भारत में बाँधों की स्थिति, उपयोगिता एवं समस्याएँ


प्राचीन काल में (3150 ईसा पूर्व) महाराज युधिष्ठिर ने देवर्षि नारद से प्रश्न किया कि क्या हमारे राज्य में कृषक सुखी एवं समृद्ध हैं? क्या उनके जलाशय जल से परिपूर्ण हैं? तथा, क्या हमारे राज्य में कृषि वर्षा पर पूर्ण रूपेण आश्रित तो नहीं है? इससे यह निष्कर्ष निकलता है, कि कुछ पौराणिक कथाओं के अनुसार भारत में बाँध अभियांत्रिकी का उद्गम ईसा से 1500 वर्ष पूर्व ढालू भूमि पर तटबन्धों के विकास द्वारा हो चुका था। गुजरात के जूनागढ़ में सुदर्शन नाम के एक बाँध के अवशेष पाये गए हैं जिसका निर्माण गिरनार पर्वत शृंखला के निकट किया गया था। इस बाँध का निर्माण सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य के शासन काल में किया गया तथा सम्राट अशोक के शासन काल में इस बाँध का जीर्णोंद्धार किया गया। ऋगवेद (2000-1500 ईसा पूर्व) भी सिंचाई उद्देश्यों के लिये बाँध निर्माण का पक्षधर है।

उपरोक्त वर्णन से प्रतीत होता है कि भारत में बाँधों का निर्माण प्राचीन काल से ही आरम्भ हो गया था। अत्यधिक प्राचीन काल में दक्षिण भारत में मध्यम ऊँचाई के मिट्टी के बाँधों का निर्माण किया गया। इनमें से अधिकांश बाँधों का निर्माण 500 ईस्वी एवं 1500 ईस्वी के मध्य कराया गया। बाँध प्रौद्योगिकी तकनीकों के विकास से बाँध निर्माण कार्यों में अधिक विश्वास एवं सुदृढ़ता का अनुभव किया गया। सन् 1213 में आन्ध्र प्रदेश में रामादा झील, महाराष्ट्र में सन् 1514 में केरला एवं सन् 1860 में बिहार झील, तथा राजस्थान में सन् 1671 में राजसमन्द एवं 1730 में जयसमन्द बाँध प्राचीन काल में इस क्षेत्र में किये गए बाँध निर्माण सम्बन्धी कार्यों के प्रमुख उदाहरण हैं।

बाँध अभियांत्रिकी को विशिष्ट प्रोत्साहन स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद अनेकों वृहत जलाशयों, उदाहरणतः भाखड़ा, तुंगभद्रा, नागार्जुनसागर, हीराकुंड, इद्दुक्की इत्यादि के निर्माण से प्राप्त हुआ। जनसंख्या में हो रही निरन्तर वृद्धि के कारण घरेलू उपयोगों एवं खाद्यान्न उत्पादन के क्षेत्र में जल की बढ़ती माँगों को पूर्ण करने हेतु उपलब्ध जल संसाधनों का इष्टतम प्रयोग किया जाना आवश्यक है जिसके लिये अधिक बाँधों के निर्माण की आवश्यकता है।

पिछले दशक में पर्यावरण के साथ-साथ अनेकों विविध कारणों से नवीन जल संसाधन परियोजनाओं के निर्माण में शिथिलता आई है।

संचयन जलाशयों की आवश्यकता


भारत में बाँध का निर्माण मुख्यतः सिंचाई, जल विद्युत उत्पादन, बाढ़ नियंत्रण एवं जल आपूर्ति के लिये किया जाता है। बाँध में मुख्य दीवार के अतिरिक्त अन्य संरचनात्मक विशिष्टताएँ होती हैं। बाँधों में स्पिलवे का प्रयोग मुख्यतः जलाशय में जलस्तर के संकटपूर्ण स्तर तक पहुँच जाने पर जल निस्सरण के लिये किया जाता है। जलाशय का प्रमुख कार्य वर्षा ऋतु में नदी में उपलब्ध अतिरिक्त जल को जलाशय में एकत्र कर बाढ़ नियंत्रण में सहायता प्रदान करना, तथा इस एकत्र जल को शुष्क ऋतु में विभिन्न जल माँगों (उदाहरणतः घरेलू उपयोग, सिंचाई इत्यादि) की आपूर्ति हेतु उपलब्ध करना है। जलाशय में एकत्र जल को नहरों व पाइपों द्वारा जल की आवश्यकता वाले स्थलों की ओर स्थानान्तरित किया जाता है। संक्षेप में जलाशय का उद्देश्य जल की स्थानिक एवं कालिक माँगों की आपूर्ति करना है।

बाँध/जलाशय के अन्य उपयोगों में जलविद्युत उत्पादन प्रमुख है। जल संचयन के परिणामस्वरूप जलाशय में एक जल शीर्ष प्राप्त होता है जिसका प्रयोग जलविद्युत उत्पादन हेतु किया जाता है। जल विद्युत उत्पादन के पश्चात् जल को पुनः नदी में प्रवाहित कर इसका पुनः प्रयोग किया जा सकता है। जल से उत्पादित विद्युत अन्य विद्युत उत्पादकों की तुलना में अत्यधिक सस्ती दर पर प्राप्त होती है।

भाखड़ा नांगल डैमजलाशय में जल के संचयन से निर्मित ताल का प्रयोग नौकायन, जलक्रीड़ा एवं जलीय प्राणियों के आवास स्थल के रूप में किया जा सकता है। जलाशय के निर्माण से स्थल सौन्दर्य में वृद्धि होती है तथा यह जल वन्यजीवों के जीवन हेतु सहायक होता है। अतः यह महत्त्वपूर्ण है कि उपलब्ध जल के संचयन हेतु अधिकतम सम्भावित संचयन स्थल निर्मित किया जाये जिससे जल की पर्याप्त मात्रा को संचयित कर उपयोगी संसाधनों में परिवर्तित किया जा सके।

जलाशय की आवश्यकता का मूल्यांकन इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि हमारे देश के प्रमुख शहरों (मुम्बई, हैदराबाद, पुणे, भोपाल, वारंगल इत्यादि) की जल आपूर्ति मुख्यतः वैतराना, तान्सा, भाटसा, खड़कवासला, पन्चेट, मजिरा, सिंगुर, कोलार एवं श्रीरामसागर जलाशयों पर निर्भर है। देश के अधिकांश बाँध जैसे भाखड़ा, चम्बल घाटी परियोजनाएँ, उज्जैनी, श्रीरामसागर, अलमाटी इत्यादि खाद्यान्नों के उत्पादन हेतु आवश्यक सिंचाई जल प्रदान कर रहे हैं, जो देश की खाद्यान्न सुरक्षा हेतु अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है। भाखड़ा, पौंग, श्रीसैलम बालीमेला, टिहरी आदि जलाशयों से अत्यधिक सस्ती दरों पर विद्युत भी प्राप्त हो रही है।

बाँधों का वर्गीकरण


भारतीय मानक कोड़ (IS) में जलाशय में जल संचयन क्षमता एवं जल शीर्ष के आधार पर बाँधों को लघु, मध्यम एवं वृहत वर्गाें में वर्गीकृत किया गया है। जल संचयन क्षमता के आधार पर दस मिलियन घन मीटर संचयन क्षमता के बाँध को लघु, 10 से 60 मिलियन घन मीटर क्षमता वाले बाँध को मध्यम व 60 मिलियन घन मीटर से अधिक क्षमता वाले बाँध को वृहत बाँध की श्रेणी में रखा जाता है। जलीय शीर्ष के आधार पर 7.5-12, 12-30 एवं > 30 मीटर जल शीर्ष के बाँधों को क्रमशः लघु, मध्यम व वृहत बाँधों की श्रेणी में रखा जाता है।

बन्सुरा सागर डैम वृहत बाँधों पर अन्तरराष्ट्रीय समिति (ICOLD) द्वारा 15 मीटर से अधिक ऊँचे बाँधों को वृहत बाँधों के रूप में स्वीकार किया गया है। तथापि यदि 10-15 मीटर ऊँचा बाँध निम्न में से कोई एक मापदण्ड पूर्ण करता है तो उसे भी वृहत बाँध की श्रेणी में रखा जाता है: (अ) क्रेस्ट (Crest) की लम्बाई > 500 मीटर, (आ) जलाशय क्षमता दस लाख घनमीटर, (इ) अधिकतम बाढ़ निस्सरण > 2000 घनमीटर/सेकेंड, (ई) कठिन नींव समस्या वाला बाँध एवं, (उ) असामान्य अभिकल्प वाला बाँध।

भारत में बाँध


भारत में बाँधों का निर्माण नियमित रूप से धीरे-धीरे विकसित हुआ। सन् 1900 के अन्त तक जहाँ कुल 42 निर्मित बाँध थे वहीं इनकी संख्या वर्ष 1950 में लगभग 300 तथा 1990 के अन्त तक अर्थव्यवस्था के विकास में ह्रास, सामाजिक-आर्थिक कारणों से बाँध के निर्माण में विरोध सहित अनेकों अन्य कारणों से वर्ष 1990 से 2000 के मध्य केवल 116 बाँध ही निर्मित हो सके। केन्द्रीय जल आयोग के अनुसार वर्ष 2003 तक देश में कुल 4291 वृहत बाँध एवं 250 वृहत बैराज थे, जिनमें 695 बाँध निर्माणाधीन हैं। भारत में निर्मित एवं निर्माणाधीन बाँधों में अधिकांश बाँधों का निर्माण तीन राज्यों, यथा महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश व गुजरात राज्यों में हुआ है। वर्ष 2003 तक देश में निर्मित 3596 बाँधों में महाराष्ट्र में कुल 1229, मध्य प्रदेश में 946 व गुजरात में 466 बाँधों का निर्माण किया गया। देश के शेष राज्यों में 2003 तक निर्मित बाँधों की संख्या 955 थी। इसी प्रकार वर्ष 2003 तक देश में निर्माणाधीन 655 बाँधों में महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश व गुजरात राज्यों में निर्माणाधीन बाँधों की संख्या क्रमशः 300, 147 व 71 थी। देश के अन्य राज्यों में निर्माणाधीन बाँधों की संख्या मात्र 177 थी।

भारतीय नदी बेसिनों में उपलब्ध वार्षिक औसत प्रवाह 1869 घन किमी प्रतिवर्ष आंकलित किया गया है जिसमें से वार्षिक उपयोग किये जाने योग्य सतही जल संसाधनों की मात्रा 690 घन किमी आंकलित की गई है। भारत के विभिन्न नदी बेसिनों में निर्मित, निर्माणाधीन एवं प्रस्तावित परियोजनाओं के अन्तर्गत उपयोगी संचयन क्षमताओं को सारणी 1 में दर्शाया गया है। सारणी से यह स्पष्ट है कि गंगा बेसिन में उपयोगी जल संचयन क्षमता सर्वाधिक है। गंगा के बाढ़ उपयोगी संचयन की अधिकतम क्षमता कृष्णा नदी में है।

ब्राह्मणी नदी उपरोक्त सारणी से यह स्पष्ट है कि निर्मित बाँधों में 173 घन किमी उपयोगी जल संचयन क्षमता उपलब्ध है। इसके अतिरिक्त निर्माणाधीन परियोजनाओं के पूर्ण हो जाने पर लगभग 75 घन किमी उपयोगी जल संचयन क्षमता प्राप्त हो सकेगी तथा प्रस्तावित/विचाराधीन बाँधों का निर्माण हो जाने पर 132 घन किमी अतिरिक्त उपयोगी जल क्षमता प्राप्त हो सकेगी। इस प्रकार वर्तमान में निर्माणाधीन एवं प्रस्तावित समस्त बाँधों के निर्माण पूर्ण हो जाने के पश्चात उपलब्ध उपयोगी जल संचयन क्षमता का मान 384 घन किमी होगा जोकि उपयोग के लिये उपलब्ध आंकलित सतही जल संचयन क्षमता 690 घन किमी का मात्र 56 प्रतिशत ही होगा। यहाँ यह ध्यान देने योग्य विषय है कि पर्यावरण पुनर्वास तथा बाँध निर्माण में होने वाले विरोध इत्यादि कारणों से इस क्षेत्र में समस्याओं एवं जटिलताओं में निरन्तर वृद्धि हो रही है जिसके कारण हम अपने उपयोगी सतही जल संसाधनों को संचयित करने के लिये 400 घन किमी जल संचयन क्षमता का निर्माण वास्तव में कभी कर पाएँगे यह सन्देह का विषय है। यहाँ ध्यान देने योग्य रोचक विषय यह है कि अमेरिका की उपलब्ध सतही जल क्षमता जबकि लगभग भारत के समान ही है, वह भी लगभग 700 किमी जल संचयन करने की क्षमता रखता है जोकि भारत की सम्पूर्ण उपयोगी जल संचयन क्षमता के समान है। इसके अतिरिक्त विभाजन से पूर्व USSR की संचयन क्षमता भी 1100 घन किमी के आसपास थी।

बाँध निर्माण में समस्याएँ


देश में सिंचाई क्षेत्र के विकास हेतु जलाशय परियोजनाओं ने महत्त्वपूर्ण योगदान किया है। साथ ही इनके द्वारा सस्ती दरों पर जल विद्युत उत्पादन किया जा रहा है। सिंचाई सुविधाओं में प्रगति के कारण कृषि उत्पादन के क्षेत्र में देश ने महत्त्वपूर्ण प्रगति की है तथा भारत खाद्यान्न में आत्मनिर्भर हो गया है। हाल ही में भारत ने खाद्यान्न एवं अन्य कृषि उत्पादों का निर्यात भी किया है। बाढ़ नियंत्रण एवं जल आपूर्ति के क्षेत्र में भी जलाशय परियोजनाओं का योगदान महत्त्वपूर्ण रहा है।

गोदावरी रिवर-बेसिन जलाशय एवं बाँध निर्माण के क्षेत्र में अनेकों समस्याओं/मतभेदों का सामना करना पड़ता है जिनका वर्णन निम्न खण्डों में किया गया है:

परियोजनाओं की लागत


बाँध निर्माण के सम्बन्ध में लोगों में मतभेद हैं। वृहत बाँधों के विरोधी यह मानते हैं कि वृहत परियोजनाओं की लागत बहुत अधिक होती है तथा लघु सिंचाई परियोजनाएँ वृहत बाँधों की तुलना में सस्ती होती हैं। इसमें कोई सन्देह नहीं कि वृहत बाँधों की प्रारम्भिक लागत लघु परियोजनाओं की तुलना में अधिक होती है। परन्तु लघु परियोजनाओं में बाढ़ को नियंत्रित करने के लिये स्पिलवे नहीं होते तथा इन बाँधों में सामान्यतः दरारें पड़ जाती हैं।

तमिलनाडु, कर्नाटक एवं राजस्थान राज्यों में निर्मित लघु बाँधों के अनुभव दर्शाते हैं कि तीव्र वर्षा के समय इन बाँधों में दरारें पड़ जाती हैं जिनकी मरम्मत बहुत महंगी होती है।

इसी प्रकार अक्सर बाँध विरोधियों द्वारा यह तथ्य दिया जाता है कि वृहत एवं मध्यम बाँधों के द्वारा उपलब्ध सतही जल से सिंचाई किये जाने की तुलना में भूजल से सिंचाई काफी सस्ती पड़ती है। अतः सतही जल की तुलना में भूजल विकास किया जाना चाहिए परन्तु यह तथ्य भी सत्य नहीं है। तुलना के लिये केवल दोनों प्रकार की सिंचाई में आने वाली प्रारम्भिक लागत को ही ध्यान में नहीं रखा जाना चाहिए। भूजल की स्थिति में निर्माण के बाद नियमित रख-रखाव बहुत महंगा होता है। इसके अतिरिक्त ट्यूबवेल की जीवन अवधि मात्र 20 वर्ष तथा पम्पों की अवधि 10 वर्ष होती है जिसके पश्चात इन्हें पूर्णतः बदलना पड़ता है। अतः यदि 100 वर्ष से अधिक अवधि (जो किसी वृहत बाँध की जीवन अवधि मानी जाती है) के लिये प्रारम्भिक कुल लागत, रख-रखाव लागत एवं प्रतिस्थापन की कुल लागत को मिलाकर दोनों की तुलना की जाये तो स्थिति में परिवर्तन हो जाता है। तथापि देश में कृषि उत्पादन के लिये वृहत एवं मध्यम परियोजनाओं एवं भूजल दोनों का ही प्रयोग किया जाता है।

इदुक्की डैम

लघु एवं वृहत बाँध


पारम्बीकुलम डैम बाँधों के सम्बन्ध में बार-बार विचार विमर्श किया जाता है कि लघु बाँध उपयुक्त हैं या वृहत बाँधों के विरोध में यह तथ्य दिये जाते हैं कि इनका जल सम्भरण क्षेत्र लघु जलाशयों की तुलना में बहुत अधिक होता है। यहाँ ध्यान देने योग्य विषय हैै कि कोई भी बाँध चाहे बड़ा हो या छोटा उसके निर्माण के लिये उपयुक्त बाँध स्थल आवश्यक है। कोई व्यक्ति जहाँ चाहे वहाँ बाँध का निर्माण नहीं कर सकता। यदि एक वृहत बाँध को अनेकों लघु बाँधों से प्रतिस्थापित किया जाये तो उसी नदी पर बाँध निर्माण हेतु अनेक उपयुक्त स्थलों की आवश्यकता होगी। विशेषज्ञों के अनुसार सुरक्षित लघु बाँध बनाना अत्यधिक कठिन है। इसके अतिरिक्त यदि निचले क्षेत्रों में छोटे बाँध बनाए जाएँ तो वहाँ उच्च जनसंख्या घनत्त्व के कारण बहुत अधिक जनमानस के पुनर्वास की समस्या होगी तथा समतल भूमि होने के कारण श्रेष्ठ कृषि भूमि सहित बहुत अधिक क्षेत्र जलमग्न हो जाएगा।

 

सारणी -1 : भारत के नदी बेसिनों में उपयोगी संचयन

 

उपयोगी संचयन (बी.सी.एम.)

नदी बेसिन का नाम

औसत वार्षिक प्रभाव

पूर्ण हो चुकी परियोजनाएँ

निर्माणाधीन परियोजनाएँ

प्रस्तावित परियोजनाएँ

योग

सिंधु

73.31

13.83

2.45

0.27

16.55

गंगा

525.02

36.84

17.12

29.56

83.52

ब्रह्मपुत्र बराक आदि

585.60

1.10

2.40

63.35

88.45

गोदावरी

110.54

12.51

10.65

8.28

31.44

कृष्णा

78.12

34.48

7.78

0.13

42.39

कावेरी

21.36

7.43

0.39

0.34

8.16

पूर्व की प्रवाहित होने वाली नदियाँ

38.98

3.05

1.47

0.86

5.38

पेन्नार

6.32

0.38

2.13

-

2.51

महानदी

66.88

8.49

5.39

10.96

24.84

ब्राह्मणी वैतरणी

28.48

4.76

0.24

8.72

13.72

सुवर्णरेखा

12.37

0.66

1.65

1.59

3.90

साबरमती

3.81

1.35

0.12

0.09

1.56

माही

11.02

4.75

0.36

0.02

5.13

नर्मदा

45.64

6.00

16.72

0.46

23.78

तापी

14.88

8.53

1.00

1.99

11.52

पश्चिम की ओर प्रवाहित होने वाली नदियाँ

216.04

21.66

5.55

5.68

32.99

बंग्लादेश में मिलने वाली छोटी नदियाँ

31.00

0.31

-

-

0.31

योग

1869.35

173.73

75.42

132.3

381.45

 


राजसमन्द लेक

नए बाँधों के निर्माण में समस्याएँ


वर्तमान में नए बाँधों का निर्माण दिन-प्रतिदिन कठिन होता जा रहा है जो यह दर्शाता है कि भविष्य में जल संसाधन विकास अधिक जटिल एवं महंगा हो जाएगा। इसके अतिरिक्त अधिकांशतः निर्माणाधीन वृहत एवं मध्यम परियोजनाओं के पूर्ण होने में 15 वर्ष से अधिक समय लग रहा है जबकि एक वृहत परियोजना 10-12 वर्ष में पूर्ण हो जानी चाहिए। जल संसाधन परियोजनाओं में अधिक समय एवं लागत लगने के प्रमुख कारण निम्नवत हैं:

अन्तरराज्यीय एवं अन्तरराष्ट्रीय सीमा विषय


अधिकांश भारतीय नदियाँ एक से अधिक राज्यों में प्रवाहित होती हैं तथा मुख्यतः उत्तर भारत की नदियाँ अन्तरराष्ट्रीय हैं। उन नदियों पर परियोजनाओं का निर्माण किये जाने पर सम्बन्धित उपयोगकर्ताओं के मध्य पारस्परिक सहमति न होने के कारण परियोजनाओं के निर्माण में विलम्ब होता है।

पर्यावरण, पुनर्वास एवं पुनः स्थापन सम्बन्धित विषय


डुंगभद्र डैमकिसी नवीन परियोजना के निर्माण के समय तीव्र विरोध का सामना करना पड़ता है। विरोधियों द्वारा दिये गए तथ्यों में पर्यावरण को हानि, वन एवं कृषि भूमि का जलमग्न होना, विशाल जनमानस का पुनर्वास एवं पुनः स्थापना प्रमुख हैं। इन तथ्यों के आधार पर परियोजनाओं के निर्माण में बाधाएँ उत्पन्न होती हैं तथा कभी-कभी परियोजना को रद्द भी करना पड़ता है।

परियोजना के लिये धन की कमी


राजनीतिक, आर्थिक एवं अन्य कारणों से परियोजना निर्माण के लिये आवश्यक धन उपलब्ध न हो पाने के परिणामस्वरूप जल संसाधन परियोजनाओं का निर्माण कार्य अवरुद्ध हो जाता है। परियोजना के लिये धन की कमी के परिणामस्वरूप भारत में कई जल संसाधन परियोजनाओं के निर्माण में विलम्ब हुआ है।

बाँधों के लिये आवश्यक स्थल की समस्या


वृहत एवं मध्यम बाँधों के लिये उपयुक्त जलाशय स्थल सीमित हैं तथा इनमें से अधिकांश का शोषण किया जा चुका है। बाँधों के लिये उपलब्ध शेष उपयुक्त स्थलों पर निर्माण कठिन होता जा रहा है जिससे निर्माण अवधि में वृद्धि हो रही है।

नागार्जुन सागर डैम बाँध निर्माण में दर्शाई गई उपरोक्त प्रमुख समस्याओं के अतिरिक्त इसके निर्माण में विलम्ब के कुछ अन्य कारण निम्न है: (1) भूमि अधिग्रहण में विलम्ब, (2) अपूर्ण सर्वेक्षण एवं अन्वेषण, (3) निर्माण कार्य प्रारम्भ होने के बाद अभिकल्प में परिवर्तन, (4) लागत एवं समय का त्रुटिपूर्ण आकलन, (5) ठेकेदारों द्वारा अत्यधिक कम दरों पर कार्य प्राप्त करना, (6) ठेकेदारों से सम्बद्ध विषयों के कारण विलम्ब।

निष्कर्ष


संक्षेप में हम यह कह सकते हैं कि बाँधों का निर्माण जल संसाधन विकास के लिये अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है। बढ़ती जनसंख्या तथा औद्योगिक विकास के कारण देश में घरेलू उपयोगों, खाद्यान्न उपलब्धता आदि के लिये जल की माँग में निरन्तर वृद्धि हो रही है। यद्यपि हमारे देश में उपलब्ध जल संसाधन पर्याप्त हैं, परन्तु उनका पूर्णतः उपयोग करने में हम सक्षम नहीं हैं। अतः यह अत्यन्त आवश्यक है कि हम उपलब्ध जल संसाधनों का अधिकतम प्रयोग कर सकें जिसके लिये हमें बाँधों का निर्माण कर उपलब्ध जल संचयन क्षमता में वृद्धि करनी होगी।

हीराकुण्ड डैमपुष्पेन्द्र कुमार अग्रवाल
प्रधान अनुसन्धान सहायक
राष्ट्रीय जलविज्ञान संस्थान
रुड़की - 247667 (उत्तराखण्ड)

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