विषाक्त रसायनों की अधिकता से जलीय जीवों तथा पौधों की मृत्यु हो जाती है अनुमान है कि पिछले 20 वर्षों में जलीय जीवन में 40 फीसदी की कमी आई है।
जल प्रदूषण एक विश्वव्यापी समस्या है जिसका प्रभाव विकसित तथा विकासशील दोनों ही देशों पर पड़ता है। विकसित देशों ने तो जल प्रदूषण को रोकने तथा प्रदूषित जल को साफ करने के लिए कई कदम उठाए हैं, परन्तु भारत जैसे विकासशील देशों में यह बहुत ही गम्भीर समस्या है। इसका कारण यह है कि जल प्रदूषण को रोकने तथा पेयजल को स्वच्छ रखने की प्रक्रिया जटिल है और इसकी प्रौद्योगिकी महँगी है। फिर भी जल प्रदूषण को निम्न स्तर पर रखने के लिए निम्नलिखित उपया किए जा सकते हैं।
भारत में अधिकांश नगरों का जल-मल बगैर शोधन के ही नदियों, झीलों, तथा तालाबों में डाल दिया जाता है जिससे पेयजल प्रदूषित हो जाता है। नगरपालिकाओं को यह जल शोधित करके ही जलाशयों में डालना चाहिए। प्रत्येक नगर में जलशोधन की व्यवस्था होनी चाहिए। यदि घरेलू अपशिष्ट जल उद्यान कृषि के लिए प्रयोग किया जाए तो जल प्रदूषण की समस्या से निपटने के साथ-साथ जल का सदुपयोग भी हो जाएगा। इसी प्रकार यदि सीवेज को मिट्टी के साथ मिला दिया जाए तो मिट्टी की उपजाऊ शक्ति बढ़ जाएगी।
उद्योगों से निकलने वाले जल में अनेक प्रकार के रसायन तथा अन्य प्रदूषणकारी पदार्थ मिले होते हैं। ये निक्षालन प्रक्रिया द्वारा भूतल के अन्दर जाकर पेयजल को दूषित करते हैं। नगरों में जल-मल के शोधन की भांति उद्योगों के प्रदूषित जल को साफ करने की भी व्यवस्था होनी चाहिए। विषाक्त रसायनों का उत्पादन करने वाले उद्योगों के लिए प्रदूषण शोधन संयंत्र की व्यवस्था करना अनिवार्य होना चाहिए।
ग्रामीण व नगरीय पेयजल की उचित गुणवत्ता के लिए पेयजल स्रोतों की सफाई अनिवार्य कदम होना चाहिए। ग्रामीण कुओं में पोटेशियम परमेंगनेट तथा शहरी जलापूर्ति में क्लोरीन जैसे रसायनों का प्रयोग करके पेयजल को शोधित किया जा सकता है। पेयजल शोधन करके अनेक बीमारियों से बचा जा सकता है।
जल प्रदूषण से बचने के लिए कृषि व्यवस्था में सुधार भी आवश्यक है। हरितक्रान्ति के बाद कृषि उत्पादकता बढ़ाने के लिए बड़े पैमाने पर रासायनिक उर्वरक व कीटनाशी का प्रयोग किया गया है। इससे बड़े पैमाने पर जल प्रदूषण तथा पारिस्थितिकी असन्तुलन दृष्टिगोचर हुआ है। वन्दना शिवा और एम.के. सेखन जैसे- पर्यावरणविदों ने हरितक्रान्ति युक्ति को पर्यावरणीय सन्तुलन के लिए घातक बताया है। रासायनिक उर्वरकों तथा कीटनाशी के स्थान पर जैव उर्वरकों (गोबर आदि) का अधिक उपयोग इस दिशा में सही कदम साबित होगा।
यह तकनीकी सतही जल व वर्षा जल के अनुकूलतम उपयोग पर आधारित है। इसमें सतह पर प्रवाहित जल (वर्षा और भूमिगत) को वाष्पीकरण एवं रिसाव की बाधाओं से बचाते हुए संरक्षित किया जाता है, एवं इसका उपयोग शुष्क मौसम में पीने के पानी, सिंचाई एवं अन्य उद्देश्यों के लिए किया जाता है।
वर्षा जल संचयन मुख्य रूप से दो विधियों पर आधारित है। पहली विधि में धरातल पर वर्षा जल को रोककर संचयित किया जाता है। यह एक परम्परागत विधि है जिसके तहत भूमिगत कुएँ, तालाब आदि का प्रयोग किया जाता है। दूसरी विधि में, भूमिगत जल को रिचार्ज करने की तकनीक सम्मिलित है, जो रेनवाटर हार्वेस्टिंग की नई अवधारणा है। इस तकनीक में खाईयाँ खोदना, कुएँ खोदना, रिचार्ज कुएँ बनाना आदि सम्मिलित हैं। रिचार्ज कुओं को गहराई में स्थित जल संभरण केन्द्रों तक वर्षाजल रिसाव को पहुँचाने हेतु प्रयुक्त किया जाता है। इससे जल अच्छी तरह से फिल्टर हो जाता है।
उपर्युक्त सभी उपायों के अतिरिक्त पेयजल संरक्षण में सामुदायिक भागीदारी सबसे कारगर सिद्ध होगी क्योंकि जल प्रदूषण से सम्बन्धित अधिकांश मानव निर्मित हैं। जन-साधारण को पेयजल के महत्व व उसके प्रदूषण के सम्बन्ध में शिक्षित करना महत्वपूर्ण है। पेयजल सम्बन्धित अधिकांश समस्याएँ स्थानीय हैं जिसका स्थानीय स्तर पर प्रबंधन किया जा सकता है। सामुदायिक भागीदारी से पेयजल को शोधित कर, इसे लोगों में समान मात्रा में वितरित किया जा सकता है।
जल प्रकृति द्वारा मानव को प्रदत्त बहुमूल्य उपहार है। सौभाग्य से यह रास्ता और सुलभ उपहार भारत की झोली में प्रचुर मात्रा में है। जल प्रबन्धन के लिए सिर्फ सरकारी प्रयास पर्याप्त नहीं होंगे। इसमें स्वैच्छिक व गैर-सरकारी संगठनों को भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभानी होगी। इन संगठनों को जनसाधारण को शिक्षित करना होगा, उन्हें प्रेरित करना होगा और जल-प्रबन्धन के कार्य को आन्दोलन बनाना होगा। इसमें व्यक्तिगत भागीदारी भी अहम होगी। आइए, हम इस आन्दोलन के अभिन्न अंग बनें।
(लेखक म.बि.पा. राजकीय महाविद्यालय, लखनऊ में सहायक प्रोफेसर (अर्थशास्त्र) हैं।), ईमेल: dvsingh036@gmail.com
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जल प्रकृति द्वारा मानव को प्रदत्त बहुमूल्य उपहार है। सौभाग्य से यह रास्ता और सुलभ उपहार भारत की झोली में प्रचुर मात्रा में है। जल प्रबन्धन के लिए सिर्फ सरकारी प्रयास पर्याप्त नहीं होंगे। इसमें स्वैच्छिक व गैर-सरकारी संगठनों को भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभानी होगी। इन संगठनों को जनसाधारण को शिक्षित करना होगा, उन्हें प्रेरित करना होगा और जल-प्रबन्धन के कार्य को आन्दोलन बनाना होगा। इसमें व्यक्तिगत भागीदारी भी अहम होगी।
धरातल पर मृदु जल की सीमित उपलब्धता तथा जनसंख्या में तीव्र वृद्धि के कारण प्रति व्यक्ति जल उपलब्धता में निरन्तर कमी आयी है। यू.एन.ओ. द्वारा हाल ही में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार विश्व के अल्पविकसित देशों के लगभग 15 करोड़ व्यक्तियों को स्वच्छ एवं पीने योग्य जल उपलब्ध नहीं है। इन देशों में करोड़ों लोगों की मौत दूषित जल से सम्बन्धित बीमारियों के कारण हो जाती है। इस रिपोर्ट के अनुसार विश्व में केवल 75 प्रतिशत शहरी और 40 फीसदी ग्रामीण क्षेत्रों में ही स्वच्छ पेयजल उपलब्ध है। इस तरह से स्पष्ट है कि मृदु जल की उपलब्धता सीमित है तथा आने वाले दिनों में जनसंख्या वृद्धि के कारण इसकी उपलब्धता घटती ही जाएगी। अतः जल उपयोग में मितव्ययिता तथा उचित जल प्रबन्धन की नीति अपनाकर ही पेयजल की आपूर्ति सुनिश्चित की जा सकती है।भारतीय परिप्रेक्ष्य में जल संसाधन
भारतीय जनमानस की सहज अवधारण है कि देश में पेयजल प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है। अतः इसके संरक्षण और संपोषणीयता की ओर विशेष ध्यान देने की जरुरत नहीं है। किन्तु सरकार के विभिन्न स्तरों पर ध्यान देने के बाद भी भारत में स्वच्छ पेयजल की अपर्याप्ता बनी हुई है। स्वच्छ पेयजल पर भारत सरकार का निवेश वैश्विक मानकों से काफी कम रहा है।
भारत में कुछ स्वच्छ जल की मात्रा 19 अरब घनमीटर है, जिसका 86 फीसदी नदियों, झीलों व तालाबों में उपलब्ध है। स्वतन्त्रता के समय प्रत्येक व्यक्ति को हर वर्ष 5000 घनमीटर जल उपलब्ध था, किन्तु जनसंख्या बढ़ने के कारण वर्तमान में यह घटकर सिर्फ 2,000 घनमीटर ही रह गया है। एक अनुमान के मुताबिक सन् 2025 तक यह उपलब्धता घटकर 1500 घनमीटर रह जाएगी। भारत में 20 नदियों में से 6 की हालत दयनीय है, इसमें आज 1,000 घनमीटर से भी कम जल उपलब्ध है। आने वाले कुछ वर्षो में कई अन्य नदियों में जल एक दुर्लभ संसाधन बन जाएगा। अनुमान है कि सन् 2025 तक सिर्फ ब्रह्मपुत्र-बराक और ताप्ती से कन्याकुमारी तक पश्चिम की ओर बहने वाली नदियों में ही भरपूर पानी रह जाएगा। संयुक्त राष्ट्र संघ ने भारत को पानी की गुणवत्ता और उपलब्धा के मानकों के आधार पर 120 वां स्थान दिया है। हमारे देश के 30 फीसदी शहरों और 82 फीसदी गाँवों में पानी को शुद्ध करने की व्यवस्था नहीं है।
पेयजल प्रदूषण
यद्यपि प्रकृति ने हमें प्रचुर मात्रा में जल प्रदान किया है, फिर भी हम पेयजल, सिंचाई तथा औद्योगिक उद्देश्यों के लिए जल की कमी का सामना कर रहे हैं। इसका कारण हमारे द्वारा जल संसाधन का दुरूपयोग व अत्यधिक प्रदूषित करना रहा है। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने जल प्रदूषण को स्पष्ट किया है- “प्राकृतिक अथवा अन्य स्रोतों से उत्पन्न अवांछित बाहरी पदार्थों के कारण जल प्रदूषित हो जाता है तथा वह विषाक्तता, एक सामान्य स्तर से कम आक्सीजन के कारण जीवों के लिए हानिकारक हो जाती है तथा संक्रामक रोग फैलाने में सहायक होता है।”
जल प्रदूषण के दो प्रमुख स्रोत हैं -
प्राकृतिक स्रोत:- जिनमें मृदा अपरदन, भूस्खलन, ज्वालामुखी उद्गार तथा पौधों एवं जीव-जन्तुओं का विघटन प्रमुख है।
मानवीय स्रोत:- इसमें नगरीकरण, औद्योगीकरण, कृषिय व सामाजिक स्रोत प्रमुख हैं।
भारत में लम्बे समय से बड़े पैमाने पर जल प्रदूषण हो रहा है जिससे सतही व भूमिगत जल दोनों ही अधिक मात्रा में प्रदूषित हो चुके हैं। विश्व के लगभग सभी भागों में औद्योगिक उन्नति के साथ-साथ जल प्रदूषण बड़े पैमाने पर हुआ है। औद्योगिकरण से भारत में लगभग 70 प्रतिशत नदी प्रवाहित जल प्रदूषित हो चुका है। भारत में सबसे पवित्र माने जाने वाली गंगा नदी आज सबसे अधिक दूषित नदी है। गंगा के किनारों पर रासायनिक, वस्त्र, चर्म शोधन, उर्वरक व भारी उद्योग बड़े पैमाने पर स्थापित किए गए हैं। ये सभी उद्योग भारी मात्रा में गन्दा जल व अन्य अपशिष्ट पदार्थ गंगा में प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप में बहा देते हैं। उदाहरणतया कानपुर में स्थित 151 चमड़े के कारखानों से प्रतिदिन 58 लाख लीटर दूषित जल गंगा नदी में बहा दिया जाता है।
भारत में उद्योगों ने सबसे अधिक प्रदूषण दामोदर नदी का किया है। पहले तो दामोदर नदी को बाढ़ों के कारण केवल ‘बंगाल का शोक’ ही कहते थे परन्तु अब तो यह नदी अत्यधिक प्रदूषण के कारण बंगाल व झारखण्ड दोनों ही राज्यों का शोक बन गई है। इस नदी के किनारों पर अनेक कोयला खाने, ताप विद्युत संयंत्र, रसायन उद्योग तथा लोहा-इस्पात संयंत्र स्थापित किए गए हैं। चम्बल, नर्मदा, कावेरी, गोदावरी, महानदी तथा अन्य नदियों की भी लगभग ऐसी ही स्थिति है।
औद्योगिकरण के साथ-साथ नगरीकरण से भी पेयजल प्रदूषित हुआ है। मानव विभिन्न प्रकार के घरेलू कार्यों के लिए जल का प्रयोग करता है। जल के प्रमुख घरेलू उपयोग जल को पीना, नहाना, भोजन बनाना, घर की सफाई आदि हैं। इन कार्यों के लिए एक नगरवासी प्रतिदिन औसतन 135 लीटर जल का प्रयोग करता है। उसका 70 से 80 प्रतिशत नालियों में गन्दे जल के रूप में बहकर नदियों, झीलों, तालाबों आदि में प्रवेश करता है। भारत की अधिकांश नदियों का जल नगरों के मल-जल द्वारा प्रदूषित हो गया है। सेन्टर फॉर साइंस एवं इनवायरमेंट रिपोर्ट के अनुसार नदियों का 75 प्रतिशत प्रदूषण सीवेज तथा नगरपालिका के कूड़ा-करकट द्वारा तथा शेष 25 प्रतिशत अन्य स्रोतों द्वारा होता है।
भूमिगत जल ही पेयजल का प्रमुख स्रोत है। भूमिगत जल का अधिकांश प्रदूषण कृषिजन्य है। कृषि उत्पादकता बढ़ाने के लिए रासायनिक उर्वरक, कीटनाशी तथा शाकनाशी रसायनों का प्रयोग किया जाता है। विश्व के अधिकांश भागों में हरितक्रान्ति के बाद इन रसायनों का प्रयोग तीव्र गति से हुआ हैं। खेतों में प्रयोग किए गए रसायनों के कुछ भाग धरातलीय प्रवाह द्वारा नदियों, तालाबों अथवा झीलों में तथा निक्षालन द्वारा भूमिगत जल में प्रवेश कर जाते हैं और जल प्रदूषण करते हैं। जब नाइट्रेट, फास्फोरस तथा पोटाश जैसे रसायन पेयजल में मिल जाते हैं तो इससे मानव व पशु समान रूप से प्रभावित होते हैं। ग्रामीण व नगरीय कचरे, कच्चे सेप्टिक टैंक आदि से भी भूमिगत जल प्रदूषित हो रहा है। भूमिगत जल का प्रदूषण, स्थलीय जल प्रदूषण से कहीं अधिक खतरनाक है क्योंकि प्रदूषित भूमिगत जल के शुद्धिकरण के लिए अभी कोई प्रौद्योगिकी विकसित नहीं हुई है।
नागपुर स्थित नीरी नेशनल एनवायरमेंट इंजीनियरिंग एवं रिसर्च इंस्टीट्यूट के अनुसार भारत में उपलब्ध कुल जल का 70 प्रतिशत भाग दूषित हो चुका है। भूमिगत जल प्रदूषण के दूरगामी तथा भयानक परिणाम होते हैं। सन् 1832 में न्यूयार्क में कुओं से प्रदूषित जल पीने के कारण 3500 लोगों की मृत्यु हो गई। सन् 1989 में हैदराबाद के निकट पाटनचेरु औद्योगिक क्षेत्र के रासायनिक कारखानों सहित लगभग 300 औद्योगिक इकाईयों से निकलने वाले रसायन भूमि में रिस गए और 14 गाँवों के भूमिगत जल को प्रदूषित कर दिया जिससे गाँवों का जल पीने योग्य नहीं रहा।
पेयजल प्रदूषण के हानिकारक प्रभाव
पेयजल प्रदूषण का प्रभाव सभी प्रकार के प्रदूषणों से अधिक है। प्रदूषित पेयजल के सेवन से अनेक प्रकार की बीमारियाँ फैल जाती हैं। प्रदूषित जल के सेवन से फैलने वाली मुख्य बीमारियाँ हैजा, टायफाइड, पीलिया, तपेदिक, पेचिश, हेपेटाइटिस, पोलियो, मियादी ज्वर आदि हैं। इनमें से बहुत से संक्रामक तथा जानलेवा रोग हैं। प्रदूषित पेयजल से गिनीवर्म रोग भी लग जाता है। अकेले भारत में ही 18 लाख व्यक्ति इस रोग से ग्रस्त हैं। अस्बेस्टास रेशों से युक्त जल के सेवन से असबेस्टोसिस नामक जानलेवा बीमारी लग जाती है। इससे फेफड़ों का कैंसर तथा पेट रोग उत्पन्न हो जाता है। पारायुक्त जल को पीने से छोटी माता नामक रोग हो जाता है। जापान में इस रोग से बहुत लोग पीड़ित हैं।
जल प्रदूषण का सबसे अधिक प्रभाव जलीय जीवन पर पड़ता है क्योंकि उनका समस्त जीवन जल पर ही निर्भर करता है। जल में विषाक्त रसायनों की अधिकता से जलीय जीवों तथा पौधों की मृत्यु हो जाती है अनुमान है कि पिछले 20 वर्षों में जलीय जीवन में 40 फीसदी की कमी आई है।
जल प्रदूषण को नियन्त्रित करने के उपाय
जल प्रदूषण एक विश्वव्यापी समस्या है जिसका प्रभाव विकसित तथा विकासशील दोनों ही देशों पर पड़ता है। विकसित देशों ने तो जल प्रदूषण को रोकने तथा प्रदूषित जल को साफ करने के लिए कई कदम उठाए हैं, परन्तु भारत जैसे विकासशील देशों में यह बहुत ही गम्भीर समस्या है। इसका कारण यह है कि जल प्रदूषण को रोकने तथा पेयजल को स्वच्छ रखने की प्रक्रिया जटिल है और इसकी प्रौद्योगिकी महँगी है। फिर भी जल प्रदूषण को निम्न स्तर पर रखने के लिए निम्नलिखित उपया किए जा सकते हैं।
नगरीय जल का शोधन तथा समुचित प्रयोग
भारत में अधिकांश नगरों का जल-मल बगैर शोधन के ही नदियों, झीलों, तथा तालाबों में डाल दिया जाता है जिससे पेयजल प्रदूषित हो जाता है। नगरपालिकाओं को यह जल शोधित करके ही जलाशयों में डालना चाहिए। प्रत्येक नगर में जलशोधन की व्यवस्था होनी चाहिए। यदि घरेलू अपशिष्ट जल उद्यान कृषि के लिए प्रयोग किया जाए तो जल प्रदूषण की समस्या से निपटने के साथ-साथ जल का सदुपयोग भी हो जाएगा। इसी प्रकार यदि सीवेज को मिट्टी के साथ मिला दिया जाए तो मिट्टी की उपजाऊ शक्ति बढ़ जाएगी।
उद्योगों से निसृत गंदे जल का शोधन
उद्योगों से निकलने वाले जल में अनेक प्रकार के रसायन तथा अन्य प्रदूषणकारी पदार्थ मिले होते हैं। ये निक्षालन प्रक्रिया द्वारा भूतल के अन्दर जाकर पेयजल को दूषित करते हैं। नगरों में जल-मल के शोधन की भांति उद्योगों के प्रदूषित जल को साफ करने की भी व्यवस्था होनी चाहिए। विषाक्त रसायनों का उत्पादन करने वाले उद्योगों के लिए प्रदूषण शोधन संयंत्र की व्यवस्था करना अनिवार्य होना चाहिए।
पेयजल की सफाई
ग्रामीण व नगरीय पेयजल की उचित गुणवत्ता के लिए पेयजल स्रोतों की सफाई अनिवार्य कदम होना चाहिए। ग्रामीण कुओं में पोटेशियम परमेंगनेट तथा शहरी जलापूर्ति में क्लोरीन जैसे रसायनों का प्रयोग करके पेयजल को शोधित किया जा सकता है। पेयजल शोधन करके अनेक बीमारियों से बचा जा सकता है।
कृषि व्यवस्था में सुधार
जल प्रदूषण से बचने के लिए कृषि व्यवस्था में सुधार भी आवश्यक है। हरितक्रान्ति के बाद कृषि उत्पादकता बढ़ाने के लिए बड़े पैमाने पर रासायनिक उर्वरक व कीटनाशी का प्रयोग किया गया है। इससे बड़े पैमाने पर जल प्रदूषण तथा पारिस्थितिकी असन्तुलन दृष्टिगोचर हुआ है। वन्दना शिवा और एम.के. सेखन जैसे- पर्यावरणविदों ने हरितक्रान्ति युक्ति को पर्यावरणीय सन्तुलन के लिए घातक बताया है। रासायनिक उर्वरकों तथा कीटनाशी के स्थान पर जैव उर्वरकों (गोबर आदि) का अधिक उपयोग इस दिशा में सही कदम साबित होगा।
जल संभरण (रेनवाटर हार्वेस्टिंग)
यह तकनीकी सतही जल व वर्षा जल के अनुकूलतम उपयोग पर आधारित है। इसमें सतह पर प्रवाहित जल (वर्षा और भूमिगत) को वाष्पीकरण एवं रिसाव की बाधाओं से बचाते हुए संरक्षित किया जाता है, एवं इसका उपयोग शुष्क मौसम में पीने के पानी, सिंचाई एवं अन्य उद्देश्यों के लिए किया जाता है।
वर्षा जल संचयन मुख्य रूप से दो विधियों पर आधारित है। पहली विधि में धरातल पर वर्षा जल को रोककर संचयित किया जाता है। यह एक परम्परागत विधि है जिसके तहत भूमिगत कुएँ, तालाब आदि का प्रयोग किया जाता है। दूसरी विधि में, भूमिगत जल को रिचार्ज करने की तकनीक सम्मिलित है, जो रेनवाटर हार्वेस्टिंग की नई अवधारणा है। इस तकनीक में खाईयाँ खोदना, कुएँ खोदना, रिचार्ज कुएँ बनाना आदि सम्मिलित हैं। रिचार्ज कुओं को गहराई में स्थित जल संभरण केन्द्रों तक वर्षाजल रिसाव को पहुँचाने हेतु प्रयुक्त किया जाता है। इससे जल अच्छी तरह से फिल्टर हो जाता है।
उपर्युक्त सभी उपायों के अतिरिक्त पेयजल संरक्षण में सामुदायिक भागीदारी सबसे कारगर सिद्ध होगी क्योंकि जल प्रदूषण से सम्बन्धित अधिकांश मानव निर्मित हैं। जन-साधारण को पेयजल के महत्व व उसके प्रदूषण के सम्बन्ध में शिक्षित करना महत्वपूर्ण है। पेयजल सम्बन्धित अधिकांश समस्याएँ स्थानीय हैं जिसका स्थानीय स्तर पर प्रबंधन किया जा सकता है। सामुदायिक भागीदारी से पेयजल को शोधित कर, इसे लोगों में समान मात्रा में वितरित किया जा सकता है।
जल प्रकृति द्वारा मानव को प्रदत्त बहुमूल्य उपहार है। सौभाग्य से यह रास्ता और सुलभ उपहार भारत की झोली में प्रचुर मात्रा में है। जल प्रबन्धन के लिए सिर्फ सरकारी प्रयास पर्याप्त नहीं होंगे। इसमें स्वैच्छिक व गैर-सरकारी संगठनों को भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभानी होगी। इन संगठनों को जनसाधारण को शिक्षित करना होगा, उन्हें प्रेरित करना होगा और जल-प्रबन्धन के कार्य को आन्दोलन बनाना होगा। इसमें व्यक्तिगत भागीदारी भी अहम होगी। आइए, हम इस आन्दोलन के अभिन्न अंग बनें।
(लेखक म.बि.पा. राजकीय महाविद्यालय, लखनऊ में सहायक प्रोफेसर (अर्थशास्त्र) हैं।), ईमेल: dvsingh036@gmail.com
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