भारत में मौसम पूर्वानुमान

भारत में मौसम विज्ञान का आरंभ प्राचीन काल से माना जाता है। करीब तीन हजार ईसा पूर्व लिखे गए दार्शनिक ग्रंथ ‘उपनिषदों’ में पृथ्वी के सूर्य के चारों ओर घूमने के कारण मौसमी परिवर्तन के साथ बादल बनने और बारिश होने पर गंभीर चिंतन किया गया है। करीब 500 ईसवीं में वराहमिहिर द्वारा लिखे ‘बृहत संहिता’ ग्रंथ में उस समय की वायुमंडलीय क्रियाओं के गहरे ज्ञान की झलक मिलती है। उस दौरान रचे गए ‘आदित्य जायते वृष्टि’ वाक्य से यह पता लगता है कि उस समय के लोगों को इस बात का ज्ञान था कि सूर्य ही बारिश कराता है। वर्षाकाल में अच्छी बारिश को अच्छी फसल के साथ भरपूर अनाज का सूचक माना जाता था। कौटिल्य के ‘अर्थशास्त्र’ में बारिश का वैज्ञानिक मापन और इसके अनुप्रयोग से देश में राजस्व और राहत कार्यों की बात भी लिखी हुई है। सातवीं सदी में महाकवि कालिदास द्वारा लिखे गए ‘मेघदूत’ नामक महाकाव्य में मध्य भारत में मानसून के आगमन और मानसूनी बादलों के रास्ते को चिन्हित किया गया है।

[img_assist|nid=28947|title=|desc=नई दिल्ली स्थित भारतीय मौसम विभाग का मुख्यालय|link=none|align=left|width=400|height=300]विश्व की पुरानी वेधशालाओं में से कुछ भारत में सत्रहवीं सदी के उत्तरार्द्ध में स्थापित की गई वेधशालाएं हैं। इनमें सन् 1785 में कलकत्ता (अब कोलकाता) और सन् 1796 में मद्रास (अब चेन्नई) में स्थापित वेधशालाएं प्रमुख हैं। सन् 1866 एवं 1871 में मानसूनी वर्षा की कमी और सन् 1864 में उष्णकटिबंधीय चक्रवात के कलकत्ता में तबाही फैलाने के बाद सन् 1875 में भारतीय मौसम विभाग (आईएमडी) की स्थापना की गई थी। देश में आईएमडी की स्थापना के बाद से मौसम संबंधी सभी कार्य इस केंद्रीय संगठन के अंतर्गत होने लगे। सन् 1889 में मई महीने के दौरान वेधशालाओं के प्रथम महानिदेशक के रूप में सर जॉन इलियट को नियुक्त किया गया था। आईएमडी का मुख्यालय कलकत्ता से शिमला, फिर शिमला से पूना स्थानांतरित होते हुए अब नई दिल्ली में स्थित है।

आरंभिक पथप्रदर्शक


हमारे देश में कृषि अर्थव्यवस्था में मानसूनी वर्षा की भूमिका को ध्यान में रखते हुए भारत सरकार के मौसम विज्ञान के संवाददाता एच.एफ. ब्लेनफोर्ड ने दीर्घकालीन पूर्वानुमान व्यवस्था की शुरुआत की। भारत में मानसूनी वर्षा संबंधी दीर्घकालीन पूर्वानुमान के क्रांतिकारी कार्यों का श्रेय सर जे. इलियट व सर गिल्बर्ट वॉकर और इस प्रयास में योगदान देने वाले भारतीय शोधकर्ताओं को जाता है।

सर गिल्बर्ट वॉकर ने भारतीय मानसून पर वैश्विक मौसमी परिस्थितियों के प्रभावों की व्याख्या की और इनके संबंधों को परिभाषित करके उन्होंने दक्षिणी दोलन परिघटना (सदर्न ऑसिलेशन) की खोज की। सर गिल्बर्ट वॉकर ने दक्षिणी दोलन परिघटना में दक्षिणी प्रशांत महासागर और उत्तर-पश्चिमी आस्ट्रेलिया के ड्राविन क्षेत्र के बीच वायुदाब में संबंध को भी परिभाषित किया। दक्षिणी दोलन परिघटना को बाद में जे. बिजैकेन ने भूमध्यवर्ती प्रशांत महासागर के एल-नीनो से संबंधित होने की व्याख्या की। जे. बिजैकेन ने भूमध्यवर्ती क्षेत्र के पूर्वी-पश्चिमी लंबवत चक्र की व्याख्या करते हुए सर वॉकर के सम्मान में इस चक्र को ‘वॉकर चक्र’ नाम दिया।

ब्लेनफोर्ड को आइएमडी में नौजवान भारतीयों की आवश्यकता का अंदाजा था। दो भारतीयों लाला रुचिराम साहनी (बीरबल साहनी के पिता) और लाला हेमराज क्रमशः सन् 1884 और सन् 1886 में आईएमडी में नियुक्त हुए। प्रथम विश्व युद्ध के बाद सर वॉकर के मार्गदर्शन में आईएमडी का भारतीयकरण होने के प्रयास को सर सी. डब्ल्यू. बी. नारमंड के समय में और अधिक प्रोत्साहन मिला। सर सी.डब्ल्यू.बी. नारमंड सन् 1928 से 1944 तक की अवधि में आईएमडी के महानिदेशक रहे। नारमंड वेधशालाओं के पहले भारतीय महानिदेशक डॉ. एस. के बनर्जी के उत्तराधिकारी थे। तीन वर्षों के दौरान अनेक वैज्ञानिकों ने आईएमडी में कार्य किया और स्वतंत्रता के बाद इस संस्थान को विकास की नई ऊंचाईयों तक पहुंचाया।

सन् 1975 में आईएमडी की स्थापना के बाद से ही देश में मौसम विज्ञान की वेधशालाओं, संचार, पूर्वानुमान और मौसम सेवा के क्षेत्र में आधारभूत संरचनाओं को विस्तारित किया गया। आईएमडी ने सदैव समसामयिक प्रौद्योगिकी का उपयोग किया। टेलीग्राफ युग में वेधशालाओं के आंकड़ों और चेतावनी प्रेषित करने में मौसमी टेलीग्राम का व्यापक रूप से उपयोग किया जाने लगा था। कम्प्यूटर द्वारा वैश्विक आंकड़ों के अदान-प्रदान करने वाले भारतीय संगठनों में आईएमडी पहला संस्थान था। भारत का पहला सुपर कम्प्यूटर भी आईएमडी में मौसम पूर्वानुमान के लिए स्थापित किया गया था। भारत विश्व के विकासशील देशों में अपना भूस्थिर उपग्रह विकसित करने वाला पहला देश है। भारतीय उपग्रह ‘इन्सैट’ लगातार भारतीय क्षेत्र की निगरानी करने के साथ ही चक्रवात के बारे में चेतवानी भी देता है।

मानसून का पूर्वानुमान


भारत जैसे कृषिप्रधान देश में खाद्यान्न उत्पादन और जल स्रोतों की पुनः पूर्ति के लिए समय पर मानसूनी वर्षा होना अत्यंत आवश्यक है। हमारे देश में 80 प्रतिशत बारिश मानसून के दौरान ही होती है और यहां के सकल घरेलू उत्पाद में लगभग एक चौथाई भाग रखने व करीब 70 प्रतिशत आबादी को रोजगार देने वाला कृषि क्षेत्र मुख्य रूप से बारिश पर निर्भर है। कपास, धान, दालों और मोटे अनाजों का उत्पादन बारिश पर ही निर्भर होता है। भारत में प्रत्येक वर्ष जल उपलब्धता और फसल की पैदावार सामान्य या कम होना मानसूनी वर्षा पर निर्भर होता है। सन् 1990 में भारत में पड़ा सूखा इस बात का सबूत है कि मानसून में देरी या अपर्याप्त वर्षा के कारण हमारे देश की अर्थव्यवस्था पर बुरा प्रभाव पड़ता है। इसलिए कुछ महीनों पूर्व की गई मानसून की भविष्यवाणी अनियमित मानसून से भारतीय कृषि को कुछ हद तक सुरक्षा प्रदान करती है।

आईएमडी भारत में होने वाली मानसूनी वर्षा के पूर्वानुमान से संबंधित मौसमी पूर्वानुमान के लिए संख्यात्मक (स्टेट्इस्टिकल) विधियों का उपयोग करता है। ये संख्यात्मक मॉडल वायुमंडल, महासागरों और भूमि के सम्मिलित प्रभावों के पुराने आंकड़ों पर जैसे अरब सागर के सतही तापमान, दक्षिणी हिन्द महासागर के सतही तापमान, हिन्द महासागरीय भूमध्यवर्ती दाब, हिमालयीन आच्छादित बर्फ, यूरेशियन आच्छादित बर्फ और इसी प्रकार अन्य कई कारकों पर आधारित होते हैं। मानसूनी वर्षा के पूर्वानुमान की प्रचलित संख्यात्मक तकनीक ‘रैखिक समाश्रयण विश्लेषण’ (लिनियर रिग्रेशन एनालेसिस्) कहलाती है। मानसून भूमि और सागर के बीच के तापांतर का परिणाम है, जिसमें वृहद स्तर पर दाब, तापमान और हवा का मौसमी पलटाव शामिल होत है। इन तथ्यों के आधार पर ऐसे कारकों की पहचान के लिए कई अध्ययन किए गए जो ठंड से पहले व मानसून के मौसम से पहले क्षेत्र के ताप और दाब के आधार पर मानसून के पूर्वानुमान में उपयोग किए जा सकते हैं।

अनेक प्रयत्नों के बाद सन् 1981 से 1990 के दौरान कई मौसम पूर्वानुमान तकनीकें विकसित करने के साथ 16 प्राचलों (पैरामीटरस्) वाला एक नया मॉडल प्रस्तुत किया गया, जो मौसमी बारिश के पूर्वानुमान में उपयोगी साबित हुआ। वर्ष 1988 से आईएमडी द्वारा पूरे देश के लिए दीर्घ अवधि पूर्वानुमान के लिए इसी 16 प्राचलों वाले मॉडल को अपनाया गया। फिर भी लगातार 14 वर्षों तक सफलतापूर्वक पूर्वानुमान के बाद सन् 2002 में व्यापक रूप से मानसून की भविष्यवाणी गलत साबित हुई। उस समय मॉडल की अशुद्धता चार प्रतिशत कम या अधिक होने के स्थान पर 20 प्रतिशत कम आई थी। उस समय मॉडल के द्वारा 101 प्रतिशत वर्षा द्वारा सामान्य मानसून की घोषणा की गई थी जबकि उस वर्ष वास्तविक वर्षा केवल 81 प्रतिशत ही हुई। इसके बाद आईएमडी ने मानसूनी वर्षा के पूर्वानुमान के लिए पूर्णतः नए मॉडल का उपयोग किया। कृषि के लिए जुलाई में होने वाली बारिश के महत्व को ध्यान में रखते हुए, एक नए आठ प्राचलों वाले शक्तिशाली सामाश्रयण मॉडल (रिग्रेशन मॉडल) को जुलाई की बारिश के पूर्वानुमान के लिए विकसित किया गया। इसके लिए जून तक के आकड़ों को एकत्र करने के बाद अद्यतन पूर्वानुमान किया जाता है। यह नया मॉडल पिछले मॉडल द्वारा मई के चौथे सप्ताह में किए गए पूर्वानुमान की बजाय मध्य अप्रैल में पूर्वानुमान करता है, इसके बावजूद यह नई व्यवस्था जुलाई की वर्षा (कृषि के लिए मानसून पूर्वानुमान) की अनिश्चितता को न्यूनतम करती है।

मानसूनी वर्षा की सम्भावना के लिए इस मॉडल के अनुसार देश को पांच भागों में बांटा गया हैः सूखा (दीर्घ अवधि औसत से 90 प्रतिशत); सामान्य से कम (90 से 97 प्रतिशत); लगभग सामान्य (98 से 102 प्रतिशत); सामान्य से अधिक (103 से 110 प्रतिशत); बहुत अधिक (110 प्रतिशत से अधिक)।

वर्ष 2007 में आईएमडी में पांच कारकों वाली सांख्यिकी पूर्वानुमान विधि को अपनाया गया जिसमें मार्च तक के अद्यतन आकड़ों का उपयोग, अप्रैल में प्रथम पूर्वानुमान करने में किया जाता है और नया छह प्राचलों वाला सांख्यिकी मॉडल, जिसमें मई तक के अद्यतन आंकड़ों का उपयोग कर पूरे देश के लिए दक्षिण पश्चिमी मानसून के रूप में दीर्घकालीन पूर्वानुमान कर, जून तक के मौसम का पूर्वानुमान करता है।

भारतीय अर्थव्यवस्था में ग्रीष्म मानसून की अहमियत देखकर आइएमडी ने अपनी दीर्घकालीन पूर्वानुमान की तकनीकों को अद्यतन किया है। इस संस्था ने दक्षिण-पश्चिमी मानसूनी वर्षा के पूर्वानुमान के लिए विविध मॉडलों का उपयोग किया है। इस कार्य के लिए राष्ट्रीय मध्यम अवधि मौसम पूर्वानुमान केंद्र, नोएडा और भारतीय उष्णकटीबंधीय मौसम विज्ञान संस्थान पुणे, द्वारा तैयार प्रायोगिक पूर्वानुमान का उपयोग विविध मॉडलों में किया जाता है। यह आशा है कि निकट भविष्य में भारतीय मानसूनी वर्षा के दीर्घकालीन पूर्वानुमान के लिए आइएमडी में सांख्यिकी मॉडलों के स्थान पर अधिक विश्वसनीय गतिक मॉडलों का उपयोग किया जाने लगेगा।

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