भारतीय वाङ्मय सबसे ज्यादा चर्चित इंद्र हैं। क्या यह महज संयोग है कि इंद्र को वर्षा का देवता भी माना गया है? साहित्य से लेकर परम्पराओं तक भारतीय मनीषियों ने जल और जीवन के तारतम्य को बखूबी समझा और समझाया है। हड़प्पा काल से लेकर मुगल काल तक जल को संग्रहित करने और उसके बेहतर उपयोग के लिये एक से बढ़कर एक तरकीबें विकसित की गई और इनमें से अनेक अब भी हमारे बीच मौजूद है
भारतीय साहित्य से लेकर समाज में व्याप्त परम्पराओं तक जल की महत्ता को समझकर उसके संरक्षण के लिये बहुविध प्रयास किये जाते रहे। ये शिक्षाएँ व ये प्रयास आज भी प्रासंगिक हैं। प्रस्तुत आलेख में ऐसे ही प्रसंगों का उल्लेख किया जा रहा है।
प्राचीन साहित्य में जल
“मायो मौष घीहि ऊं सीर्घाम्नोः घाम्नो राजस्त्तो वरूण नो मुंच।” -यजुर्वेद 6/22
अर्थात हे राजन, आप अपने राज्य के स्थानों में जल और वनस्पतियों को हानि न पहुँचाओ, ऐसा उद्यम करो जिससे हम सभी को जल एवं वनस्पतियाँ सत्त रूप से प्राप्त होती रहे।
उपरोक्त मंत्र ऐसे अनेक मंत्रों में एक है जिनमें जल संरक्षण एवं जल की महत्ता की बात की गई है। प्राचीन भारतीय सभ्यता में ‘जल ही जीवन है’ का सिद्धांत प्रतिपादित किया गया। वैदिक साहित्य में जल स्रोतों, जल के महत्व, उसकी गुणवत्ता एवं संरक्षण की बात बारबार की गई है। जल के औषधीय गुणों की चर्चा आयुर्वेद (जो एक वेदांग है) के अतिरिक्त ऋग्वेद एवं अथर्ववेद में भी मिलती है। यह माना गया है कि हमारा शरीर पंच महाभूतों अर्थात पंचतत्वों से बना है जिसमें एक तत्व जल भी है। ऋग्वेद का नदी सूक्त नदियों के संरक्षण एवं संवर्धन की कामना का संदेश देते हैं।
अथर्ववेद में कहा गया है यज्ञाग्नि से धूम बनता है, धूम से बादल बनते हैं एवं बादलों से वर्षा होती है। इन्द्र वृत्त आख्यान भी जल के महत्व एवं संरक्षण को प्रतिपादित करता है। इन्द्र, वर्षाजल को बाधित करने वाले दैत्य बाम्बियों पर आधारित है। इसे द्राकाजल कहते हैं। पारिस्थितिकी विज्ञान के आधार पर हम जानते हैं कि कुछ पेड़ों की उपस्थिति वहाँ भूगर्भीय जल होने की संभावना को निरूपित करती है। छान्दोग्य उपनिषद में कहा गया है जल ही जीवन का मूल है। बिना जल के जीवन की कल्पना नहीं हो सकती।
आचार्य भृगु ने शिल्प संहिता को तीन हिस्सों में विभाजित किया है धातु खंड, साधन खंड एवं वास्तु खंड। कृषि, जल एवं खनिज पदार्थों को धातु खंड में रखा गया है। द्रव्य पदार्थों की व्याख्या जल समूह से प्रारंभ होती है। उदाहरणार्थ समुद्रम (समुद्री जल की व्याख्या करते हुए कहा गया है कि अन्य सभी प्रकार के जल को समुद्री जल कहते हैं, इसका उपयोग अस्वयुग (सितम्बर-अक्टूबर) के अतिरिक्त किसी और समय पर नहीं हो सकता।
जल का वर्गीकरण आचार्य वाग्भट्ट ने किया है, वर्षाजल, प्रदूषित जल, समुद्री जल, गर्म जल एवं नारियल पानी। प्राचीन समय में जल को तालाब एवं झीलों में इकट्ठा किया जाता है। जल की उपलब्धता के लिये कुएँ खोदे जाते थे। महान आयुर्वेदाचार्य सुरपाल ने लिखा है- दस कुएँ एक तालाब के बराबर, दस तालाब एक झील के बारे में दस झीलें एक पुत्र के एवं दस पुत्र एक पेड़ के बराबर हैं।
भारत में जल संरक्षण का एक बेहतरीन इतिहास है। यहाँ जल संरक्षण की एक मूल्यवान पारंपरिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक परंपरा है उदाहरण स्वरूप नदी, खादिन, तालाब, जोहड़, कुँआ इत्यादि देश के अलग-अलग हिस्सों में इनमें से अलग-अलग तरीकों को अपनाया गया जो वहाँ के जलवायु के उपयुक्त है।
प्राचीन साहित्य में कई स्थानों पर वर्षाजल एवं उसकी भविष्यवाणी की चर्चा भी आती है। ऋग्वेद में रीता (एक प्रकार का पवित्र दैवीय नियम) की चर्चा आती है जो आवश्यक वर्षा की उपलब्धता से सम्बन्धित है।
कृषि पाराशर (चौथी शताब्दी ईसापूर्व) में वर्षाजल एवं वर्षा प्रणाली की व्याख्या की गई है। यहाँ तक कि वर्षाजल संग्रहण के लिये खेतों में छोटे बाँध बनाने की चर्चा भी है। कौटिल्य के अर्थशास्त्र में जल प्रबंधन की विस्तृत चर्चा है। इसमें वर्षा मापन के लिये द्रोण नामक यंत्र की चर्चा भी है। जल की उपलब्धता के अनुसार कृषि योग्य भूमि को दो प्रकार में विभाजित किया है। देव मात्रिका (वह क्षेत्र जो पूर्णतः वर्षाजल पर निर्भर है) एवं अदेवमात्रिका (जिसके लिये जल के अन्य स्रोतों जैसे नदी, तालाब, कुएँ के साथ-साथ वर्षाजल भी उपलब्ध हों) जल संग्रहण के लिये सहोदक सेतु एवं अहारणोदक सेतु बनाने का भी जिक्र है अर्थात बाँध बनाने का जल संरक्षण कार्यों में नए वास स्थानों पर विशेष रूप से जनता की सक्रिय भागीदारी सुनिश्चित करने की बात की गई है। उसमें जलस्रोतों पर कर लगाने एवं जिन स्थितियों में कर माफी हो सकती है इसका भी जिक्र है जैसे नये जलस्रोत से जल पर पाँच वर्ष तक छूट रहेगी मरम्मत किये गये स्रोत पर चार वर्ष तक कर में छूट मिलेगी इत्यादि।
सुश्रुत संहिता का 45वें अध्याय पेयजल पर है। उन्होंने जल को दो प्रकार में विभाजित किया है गंगा (शुद्ध) एवं समुद्र (अशुद्ध) गंगा को पुनः 4 (चार) प्रकारों में विगत किया गया है धारा, कश, तौशारा (इकट्ठा किया गया वर्षाजल) एवं हैमा (हिग संवत) उपरोक्त उदाहरणों के आधार पर हम कह सकते हैं कि प्राचीन साहित्य में जल की महत्ता को ध्यान में रखते हुए उसे देवता का दर्जा मिला है (आपो देवता) साथ ही उसके स्रोत संरक्षण के तरीकों एवं उसके शुद्धीकरण की भी चर्चा है।
तालिका 1 : भारत के विभिन्न हिस्सों में विभिन्न प्रकार के पारंपरिक जल संरक्षण संरचनाओं की सूची | |||
जैव भौ. क्षेत्र | संरचना | व्याख्या | राज्य/क्षेत्र |
परा-हिमालय | जिंग | बर्फ से जल इकट्ठा करने का टैंक | लद्दाख |
पश्चिमी हिमालय | कुल | पर्वतीय क्षेत्रों में जल के नाले | जम्मू, हिमाचल |
नौला | छोटे तालाब | उत्तरांचल | |
कुह्ल | प्राकृतिक धाराओं से सिंचाई का बाँध | हिमाचल प्रदेश | |
खत्रि | पत्थरों को कुरेद कर बनाए गए टैंक | हिमाचल प्रदेश | |
पूर्वी हिमालय | अपतानी | सीढ़ीनुमा क्षेत्र जहाँ पानी के आने और निकलने के रास्ते होते हैं। | अरुणाचल प्रदेश |
उत्तर पूर्वी हिमालय | आबो | रन ऑफ (बहते पानी का संग्रहण) | नागालैंड |
कियो-ओ-निही | नदियों से नहर | नागालैंड | |
बाँस बूँद सिंचाई | बाँस की नलियों के द्वारा धाराओं से जल लाकर ड्रिपइरिगेशन | मेघालय | |
ब्रह्मपुत्र घाटी | डोंग | तालाब | असम |
डूंग/झंपोस | धान के खेतों एवं छोटे सिंचाई नहर धारा को जोड़ने वाले | प. बंगाल | |
गंगा सिंधु मैदान | आहर-पइन | कैचमेन्ट बेसिन में बाँध एवं नाले/नहरें बनाना | द. बिहार |
जलप्लावन (इनुनडेरान) नहरे | प. बंगाल | ||
दिघी | छोटे चौकोर या गोल जलाशय जिन्हें नदी से भरा जाता था। | दिल्ली एवं आसपास | |
बावली | सीढ़ीदार कुएँ | दिल्ली-आसपास | |
आर | कुण्डा/कुण्डी | जमीन के अंदर संचयन | प. राजस्थान |
कुई/छेरी | टैंकों के पास गहरे पिर | प. राजस्थान | |
बावरी/बेर | सामाजिक कुएँ | राजस्थान | |
झालर | टैंक | राजस्थान/गुजरात | |
नदी | गाँव के तालाब | जोधपुर | |
टंका | जमीन के अंदर टैंक | बीकानेर | |
खादिन | निचले पहाड़ी ढलानों पर बाँध | जैसलमेर | |
ताव/बावरी बावली/बावड़ी | सीढ़ीनुमा कुएँ | गुजरात/राजस्थान | |
विरदास | कम गहरे कुएँ | कच्छ | |
पार | जल संग्रह क्षेत्र, जिसे कुएँ के द्वारा उपयोग में लाया जाता है। | गुजरात/राजस्थान | |
मध्यवर्ती उच्च भूमि | ताबाल/बंधिस | जलाशय | बुंदेलखण्ड |
साझा कुआँ | खुले कुएँ | मेवाड़ | |
जोहड़ | मिट्टी के चेक डैम | अलवर | |
नाडा/बाँध | पत्थर के चेक डैम | मेवाड़ | |
पत | नदियों के बीच में डाइवर्जन बाँध | झाबुआ | |
रापत | वर्षा जलसंयत्र टैंक जैसी संरचना | राजस्थान | |
चन्देला टैंक | टैंक | राजस्थान | |
कुन्देला टैंक | टैंक | राजस्थान | |
पूर्वी ऊँची जमीन | फटा/मुंड | पानी के रास्ते में मिट्टी के बाँध | उड़ीसा |
दक्कन का पठार | चेरूबु | वर्षाजल संग्रहण जलाशय | चितूर, डप्पा |
कोह्ली | टैंक | महाराष्ट्र | |
भंडार | चेक डैम | उ. प. महाराष्ट्र | |
फड़ | चेक डैम एवं नहरें | उ.प. महाराष्ट्र | |
रामटेक | भूगर्भीय जलस्रोत एवं सतही जल स्रोतों का नेटवर्क | रामटेक | |
पश्चिमी घाट | सुरन्गम | क्षैतिज कुएँ | कासारगोड |
पूर्वी घाट | कोराम्बु | घास एवं अन्य पौधा तथा कीचड़ से कासारगोड बने तात्कालिक बाँध | कासारगोड |
पूर्वी तटीय मैदान | घेरो | टैंक | तमिलनाडु |
उरानी | तालाब | तमिलनाडु |
तालिका 2 : विभिन्न ऐतिहासिक कालक्रम में प्राप्त जल संरचनाएँ | |
3000 ई. पू. | बलूचिस्तान एवं कच्छ में पत्थरों से बने बाँध मिले हैं। |
3000-1500 ई.पू. | सिन्धु घाटी सभ्यता के जलाशय जहाँ वर्षाजल संग्रह किया जाता था। |
दूसरी शताब्दी ई.पू. | कौटिल्य अर्थशास्त्र में जल प्रबंधन एवं सिंचाई व्यवस्था दी गई है। |
321-291 ई.पू. | चन्द्रगुप्त मौर्य का काल, इस समय बनाए गये बाँधों, सिंचाई व्यवस्था, झीलों इत्यादि के पुरातात्विक प्रमाण मिले हैं।* |
प्रथम शताब्दी ई.पू. | क्रंगावेशपुर (इलाहाबाद के पास) में ईंटों से बना टैंक मिला है।** |
द्वितीय शताब्दी ई. | दक्षिण भारत में करिकल चोल ने कावेरी नदी के ऊपर बाँध बनाया ताकि उसके जल का प्रयोग सिंचाई के लिये किया जा सके। |
1010-1011 ई. | अरिकेशरी मंगलम जलाशय। |
1012-1014 ई. | गंगा हकोदा चोपुरम जलाशय जिसके बाँध स्तूप एवं नहरों का विस्तार 16 मील लंबा है। |
11वीं सदी ई. | भोजपुर झील भोपाल। यह 240 वर्गमील में फैला है।*** |
11वीं सदी | अलमंदा जलाशय, विशाखापट्टनम, भावदेव भट्ट जलाशय पं. बंगाल। |
12वीं सदी | कल्हण की राजतरंगिनी में कश्मीर की सिंचाई व्यवस्था की जानकारी |
1219 ई. | पेरियाक्याकूल समूह, सिचरापल्ली |
13वीं सदी | परवाला झील वारंगल |
1409 ई. | फिरंगी पुरम जलाशय, गुंटूर |
1490 ई. | विजय नगर राज्य |
1489 ई. | नरसिंह बोधी जलाशय |
1520 ई. | नाशलपुर जलाशय |
*गुजरात के गिरनार (जूनागढ़ क्षेत्र) में सुदर्शन झील का निर्माण भी इसी काल में हुआ। सम्राट अशोक के काल खंड में महामात्य तुवास्प ने इस झील का पुनर्निर्माण कराकर उसे मजबूती प्रदान किया। बाद के समय में स्कन्ध गुप्त ने इस झील के बाँध को दुबारा बनवाया इस झील की मरम्मत शक शासक इन्द्र दमन ने भी करवाई था। **इसकी लम्बाई 800 फीट चौड़ाई 60 फीट एवं गहराई 12 फीट है। प्राकृतिक ढलान का उपयोग कर गंगा नदी के जल को एक नाले की सहायता से यहाँ पहुँचाया जाता था टैंक के अन्दर कई कुएँ भी थे ताकि गर्मियों में भी पानी उपलब्धता बनी रहे। ***यह भारत के सबसे बड़े मानव निर्मित जलाशय में एक है। इसका निर्माण राजा भोज ने करवाया था। इसमें 365 से अधिक स्रोतों से आकर जलधाराएँ मिलती थीं। |
जल संरक्षण अवसंरचनाएं
प्राचीन काल से लेकर अठारहवीं शताब्दी तक देश के विभिन्न भागों में जल संरक्षण के विभिन्न संरचनाओं का उपयोग किया गया इनका निर्माण एवं पुनर्निर्माण भी हुआ। ऐसी कुछ अवसंरचनाएँ तालिका 2 में वर्णित है।
जल प्रबंधन की तकनीकें
भारत के विभिन्न क्षेत्रों में जल संरक्षण एवं प्रबन्धन की तकनीकें विकसित की गई थीं जो उस स्थान की विशेषताओं के अनुरूप थीं। जैसेः
- खुले स्थानों में वर्षाजल संग्रहण की व्यवस्था की गई थी।
- नदी या अन्य धाराओं एवं उनके इन ऑफ से जल संग्रहण
- बाढ़ के पानी का संग्रहण
अ. पहाड़ी एवं ढलान वाले क्षेत्रों में जहाँ बहुत सारी धारायें उपलब्ध थीं वहाँ से एवं नदियों में से जल को नहरों द्वारा विभिन्न क्षेत्रों में पहुँचाया गया।
ब. शुष्क एवं अर्द्ध शुष्क क्षेत्रों में नहरों का इस्तेमाल कर मौसमों नदियों एवं धाराओं के जल को एक संग्रहण टैंक तक पहुँचाया जाता और साथ ही वहाँ वर्षाजल संग्रहण की व्यवस्था भी की गई थी।
स. बाढ़ वाले क्षेत्रों में विभिन्न संरचनाएँ विकसित की गई जिनके द्वारा बाढ़ के पानी को इकट्ठा किया जाता था।
द. समुद्री किनारों पर जहाँ नदियों एवं अन्य मीठे पानी के स्रोतों में खारा पानी मिलने की संभावना बहुत होती थी, वहाँ खारे पानी को मीठे पानी तक न पहुँचने देने की व्यवस्थाएँ की गई थी।
प. जहाँ भूमिगत जलस्रोत उपलब्ध हों वहाँ कुएँ एवं अन्य व्यवस्थाएँ की गई थी, ताकि जल की व्यवस्था की जा सके।
मौजूदा महत्त्वपूर्ण पारम्परिक संरचनाएँ
1. तालाब/बन्धीस : तालाब, एक प्रकार के जलाशय हैं। ये प्राकृतिक या कृत्रिम हो सकते हैं। प्राकृतिक तालाब जिसे कई क्षेत्रों में परिवारियों कहा जाता है। का एक अच्छा उदाहरण बुन्देलखण्ड के टीकमगढ़ के तालाब हैं। जबकि कृत्रिम जलाशय के उदाहरण उदयपुर की झील हैं। जिन जलाशयों के क्षेत्रफल पाँच बीघे से कम होता है उन्हें तमाई कहते हैं। मध्यम आकार के जलाशयों को बन्धी और तालाब कहा जाता है। बड़े जलाशयों को झील, सागर या समन्दर कहा जाता है। गर्मी में जब पोखरियों का पानी सूख जाता है तब उसमें खेती भी हो सकती है। कई स्थानों पर इनके अंदर भी कुएँ खोदे जाते थे ताकि भूमिगत जलाशयों को रिचार्ज किया जा सकता है।
2. जोहड़ : जोहड़ एक प्रकार के छोटे चेक डैम होते हैं जिनका उपयोग वर्षोजल को इकट्ठा करने और भूजल की स्थिति को और बेहतर करने का काम किया जाता था।
3. बावड़ी/बेर : ये सामाजिक कुएँ हैं, जिनको मुख्यतः पीने के पानी के स्रोत के रूप में उपयोग में लाया जाता था। इनमें से अधिकांशः काफी पुराने हैं और कई बंजारों द्वारा बनाए गये हैं। इनमें पानी काफी लम्बे समय तक बना रहता है। क्योंकि वाष्पीकरण की दर बहुत कम होती है।
4. झालर : झालर कृत्रिम टैंक है जिनका उपयोग धार्मिक एवं सामाजिक कार्यक्रमों में होता है लेकिन इसके जल का उपयोग पीने के लिये नहीं करते हैं। अक्सर ये आयताकार होते हैं। इनके चारों तरफ या तीन ओर होती है। यह सतह जलस्रोत है जिनकी सहायता से आस-पास की धाराओं एवं भूगर्भीय स्रोतों से होती है।
5. जल मंदिर सीढ़ियाँ या सीढ़ीदार कुएँ : यह एक ऐसी भूमिका संरचना है जो केवल भारत में पाई जाती है। यह भारत के शुष्क क्षेत्रों में काफी लोकप्रिय रहा है। इसका उपयोग वर्षाजल संग्रहण एवं पीने के पानी के लगातार उपलब्धता के लिये किया जाता है। इस प्रकार के कुएँ बनाने का विचार सूखे की समस्या के कारण आया। इनके विभिन्न क्षेत्रों में उनके नाम अलग-अलग हैं जैसे काव, वावड़ी, बावरी, बादली एवं बावड़ी। उदाहरण स्वरूप अहमदाबाद के पास अडालज बावा हैं जिसमें 6 मंजिलें हैं। यह एक मंदरि है जो एक कुएँ पर जाकर समाप्त होता है। इनकी मंदिरनुमा संरचना एवं जल उपलब्धता के लिये महत्ता को ध्यान में रखते हुए इन्हें जलमंदिर भी कहा जाता है।
6. कुण्ड : सामान्य तौर पर कुण्ड का अर्थ भूगर्भीय टैंक होते हैं। जिनका विकास सूखे की समस्या के समाधान के लिये किया गया था। जो धार्मिक स्थान है वहाँ कुण्ड पवित्र माने जाते हैं और उनमें प्रदूषण फैलाने की मनाही होती है। जैसे गौरी कुण्ड, सीता कुण्ड, ब्रह्म कुण्ड इत्यादि। कई बार ऐसे कुण्ड नदियों के किनारे की कुण्ड स्थापित किये गए हैं। प्राचीन काल में भारत में कुण्ड जल उपलब्धता के एक प्रमुख स्रोत थे।
भारत में जल संरक्षण का एक बेहतरीन इतिहास है। यहाँ जल संरक्षण की एक मूल्यवान पारम्परिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक परम्परा है उदाहरण स्वरूप नदी, खादिन, तालाब, जोहड़, कुआँ इत्यादि देश के अलग-अलग हिस्सों में इनमें से अलग-अलग तरीकों को अपनाया गया जो वहाँ के जलवायु के उपयुक्त है।
7. टंका : ये एक छोटा टैंक होता है जिसमें पानी को इकट्ठा किया जाता है। यह जमीन के अंदर होता है और इसकी दीवारों पर चूना लगाया जाता है। इसमें सामान्य तौर पर वर्षाजल इकट्ठा किया जाता है। हमारे पूर्वजों के पास विचार था हर परिवार में एक टैंका, गाँव में मंदिर एवं चारागाह। ‘यह विचार सत्त समावेशी विकास को निरूपित करता है। बड़े टैंक पूरे गाँव की आवश्यकता को पूरा करते थे। इसके अतिरिक्त बड़े टैंकों का उपयोग बाढ़ को रोकने, मृदा अपरदन रोकने, से होने वाले वेस्टेज को रोकने में एक भूगर्भीय जलस्रोतों को रिचार्ज करने के लिये किया जाता था। इनका प्रबंध किसी शक्ति या पूरे गाँव के जिम्मे होता है। टैंकों को इरिस भी कहते हैं। इरिस भारत में जल प्रबन्धन के लिये किये गये प्राचीनतम संरचनाओं में एक हैं। दक्षिण भारत में टैंक मंदिर स्थापत्य से सीधे तौर पर जुड़े हैं साथ ही टैंकों का निर्माण सिंचाई सुविधा के लिये भी किया गया था। चोल राजाओं ने वर्षाजल संरक्षण के लिये बहुत से टैंकों का निर्माण कराया था। प्राचीन काल के सभी मंदिरों में टैंक की व्यवस्थाओं को जो न के बल आगंतुकों को जल उपलब्ध कराते रहे हैं बल्कि भूजल स्तर को भी बनाए रखने के लिये उपयोग में लाया जाता है।8. कुहल : कुहल विशेषकर हिमाचल प्रदेश में बनाए जाते हैं। ये एक प्रकार की नहरें होती हैं जिनका उपयोग ग्लेशियर के पिघलने से पानी को गाँवों तक पहुँचाने के लिये किया जाता है। कुल्ह जम्मू में भी पाए जाते हैं।
9. गड़ : असम में राजाओं ने वर्षाजल संरक्षण के लिये तालाब और कुण्ड बनाए थे। कई स्थानों पर गड़ का उपयोग नदी के पानी को चैनलाइज करने के लिये किया गया था। गड़ बड़े नाले की तरह होते हैं। गड़ों का उपयोग सिंचाई के लिये किया जाता था। साथ बाढ़ की विभीषिका रोकने के लिये भी होता था।
उपरोक्त उदाहरण हमें यह बताते हैं कि प्राचीन भारत में जल संरक्षण एवं जलस्रोतों का प्रबंधन बहुत विकसित या और इन सबका उपयोग वर्तमान काल में तेजी से बदलती जलवायु एवं सूखे की समस्या के समाधान के लिये किया जा सकता है।
संदर्भ :-
- Dying Wisdom CSE New Delhi-1997
- Survey of Environment - The Hidnu - various issue
- www.indiawaterportal.org
- Water - altercratives.org
- CSE India.org
- nirmaljal.net.in
- cpwd.gov.in
- www.dot.co.pima.az.us floodewl
- Water-A heritage perspective
- www.indiaheritage.org
- www.indialogy.bun.kyoko-u.ac.jp
- ccrtindia.gov.in
लेखक परिचय
स्मिता पांडे इतिहास में डॉक्टरेट हैं। जीवंत ऐतिहासिक परंपराओं में इनकी खासी रुचि है। फिलहाल नई दिल्ली स्थित सभ्यता अध्ययन केंद्र (सीसीएस) में इतिहास अध्येता के रूप में जुड़ी हैं। ईमेलः archanapandey078@gmail.com
धीप्रज्ञ द्विवेदी पर्यावरण विज्ञान में स्नातकोत्तर हैं। अथवा ऊर्जा तथा पर्यावर्णीय सम्बन्धी विषयों पर नियमित रूप से लिखते रहते हैं। प्रतियोगी परीक्षाओं के विद्यार्थियों के बीच यह विषय पढ़ाते भी हैं। स्वास्थ्य जागरूकता पर कार्य करने वाली संस्था स्वस्थ भारत के संस्थापक सदस्य भी हैं। ईमेलः dhimesh.dubey@outlook.com
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