भारत का प्राचीन भू-गर्भ जल विज्ञान

आचार्य वराह मिहिर (लगभग 5-6 शती ई.) द्वारा लिखित प्रसिद्ध फलित ज्योतिष-ग्रन्थ ‘वृहत्संहिता का 53वाँ अध्याय है- ‘हकार्गल’ अर्थात अर्गला (छड़ी) के माध्यम से भूगर्भ के जल का पता लगाना। इस विधि के जानकार आज भी उपलब्ध हैं। इस अध्याय के कुछ अंश-


धर्म्य यशस्यं च वदाम्तोSहं दकार्गलं येन जलोपलब्धिः।
पुंसां यथाड्गेषु शिरांस्तथैव क्षितावपि प्रोन्नत निम्न संस्थाः।।


मैं (वराहमिहिर) पुण्य और यश के देने वाले दकार्गल विज्ञान को जिससे भूमि में जल की प्राप्ति होती है, बताता हूँ। जिस प्रकार पुरुषों के अंगों में ऊपर और नीचे शिराएँ रहती है उसी प्रकार भूमि में ऊपर और नीचे (गहराई में) जल की शिराएँ होती हैं।

चिकने, लम्बी शाखाओं वाले, बहुत कम ऊँचे, बहुत न फैले हुए जो वृक्ष होते हैं वे सभी समीप जल वाले होते हैं, इनके पास (कम गहराई पर) जल रहता है। तथा जो वृक्ष सुषिर (जिनके पत्तों में छेद हों), जर्जर पत्र, रुखे होते हैं उनके पास (नीचे) जल नहीं होता।

जिस घास रहित प्रदेश में कुछ भूमि घास सहित तथा जिस घास सहित प्रदेश में कुछ भूमि घास रहित दिखाई दे तो उस स्थान पर नीचे जल की शिरा है, अर्थात जल है। उस स्थान पर नीचे धन है यह भी कहा जा सकता है।

किसी स्थान की सारी भूमि गर्म हो, परन्तु उसमें एक स्थान पर ठंडी हो जावे तो ठंडा पानी और सारी भूमि ठंडी हो और उसमें एक स्थान पर गर्म हो तो वहाँ गर्म पानी मिलता है (इन दोनों परिस्थितियों में) वहाँ साढ़े तीन पुरुष नीचे जल मिलता है।

जिस कम पानी वाली अथवा अधिक पानी वाली भूमि में इन्द्र (अर्जुन, देवदास या टुष्ज) धनु वृक्ष घनु, धन्वंग, गोलवृक्ष, घामिन-रर्क्ष मछली अथवा वाल्मी दिखाई दे वहाँ चार हाथ आगे, नीचे जल मिलता है।

जो भूमि सूर्य की गर्मी से भस्म, ऊँट (भूरि मिश्रित) और गधे के रंग के समान हो वह निर्जला होती है तथा जहाँ करीर वृक्ष (करील, केर, रेटी आदि) रक्ताकुर (लाल अंकुर युक्त हो और क्षीरयुत (दूधवाला) हो, भूमि रक्त (लाल) रंग की हो वहाँ पत्थर के नीचे जल निकलता है।

वह शिला जो कबूतर के रंग के समान है, शहद या घृत के रंग के समान है, या जो रेशमी वस्त्र के रंग के समान है, या जो सोमवल्ली (सोमलता, जिसका पत्ता तम्बाकू के पत्ते जैसे रंग का और फूल लाल रंग का होता है।) के रंग के समान है। ये सब अक्षय (कभी न समाप्त होने वाला) पानी सूचित करती हैं। इनके नीचे खोदने पर जल्दी पानी निकलता है।

जो शिला ताम्बे के रंग के तरह-तरह के धब्बों से युक्त हो तथा हल्के पीले रंग की हो या राख जैसे रंग वाली हो, या ऊँट और गधे (चटकीला नीला, बीच में केसरिया या सफेद) के रंग समान रंगवाली हो या भ्रमर के रंग के समान रंग वाली हो या अंगुठिष्का के पुष्प के सामान रंग वाली हो, जो सूर्य या अग्नि के समान रंग वाली हो, वह शिला पानी रहित होती है। इस प्रकार की शिलाओं के नीचे खोदने पर पानी नहीं मिलता।

टीकाकार: ईशनारायण जोशी

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