भारत और नेपाल को बाँटती नदी के सामुदायिक प्रबंधन का प्रयास

Villager's fight
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कोसी-क्षेत्र में पसरी सैकड़ों जलधाराओं में एक छोटी-सी नदी है खाडो, जो भारत-नेपाल सीमा पर कई गाँवों की तबाही और आपसी विवाद का कारण है। दोनों देशों के पड़ोसी गाँवों में विवाद पिछले साल इतना बढ़ा कि दोनों तरफ से लाठियाँ निकल आई और प्रशासन आमने-सामने आ गया। हालाँकि दोनों ओर के जिला प्रशासन और स्थानीय प्रबुद्ध जनों के प्रयास से मामला अधिक बिगड़ा नहीं। पर समस्या बनी हुई है और समाधान की राह देख रही है।

समस्या की उत्पत्ति कोसी नदी पर तटबंध बनने से हुई। पहले बरसात के दिनों में नेपाल की ओर से आने वाला पानी इस नदी और इस जैसी दूसरी जलधाराओं से होकर तिलयुगा नदी में मिल जाता था। पानी कहीं ठहरता नहीं था, इसलिये बाढ़ एक उत्सव की तरह आती थी और खेतों को तृप्त करती चली जाती थी। पर कोसी तटबंध बनने के बाद तिलयुगा नदी को डगमारा के पास तटबंध के भीतर जाने का संकरा मार्ग मिला जिससे पानी की निकासी बाधित हुई। पानी ठहरने और अगल-बगल फैलने लगा।

तिलयुगा इस क्षेत्र की प्रमुख नदी थी जिसका उल्लेख प्राचीन साहित्य में मिलता है। इसके तट पर कई संपन्न गाँव, महादेव मठ और छिन्नमस्तिका देवी मंदिर जैसे तीर्थस्थल और असूरगढ जैसे पुरात्विक महत्त्व के स्थानों का उल्लेख पंडित हवलदार त्रिपाठी ने अपनी पुस्तक ‘बिहार की नदियाँ’ में किया है। मगर कोसी तटबंध बनने के बाद न केवल इसका प्रवाह मार्ग संकरा हो गया, तटबंधों के भीतर कोसी की आकृति में तेजी से परिवर्तन हुए। इस दौरान कोसी ने निर्मली के कुछ आगे जाकर तिलयुगा की समूची धारा को हड़प लिया। इस प्रकार तिलयुगा का समूचा स्वरूप ही बदल गया। इधर गाद जमने से कोसी का तल और तटबंधों के बीच का इलाका ऊँचा होता गया। नतीजा हुआ कि अब इस इलाके में हुई वर्षा के जल की निकासी ठीक से नहीं हो पाती, लेकिन नेपाल के इलाके में हुई वर्षा का पानी तो आता ही है।

भारत-नेपाल सीमा से सटकर खाडो नदी के तट पर बसा कुनौली गाँव सीमा के दोनों तरफ के पचासों गाँवों के बीच इकलौता बाजार के तौर पर विकसित हुआ था। लेकिन कोसी तटबंध बनने के बाद जब नेपाल की ओर से आए पानी की निकासी में अड़चन आने लगी तब से कुनौली बाजार की रौनक पर संकट के बादल मँडराने लगे। इस संकट से निजात पाने के लिये स्थानीय लोग सक्रिय हुए और स्थानीय नेता बैद्यनाथ मेहता के नेतृत्व में आंदोलन आरंभ हुआ। लोग उपवास पर बैठे। वह 1978-79 का दौर था। बिहार की सरकार जनता की आवाज को सूनती थी और नेपाल की सीमारेखा के निकट तटबंध बना दिया गया जिसमें स्थानीय लोगों ने श्रमदान भी किया। उन दिनों तटबंध को ही बाढ़ का निदान माना जाता था।

संपूर्ण क्रांति धारा से निकले स्थानीय सामाजिक कार्यकर्ता पंचम भाई बताते हैं कि इस तटबंध के बनाने से कोई खास लाभ नहीं हुआ, केवल कुनौली बाजार को थोड़ी राहत मिली। लेकिन उसपार नेपाल में तिलाठी और आस-पास के गाँवों में जबर्दस्त जल-जमाव होने लगा। इससे स्थानीय स्तर पर दोनों तरफ के ग्रामीणों के बीच तनाव पैदा होने लगा। पानी के दबाव में तटबंध टूटा तो कुनौली के लोग सोचते कि नेपाल के ग्रामीणों ने तटबंध काट दिया है, तटबंध नहीं टूटता तो नेपाल के पड़ोसी गाँवों में लंबे समय तक जल-जमाव बना रहता। फसल बर्बाद होती। उधर के लोग टूटे हुए तटबंध की मरम्मत का विरोध करने लगे। 2016 में यही हुआ था। तटबंध टूटने के बाद कुनौली के लोग उसे फिर से बाँधने निकले जिसका विरोध करने उधर के तिलाठी और दूसरे गाँवों के निवासी आ गए। दोनों तरफ से भारी जमावड़ा हो गया। समझा-बुझाकर मामला संभाला गया पर समस्या का सर्वमान्य समाधान अपरिहार्य हो गया है, इसमें कोई संदेह नहीं।

इसी पृष्ठभूमि में खाडों नदी को केन्द्र में रखते हुए इस क्षेत्र की नदियों के सामुदायिक प्रबंधन की गुंजाईश खोजने का एक नायाब प्रयोग आरंभ हुआ है। 30 जुलाई को कुनौली स्कूल के प्रांगण में दोनों देशों के पड़ोसी गाँवों के निवासियों की शिविर हुई जिसमें कोसी के दूसरे क्षेत्रों में सक्रिय कार्यकर्ता भी आए थे। शिविर में आस-पास की स्थिति की चर्चा तो हुई ही, कोसी नदी क्षेत्र से जुड़े बड़े राजनीतिक, वैधानिक और तकनीकी सवाल भी उठे। संभावित समाधान का मसौदा तैयार कर दोनों देशों के अधिकारियों के समक्ष प्रस्तुत करने की सहमति बनी। इसके लिये एक संयुक्त समिति का गठन किया गया। समिति को ऐसे उपायों की तलाश करनी है जो बाढ़ की प्राकृतिक परिघटना के बेहतर प्रबंधन की राह प्रशस्त करते हुए तटबंधों की वजह से उत्पन्न समस्याओं का समाधान की राह भी दिखाए। इस काम में तकनीकी ज्ञान और कानूनी प्रावधानों की भूमिका भी होगी जिसके लिये विशेषज्ञों की सलाह ली जाएगी। इस शिविर को लोकभारती सेवा आश्रम, कुनौली और प्रो. पब्लिक, काठमांडू, नेपाल ने संयुक्त रूप से भारतीय पर्यावरण विधि संगठन, नई दिल्ली के सहयोग से आयोजित किया था।

वर्ष 2016 में भारत और नेपाल के ग्रामीणों के बीच लड़ाईविषय-प्रवेश कराते हुए श्री रणजीव ने कहा कि समूचा कोसी क्षेत्र पानी की समस्याओं से पीड़ित है। इनका समुचित प्रबंधन नहीं होने से समस्याएँ बढती जा रही हैं। जलवायु परिवर्तन की वजह से नई परिस्थिति उत्पन्न होने वाली है। इसे देखते हुए नदी और जल प्रबंधन के नए तौर-तरीके अपनाने की जरूरत है। उन्होंने कहा कि भारत और नेपाल के बीच 1954 में हुआ कोसी समझौता बराज, तटबंध निर्माण और उनके प्रबंधन के बारे में है। उसमें नदी और उसपर निर्भर तटवासी समुदाय का कोई उल्लेख नहीं है। इस समझौते पर पुनर्विचार करने बल्कि नागरिक पुनर्विचार की जरूरत है। दोनों देश के स्थानीय नागरिक अगर आपसी सहमति से इस छोटी-सी नदी खाडो की समस्याओं का निदान कर लेते हैं तो कोसी क्षेत्र की दूसरी बड़ी समस्याओं का निदान खोजने की दिशा में सार्थक पहल की जा सकेगी।

नेपाल सर्वोच्च अदालत के अधिवक्ता प्रकाशमणि शर्मा ने कहा कि हमारे बीच ऐतिहासिक और सांस्कृतिक संबंध हैं। नेपाल से आने वाली नदी का प्रबंधन कैसे करें कि दोनों देशों के लिये हितकर हो, यह सोचना हमारा काम है। नदी समस्या नहीं है, वह हमारी संस्कृति है। पर हम इसे समस्या मान लेते हैं और समाधान के बारे में सोचने का जिम्मा नौकरशाहों पर डालकर स्वयं निश्चिंत हो जाते हैं। यह आदत बदलने की जरूरत है। काठमांडू या दिल्ली में बैठे नौकरशाह नदी को नहीं जानते, हम जानते हैं। हमें सोचना होगा कि समुदाय के स्तर पर समाधान कैसे करें।

भारत के सर्वोच्च न्यायालय के अधिवक्ता सवाइक सिद्दिकी ने कहा कि कोसी के बारे में षोध अध्ययन की शुरूआत 2008 की कुसहा त्रासदी के बाद हुई है। यह वास्तविकता है कि 1951 से 2008 के बीच योजना आयोग में कभी मुकम्मल चर्चा नहीं हुई। 1951 में बाढ नियंत्रण की चर्चा एक प्रयोग के तौर पर हुई थी, केएल राय चीन की पीली नदी में हुए कार्यों को देखने गए और वहाँ से लौटकर उसी तर्ज पर कोसी को बाँधने की योजना प्रस्तुत कर दिया। उसी आधार पर 1954 में कोसी समझौता संपन्न हुआ था। हालाँकि उसमें कोसी के इतिहास, तकनीकी और वैधानिक पक्षों को उचित स्थान नहीं मिल सका। इस समझौते के अंतर्गत नेपाल की स्थिति अधिक विकट है। उसे किसी सीमावर्ती नदी पर कुछ करना हो तो पहले दिल्ली से संपर्क करना होगा, वहाँ से बिहार की राजधानी में निर्देश पहुँचेगा, फिर कुछ हो सकेगा। इन्हीं परिस्थितियों में 2014 में नेपाल की ओर से कोसी समझौता पर पुनर्विचार की मांग उठी है।

शिविर की अध्यक्षता कर रहे स्थानीय मुखिया सत्यनारायण रजक ने आरंभ में ही इस इलाके की समस्याओं को स्पष्ट किया। उन्होंने बताया कि थोड़ा-सा पानी आने पर ही बाढ़ आ जाती है। खाडो और तिलयुगा हर साल तबाही लाती है। बाढ़ नहीं आए तब भी जल-जमाव होता है। तीन पंचायत बूरी तरह परेशान हैं। कुनौली पंचायत के पश्चिमी हिस्से में बालू जमा हो गया है। बथनाहा में कोसी के सीपेज से जलजमाव होता है। इसबारे में जिलाधिकारी को लिखकर दिया, लेकिन कुछ नहीं हुआ। नेपाल के गाँवों में भी समान किस्म की समस्या है। खाडो नदी के तटबंध की समस्या ‘जले पर नमक छिड़कने’ जैसा है। शिविर में स्थानीय प्रखंड प्रमुख, कई गाँवों के मुखिया, सरपंच और नेपाल के गाँवों के प्रतिनिधियों समेत डेढ सौ से अधिक लोग आए थे और तीस से अधिक लोगों ने अपने विचार रखे।

नेपाल के देवनारायण यादव ने कहा कि खाडो ही नहीं, जीता और मोहिनी नामक धाराएँ भी दोनों देशों की साझा समस्याएँ हैं। नेपाल सरकार की ओर से वर्ष 70 में एक सर्वेक्षण कराया गया था, उस समय सकरपुर से लालापट्टी तक खाडो दोनों देश की सीमा बनकर बहती थी। उस सर्वेक्षण का क्या हुआ, बाद में पता नहीं चला। अब समय आ गया है कि सरकारों के भरोसे बैठने के बजाए दोनों देशों के स्थानीय लोग आपस में मिल बैठकर इन समस्याओं का समाधान निकालें।

नेपाल के रिटायर्ड इंजीनियर दिगंबर यादव ने कहा कि नदी का नियंत्रण नहीं किया जा सकता, उसके साथ सामंजस्य बिठाकर रहा जा सकता है। उन्होंने कहा कि नदी पर कोई भी निर्माण के बाद उसमें परिवर्तन आता है। कोसी तटबंध मेंं छोटी-छोटी धाराओं को प्रवेश देने के लिये अनेक स्लुइश बने, पर वे जाम हो गए, बाद में कोसी की धारा ऊँची हो गई। अब वह पानी कहाँ जाएगा, इसका प्रबंध करना होगा। अगर छोटी सी नदी खाडों के धारा का समुचित समाधान निकाल लिया जाए तो दूसरी धाराओं के मामले में भी एक उदाहरण प्रस्तुत किया जा सकता है।

वर्ष 2016 में भारत और नेपाल के ग्रामीणों के बीच लड़ाईशिविर में समाधान के तौर पर कई सुझाव आए। उन संभावित समाधानों पर विचार करने के लिये संयुक्त समिति बनाने का सुझाव प्रमुख था। शिविर ने सर्वसम्मति से नेपाल के 17 और भारत के 15 लोगों की एक संयुक्त समिति का गठन किया गया जो एक महीने के भीतर बैठक कर अपने कामकाज की रूप-रेखा तय करेगी। इस संयुक्त समिति के संयोजन का जिम्मा कुनौली के पंचम भाई को सौंपा गया।
 

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