भारत के परम्परागत समाज की नजर में नदी

ताप्ती नदी
ताप्ती नदी

ताप्ती नदी (फोटो साभार - पेजबीडी)भारतीय समाज, नदियों के प्रति आदर भाव रखने वाला परम्परागत समाज है। वह नदी की पूजा करता है। उन्हें माता कहता है। पूरी श्रद्धा से पवित्र नदियों में सिक्के अर्पित करता है। उन्हें पूरी श्रद्धा से प्रणाम करता है। उन्हें भारतीय संस्कृति के उद्भव और विकास का आधार मानता है। नदी को देखते ही स्नान करने का मन करता है। सम्पन्न लोग उसके किनारे घाट बनवाते हैं। दीप दान करते हैं। उनके जल से आचमन करते हैं। काका कालेलकर कहते हैं कि कुछ नदी भक्त पुरोहितों की मदद से नदी की शास्त्रोक्त पूजा करते हैं। नदी के जल से उसी नदी को अर्घ्य देते हैं।

कुछ लोगों के लिये नदी के परिचय का अर्थ मात्र उसका नाम जानना हो सकता है तो वहीं कुछ के लिये परिचय का अर्थ उसके जन्म की कथा, परिवेश से सम्बन्ध, नाम का अर्थ, इतिहास या भूगोल भी हो सकता है। नदी परिचय, एक ओर यदि जिज्ञासा है तो दूसरी ओर आकाश को छूने की ललक। यही मानवीय स्वभाव है। नदी परिचय इसी जिज्ञासा, ललक और मानवीय स्वभाव का हिस्सा है। हर व्यक्ति, अपने परिवेश के अनुसार नदियों को देखता है। उसके मन और मस्तिष्क में नदी की छवि अंकित होती है। इसी छवि के कारण उसे लगता है कि लगातार बहने वाली प्राकृतिक जलधारा ही नदी है।

मनुष्यों में चीजों को समझने की प्रवृत्ति होती है इसीलिये माना जा सकता है कि सारी दुनिया में नदियों को समग्रता में समझने के प्रयास हुए होंगे। भारतीय समाज ने भी यही किया होगा इसीलिये भारतीय धर्म ग्रन्थों में, पौराणिक कथाओं में नदियों के जन्म या उनके अवतरित होने के सैकड़ों आख्यान मिलते हैं। लगता है भारतीय ऋषि-मुनियों और चिन्तकों ने उनकी पवित्रता, श्रेष्ठता, निर्मलता और अविरलता को सुनिश्चित करने के लिये, उन्हें धर्म और आस्था से जोड़कर पेश किया है। इसीलिये भारतीय समाज, निम्न श्लोक की मदद से, भारत की सात प्रमुख नदियों को हमेशा याद रखता है-

गंगे! च यमुने! चैव गोदावरी! सरस्वति!
नर्मदे! सिन्धु कावेरी! जलेટस्मिन सन्निधि कुरू।।


गंगा, यमुना, गोदावरी, सरस्वती, नर्मदा, सिन्धु और कावेरी निश्चय ही भारत की प्रमुख पवित्र नदियाँ हैं पर समाज के मन में ताप्ती, कृष्णा, महानदी और ब्रह्मपुत्र भी बेहद महत्त्वपूर्ण हैं। गंगा की उत्पत्ति, महाराजा सगर के साठ हजार पुत्रों को मोक्ष दिलाने के लिये, उनके और भागीरथ की घोर तपस्या के फलस्वरुप हुई थी। आकाश से अवतरित गंगा के वेग को भगवान शंकर ने अपनी जटाओं में जज्ब कर निष्प्रभावी बनाया और अपने केशों से गंगा को मुक्त कर गंगासागर की ओर बहाया। नर्मदा, दूसरी पवित्र नदी है। कहते हैं कि गंगा स्नान से जितना पुण्य मिलता है उतना पुण्य नर्मदा के दर्शन मात्र से मिल जाता है। समाज, पुण्यलाभ और जीवन सफल करने के लिये उसकी परिक्रमा करता है।

मध्य प्रदेश की दूसरी पवित्र नदी क्षिप्रा है। उसके जन्म की पौराणिक कथा बताती है कि एक बार भगवान शंकर भिक्षा माँगते-माँगते बैकुण्ठ धाम पहुँचे। उन्होंने भगवान विष्णु से भिक्षापात्र, जो हकीकत में ब्रम्हाजी की खोपड़ी थी, में भिक्षा डालने का अनुरोध किया। भिक्षापात्र को देखकर विष्णु ने अपनी तर्जनी अंगुली दिखाई। अंगली देखकर भगवान शंकर को गुस्सा आ गया। उन्होंने अपने त्रिशूल से भगवान विष्णु की अंगुली काट दी। अंगुली से निकले खून ने भिक्षा पात्र को लबालब भर दिया। कथा बताती है कि अंगुली से निकले खून से क्षिप्रा नदी का जन्म हुआ।

एक अन्य पौराणिक कथा के अनुसार क्षिप्रा का जन्म भगवान विष्णु के आठवें अवतार - वाराह के हृदय से हुआ था। मध्य प्रदेश के मुलताई कस्बे से निकलने वाली ताप्ती नदी को सूर्य की पुत्री कहा जाता है। वैतरणी, इस लोक और परलोक की सीमा पर बहने वाली नदी है। कहा जाता है कि गाय की पूँछ पकड़ कर उसे आसानी से पार किया जा सकता है। भारतीय धर्म ग्रन्थ, आख्यानों से भरे पड़े हैं। वे आख्यान, परम्परागत भारतीय समाज की सोच और समझ का पहला प्रमाण है।

भारतीय समाज की समझ का दूसरा उदाहरण नदियों के नामकरण में मिलता है। नदियों के नाम मुख्यतः मातृशक्ति के सूचक हैं। गंगा, यमुना, सरस्वती, नर्मदा, गोदावरी, कृष्णा, कावेरी इत्यादि सभी नाम स्त्रीलिंग हैं। भारत में पुरुष जैसे नाम वाली नदियों की भी कमी नहीं है। उनमें प्रमुख हैं ब्रह्मपुत्र (ब्रह्मा के पुत्र) और उसकी सहायक नदी लोहित; बंगाल की दामोदर, बाराकार, अजय, रुपनारायण, सिक्किम की रोंगीत, सिन्धु और मध्य प्रदेश की सोन। पुरुष नाम वाली और भी नदियाँ हैं। सम्भव है, नदियों को पुरुषोचित नाम उनके प्रवाह के वेग, पृवत्ति या अन्य असाधारण गुणों के कारण दिया गया हो, यह शोध का विषय है। इसके अलावा शक्कर, शेर या बाघ भी नदियाँ हैं। भारतीय नदियों के नाम स्त्रीपरक या पुरुषपरक या जीव-जन्तुपरक क्यों हैं, समझ में नहीं आता।

नामकरण से जुड़ी एक और परम्परा है। भारत के परम्परागत समाज ने पुत्रों और पुत्रियों के नामों को नदियों के नामों के अनुसार रखा। नाम की मदद से उन्हें याद रखा। स्मृति से ओझल नहीं होने दिया। कन्या को यदि गंगा कहा तो पुत्र का नाम गंगा प्रसाद या गंगाराम हो गया। नर्मदा के साथ भी यही हुआ। कन्या यदि नर्मदा है पुत्र को नर्मदा प्रसाद कहा। गोदावरी, कावेरी, कृष्णा, सरयु, सरस्वती, यमुना इत्यादि ये नाम परम्परा में पीछे नहीं हैं। उनके नामों को भी समान महत्त्व और सम्मान मिला है। पुराने समय में कन्याओं के यही नाम हुआ करते थे। नाम परम्परा, नदी और समाज के अन्तरंग सम्बन्धों को रेखांकित करते हैं। आधुनिक युग में वह परम्परा धूमिल हो रही हैं।

गंगा नदी का एक और खास परिचय है। वह खास परिचय महाभारत में मिलता है। महाभारत के अनुसार, गंगा, भरत वंश के महाराजा शान्तनु की पत्नि और देवव्रत (भीष्म) की माँ हैं। ब्रह्मपुत्र, भगवान ब्रह्मा के पुत्र हैं। नर्मदा चिर कुँआरी हैं। सूर्य पुत्री ताप्ती विवाहिता हैं। वह यम की बहन हैं। भारतीय समाज ने नदियों को माता का दर्जा दिया है। धार्मिक ग्रन्थों में उनकी पवित्रता और उन्हें शुद्ध रखने हेतु अनेक उल्लेख मिलते हैं। सम्भवतः इसी कारण, उनके तट पर मेले लगते हैं। कार्तिक पूर्णिमा को स्नान होता है।

कुम्भ या सिंहस्थ जैसे धार्मिक आयोजनों की परिपाटी है। कतिपय तिथियों पर नदी स्नान को मोक्ष का पर्याय कहा है। नदी स्नान को सर्वाधिक महत्त्व प्रदान किया गया है। नर्मदा की परिक्रमा को धर्म से जोड़ा है। नर्मदा की परिक्रमा करने वाले लोगों को भोजन कराना और ठहरने या विश्राम की व्यवस्था को सौभाग्य और पुण्य प्राप्ति का संयोग माना जाता है। नदियों में दीपदान और आरती को धार्मिक महत्त्व प्रदान किया गया है। उनमें भाग लेने को सौभाग्य और पूर्व जन्म के पुण्यों का उदय माना गया है।

उत्तर भारत की लगभग सभी नदियाँ पर्वतराज हिमालय से निकली हैं। हिमालय में उनका उद्गम होने के कारण, वे सभी पार्वती हैं। कुछ का जन्म और ऊपर के इलाकों में हिमनदियों से होता है। इस कारण वे हिमजा हैं। हिमजा का जन्म विलक्षण दृश्य है। शीत ऋतु में हिमालय की चोटियों पर होता हिमपात, एक ओर स्वर्ग से बर्फ के उतरने का भाव जगाता है तो दूसरी ओर बर्फ की पर्वतमाला पर टिके रहना आभास देता है, जैसे पहाड़ ने बर्फ को कैद कर लिया है। फिर मौसम बदलता है। मौसम के साथ दृश्य बदलता है और बारिश का मौसम आता है।

हिमालय की धवल चोटियों पर बरसते काले मेघों से प्राप्त पानी, बर्फ के पिघलने से मिले पानी के साथ नीचे उतरता है। नीचे उतरते पानी से नदी जन्म लेती है। नदी जन्म का यही दृश्य गंगावतरण से परिचय कराता प्रतीत होता है। यही वे दृश्य हैं जो कल्पना को अकल्पनीय बना देते हैं। वे यदि आस्था को कालजयी बनाते हैं तो बर्फ, उसके कणों में छुपी हवा, पहाड़, बारिश और हिमनदी से फूटती अविरल धारा के अप्रतिम सौन्दर्य को प्राकृतिक घटकों की सतरंगी माला में पिरो देते हैं। नदी इन सभी पर्यावरणीय घटकों का अद्भुत संगम है।

भारतीय प्रायद्वीप के वनों, छोटे पहाड़ों, चट्टानों के बीच से फूटते झरनों तथा सरोवरों से हजारों नदियों का जन्म हुआ है। अरावली से लेकर ओड़िशा और बुन्देलखण्ड से लेकर प्रायद्वीप के दक्षिणी छोर तक, हर तरफ छोटी-बड़ी नदियों का जाल बिछा है। इस क्षेत्र में उनका जन्म कुण्डों, झरनों, घने जंगलों और पहाड़ों की कोख से हुआ है। हर साल होने वाली बारिश ने उन्हें जिन्दा रखा है। धरती की कोख के पानी ने उन्हें अविरलता और निर्मलता दी है। उद्गम के आधार पर, लोग, नदी को वनजा, गिरिजा, शैलजा या सरिता भी कहते हैं। उपर्युक्त सम्बोधन नदी के उद्गम या जन्मस्थान की पहचान है।

नदी को समझने की जद्दोजहद ने नदी का भूगोल गढ़ा। उसके अंगों को जुदा-जुदा नाम दिये। नामावली के अनुसार, कछार, उसके शरीर का पर्याय है। शरीर में अलग-अलग अंग हैं। अंगों के जुदा-जुदा नाम हैं। उसके जन्म स्थान को उद्गम और किसी दूसरी नदी से मिलन बिन्दु को संगम कहते हैं। नदी के दोनों किनारे तट कहलाते हैं तो दोनों किनारे के बीच का इलाका पाट। पाट में रेत और पानी रहता है। रेत स्थायी है पर पानी की मात्रा बदलती रहती है। जिस मार्ग पर पानी बहता है वह नदी मार्ग कहलाता है।

नदी मार्ग का बहुत सा पानी, तली के नीचे से भी बहता है। यह आदमी के शरीर की मांसपेशियों में रची-बसी रक्त शिराओं में खून के प्रवाह जैसा लगता है। बाढ़ का पानी, जिस इलाके से बहता है और अपना असर छोड़ता है, बाढ़-क्षेत्र या नदी का प्रभाव क्षेत्र कहलाता है। इलाका, जिस पर बरसा पानी नदी परिवार को मिलता है, आगोर (कैचमेंट) कहलाता है। जैसे-जैसे नदी आगे बढ़ती है आगोर का विस्तार होता जाता है और नदी जब समुद्र से मिलने लगती है तो उसका व्यवहार दर्शनीय होता है। हर नदी के डेल्टा की आकृति उसकी पहचान होती है।

भारत के परम्परागत समाज ने नदियों को गंगा, यमुना, सरस्वती, चम्बल, बेतवा, ब्रह्मपुत्र, मेघना, सिन्धु, सतलुज, व्यास, झेलम, नर्मदा, गोदावरी, कृष्णा, कावेरी, महानदी, सोन जैसे अनेक नाम दिये गए हैं। नामों की एक और विशेषता है। कई जगह उनके नाम एक जैसे हैं। उदाहरण के लिये, पश्चिम बंगाल के बीरभूमि में चन्द्रभागा नदी है। वहीं जगन्नाथपुरी के जगन्नाथ मन्दिर के पास भी चन्द्रभागा है। एक चन्द्रभागा गुजरात के अहमदाबाद के पास है तो दूसरी महाराष्ट्र के पंढरपुर के पास। इसी प्रकार एक चन्द्रभागा बिहार में भी है। नासिक (महाराष्ट्र) के पास से निकलने वाली गोदावरी की नामराशि गोदावरी नेपाल में भी है। इन्द्रावती भी दो हैं एक गोदावरी की सहायक है तो दूसरी नेपाल की इन्द्रावती। एक ही नाम की नदियों की फेहरिस्त बहुत लम्बी है पर वह नामावली किसी प्रकार की कठिनाई पैदा नहीं करती। लगता है, यह स्वाभाविक स्थिति है।

हर आदमी का अपने जन्म स्थान की नदी से अनुराग स्वाभाविक है। इसीलिये सम्भव है कि घुमन्तु समाज ने नए इलाके की नदियों को अपने इलाके की नदी से जोड़कर देखा। यह मानवीय स्वभाव है। इसके पीछे की भावना, अपने क्षेत्र की नदी को याद रखना और स्थानीय नदी को महत्त्व प्रदान करना हो सकता है।

कतिपय मामलों में नामों पर, स्थानीय बोली या भाषा या क्षेत्रीयता का असर देखा गया है तो कहीं एक ही नदी के अलग-अलग हिस्सों में अलग-अलग नाम हैं। सिन्धु (तिब्बत में सेंगे जंग्बो) और ब्रह्मपुत्र (तिब्बत में सांग्पो, अरुणाचल प्रदेश में दिहांग) इसका उदाहरण है। कहीं नाम, उनके स्वभाव को दर्शाते हैं। बुरहानपुर के पास उतावली नदी है तो मध्य प्रदेश के सागर के पास बेबस। कुछ अनाम हैं तो कहीं कुछ आँख मिचौली खेलती नदियाँ। कारण कुछ भी हो, मनुष्यों की ही तरह नदियाँ भी, नाम, वंश और उपनाम से जानी जाती हैं।

 

 

 

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