भारत में बारिश के कुछ खास दिनों में ही पड़ने के चलते भारतीयों ने जल संचय और उपयोग की ऐसी असंख्य तरकीबें विकसित की थीं जिससे साल भर पानी की जरूरतें पूरी होती रहें और ऐसा करते हुए जल प्रबन्धन में वे शायद दुनिया के किसी भी समाज में ज्यादा विकसित थे। उन्होंने नदियों पर विशालकाय बाँध नहीं बनाए थे। उन्होंने अपने गाँव के ऊपर पड़ने वाले बरसाती पानी को नदियों में जाने से पूर्व ही अगोर लेने वाली तरकीबें विकसित की थीं। जब अंग्रेज आये तब देश में लाखों तालाब थे। स्थानीय स्तर पर विकसित जल प्रबन्धन तकनीकों को सम्पत्ति के अधिकार और धार्मिक रीति-रिवाजों से भी संरक्षण मिला हुआ था। जब अंग्रेज भारत आये तो उन्होंने पाया कि यह जगह बहुत समृद्ध है, लोग सभ्य और शिक्षित हैं, कला, शिल्प और साहित्य का स्तर काफी ऊँचा है। इस देश की समृद्धि किसी उपनिवेश की लूट से नहीं बनी थी, बल्कि अपने संसाधनों के बल पर बनी थी। गाँवों में अपनी जरूरत से ज्यादा उत्पादन उनके आगे बढ़ने में मददगार था ही, नगरों और शहरों को भी टिकाए हुए था। सदियों से भारतीयों ने अपनी जल-जमीन और जलवायु के अन्य संसाधनों का कुशल और टिकाऊ उपयोग करना सीख लिया था।
हर गाँव ने आस-पास की जमीन को सदियों के अनुभव और जरूरत के अनुसार, खेत, खलिहान, चारागाह (गोचर), जंगल और बाग-बगीचों के रूप में एक ऐसी संश्लिष्ट प्रणाली विकसित कर ली थी जो एक-दूसरे पर निर्भर थी, एक-दूसरे की मदद करती थी। यह स्थानीय जरूरतों और जलवायु के अनुकूल थी और बारिश कम ज्यादा होने के सामाजिक और आर्थिक असर को कम-से-कम करने में सक्षम थी।
भारत में बारिश के कुछ खास दिनों में ही पड़ने के चलते भारतीयों ने जल संचय और उपयोग की ऐसी असंख्य तरकीबें विकसित की थीं जिससे साल भर पानी की जरूरतें पूरी होती रहें और ऐसा करते हुए जल प्रबन्धन में वे शायद दुनिया के किसी भी समाज में ज्यादा विकसित थे। उन्होंने नदियों पर विशालकाय बाँध नहीं बनाए थे। उन्होंने अपने गाँव के ऊपर पड़ने वाले बरसाती पानी को नदियों में जाने से पूर्व ही अगोर लेने वाली तरकीबें विकसित की थीं।
जब अंग्रेज आये तब देश में लाखों तालाब थे। स्थानीय स्तर पर विकसित जल प्रबन्धन तकनीकों को सम्पत्ति के अधिकार और धार्मिक रीति-रिवाजों से भी संरक्षण मिला हुआ था। पर चारागाह (गोचर), जंगल, बाग-बगीचों, तालाबों पर सामाजिक स्वामित्व था और उनके उपयोग के लिये ग्रामीण लोगों ने अपने नियम बनाए हुए थे। सिर्फ गायों को ही नहीं, गोचर भूमि को भी पवित्र माना जाता था।
जंगल की जमीन का कुछ हिस्सा कुछ खास किस्म के (पूजनीय) पेड़ों-झाड़ियों के लिये ही रखा जाता था। तालाब और उनका आगोर भी पवित्र माना जाता था तथा उसे अपवित्र नहीं किया जा सकता था। इस बात के भी कुछ प्रमाण हैं कि स्थानीय समूहों में पर्यावरण से जुड़ी चीजों का जाति आधारित बँटवारा भी खेती व अन्य चीजों के टिकाऊ और लाभदायक होने में मददगार साबित हुआ। इसके अलावा मानव वास को स्थायित्व देने के लिये जैवविविधता का भी उपयोग किया गया। एक साथ कई किस्म की फसलें लगाना आम था।
प्राकृतिक संसाधनों के कुशल प्रबन्ध से भारत के गाँव काफी सारा सामान उत्पादित करते थे। उनकी अपनी जरूरतों से ज्यादा की पैदावार सरकार, शहरों-नगरों को चलाने के काम तो आती ही थी निर्यात के लिये भी चीजें उपलब्ध कराती थीं। शहरों और नगरों में तथा राजा-महाराजाओं-सामन्तों द्वारा कला और शिल्प को बढ़ावा दिया जाता था। तरह-तरह के कपड़े और गहनों का निर्माण होता था।
इस प्रकार देश में एक वृहद, कुशल और फलती-फूलती अर्थव्यवस्था थी। और इसे सम्भालने-चलाने का काफी कुछ श्रेय कुशल जल प्रबन्धन को जाता था। भारत की जमीन का काफी बड़ा हिस्सा, पहाड़ों, पहाड़ी प्रदेशों, शुष्क और अर्द्ध शुष्क भूमि, आर्द्र और बाढ़ क्षेत्रों से बना है। इसलिये इन अलग-अलग क्षेत्रों की खेती के लिये जल वितरण, सम्भरण और प्रबन्धन की एकदम अलग-अलग प्रणालियों की जरूरत है। यही हाल अलग-अलग क्षेत्रों में बसे नगरों-शहरों का भी है जो कुशल जल प्रबन्धन के बगैर खड़े ही नहीं हो सकते थे।
ग्रामीण भारत की छवि
भारतीय गाँव किस तरह अपना जीवन चलाते थे और अपने प्राकृतिक संसाधनों का किस तरह इस्तेमाल करते थे, इस पर अंग्रेज प्रशासकों और इतिहासकारों में भारी मतभेद था। उनके द्वारा छोड़े ऐतिहासिक दस्तावेजों में यह बहस साफ दिखती है:
“अपने 12 आयंगडियों के साथ हर गाँव एक तरह का गणराज्य है, जिसका प्रमुख एक पटेल होता है और भारत ऐसे ही गणराज्यों का देश है। युद्ध के समय ग्रामवासी अपने पटेल का नेतृत्व मानते थे। वे गाँव को तोड़ने या उसमें अपना अधिकार क्षेत्र बनाने जैसे झमेलों में नहीं पड़ते थे। गाँव अगर एक बना रहे तो उन्हें इस बात की भी परवाह नहीं होती थी कि अब यहाँ बाहरी शासन किसका है। गाँव पर जिसका भी अधिकार हो यहाँ का आन्तरिक प्रबन्धन वही रहता था। पटेल तब भी फैसले करने वाला, राजस्व जमा करने वाला और प्रमुख किसान रहा करता था। मनु के काल से लेकर अब तक सारे बन्दोबस्त पटेल से ही या उसी के माध्यम से होते रहे हैं।”
यह विवरण है कर्नल थामस मुनरो (जो मई 1820 में मद्रास के गर्वनर बनाए गए और जिन्हें सर की उपाधि दी गई) का जिन्होंने तब, 16 मई, 1806 को अनन्तपुर पर जो बहस छिड़ी उसमें कार्ल मार्क्स से लेकर महात्मा गाँधी तक ने भाग लिया। इस चित्रण के आधार पर 19वीं सदी से लेकर अब तक ‘ग्रामीण जीवन’ की कई तस्वीरें उतारी गई हैं। यह छवि तो 19वीं सदी के पहले दशक में अंग्रेजों द्वारा तैयार प्रशासनिक दस्तावेजों पर आधारित है। गाँव एक छोटा गणराज्य है जिसके 12 अलग अधिकारी होते हैं और पटेल सबसे ऊपर होता है तथा गाँव व्यवहारतः बाहर के राजनैतिक घटनाक्रम से अछूता होता है।
19वीं के आखिर और 20वीं सदी के शुरू में बदले ग्रामीण समाज की छवि और इससे हुए बदलाव का मूल्यांकन भी किया गया है। ऐसे असंख्य विवरणों और इनमें से भी दो सबसे चर्चित, फिफ्थ रिपोर्ट (1812) और रिपोर्ट ऑफ द सेलेक्ट कमेटी इन हाउस ऑफ कॉमन्स, इविडेंस, III, रेवेन्यू एपेंडिसेज-2 में 7 नवम्बर 1830 के सर चार्ल्स मेटकाफ विवरणों में अद्भुत समानता है (मेटकाफ तब उत्तर-पश्चिम प्रान्त के लेफ्टिनेंट गर्वनर जनरल थे)। लेकिन प्रसिद्ध फ्रांसीसी नृशास्त्री नुई डुमां को यह तथ्य बहुत हैरान करने वाला लगा कि 1800-1830 के बीच के प्रशासनिक कागजातों में गाँवों का कोई वर्णन नहीं है और किसी ने यह सवाल भी नहीं उठाया या देखने की कोशिश नहीं की कि पहले के विवरणों का गुण-दोष क्या है, उनसे क्या उद्देश्य सध रहा है।
तब ब्रिटिश सरकार जमीन के बन्दोबस्त में जुटी हुई थी और यह मानने में खास हर्ज नहीं है कि गाँव की यह तस्वीर उसी से जुड़ी थी। ऐसे में ‘फिफ्थ रिपोर्ट’ हो या मेटकाफ का विवरण, जिनमें गाँव को छोटा गणराज्य माना गया था, असल में इन सबको मुनरो के रैयतवाड़ी बन्दोबस्त के खिलाफ इस्तेमाल किया गया। रैयतवाड़ी बन्दोबस्त मद्रास प्रेसिडेंसी और दिल्ली के आस-पास के इलाकों में हुआ था। इस मामले में मेटकाफ ने अपने खयालों को छुपाया भी नहीं:
“इस प्रणाली (रैयतवाड़ी) के बारे में मेरा इतना ऊँचा खयाल रखने के बाद यह सवाल स्वाभाविक ढंग से पूछा जा सकता है कि फिर मैं यही बन्दोबस्त उन सभी इलाकों में क्यों नहीं कराता जो अभी राजस्व व्यवस्था के दायरे में नहीं आये हैं। इसका कारण यह है कि मैं ग्रामीण समुदाय की संरचना का प्रशंसक हूँ और मुझे डर है कि हर जमीन वाले और जोतदार से अलग-अलग बन्दोबस्ती कहीं गाँव के ढाँचे को ही न तोड़ दे। ग्रामीण समाज छोटे गणराज्य हैं...।”
यह ध्यान देने की बात है कि 1830 में आये मेटकाफ रिपोर्ट के पहले ‘समुदाय’ का जिक्र नहीं हुआ है। इपनी रिपोर्ट में वे कहते हैं:
“...वे अपनी जरूरत लायक लगभग हर चीज खुद पैदा कर लेते हैं और बाहरी रिश्तों से लगभग पूरी तरह आजाद हैं। हर चीज मरती है तब भी वे जीवित हैं; एक राजवंश आता है, जाता है; एक क्रान्ति के बाद दूसरी क्रान्ति होती है; हिन्दू, पठान, मुगल, मराठा, सिख, अंग्रेज बारी-बारी से गद्दी पर आते-जाते हैं पर ग्रामीण समुदाय जैसे-का-तैसा बना हुआ है। संकट के समय वे हथियार उठा लेते हैं और अपने गाँव की रखवाली में जुट जाते हैं; आक्रमणकारी सेना उनके पास से गुजर जाती है; वे अपने जानवरों तक को समेट लेते हैं; हमलावर सेना से छेड़छाड़ नहीं करते और वे अपनी चीजों को सुरक्षित रखे रहते हैं। अगर उनकी लूटलाट की गई और वे हमलावरों का मुकाबला करने में सक्षम नहीं हुए तो भागकर किसी मजबूत और मित्रवत गाँव में चले जाते हैं। और जब यह मारकाट का तूफान गुजर जाता है तो वापस लौटकर अपने-अपने कामों में जुट जाते हैं। अगर कभी वर्षों तक मारकाट चलती रहती है और गाँव रहने लायक नहीं रहता तो ग्रामीण बिखरे ही रहते हैं और जैसे ही हालात थोड़े सुधरते हैं वे वापस आ जाते हैं। ग्रामीण समुदाय, जिसमें हर गाँव एक छोटा राज्य है, की यही एकता सारी उठापटक, सारी क्रान्तियों के बीच भी सदियों से भारत को बचाए रखने, उसमें सुख-शान्ति को प्रमुख बनाए रखने तथा आजादी का अनुभव बरकरार रखने का कारण है।”
मेटकाफ रिपोर्ट का यह नजरिया भारतीय गाँवों के बारे में मुनरो के विवरण पर ही आधारित है। मुनरो ही इस धारणा के असली प्रस्तावक हैं। इस सिद्धान्त के दूसरे भाग के रचयिता मुनरो के समकालीन और साथी ले. कर्नल मार्क विल्क्स हैं जो मैसूर राज दरबार में पॉलिटिकल रेजिडेंट थे। उन्होंने ही अनन्तपुर रिपोर्ट में सबसे पहले मुनरो के विवरणों को विस्तार से उद्धृत करके कुछ निष्कर्ष निकाले थे।
इनके विपरीत माउंट स्टुआर्ट एलफिंस्टन (1779-1859), जो 1818 में बाजीराव पेशवा से जीते गए इलाके के कमिश्नर थे, ‘मराठों की पुरानी अच्छी संस्थाओं को बचाने के पक्षधर थे’ पर मुनरो के निष्कर्षों से सहमत नहीं थे। गाँव के राजस्व वसूली की एकमुश्त जिम्मेदारी लेने और ग्रामीणों से उनकी जमीन के अनुसार राजस्व बटोरने वाले ‘प्रमुख’ की स्थिति को लेकर ही उनका सबसे ज्यादा मतभेद था।
“सरकार का एजेंट होने के बावजूद वह आम रैयतों की हैसियत ही पाता है और वह अधिकार जताता तो है, पर सरकारी आदेशों को लागू करने में उतना प्रभावी नहीं है।”
“वैसे तो उसे अभी भी मनु के काल की तरह राजा का अधिकारी माना जाता है पर वह अब लोगों का पहले की तरह का प्रतिनिधि नहीं रहा… उसे राजा और ग्रामीणों, दोनों का समान भरोसा प्राप्त होना चाहिए।”
इस प्रकार हम पाते हैं कि एलफिंस्टन की नजरों में प्रधान/पटेल की जगह स्वतंत्र गाँव और सरकार के बीच कड़ी के रूप में होनी चाहिए। क्या उन पर एनल्स एंड एंटीक्विटीज ऑफ राजस्थान के लेखक जेम्स टाड का प्रभाव था? टाड तो पटेल की स्थिति के बारे में और भी कड़ी राय रखते थे।
“गाँव के सबसे महत्त्वपूर्ण पद पटेल की शुरुआत और कामकाज के बारे में अलग-अलग राय हैं। पहले पटेल का चुनाव लोग करते थे और वह गाँवों का प्रतिनिधि होता था। वह शासकों और किसानों के बीच मध्यस्थ था और उसे दोनों तरफ से लाभ मिला करते थे। अपने बपौता (पैतृक) सम्पत्ति और रैयत की उपज के चालीसवें हिस्से अर्थात ‘सेरानों’ के साथ ही गाँव की अतिरिक्त जमीन पर खेती का एक-तिहाई या एक-चौथाई हिस्सा भी मिलता था। शासन और किसान के बीच की कड़ी पटेल की यही हैसियत थी… और उसके खिलाफ शिकायत की हिम्मत कौन कर सकता था? इस प्रकार वह अपने लोगों का मालिक बन बैठा और जिस प्रकार सत्ता हर किसी को भ्रष्ट बना देती है पटेल भी मध्यस्थता की जगह अत्याचारी बन बैठे।”
टाड को स्वशासन का सिद्धान्त हिन्दू खेतिहर कानून का सबसे महत्त्वपूर्ण गुण लगता था। ये परम्परागत कानून, जिन्हें मनु ने बनाया था, बहुत सरल और प्रभावी थे। वे उस प्रणाली के बारे में बताते हैं:
“हम देखेंगे कि हर छोटे समुदाय की शासन व्यवस्था अद्भुत है; हर छोटा गणराज्य देश के शासकों से स्वतंत्र रूप से अपना शासन विधान रखता-चलाता है। राजा से उसे सामान्य समर्थन और सुरक्षा मिलती है और बदले में वह उसे भोग, एक तरह का कर देता है; राजा के कर्तव्य भी मनु के द्वारा बहुत स्पष्ट ढंग से परिभाषित हैं, पर हिन्दू शासन के अधीन शासक और शासितों के बीच रिश्तों से ज्यादा उदार रिश्ता शायद कहीं नहीं होगा- यहाँ अपना-अपना काम करने की पूरी आजादी है… सच कहें तो हर देश सैकड़ों-हजारों ऐसे लघु गणराज्यों का प्रतिनिधित्व करता है जिनका आपस में कोई सम्बन्ध नहीं है। जिनका सम्राट से भी भोग देने और संरक्षण पाने का रिश्ता है। शासन न तो उनके लिये कानून बनाता है न ही आन्तरिक प्रबन्ध के लिये पुलिस देता है। न्याय, पुलिस और कानून, सारे मामले में गाँव का समाज खुद अपना काम करता है; वहाँ पंचायतें यह सब कार्य करती हैं।”
इस प्रकार साफ है कि टाड गाँव को एक राजनैतिक समाज मानते थे और वे इसके लिये गणराज्य, कॉमनवेल्थ जैसे शब्दों का प्रयोग भी करते हैं।
लेकिन एलफिंस्टन और मेटकाफ के विवरणों में प्राथमिकताओं का थोड़ा फर्क है। मेटकाफ के विचार में आर्थिक पक्ष भी शामिल है और राजनैतिक बातों पर थोड़ा कम महत्त्व है। मेटकाफ जय-पराजयों और राजनैतिक क्रान्तियों के बीच गाँव के स्थायित्व को ज्यादा महत्त्व देते हैं और जैसा कि डुमां बताते हैं, उनके विचार इस उद्धरण से ज्यादा स्पष्ट हैं:
“हर गाँव अपने आप में एक नन्हा राज्य था फिर भी वे जमीन की जोत वाले पहलू को ही सामने लाते हैं, इसकी मिल्कियत और गाँव की अन्य आन्तरिक व्यवस्थाओं को नहीं बताते।”
गाँवों के मानक विवरणों में आर्थिक पहलू एकदम गायब नहीं है। मुनरो जिन 12 अधिकारियों या कर्मचारियों (आयंगडियों) की चर्चा करते हैं, विल्क्स और एलफिंस्टन सिर्फ उनका नाम ही नहीं गिनाते (हालांकि थोड़ा अलग ढंग से), उनके कामकाज का विवरण भी देते हैं। फिफ्थ रिपोर्ट में उनकी संख्या नहीं बताई गई, पर उनको मिलने वाली तनख्वाह और सुविधाओं की लम्बी सूची दी गई है। इस प्रणाली को जजमानी व्यवस्था कहा गया। विल्क्स लिखते हैं:
“कुछ ऐसे भी उदाहरण हैं कि पूरे गाँव की जमीन पर साथ-साथ खेती की जाती थी और लोगों को उनके परिश्रम और उनकी जमीन के अनुपात में फसल का हिस्सा बाँट दिया जाता था।”
राजनैतिक पूर्वाग्रह
यह बताना जरूरी है कि न तो उपरोक्त इतिहासकार और न ही ब्रिटिश राजस्व अधिकारी सिर्फ भारतीय राजस्व प्रणाली की सच्चाई जानने भर में दिलचस्पी रखते थे। उनकी ‘खोज’ के राजनैतिक और प्रशासनिक फलितार्थ इतने विवादास्पद थे कि उनके अध्ययनों को पक्षपातरहित नहीं माना जा सकता है।
सीएसई से वर्ष 1998 में प्रकाशित पुस्तक ‘बूँदों की संस्कृति’ से साभार
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Post By: Editorial Team