शं ते आपो हेमवतीः शत्रु ते सन्तुतव्याः।
शंते सनिष्यदा आपः शत्रु ते सन्तुवर्ष्या।।
- अथर्ववेद 19/2/1
अर्थात हिम या हिमालय से उत्पन्न, स्रोत से प्रभावित होने वाली तीव्र गति से बहने वाली जलधारा प्रवाह तथा वर्षा द्वारा नदियों में आने वाले जल प्रवाह, ये सभी आपके लिए शुभकारक, मंगलदायक एवं कल्याणकारी हों।
अनादि काल से व्यवस्थित भारत का जल स्रोत उत्तराखंड के हिमालयी क्षेत्र का धरातल समुद्र तल से 335 मी. से लेकर 7817 मी. तक ऊंचा है। इनमें से कुछ मुख्य पर्वत श्रेणियां तथा उनकी ऊंचाई सारणी-1 में दी गई है। इसमें अनेक पर्वत श्रेणियां, हिमनद, गहरी घाटियां, बड़ी चट्टानें और तलहटी में जलोढ़ मिट्टी पाई जाती है।
इस विषम भू-आकृति के फलस्वरूप भी यहां पर उचित जल भंडारण की क्षमता है। हिमालय में जल भंडारण की क्षमता एवं जल की उपलब्धता एक सीमा तक भूमि की बनावट, पहाड़ियों की संरचना, चट्टानों के ढाल और सूर्य की स्थिति पर निर्भर करता है। कठोर आग्नेय चट्टानों में जल संचयन क्षमता कम होती है। परंतु भंडारण की क्षमता अधिक होती है। इसके ठीक विपरीत बलुई पहाड़ों में जल संचयन की क्षमता अधिक होती है। परंतु अधिक समय तक जल भंडारण की क्षमता का अभाव होता है।
यही कारण है कि पर्वतीय क्षेत्रों में वनस्पतियां वर्षा जल पर ही अधिक निर्भर रहती हैं। यहां पर निवास करने वाला अधिकांश जनजीवन विकसित है, यहां के लोग कृषि एवं आवास दोनों के लिए भूमि का उचित उपयोग करते आए हैं। यहां पर वर्षाजल, प्राकृतिक स्रोत, नदी, नाले, ग्लेशियर एवं भूमिगत जल स्रोतों की प्रमुखता पाई जाती है।
वर्षाजल
उत्तराखंड में वर्षा धरातलीय भू-आकृति की स्थिति पर निर्भर करती है। ऊपरी क्षेत्रों में जहां बर्फ की वर्षा होती है, वहीं निचली घाटियों में वर्षा मानसून के अनुरूप होती है। उत्तराखंड में वर्षाजल प्रमुख जल स्रोत है। वर्षा का पानी पहाड़ों की सतह या चट्टानों के मध्य से होकर रिसने लगता है। वहीं से वह धरातल की ऊपरी सतह पर फुटने लगता है। ये बरसाती स्रोत ‘धारा’ कहलाते हैं।
प्रकृति की यह प्रक्रिया पहाड़ के लिए जीवनदायिनी है। बरसात के मौसम में अधिक वर्षा हो जाने से धरातल पर अनेक जल धाराएं निकल पड़ती हैं। लेकिन जब बरसात के मौसम की समाप्ति के पश्चात् जल स्तर कम होने लगता है तो कुछ ही स्रोतों में जलधारा स्थाई रूप से बहती रहती है। प्रकृति की यह देने पहाड़ के मानवीय जीवन का प्रमुख आधार है। यदि ये जल स्रोत नहीं होते तो पहाड़ी जनजीवन की कल्पना करना संभव नहीं था।
ग्लेशियर (हिमनद)
ऊपरी हिमालय में बर्फ की बारिश होती है। जो हिम लोक का निर्माण करती है। इसी हिम लोक में बर्फ से पटी हुई लंबी परतें टूटने, छंटने एवं पिघलने लगती हैं। ये बड़े-बड़े हिमखंड पिघलकर धीरे-धीरे नीचे की ओर सरकने लग जाते हैं जिससे हिमनद या ग्लेशियरों का निर्माण होता है।
उत्तराखंड हिमालय में लगभग 15000 छोटी-छोटी हिमनदियां हैं। एक सामान्य हिमनद में 01 से 10 क्यूसिक कि.मी. पानी होता है। उत्तराखंड के हिमनदों में नीलम हिमनद (19 कि.मी.), गंगोत्री हिमनद (29 कि.मी.), संतोपथ (11 कि.मी.), उत्तरी नंदा देवी (19 कि.मी.), माणा (19 कि.मी.), भागीरथी खरक (19 कि.मी.), केदारनाथ (14 कि.मी.), कोना (11 कि.मी.), सरा उगमा (17 कि.मी.), समुद्र टापू (09 कि.मी) प्रमुख हैं। ये हिमनद निम्न पर्वत शिखरों से निकलते हैं।
ये हिमनद या ग्लेशियर उत्तराखंड की इतनी बड़ी निधी हैं कि उत्तराखंड क्षेत्र केवल भारत ही नहीं बल्कि दुनिया के सर्वाधिक जल शक्ति संपन्न क्षेत्रों में एक है।
नदी
नदी का शाब्दिक अर्थ ‘नाद करने वाली’ से है जो कि कल-कल ध्वनि करती हुई बहती रहती है। इसलिए इसका नाम ‘नदी’ पड़ा (अथर्ववेद 1/13/1)। उत्तराखंड में नदियां सतत प्रवाहमान हैं। वैज्ञानिक मतानुसार इस क्षेत्र में 22575 मीलियन क्यूबिक मीटर पानी प्रत्येक वर्ष बहता है। इसका 62 प्रतिशत भाग गढ़वाल में तथा 38 प्रतिशत भाग कुमाऊं में स्थित है।
जल स्रोतों को सुरक्षित एवं पुनः संचारित करने के लिए देश के प्रत्येक व्यक्ति का कर्तव्य है कि इन जल स्रोतों के आस-पास हरे-भरे पौधे एवं वृक्षों का रोपण किया जाए। वृक्षों की जड़ें जल को अपने मे समाहित रखती हैं। क्योंकि यह जल सर्वत्र है। वह शरीर के अंदर है, सांसों के द्वारा हवा के माध्यम से हमारे शरीर में प्रविष्ट होता रहता है। गंगा-यमुना सदानीरा नदियों के रूप में विद्यमान है। अलकनंदा एवं उसकी सहायक नदियां उत्तराखंड के 26 प्रतिशत क्षेत्र में घिरी हुई हैं। कुल जल का 23.7 प्रतिशत भाग जल इन्हीं नदियों से प्राप्त होता है। भागीरथी एवं उसकी सहायक नदियों की जलराशि 2533 मिलियन क्यूबिक मीटर है। टोंस 4844, यमुना 1651, काली 2387, रामगंगा 972, कोसी 1870, सरयू 1350, नयार तथा निचली गंगा में 1626 मिलियन क्यूबिक मीटर पानी उपलब्ध है। उत्तराखंड में बहने वाली प्रमुख नदियों की लंबाई एवं प्रवाह क्षेत्र सारणी 2 में दिए गए हैं।
उक्त नदियों की कल-कल ध्वनि की बहती हुई जलधाराओं द्वारा संपूर्ण राष्ट्र जीवन प्राप्त करता है। आज जल की बढ़ती समस्या विकराल रूप लेती जा रही है। इसी पानी को लेकर विश्व युद्ध से लेकर महाविनाश तक संघर्ष छेड़ने की बात चल रही है। ऐसी स्थिति में तो यजुर्वेद के इन मंत्रों की प्रासंगिकता और भी बढ़ जाती है यजुर्वेद के 10/2वें मंत्र में कहा गया है कि :
‘वृष्णSउर्मिरसि राष्ट्रदा राष्ट्रं में देहि स्वाहा वृष्णS उर्मिरसि राष्ट्रदा
राष्ट्रम्मुष्मै देहि वृष सेनोसि राष्ट्रदा राष्ट्रं में देहि स्वाहा वृषसेनोसि राष्ट्रदा राष्ट्रमुष्मै देहि।’
अर्थात् ‘हे कल-कल करती धाराओं!’ आप बलवान पुरुष को उच्च पद तक पहुंचाने तथा राष्ट्र प्रदान करने में समर्थ हो, इसके लिए आपको आहुति समर्पित है। आप सुखवर्धक राष्ट्र प्रदान करने वाली हैं। अतः राज्य देने में समर्थ होकर राजपद प्रदान करें। आपके लिए यह आहुति समर्पित है। आप राज्य देने में समर्थ हैं, अतः बलवान सेना युक्त राज्य प्रदान करें। जल की वंदना करते हुए यह भी कहा गया है कि
‘आपो मौषधीमति रेतस्या दिशः पान्तु’।
- अथर्ववेद 19/17/6
अर्थात् औषधियुक्त जल हमारा संरक्षण करे और हमें सद्वृत्तियों की ओर प्रेरित करें।
भूमिगत जल
भू-वैज्ञानिकों के अनुसार उत्तराखंड की पहाड़ियों में भूमिगत जल के भंडार विद्यमान हैं। वर्षा का पानी जमीन के अंदर से होकर चट्टानों की परतों की बीच जमा हो जाता है। मैदानी क्षेत्रों में तो भूमिगत जल की बड़ी झीलें पाई जाती हैं। इसका संबंध मीलों दूर होता है। लेकिन पर्वतीय क्षेत्रों में भूमिगत जल अल्प मात्रा में पाया जाता है।
नियमित वर्षा होने पर यह जल पुनः संचारित होकर बहने लग जाता है जिससे आसपास की वनस्पतियां हरी-भरी हो जाती हैं। लेकिन अब मानसून एवं तापमान परिवर्तन होने से ये भूमिगत जल स्रोत सूखते जा रहे हैं। वैज्ञानिकों का मानना है कि पारिस्थितिकी असंतुलन होने से भूमिगत जलस्रोत में जल स्तर कम होता जा रहा है।
इन जल स्रोतों को सुरक्षित एवं पुनः संचारित करने के लिए देश के प्रत्येक व्यक्ति का कर्तव्य है कि इन जल स्रोतों के आस-पास हरे-भरे पौधे एवं वृक्षों का रोपण किया जाए। वृक्षों की जड़ें जल को अपने मे समाहित रखती हैं। क्योंकि यह जल सर्वत्र है। वह शरीर के अंदर है, सांसों के द्वारा हवा के माध्यम से हमारे शरीर में प्रविष्ट होता रहता है। गंगा-यमुना सदानीरा नदियों के रूप में विद्यमान है। हमारे वेदों में भी जल की सर्वव्यापक वंदना की गई है कि-
‘आपो हिष्ठा मयो भुवस्ता नSऊर्जे दधातना महेरणाय चक्षसे।।
यो वः शवतयो रसस्तस्य भाजयतेह नः। उशतीखि मातरः।।
तस्याSअरं गमाय वो यस्य क्षयाय जिन्वथ। आपो जनयथा च नः।।’
- यजुर्वेद 11/50-52, 36/15
अर्थात् हे जल समूह, आप सुख के मूल स्रोत हैं। अतः आप पराक्रम से युक्त उत्तम दर्शनीय कार्य करने के लिए हमें परिपुष्ट करें, हे जल समूह! आपका वह कल्याणकारी रस पर्याप्त मात्रा में हमें उपलब्ध हो जिस रस द्वारा आप संपूर्ण विश्व को तृप्त करते हैं और जिसके कारण आप हमारी उत्पत्ति के निमित्तभूत हैं। ऐसे जनोपयोगी अपने गुणों से हमें अभिपूरित करें।
वेद मंत्रों में जल की अपरिमित शक्ति का वर्णन किया गया है, जिससे हमें सीख लेने की आवश्यकता है कि वैदिक ऋषियों द्वारा दिए गए दिव्य ज्ञान द्वारा हम वर्तमान में भी जल प्रबंधन को उचित ढंग से करें संपूर्ण हिमालयी क्षेत्र धरती के अंदर एवं बाहर जिससे कि जल स्रोतों में मानव आवश्यकताओं के अनुरूप अभिवृद्धि हो।
सदानीरा नदियां अविरल प्रवाह के साथ प्रवाहमान रहें। भारत के जल स्रोत हिमालय में जल की परिपूर्णता बनी रहे, जिससे कि यह हिमालय संपूर्ण विश्व को जल प्रदान करता रहे और हमारा राष्ट्र श्रेष्ठ जल प्रबंधन करके विश्व में महाशांति के दूत के रूप में उभरकर गौरव प्राप्त करें।
सारणी-1
क्र.सं. | पर्वत श्रेणियां | ऊंचाई (कि.मी.) |
1. | नंदा देवी | 7817 |
2. | कामेट | 7756 |
3. | नंदादेवी पूर्व | 7434 |
4. | माणा | 7237 |
5. | चौखंबा | 7138 |
6. | सतोपंथ | 7075 |
7. | त्रिशूली | 7045 |
8. | केदारनाथ | 6940 |
9. | पंचजुली | 69.5 |
10. | नंदाकोट | 6861 |
11. | मृगुधुनि | 6855 |
12. | देववन | 6853 |
13. | हाथी पर्वत | 6725 |
14. | नीलकंठ पर्वत | 6596 |
15. | बंदरपूछ | 6315 |
16. | नंदा घुंघटी | 6309 |
17. | गौरी पर्वत | 6250 |
18. | गुन्नी | 6179 |
19. | युगटांगटो | 5945 |
स्रोत : उक्त आकड़े डॉ. भगवती प्रसाद पुरोहित की पुस्तक ‘जल संसाधन प्रबंधन’ (वर्ष-2002) से साभार लिए गए हैं।
सारणी-2
क्र.सं. | नदी | प्रवाह क्षेत्र | लंबाई (कि.मी.) |
1. | काली | लिपुलेख-टनकपुर | 252 |
2. | भागीरथी | गौमुख-देवप्रयाग | 205 |
3. | अलकनंदा | सतोपंथ-देवप्रयाग | 195 |
4. | कोसी | कौसानी-सुल्तानपुर | 168 |
5. | रामगंगा | धुधातोली-कालागढ़ | 155 |
6. | टोंस | हरकी दून-डाकपत्थर | 148 |
7. | सरयू | भद्रतुंग-पंचेश्वर | 146 |
8. | यमुना | यमुनोत्री-धालीपुर | 136 |
9. | रामगंगा (पू.) | पोंटिग-रामेश्वर | 108 |
10. | पिंडर | पिंडारी-कर्णप्रयाग | 105 |
11. | गोरी | मिलम-जौलजीवी | 104 |
12. | गौला | पहाड़पाती-किच्छ | 102 |
13. | धौली (गढ़) | देववन-विष्णु प्रयाग | 94 |
14. | धौली (कुमाऊं) | गोवान-तवाघाट | 91 |
15. | नयार (पूर्वी) | गदरी-सतपुली | 76 |
16. | गंगा | देवप्रयाग-हरिद्वार | 66 |
17. | नंदाकिनी | नंदाघुंघटी-नंदप्रयाग | 56 |
18. | कुटी | लपिया धूरा-काली | 54 |
19. | लधिया | धाली-चूंकी | 52 |
20. | लोहावती | एव्वर माउंट-काली | 48 |
21. | मंदाकिनी | केदारनाथ-रुद्रप्रयाग | 72 |
22. | नयार (प.) | खिर्सू-सतपुली | 67 |
स्रोत : उक्त आंकड़े डॉ. भगवती प्रसाद पुरोहित की पुस्तक ‘जल संसाधन प्रबंधन’ (वर्ष-2002) से साभार लिए गए हैं।
संदर्भ
डॉ. भगवती प्रसाद पुरोहित- ‘जल संसाधन प्रबंधन’ (वर्ष 2002), पृष्ठ नौ एवं ग्यारह से।
संपर्क
डॉ. दीपक डोभाल, सहायक प्राध्यापक (इतिहास विभाग) बी.एस.एम. (पी.जी.) कालेज रूड़की, 247667 (उत्तराखंड)
मो. 09411713412
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