भारत में काँच प्रौद्योगिकी के संस्‍थापक डॉ. आत्‍माराम


जन्म : 12 अक्टूबर, 1908, पिलाना जिला, बिजनौर, यूपी
मृत्यु : 6 फरवरी, 1983, दिल्ली
पिता : भगवान दास, पटवारी

शिक्षा :


1922 : वर्नाकुलर मिडिल एग्जामिनेशन, चाँदपुर
1924 : मैट्रिकुलेट ऑफ बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय (प्राइवेट)
1926 : इन्टर-बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय
1929 : बी.एससी., डीएवी कॉलेज, कानपुर
1931 : एम.एससी. (रसायन), इलाहाबाद विश्वविद्यालय
1935 : डी.एससी. इलाहाबाद विश्वविद्यालय

पद एवं नियुक्तियाँ


1936 : रसायन सहायक, इंडियन इंडस्ट्रियल ब्यूरो, अलीपुर, कोलकाता
1945 : ऑफीसर-इन-चार्ज, केंद्रीय काँच एवं सिरेमिक अनुसंधान संस्थान (CGCRI), कोलकाता
1949 : संयुक्त निदेशक, CGCRI
1952 : निदेशक, CGCRI
1966 : महानिदेशक, वैज्ञानिक एवं औद्योगिक अनुसंधान परिषद
1977: अध्यक्ष, विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी की राष्ट्रीय समिति (NCST)

पुरस्कार एवं सम्मान


1959 : शांतिस्वरूप भटनागर मेडल
1981 : अणुव्रत पुरस्कार
1968 : जेनरल प्रेसिडेंट, इंडियन साइंस कांग्रेस
1969-70 : प्रेसिडेंट, इंडियन नेशनल एकेडमी

आत्माराम साधारण से दिखाई पड़ने वाले असाधारण व्यक्ति थे। गाँधी टोपी लगाए, खादी का कुर्ता-पायजामा पहने, सहज विनम्रता, आत्मीयता और शिष्टाचार भरे इस भारतीय वैज्ञानिक में भारतीयता और विज्ञान का अनूठा संगम था।

उनके पिता एक पटवारी थे, किन्तु वे धर्मभीरू, सत्यनिष्ठ और ईमानदार व्यक्ति थे। इसलिये भरे-पूरे परिवार में अभावों का स्थाई डेरा था। आस-पास पढ़ाई की कोई उपयुक्त व्यवस्था भी नहीं और दूर भेज कर पढ़ाई का खर्च परिवार उठा नहीं सकता था, इसलिये दसवीं तक की पढ़ाई आत्माराम ने प्राइवेट विद्यार्थी के रूप में ही की। किन्तु शुरू से ही उन्होंने अपनी प्रतिभा का परिचय दिया और दसवीं कक्षा की जिस परीक्षा को उत्तीर्ण करने में आमतौर पर विद्यार्थियों को 4-5 साल का समय लगता था। वह उन्होंने 2 साल के न्यूनतम समय में ही अच्छे अंकों से पास कर ली। पिता हालाँकि कर्ज लेने के खिलाफ थे, किन्तु होनहार बेटे के उज्जवल भविष्य के लिये उन्होंने तय किया कि कुछ भी हो बेटे को उच्च शिक्षा तो दिलानी ही है।

कैशोर्य, कॉलेज और कृतित्व


काशी हिन्दू विश्वविद्यालय उस समय शिक्षा का सर्वाधिक प्रतिष्ठित संस्थान था और आस-पास के गाँवों के कुछ लड़के वहाँ पहले से पढ़ रहे थे, इसलिये आत्माराम अकेले बनारस आ गए। क्योंकि, विज्ञान विषयों के साथ स्कूलों में शिक्षक की नौकरी मिलना आसान होता था, इसलिये, दोस्तों की सलाह पर विज्ञान विषय ले लिये। उन्होंने हाई स्कूल तक तो विज्ञान पढ़ा नहीं था और अंग्रेजी माध्यम से शिक्षा भी प्राप्त नहीं की थी। इसलिये न कक्षा में कुछ समझ आता था न प्रयोगशाला में कुछ कर पाते थे। ऊपर से खर्च चलाने के लिये ट्यूशन पढ़ाते थे और खर्च बचाने के लिये दोस्तों से किताबें माँग कर पढ़ते व अपना खाना खुद बनाते थे।

अर्द्धवार्षिक परीक्षा हुई तो गणित में तो 80 प्रतिशत अंक पाए, किन्तु भौतिकी और रसायनशास्त्र में केवल 10-12 प्रतिशत अंक ही प्राप्त हुए। आत्माराम ने तय किया कि वे विज्ञान के लायक नहीं बने हैं। उन्होंने विषय परिवर्तन के लिये रसायन विज्ञानाध्यक्ष प्रो. एम.वी. राणे के पास व्यक्तिगत रूप से प्रार्थना पत्र प्रस्तुत किया। उन्होंने आत्माराम की अंक पत्रिका देखकर उन्हें प्रो. फूलदेव सहाय वर्मा के सुपुर्द किया ताकि वे उसकी समस्या समझ सकें। प्रो. वर्मा के कक्ष में सर हेनरी रस्को की रसायनशास्त्र की पुस्तक देखकर आत्माराम ने उनसे वह पुस्तक पढ़ने के लिये माँगने की हिम्मत दिखाई। प्रो. ने न केवल उन्हें पुस्तक पढ़ने के लिये दी बल्कि उन्हें उसकी विषय वस्तु पर चर्चा करने के लिये भी प्रोत्साहित किया। यह विज्ञान विषयों में उनकी रुचि का श्री गणेश था। इन्टरमीडिट परीक्षा उन्होंने प्रथम श्रेणी में पास की।

डी.ए.वी. कॉलेज कानपुर में उसी वर्ष बी.एस-सी. पाठ्यक्रम शुरू हुआ था। यहाँ उनको दो छात्रवृत्तियाँ प्राप्त हो गईं – एक 10 रुपए की और दूसरी 15 रुपए की। एक-दो ट्यूशन पढ़ाकर वे अपना खर्च निकालते रहे और प्रथम वर्ष सफलतापूर्वक पूरा किया। अंतिम वर्ष में उन्होंने ट्यूशन न पढ़ाने का निश्चय किया, इसलिये कुछ कर्ज लेना पड़ा। जिम्मेदारी के अहसास से सब कुछ भूल अध्ययन में डूब गए। परन्तु कठोर परिश्रम और अपने प्रति लापरवाही के कारण ठीक परीक्षा से पहले बीमार पड़ गए। किन्तु साल बचाने के लिये परीक्षा दी और द्वितीय श्रेणी में उत्तीर्ण हुए।

एम.एस-सी. में प्रवेश के लिये उन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय के भौतिकी और रसायन विभागों में आवेदन किया। दोनों विभागों में दिग्गज वैज्ञानिक अध्यक्ष थे : भौतिकी में प्रो. मेघनाद साहा और रसायनशास्त्र में प्रो. नीलरतन धर। उन्हें प्रवेश नहीं मिला। निराश आत्माराम ने अपनी उत्सुकता और ज्ञान पिपासावश प्रो. धर का एक लेक्चर कमरे के बाहर खिड़की के पास खड़े होकर सुना और उसके नोट्स बनाए। इलाहाबाद आते समय वह डी.ए.वी. कॉलेज, कानपुर के प्रधानाचार्य दीवानचन्द्र का एक संदेश प्रो. धर के लिये लाए थे। इसलिये औपचारिक भेंट के लिये वे उनसे मिलने गए। बात-बात में उनके पिछले दिन के लेक्चर की चर्चा हुई तो आत्माराम की स्पष्टता से संकल्पनाओं को समझने की शक्ति से वे इतने प्रभावित हुए कि सभी सीटें पूरी हो जाने के बावजूद उन्होंने आत्माराम को अस्थायी रूप से एम.एस.सी. में प्रवेश दे दिया। वह विश्वविद्यालय की सभी एम.एस-सी. कक्षाओं में सर्वाधिक अंक प्राप्त कर प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हुए।

सौ रुपए में शादी


डॉ. आत्माराम ने सदैव सादगी भरा जीवन बिताया। अपने ऊपर तो वे बहुत ही कम खर्च करते थे। जब इलाहाबाद विश्वविद्यालय से प्रो. नील रतन धर के मार्गदर्शन में डी. एस-सी. कर रहे थे तो उन्हें 100 रुपए प्रतिमास छात्रवृत्ति मिलती थी, उसमें से वे सिर्फ सात रुपए अपने ऊपर खर्च करते और शेष सब घर भेज देते थे।

डॉ. आत्माराम के हर आचरण में अपव्यय के प्रति विरोध का भाव था। उनकी पत्नी सीता देवी कानपुर के सम्पन्न परिवार से थी। उनके परिवार के लोग धूमधाम से विधिपूर्वक शादी के पक्षधर थे लेकिन आत्माराम नहीं माने। अंततः अत्यन्त सादगी के साथ आर्य समाजी विधि से 26 दिसम्बर 1934 को उनकी शादी इलाहाबाद में सम्पन्न हुई। डॉ. सत्यप्रकाश वर पक्ष के पुरोहित बने और उनके छोटे भाई शिव प्रकाश वधु पक्ष के। आत्माराम के परिवार से केवल उनका छोटा भाई जो उनके साथ ही रह कर पढ़ रहा था, इस शादी में शामिल हुआ। शादी का कुल खर्च 100 रुपए था।

संघर्ष का सफर


डी.एस-सी. के लिये छात्रवृत्ति केवल 3 वर्ष के लिये अनुमत थी। आजीविका के लिये नौकरी की तलाश शुरू हुई, आत्माराम की रुचि अनुसंधान में थी, किन्तु खर्च की चिन्ता और कर्ज चुकाने के दबाव ने एक बार उन्हें चीनी उद्योग में केमिस्ट बनने का निर्णय लेने के लिये मजबूर कर दिया। पर वह अवसर मिलने में भी कुछ समय था इसलिये जब शासकीय महाविद्यालय अजमेर से रसायन विभाग में अस्थाई प्रोफेसर की नौकरी का प्रस्ताव मिला तो वे वहाँ चले गए। चार महीने में वह सेवा समाप्त हो गई। आत्माराम छोटी-से-छोटी नौकरी के लिये तैयार थे। बिजनौर में एक चीनी मिल था। वहाँ काम तो नहीं मिला किन्तु बिना वेतन प्रशिक्षु बनने का प्रस्ताव मिला। समय का सदुपयोग करने की दृष्टि से सीखने की धुन में आत्माराम ने वही स्वीकार किया। बिजनौर में अपने साले के घर रहे, ट्यूशन करके खर्च चलाया और चीनी फैक्ट्री में पूरे मन से काम किया। वे डी.एस-सी. बनने वाले थे, पर छोटे-से-छोटे कर्मचारी से स्नेह और विनम्रता से मिलते और जिससे जो सीखा जा सकता सीखते।

यहाँ एक कर्मचारी से उन्होंने यह पहचानना सीखा कि चाशनी क्रिस्टलन निर्माण के लिये तैयार है या नहीं। उन्होंने चाशनी को साफ करने के लिये सल्फर डाइऑक्साइड के स्थान पर चुक्लाई (भिंडी के पौधे की छाल) का उपयोग किया, जिसके बेहतर परिणाम प्राप्त हुए। उनके प्रयास से कुहरे की मार से गन्ने की फसल खराब होने के बावजूद उनकी फैक्ट्री पूरे सीजन चली। पर सीजन खत्म होते ही फैक्ट्री बंद हो गई और उनका यह काम भी खत्म हो गया।

नौकरी के लिये एक-दो साक्षात्कार के लिये गए भी किन्तु कहीं बात बनी नहीं। और बलवन्त राजपूत इंटर कॉलेज में 120 रुपए प्रतिमास की नौकरी मिली भी तो एक सप्ताह बाद ही एक पुराने साक्षात्कार के परिणामस्वरूप औद्योगिक अनुसंधान ब्यूरो में रसायन सहायक के रूप में कोलकाता आ गए।

देश के वैज्ञानिक विकास की साधना


डॉ. आत्माराम ने 1936 में औद्योगिक अनुसंधान ब्यूरो में काम शुरू किया तो उन्हें काँच से सम्बंधित रासायनिकी और औद्योगिक विकास पर अनुसंधान कार्य दिया गया। 1940 में औद्योगिक अनुसंधान ब्यूरो को बोर्ड ऑफ साइंटिफिक एंड इंडस्ट्रियल रिसर्च (बी.एस.आई.आर.) में बदल दिया गया और डॉ. शांति स्वरूप भटनागर को विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी अनुसंधान का निदेशक बनाया गया। इसके बाद से कोलकाता में परीक्षण प्रयोगशाला में लगकर व्यवस्थित रूप से अनुसंधान कार्य शुरू हुआ। द्वितीय विश्वयुद्ध जारी था और तेल भण्डारों पर हमले के खतरे की स्थिति में बड़े पैमाने पर एयरफोन अग्निशामक यंत्रों की आवश्यकता थी। इनका आयात किया जाता था जो महँगा भी था और युद्धकाल में अव्यवहारिक भी। डॉ. भटनागर ने डॉ. आत्माराम को एयरफोन सोल्युशन के विकास की जिम्मेदारी दी। अथक परीक्षण से कुछ ही महीनों में उन्होंने आयातित घोल से भी प्रभावी घोल तैयार कर उसका जाँच प्रदर्शन किया। यह एक बड़ी उपलब्धि थी।

1942 में दूसरे विश्वयुद्ध की विभीषिका ने डीएसआईआर प्रयोगशाला को कोलकाता से दिल्ली स्थानांतरित करने के लिये बाध्य किया। डॉ. भटनागर के साथ डॉ. आत्माराम भी दिल्ली आ गए। और 1942 में ही 10 लाख रुपए के प्राथमिक अनुदान के साथ औद्योगिक अनुसंधान विधि की स्थापना की गई और डीएसआईआर को एक स्वायत्तशासी वैज्ञानिक एवं औद्योगिक अनुसंधान परिषद (सीएसआईआर) में बदल दिया गया।

1944 में देश में काँच प्रौद्योगिकी के विकास के लिये केन्द्रीय काँच एवं सिरेमिक अनुसंधान संस्थान (सीजीसीआरआई) की स्थापना के लिये और कच्चे पदार्थों की उपलब्धता के सर्वेक्षण के लिये एक समिति बनाई गई तो मेघनाद साहा और शांति स्वरूप भटनागर की अनुशंसा पर आत्माराम को इसका सचिव बनाया गया। आत्माराम ने संकोचपूर्वक कहा भी कि उन्हें काँच उद्योग का चाइना ग्लास निर्माण के अतिरिक्त कोई अनुभव तो है नहीं, पर साहा और भटनागर दोनों ने कहा कि तुम्हें अनुसंधान करना है फैक्टरी नहीं चलानी है। एक बार कोई जिम्मेदारी ले ली तो उसे पूरा करने के लिये जी जान से जुटना आत्माराम का स्वभाव था। उन्होंने लगभग ढाई महीने में अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत कर दी। इस रिपोर्ट में काँच उद्योग के सभी पक्षों का इतना विस्तृत और तथ्यपरक विश्लेषण था कि आत्माराम को ही मुख्य अधिकारी बनाकर कलकत्ता में सीजीसीआरआई की स्थापना का कार्यभार सौंपा गया। 24 दिसंबर 1945 को इस संस्थान की स्थापना कलकत्ता के उपनगर जाधवपुर में की गई। आधारशिला रखने से एक प्रमुख संस्थान बनने तक दो दशक इस संस्थान से आत्माराम जुड़े रहे।

महत्त्वपूर्ण औद्योगिक योगदान


1. आत्माराम के प्रयास से काँच और सिरेमिक उद्योग में काम आने वाले पदार्थों के देश में उपलब्ध संसाधनों का व्यापक सर्वेक्षण किया गया, जिससे इन पदार्थों का आयात खर्च बचाया जा सका।

2. आत्माराम ने काँच और सिरेमिक उत्पादों की गुणवत्ता जाँच और सलाह केन्द्र विकसित किया जिससे देश में इन उत्पादों की गुणवत्ता सुधारने और मूल्य कम करने में मदद मिली। उनकी कोशिश रहती थी कि यदि आयातित सामान के स्थान पर देसी सामान का उपयोग करके गुणवत्ता बनाई रखी जा सके तो ऐसा प्रयास किया जाना चाहिए।

3. देश में बिहार, मध्य प्रदेश आदि प्रांतों में अभ्रक के विशाल भण्डार हैं। यहाँ अभ्रक की चादरें उपयोज्य आकार में काट कर निर्यात की जाती थीं। कटिंग और चूरे के बड़े-बड़े ढेरों को निपटाने की समस्या थी। उन्होंने इस अभ्रक अपशिष्ट को ईंटों में बदलने की प्रौद्योगिकी विकसित की, जिससे देश में ऊष्मारोधी पदार्थों से बने उत्पाद निर्माण का नव-पथ प्रशस्त हुआ।

4. चूड़ी उद्योग को, जो उस समय लाल रंग की चूड़ियों के लिये आयात करके सेलेनियम का उपयोग करता था, उससे भी अच्छा रंग कॉपर ऑक्साइड द्वारा प्राप्त करना सिखाया।

5. उनके मार्गदर्शन में सीजीआईआरआई में हुए मुख्य अनुसंधानों में शामिल हैं: रासायनिक पोर्सिलिन, बोरेक्स रहित विट्रस एनेमल, धूप के चश्मे, विभिन्न रंगों के रेलवे सिग्नलों के काँच, विशिष्ट क्रूसिबिल, तारों और प्रतिरोधों के लिये एनेमल, वाहनों में उपयोग के लिये स्पार्क प्लग, पोर्सिलिन के दाँत, pH मीटरों के लिये काँच के इलेक्ट्रोड, सिरेमिक उद्योग में उपयोग हेतु प्लास्टर ऑफ पेरिस एवं विभिन्न प्रकार के रंग, फोम-ग्लास, उद्योगों के लिये फर्नेस (भट्टी) आदि।

6. प्रकाशिक काँच अनुसंधान और मिलिटरी उपयोग के अनेक यन्त्रों, जैसे रेंज फाइन्डर, पनडुब्बी पेरिस्कोप, टेलिस्कोप, सूक्ष्मदर्शी, बाइनाकुलर, कैमरों, टैंक गन साइट यन्त्रों, स्पेक्ट्रममापियों आदि में उपयोग में लाया जाता है। विश्व में केवल जर्मनी में ही इसकी प्रौद्योगिकी उपलब्ध थी। आत्माराम ने अपने साधनों से ही सीजीसीआरआई में उच्च गुणवत्ता के निर्माण की प्रौद्योगिकी विकसित कर दिखाई।

अनुप्रयुक्त विज्ञान के समर्थक


आत्माराम एक समर्पित वैज्ञानिक थे। 1946 में 15 वैज्ञानिकों का एक दल युद्ध पश्चात के जर्मनी की विज्ञान प्रगति का अध्ययन करने वहाँ गया। उस दल के सदस्य के रूप में आत्माराम ने अपना पूरा ध्यान वहाँ काँच और सिरेमिक्स के क्षेत्र में हुए विकास पर केन्द्रित रखा। युद्ध की विभीषिका और तबाही के मंजर के बीच वे अपने काम की चीजें और व्यक्तियों को तलाशते रहते। पर फ्रैंकफुर्त में एक रात कार दुर्घटना में वे बुरी तरह घायल हो गए। तीन से साढ़े तीन महीने फ्रैंकफुर्त और लंदन के अस्पतालों में इलाज चला। जान तो बच गई लेकिन एक आँख हमेशा के लिये बेकार हो गई। किन्तु इस अवसर का लाभ भी उन्होंने अपने ज्ञानवर्धन के लिये उठाया। बाद में इसका उपयोग सीजीसीआरआई में नव-अनुसंधान की व्यवस्था और विकास के लिये किया गया।

उनका यह सुचिंतित मत था कि जनता की समस्याओं और देश की आवश्यकताओं को समझकर यथासम्भव स्थानिक साधनों का उपयोग करते हुए अनुसंधान की दिशा तय की जानी चाहिए। अपनी इस बात को वे आग्रहपूर्वक हर फोरम पर पूरी ताकत से रखते और बड़े-से-बड़े व्यक्तियों को अपने तर्कों से समझाने का प्रयास करते। वे योजनाबद्ध विकास के समर्थक थे और इसके लिये सदा प्रयत्नशील रहते।

हिन्दी माध्यम से विज्ञान शिक्षा के पक्षधर


गाँव एवं कस्बों के बच्चों को अंग्रेजी माध्यम से विज्ञान समझने में कितनी कठिनाई होती है इसका उन्हें प्रत्यक्ष अनुभव था। 11वीं कक्षा में प्रथम अर्द्धवार्षिक परीक्षा में भौतिकी और रसायन में वे इसीलिये तो फेल हो गए थे कि कक्षा में जब टीचर बोलता Ten gram water तो उन्हें समझ ही न आता था कि यह 10 चना जल क्या होता है? बाद में भी कई साक्षात्कारों के दौरान प्रश्नकर्ताओं के अंग्रेजी शब्दों के उच्चारण को ठीक से न समझ पाने के कारण उन्होंने परेशानी और निराशा का सामना किया था। वैसे वे अच्छे वक्ता थे, हिन्दी और अंग्रेजी दोनों में अपनी बात बहुत प्रभावी ढंग से प्रस्तुत करते थे। पर अपने अनुभव से वे जानते थे कि संकल्पनाओं की जैसी सहज समझ अपनी मातृभाषा के माध्यम से होती है, अंग्रेजी के कारण उसमें समस्या होती है, और अतिरिक्त परिश्रम करना पड़ा है।

हिन्दी के माध्यम से विज्ञान विषयों पर वार्ता में उन्हें आनंद आता। उन्होंने विज्ञान की 2 पुस्तकें भी हिन्दी में लिखीं : ‘रयायन विज्ञानों का इतिहास’ तथा ‘बच्चों के लिये ओजोन की छतरी’। विज्ञान परिषद प्रयाग की पत्रिका ‘विज्ञान’ में उनके कई दर्जन लेख प्रकाशित हुए। ‘साप्ताहिक हिन्दुस्तान’, ‘नंदन’ और ‘पराग’ में भी वे आम आदमी और बच्चों के लिये विज्ञान विषयक लेख लिखते रहते। सीएसआईआर के निदेशक पद से सेवा निवृत्ति से पूर्व उन्होंने सीएसआईआर के एक लोकप्रिय प्रकाशन Wealth of India का हिन्दी संस्करण डॉ. सत्यप्रकाश और डॉ. शिव गोपाल मिश्र के मार्गदर्शन में प्रकाशित कराया। हिन्दी में विज्ञान संचार के प्रति डॉ. आत्माराम की रुचि और आस्था का सम्मान करने के लिये केन्द्रीय हिन्दी संस्थान ने 1989 से विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में साहित्य और साधन विकास हेतु अत्यंत प्रतिष्ठित ‘डॉ. आत्माराम हिन्दी सेवी पुरस्कार’ प्रदान कर रहा है। 2012 के लिये यह पुरस्कार ‘विज्ञान आपके लिये’ के मुख्य सम्पादक डॉ. ओउम प्रकाश शर्मा को प्रदान किया गया है।

पूर्ण समर्पण से योजनाबद्ध कार्य


आत्माराम जिस काम का बीड़ा उठाते, पूरी लगन और समर्पण से उसे पूरा करने में जुट जाते। कार्य के एक-एक चरण की योजना बनाते तथा एक-एक पैसे और एक-एक पल का हिसाब रखते, जो शायद उनके संघर्ष के दिनों ने उन्हें सिखाया था।

जो भी वे करते उसमें देश और समाज के हित में क्या है, यह हमेशा उनकी प्राथमिकता में रहता। ब्रिटिश सरकार की नौकरी में रहते हुए भी उन्होंने खादी को अपनाया जो उस समय एक तरह से सरकार को चुनौती देने जैसा काम था। परन्तु उनका शिष्टाचारपूर्ण सम्यक व्यवहार और दायित्व-निष्ठा ने कभी किसी को शिकायत का मौका नहीं दिया।

वे आर्य समाज के अनुयायी थे और जैन मत के प्रशंसक भी। गांधी, टैगोर, विनोबा भावे, सुभाष चन्द्र बोस सबके साथ थोड़ा बहुत सम्पर्क का मौका मिला और उनके विचारों का प्रभाव भी उन पर जरूर रहा होगा। वे विज्ञान और आध्यात्म को एक-दूसरे का पूरक मानते थे और सादा जीवन उच्च विचार का उदाहरण थे। वे मिट्टी से उठकर आसमान में चमकने वाले सितारे थे और नौजवानों के लिये तब भी अनुकरणीय आदर्श थे, आज भी हैं और हमेशा बने रहेंगे।

सम्पर्क


राम शरण दास
49/4, वैशाली, गाजियाबाद, (उ.प्र.)
ई-मेल : rsgupta_248@yahoo.co.in


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