भारत की नदियों को मोटे तौर पर दो वर्गों में विभाजित किया जा सकता है, यथा : 1. प्रायद्वीपीय नदियों का वर्ग, तथा 2. बाह्य प्रायद्वीपीय नदियों का वर्ग।
प्रायद्वीपीय नदियाँ अपने जल के लिये पूर्ण रूप से वर्षा पर निर्भर करती हैं। ये सिर्फ वर्षा ऋतु और उसके कुछ बाद तक जल से भरी रहती हैं। इन नदियों में शामिल हैं - गोदावरी, कृष्णा, कावेरी, महानदी, नर्मदा, ताप्ती, दामोदर तथा स्वर्णरेखा इत्यादि। ऊपरी भाग में इन नदियों की धारा बहुत तीव्र होती है जहाँ ये पहाड़ों पर बहती हुई पत्थरों को काटती-छाँटती हुई आगे बढ़ती हैं और रास्ते में जल-प्रपातों की रचना करती हैं। इन नदियों ने अपने मुहानों पर डेल्टाओं का निर्माण कर लिया है। यहाँ ये ऊपरी भाग से अपने साथ लाई गई मिट्टी को जमा करती हैं। ये डेल्टा काफी उर्वर होते हैं तथा कृषि हेतु अनुकूल पाये जाते हैं।
प्रायद्वीपीय नदियों की तुलना में हिमालय से निकलने वाली तीन प्रमुख नदियाँ बहुत विशाल हैं, यथा : गंगा, सिन्धु तथा ब्रहमपुत्र। अनुमान है कि सिन्धु नदी प्रतिदिन अपने साथ लगभग दस लाख टन मिट्टी समुद्र में लाती है। गंगा इससे थोड़ा कम तथा ब्रहमपुत्र इससे कुछ अधिक मिट्टी ढोकर समुद्र में पहुँचाती है।
हिमालय से निकलने वाली नदियों के जलस्रोतों में हिमनद का जल तथा वर्षाजल दोनों ही शामिल हैं। वर्षा काल में इन नदियों का जल मुख्यतः वर्षा से प्राप्त होता है। इसके विपरीत गर्मी की ऋतु में हिमनदों के पिघलने से जल प्राप्त होता है। नदियाँ पहाड़ों में प्रवाहित होने के दौरान काफी खड़े ढाल से गुजरती हैं जिसके फलस्वरूप बालू तथा रेत के महीन कणों के साथ-साथ पत्थर के छोटे तथा बड़े टुकड़ों को भी अपनी धारा में ढोकर लाती हैं। पत्थर के ये छोटे-बड़े टुकड़े या तो उन हिमनदों से ढोकर लाये जाते हैं जिनके पिघलने से इन नदियों को जल मिलता है, अथवा वे स्वयं अपनी तेज धारा के प्रवाह से रास्ते के पत्थरों को तोड़ती-फोड़ती हैं।
भारतीय नदियों की प्रवाह दिशाओं में ऐतिहासिक तथा प्रागैतिहासिक काल के दौरान काफी अधिक परिवर्तन के अनेक प्रमाण मिले हैं। हिमालय से निकलने वाली नदियों ने प्रायद्वीपीय नदियों की तुलना में अपनी प्रवाह दिशाएँ बहुत अधिक बदली हैं।
पश्चिमोत्तर भारत में तथा पाकिस्तान की सीमा से लगे भाग में राजस्थान, पंजाब तथा सिंध के उर्वर क्षेत्रों में मरूभूमि से प्रभावित क्षेत्र का दायरा बढ़ता जा रहा है। सिंधु नदी के नीचे का भाग तो लगभग पूरी तरह मरूस्थल है। ऐतिहासिक तथा प्रागैतिहासिक काल में सिंधु नदी के किनारे पर बसे अनेक नगर और गाँव बाढ़ों से ग्रस्त होेने या नदी की प्रवाह-दिशा में परिवर्तन आने के कारण पूरी तरह वीरान हो गए। मोहनजोदड़ो जैसे अनेक प्रागैतिहासिक नगर सिंधु नदी द्वारा लाई गई मिट्टी के नीचे आज दबे पड़े दिखाई देते हैं।
सबसे अधिक रोचक है सरस्वती नदी का इतिहास। सतलुज नदी (और शायद यमुना) से पानी हटने के कारण सरस्वती नदी सूख गई जो किसी काल में एक विशाल नदी थी। यह बीकानेर बहावलपुर तथा सिंध होकर प्रवाहित होती थी। वैदिक साहित्य में सरस्वती नदी को गंगा तथा सिंधु नदियों की तुलना में अधिक महत्त्व दिया गया है। इसके किनारे (विशेष रूप से बीकानेर क्षेत्र में) ऐतिहासिक तथा प्रागैतिहासिक काल के जनपदों के अनेक भग्नावशेष आज टीलों के रूप में मिलते हैं। उस काल में सरस्वती नदी कच्छ के रन में आकर गिरती थी। यह रन उस काल में काफी गहरा था तथा समुद्र में चलने वाले जलयान इस क्षेत्र से होकर गुजरते थे। अनुमान है कि सरस्वती नदी अन्तिम रूप से ईसा बाद तीसरी शताब्दी में सूख गई जिसके कारण सूखा पड़ने तथा जल की कमी के कारण लोगों का यहाँ से सामूहिक रूप से पलायन करना पड़ा। सम्भवतः वेद लिखे जाने के समय (आज से लगभग पाँच हजार वर्ष पूर्व) तथा महाभारत की लड़ाई के बीच किसी समय सरस्वती नदी का ऊपरी भाग सूखने लगा था। इसका कारण था यमुना नदी की प्रवाह दिशा में परिवर्तन।
अनुमान है कि किसी काल में सतलुज नदी सरस्वती की मुख्य सहायक नदी थी और यह सरहिंद के नाम से भटनायर तथा सिरसा के बीच एक स्थान पर सरस्वती नदी से मिलती थी। यूनानियों तथा अरबों द्वारा लिखे गए प्राचीन इतिहास ग्रंथों के अध्ययन से पता चलता है कि 12वीं शताब्दी तक सतलुज पंजाब की नदी नहीं थी। तेरहवीं शताब्दी में सतलुज ने अपनी धारा की दिशा बदल दी तथा कपूरथला के दक्षिणी पश्चिमी कोने के निकट व्यास नदी के साथ मिल गई। सतलुज निस्सन्देह व्यास की तुलना में बड़ी थी। सतलुज तथा व्यास की संयुक्त धारा अलीपुर के निकट चेनाब से मिलती थी।
अठारहवीं शताब्दी के अन्त तक सिंधु नदी की मुख्य धारा थार क्षेत्र के मध्य से गुजरती थी। सन 1800 ई. में यह दो शाखाओं में विभक्त हो गई। इनमें से खेदेवारी नामक शाखा मुख्य धारा बन गई। यह धारा सन 1819 ई. में आये भूकम्प के कारण अवरुद्ध हो गई। इसके बाद मुख्य धारा बन गई हजामरो। इस प्रकार धारा में बार-बार परिवर्तन होने के कारण इसके किनारे पर बसे अनेक फलते-फूलते नगर वीरान हो गए। ऐसे नगरों में शामिल हैं घोड़ा बाड़ी तथा भीमांजोपुरा।
सन 1245 ई. के पूर्व झेलम, चेनाब तथा रावी नामक नदियाँ मुल्तान के निकट मिलती थी और मुल्तान से पूर्व होकर बहती थी। इसके बाद लगभग 45 किलोमीटर आगे व्यास नदी से मिलती थी। परन्तु चौदहवीं शताब्दी के अन्त तक चेनाब ने अपनी धारा की दिशा बदल दी तथा यह अब मुल्तान से पश्चिम होकर बहती है।
हिमालय से निकलकर जितनी नदियाँ मैदान में आती हैं, वे सब अनेक डेल्टाओं का निर्माण करती हैं तथा इसके कारण इनकी धाराओं में बार-बार काफी परिवर्तन आता गया है। उदाहरणार्थ कोसी नदी किसी काल में पूर्णिया नगर के पार्श्व से गुजरती थी, परन्तु अब इसकी धारा उस स्थान से काफी हद तक पश्चिम में होकर बहती है। पहले कोसी का गंगा से संगम मनिहारी के निकट होता था, परन्तु अब यह संगम उस स्थान से 32 किलोमीटर दूर है।
लगभग दो सौ वर्ष पूर्व बंगाल में गंगा की धारा भागीरथी तथा हुगली नदियों से होकर गुजरती थी, परन्तु आजकल हुगली एक छोटी तथा पतली नदी है, जबकि पद्मा, जो पूर्वी बंगाल (अर्थात बांग्लादेश) से होकर बहती है, गंगा की प्रमुख धारा बन गई है। इसी प्रकार आज से काफी पहले दामोदर का हुगली से संगम कोलकाता से 56 किलोमीटर आगे होता था, परन्तु अब यह संगम कोलकाता से कई किलोमीटर नीचे होता है। पहले भागीरथी की धारा सरस्वती नामक नदी से गुजरती थी। सरस्वती की धारा आजकल वर्तमान हुगली के पश्चिम में देखी जा सकती है। यह हुगली से त्रिवेणी में अलग होती थी, जो कोलकाता से 58 किलोमीटर ऊपर था तथा पुनः हुगली में संकरैल के पास मिलती थी। यह स्थान 10 किलोमीटर नीचे था। पन्द्रहवीं शताब्दी तक यह एक महत्त्वपूर्ण नदी थी और इसके किनारे सतगाँव नामक एक नगर था जहाँ पहले बंगाल की राजधानी थी। यह स्थान व्यापार का प्रमुख केन्द्र हुआ करता था क्योंकि समुद्र की ओर जाने वाले सभी जलयान यहाँ रुकते थे। सरस्वती की धारा की दिशा बदल जाने के कारण सतगाँव का महत्त्व समाप्त हो गया।
लगभग डेढ़ सौ वर्ष पूर्व तक तिस्ता गंगा की एक सहायक नदी थी। परन्तु सन 1787 ई. में आई एक विनाशकारी बाढ़ के बाद तिस्ता ने अपना पुराना मार्ग छोड़ दिया तथा यह ब्रहमपुत्र की एक सहायक नदी बन गई। ब्रहमपुत्र नदी पहले मधुपुर जंगल के पूर्व से गुजरती थी, परन्तु अब पश्चिम में काफी आगे इसका संगम पद्मा से होता है।
मौर्य तथा गुप्त साम्राज्य की राजधानी पाटलिपुत्र, ईसा बाद पाँचवीं शताब्दी तक, एक विकसित नगर था, जो आज वर्तमान पटना के नीचे दबा पड़ा है। इतिहास के ग्रंथों से पता चलता है कि पाटलिपुत्र नगर पाँच नदियों के संगम पर स्थित था। ये पाँच नदियाँ थी - गंगा, घाघरा, गंडक, सोन तथा पुनपुन। बार-बार आई बाढ़ के कारण यह नगर बर्बाद हो गया और मिट्टी के नीचे दब गया। वर्तमान समय में गंगा, घाघरा, गंडक, सोन तथा पुनपुन का संगम एक-दूसरे से काफी दूर-दूर स्थित है।
स्रोतः इस लेख में नदियों के बारे में जानकारी ‘जियोलाॅजी आॅफ इण्डिया एंड बर्मा, पृष्ठ सं. 34-35, हिन्जिन बोथम्स (प्रा.) लिमिटेड, 1968 से ली गई है।
सम्पर्क - डाॅ. विजय कुमार उपाध्याय, कृष्णा एन्क्लेव, राजेन्द्र नगर, पो.: जमगोड़िया, वाया-जोधाडीह, चास, जिला-बोकारो, झारखण्ड, पिन कोड: 827013
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