भूगर्भीय जल के भण्डारों का अतिरिक्त दोहन और धरातल के पानी की मानसून की वर्षा पर निर्भरता के कारण देश में ताजे पानी की उपलब्धता घटेगी। फूड एंड एग्रीकल्चर आर्गेनाइजेशन (एफएओ) की तरफ से प्रकाशित एक पुस्तक में कहा गया है कि ग्लोबल वार्मिंग से खाद्य उत्पादन प्रभावित होगा और प्रमुख फसलों के पोषक गुणों में कमी लाएगा। एफएओ के व्यापार और बाजार विभाग के वरिष्ठ अर्थशास्त्री और क्लाइमेट चेंज एंड फूड सिस्टम नामक किताब के सम्पादक अजीज एलबहरी ने डाउन टू अर्थ को बताया कि किस तरह आने वाले वर्षों में खाद्य की उपलब्धता जलवायु पर निर्भर करेगी।
बीसवीं सदी में औद्योगिक देशों के किसान तकनीकी नवोन्मेष, बेहतर प्रबन्धन, बाजार तक पहुँच और नीतिगत समर्थन के माध्यम से उत्पादन बढ़ा सकते थे। एशिया में 1960 के दशक के आखिर में और सत्तर के दशक में हरित क्रान्ति के कारण गेहूँ और धान का उत्पादन बढ़ा। आज चुनौती यह है कि हम किस तरह पैदावार बढ़ाएँ और क्षरण होते उन प्राकृतिक संसाधनों को बचाएँ जिन पर भावी उत्पादन क्षमता निर्भर करती है। जलवायु परिवर्तन का खाद्य उत्पादन से क्या रिश्ता है और खाद्य की वैश्विक उपलब्धता निर्धारित करने में इसकी क्या भूमिका है?
जलवायु परिवर्तन कई प्रकार से खाद्य उत्पादन को प्रभावित करता है। जलवायु परिवर्तन तापमान में बदलाव वर्षा के रूप में दिखाई पड़ता है, इन सबका पौधों, पशुओं और मछलियों की वृद्धि की प्रक्रिया और इस प्रकार उत्पादन पर प्रभाव पड़ता है। जलवायु परिवर्तन से पानी की उपलब्धता प्रभावित होती है और उससे खाद्य उत्पादन प्रभावित होता है। जलवायु परिवर्तन से होने वाली पानी की कमी के कारण जल संकट वाले उत्तरी अमेरिका, मध्य-पूर्व, पश्चिमी अमेरिका, उत्तरी चीन, भारत के कुछ हिस्से और आस्ट्रेलिया पर अनाज उत्पादन की भारी दिक्कतें पैदा होंगी।
कुछ अध्ययनों में कहा गया है कि जलवायु परिवर्तन से उत्पादन में वृद्धि की जगह पर फसलों के उत्पादन में कमी आएगी। यह कमी विभिन्न फसलों में इस प्रकार होगी— मक्का 20 से 45 प्रतिशत, गेहूँ 5 से 50 प्रतिशत, धान 20 से 30 प्रतिशत, सोयाबीन 30 से 60 प्रतिशत।
इस समय कृषि के लिये सबसे ज्यादा चुनौतीपूर्ण स्थितियां क्या हैं- जनसंख्या का बढ़ता दबाव या स्थानीय जलवायु के परिवर्तन?
खाद्य की भावी उपलब्धता को प्रभावित करने वालों में जलवायु परिवर्तन एक कारक है। दूसरे कारक जनसंख्या की वृद्धि, आर्थिक वृद्धि, बदलती खाद्य उपभोग प्रणाली और प्राकृतिक संसाधनों में क्षरण का परिमाण। खेती पर ज्यादा दबाव कायम करने के लिये आबादी की वृद्धि और जलवायु परिवर्तन एक दूसरे को ताकत प्रदान कर रहे हैं। जैसे-जैसे आबादी बढ़ रही है वैसे-वैसे जलवायु परिवर्तन की चुनौती अपनी तीव्रता बढ़ाने वाली है। पिछले पचास सालों में जलवायु परिवर्तन के प्रभाव हम पहले से ही देख रहे हैं। बढ़ती गर्म हवाएँ, जबरदस्त सूखा और मौसम के चक्र में स्पष्ट बदलाव यह सब खाद्य के उत्पादन और उपलब्धता पर असर डालते हैं।
किसान किस प्रकार फसलों का उत्पादन बढ़ा सकते हैं और कैसे साथ-ही-साथ टिकाऊ खेती भी कर सकते हैं?
पैदावार बढ़ाने के तमाम तरीके हैं और इसमें प्रयोग आने वाला मॉडल सन्दर्भ के लिहाज से बदलता रहता है। बीसवीं सदी में औद्योगिक देशों के किसान तकनीकी नवोन्मेष, बेहतर प्रबन्धन, बाजार तक पहुँच और नीतिगत समर्थन के माध्यम से उत्पादन बढ़ा सकते थे। एशिया में 1960 के दशक के आखिर में और सत्तर के दशक में हरित क्रान्ति के कारण गेहूँ और धान का उत्पादन बढ़ा। आज चुनौती यह है कि हम किस तरह पैदावार बढ़ाएँ और क्षरण होते उन प्राकृतिक संसाधनों को बचाएँ जिन पर भावी उत्पादन क्षमता निर्भर करती है। चुनौती यह है कि किस प्रकार फसलों के टिकाऊ विस्तार के साथ पैदावार में सुधार को जारी रखा जाए।
खेती के टिकाऊपन का मतलब है कि कैसे संसाधनों का दक्षतापूर्वक इस्तेमाल किया जाये और खाद्य उत्पादन प्रणाली को टिकाने वाले प्राकृतिक पारिस्थितिकी तंत्र का संरक्षण, हिफाजत और संवर्धन किया जाए। एफएओ टिकाऊ फसल विस्तार योजना (सेव एंड ग्रो) को प्रोत्साहित कर रहा है। साथ ही वह `जलवायु-अनुकूल-खेती’ की अवधारणा को भी बढ़ा रहा है जिसका उद्देश्य फसलों के विस्तार, जलवायु अनूकूलन और बुरे प्रभावों का शमन करना है।
कृषि सम्बन्धी वस्तुओं की बढ़ती वैश्विक माँग किस प्रकार जमीन के प्रयोग पर दबाव डाल रही है?
ऐसी तमाम शक्तियाँ हैं जो कि जमीन के प्रयोग पर दबाव डालने के लिये एक हो जाती हैं। जनसंख्या की वृद्धि और खाद्य उपभोग का बदलता तरीका खाद्य उद्पादन को बढ़ाने की माँग कर रहा है। इस स्थिति के चलते हाल के कुछ दशकों में फसलों की पैदावार घटी है, उसका एक कारण खेती के शोध में निवेश का धीमा होना है और इन स्थितियों में माँग को पूरा करने के लिये ज्यादा जमीन खेती के तहत लाई जा रही है। जमीन के प्रयोग का तरीका बदलने के कारण कहीं-कहीं वनों का विनाश भी हो रहा है।
उपभोग की पद्धति में बदलाव विशेषकर मीट और डेयरी उद्योग पर बढ़ते जोर से वन भूमि पर जानवरों की चराई का दबाव बढ़ गया है। हाल में बायोफ्यूल (जैव ईंधन) की वृद्धि के कारण प्रतिस्पर्धा बढ़ी है जिसके कारण जिस जमीन का प्रयोग फसलों के उत्पादन के लिये किया जाता था उसका उपयोग बायोफ्यूल के उत्पादन के लिये किया जाता है।
आप ने कहा कि विकासशील देशों के सामने जलवायु परिवर्तन का खतरा ज्यादा है। ऐसा क्यों कहा जा रहा है?
कई चीजों के एक साथ पड़ने वाले प्रभावों ने यह बताया है कि जलवायु परिवर्तन से वैश्विक खाद्य उत्पादन प्रणाली बदल जाएगी। इसका कम अक्षांश वाले उष्णकटिबंधीय इलाकों (जिसमें कि ज्यादातर विकासशील देश स्थित हैं) पर नकारात्मक असर पड़ेगा और ज्यादा अक्षांश वाले क्षेत्रों (जिनमें विकसित देश स्थित हैं) पर सकारात्मक असर पड़ेगा। इस बात के तमाम संकेत हैं कि नोरडिक देशों (उत्तरी यूरोप, रूस के कुछ हिस्सों और कनाडा) की तुलना में उष्णकटिबन्धीय क्षेत्र बुरी तरह से प्रभावित होंगे। नोरडिक देशों के लिये बाद में बहुफसली प्रणाली सम्भव होगी और जिससे उत्पादन बढ़ने की सम्भावना रहेगी। यूरोप के सन्दर्भ में इस बात पर भारी सहमति है कि जलवायु अनुकूलता से खेती बढ़ेगी।
अफ्रीका के लिये पैदावार का जो अनुमान है वह ज्यादातर हिस्सों के लिये नकारात्मक है। वे इलाके इसके अपवाद होंगे जहाँ ज्यादा वर्षा होती है और कुछ ऊँचाई पर स्थित हैं क्योंकि उन्हें बढ़ते तापमान से फायदा पहुँच सकता है। ताजा पानी की कमी के कारण कम अक्षांश वाले बहुत सारे इलाकों पर नकारात्मक असर पड़ेगा। इनमें भारत, चीन और मिस्र के जबरदस्त सिंचित क्षेत्र भी शामिल हैं।एशिया के निचले इलाकों यानी तरहर की जमीनों पर समुद्र का जल स्तर (एसएलआर) बढ़ने से नकारात्मक असर पड़ेगा। यह एशियाई देशों के उन किसानों के लिये चिन्ता का विषय है जो निचली जमीनों और नदियों के डेल्टा में धान पैदा करते हैं और एसएलआर के खतरे में रहते हैं, उदाहरण के लिये वियतनाम का मेकांग डेल्टा और गंगा-ब्रह्मपुत्र डेल्टा।
भारतीय किसान किस प्रकार जलवायु परिवर्तन के नकारात्मक असर का शमन कर सकते हैं और उसी के साथ औसत फसल पैदावार कायम रख सकते हैं?
भारत तमाम फसलों का शीर्ष वैश्विक उत्पादक है और उस पर जलवायु परिवर्तन का जबरदस्त सापेक्ष प्रभाव पड़ने वाला है। भारत का जबरदस्त शमन तंत्र जलवायु परिवर्तन के कारण होने वाली अनियमित वर्षा के प्रभावों का सामना कर लेगा, लेकिन भूगर्भीय जल के भण्डारों का अतिरिक्त दोहन और सतह के पानी के भण्डारों की मानसून की वर्षा पर निर्भरता के कारण खेती के लिये ताजे पानी की उपलब्धता घटेगी और उत्पादकता भी कम होगी।
भारतीय किसान किस प्रकार जलवायु परिवर्तन के असर का शमन कर सकते हैं कि इसका उत्तर एक विशिष्ट स्थानीय सन्दर्भ में बनता है। यह मानते हुए कि स्थानीय कृषि प्रणाली पर जलवायु के एक बहुपक्षीय प्रभाव के आकलन का अध्ययन किया जाये तो सम्भावित समाधान स्थितियों के मुताबिक अलग-अलग होंगे। समाधान खेती के टिकाऊ विस्तार और अनुकूलन व शमन की प्रथाओं पर आधारित होना चाहिए ताकि खाद्य उत्पादन और सुरक्षा को साथ-साथ फायदा पहुँचे।
जलवायु परिवर्तन किस प्रकार वैश्विक खाद्य व्यापार को प्रभावित करेगा? अनाज के दाम बढ़ाने के अलावा इसके और क्या असर पड़ेंगे?
आर्थिक मॉडल यह दर्शाता है कि जलवायु से आने वाले बड़े उत्पादन झटके को व्यापार से झेला जा सकता है और अगर व्यापार निर्बाध रहा तो यह उत्पादन की कमी की भरपाई करेगा और वह जलवायु के कारण विभिन्न इलाकों में उत्पादन की प्रणाली को बदल देगा। इस दौरान व्यापार का प्रवाह मध्य अक्षांश से उच्च अक्षांश की ओर फिर उन कम अक्षांश वाले क्षेत्रों की ओर बढ़ेगा जहाँ उत्पादन और निर्यात की क्षमताएँ घट जाएँगी। जलवायु परिवर्तन के कारण सकल वैश्विक खाद्य आपूर्ति में भारी उथल-पुथल करेगा क्योंकि बार-बार सूखा पड़ेगा और मौसम की स्थितियों में काफी अतिवादी बदलाव होंगे।
व्यापार से जलवायु परिवर्तन पर भी असर पड़ सकता है। व्यापार समेत दूसरी आर्थिक गतिविधियाँ बढ़ने से ग्रीन हाउस और सीएचजी उत्सर्जन बढ़ेगा। कुछ विकासशील देशों में पर्यावरणीय कानून कमजोर होंगे। अनाज की बढ़ती माँग के कारण निर्यात के लिये उत्पादन (मक्का, धान, बायोफ्यूल और चारे की फसलों) का चलन बढ़ेगा। कुछ मामलों में वन उत्पादों के अनियंत्रित निर्यात से वनों की कटाई बढ़ सकती है, जमीन का क्षरण हो सकता है और जैव विविधता को नुकसान हो सकता है।
बीसवीं सदी में औद्योगिक देशों के किसान तकनीकी नवोन्मेष, बेहतर प्रबन्धन, बाजार तक पहुँच और नीतिगत समर्थन के माध्यम से उत्पादन बढ़ा सकते थे। एशिया में 1960 के दशक के आखिर में और सत्तर के दशक में हरित क्रान्ति के कारण गेहूँ और धान का उत्पादन बढ़ा। आज चुनौती यह है कि हम किस तरह पैदावार बढ़ाएँ और क्षरण होते उन प्राकृतिक संसाधनों को बचाएँ जिन पर भावी उत्पादन क्षमता निर्भर करती है। जलवायु परिवर्तन का खाद्य उत्पादन से क्या रिश्ता है और खाद्य की वैश्विक उपलब्धता निर्धारित करने में इसकी क्या भूमिका है?
जलवायु परिवर्तन कई प्रकार से खाद्य उत्पादन को प्रभावित करता है। जलवायु परिवर्तन तापमान में बदलाव वर्षा के रूप में दिखाई पड़ता है, इन सबका पौधों, पशुओं और मछलियों की वृद्धि की प्रक्रिया और इस प्रकार उत्पादन पर प्रभाव पड़ता है। जलवायु परिवर्तन से पानी की उपलब्धता प्रभावित होती है और उससे खाद्य उत्पादन प्रभावित होता है। जलवायु परिवर्तन से होने वाली पानी की कमी के कारण जल संकट वाले उत्तरी अमेरिका, मध्य-पूर्व, पश्चिमी अमेरिका, उत्तरी चीन, भारत के कुछ हिस्से और आस्ट्रेलिया पर अनाज उत्पादन की भारी दिक्कतें पैदा होंगी।
कुछ अध्ययनों में कहा गया है कि जलवायु परिवर्तन से उत्पादन में वृद्धि की जगह पर फसलों के उत्पादन में कमी आएगी। यह कमी विभिन्न फसलों में इस प्रकार होगी— मक्का 20 से 45 प्रतिशत, गेहूँ 5 से 50 प्रतिशत, धान 20 से 30 प्रतिशत, सोयाबीन 30 से 60 प्रतिशत।
इस समय कृषि के लिये सबसे ज्यादा चुनौतीपूर्ण स्थितियां क्या हैं- जनसंख्या का बढ़ता दबाव या स्थानीय जलवायु के परिवर्तन?
खाद्य की भावी उपलब्धता को प्रभावित करने वालों में जलवायु परिवर्तन एक कारक है। दूसरे कारक जनसंख्या की वृद्धि, आर्थिक वृद्धि, बदलती खाद्य उपभोग प्रणाली और प्राकृतिक संसाधनों में क्षरण का परिमाण। खेती पर ज्यादा दबाव कायम करने के लिये आबादी की वृद्धि और जलवायु परिवर्तन एक दूसरे को ताकत प्रदान कर रहे हैं। जैसे-जैसे आबादी बढ़ रही है वैसे-वैसे जलवायु परिवर्तन की चुनौती अपनी तीव्रता बढ़ाने वाली है। पिछले पचास सालों में जलवायु परिवर्तन के प्रभाव हम पहले से ही देख रहे हैं। बढ़ती गर्म हवाएँ, जबरदस्त सूखा और मौसम के चक्र में स्पष्ट बदलाव यह सब खाद्य के उत्पादन और उपलब्धता पर असर डालते हैं।
किसान किस प्रकार फसलों का उत्पादन बढ़ा सकते हैं और कैसे साथ-ही-साथ टिकाऊ खेती भी कर सकते हैं?
पैदावार बढ़ाने के तमाम तरीके हैं और इसमें प्रयोग आने वाला मॉडल सन्दर्भ के लिहाज से बदलता रहता है। बीसवीं सदी में औद्योगिक देशों के किसान तकनीकी नवोन्मेष, बेहतर प्रबन्धन, बाजार तक पहुँच और नीतिगत समर्थन के माध्यम से उत्पादन बढ़ा सकते थे। एशिया में 1960 के दशक के आखिर में और सत्तर के दशक में हरित क्रान्ति के कारण गेहूँ और धान का उत्पादन बढ़ा। आज चुनौती यह है कि हम किस तरह पैदावार बढ़ाएँ और क्षरण होते उन प्राकृतिक संसाधनों को बचाएँ जिन पर भावी उत्पादन क्षमता निर्भर करती है। चुनौती यह है कि किस प्रकार फसलों के टिकाऊ विस्तार के साथ पैदावार में सुधार को जारी रखा जाए।
खेती के टिकाऊपन का मतलब है कि कैसे संसाधनों का दक्षतापूर्वक इस्तेमाल किया जाये और खाद्य उत्पादन प्रणाली को टिकाने वाले प्राकृतिक पारिस्थितिकी तंत्र का संरक्षण, हिफाजत और संवर्धन किया जाए। एफएओ टिकाऊ फसल विस्तार योजना (सेव एंड ग्रो) को प्रोत्साहित कर रहा है। साथ ही वह `जलवायु-अनुकूल-खेती’ की अवधारणा को भी बढ़ा रहा है जिसका उद्देश्य फसलों के विस्तार, जलवायु अनूकूलन और बुरे प्रभावों का शमन करना है।
कृषि सम्बन्धी वस्तुओं की बढ़ती वैश्विक माँग किस प्रकार जमीन के प्रयोग पर दबाव डाल रही है?
ऐसी तमाम शक्तियाँ हैं जो कि जमीन के प्रयोग पर दबाव डालने के लिये एक हो जाती हैं। जनसंख्या की वृद्धि और खाद्य उपभोग का बदलता तरीका खाद्य उद्पादन को बढ़ाने की माँग कर रहा है। इस स्थिति के चलते हाल के कुछ दशकों में फसलों की पैदावार घटी है, उसका एक कारण खेती के शोध में निवेश का धीमा होना है और इन स्थितियों में माँग को पूरा करने के लिये ज्यादा जमीन खेती के तहत लाई जा रही है। जमीन के प्रयोग का तरीका बदलने के कारण कहीं-कहीं वनों का विनाश भी हो रहा है।
उपभोग की पद्धति में बदलाव विशेषकर मीट और डेयरी उद्योग पर बढ़ते जोर से वन भूमि पर जानवरों की चराई का दबाव बढ़ गया है। हाल में बायोफ्यूल (जैव ईंधन) की वृद्धि के कारण प्रतिस्पर्धा बढ़ी है जिसके कारण जिस जमीन का प्रयोग फसलों के उत्पादन के लिये किया जाता था उसका उपयोग बायोफ्यूल के उत्पादन के लिये किया जाता है।
आप ने कहा कि विकासशील देशों के सामने जलवायु परिवर्तन का खतरा ज्यादा है। ऐसा क्यों कहा जा रहा है?
कई चीजों के एक साथ पड़ने वाले प्रभावों ने यह बताया है कि जलवायु परिवर्तन से वैश्विक खाद्य उत्पादन प्रणाली बदल जाएगी। इसका कम अक्षांश वाले उष्णकटिबंधीय इलाकों (जिसमें कि ज्यादातर विकासशील देश स्थित हैं) पर नकारात्मक असर पड़ेगा और ज्यादा अक्षांश वाले क्षेत्रों (जिनमें विकसित देश स्थित हैं) पर सकारात्मक असर पड़ेगा। इस बात के तमाम संकेत हैं कि नोरडिक देशों (उत्तरी यूरोप, रूस के कुछ हिस्सों और कनाडा) की तुलना में उष्णकटिबन्धीय क्षेत्र बुरी तरह से प्रभावित होंगे। नोरडिक देशों के लिये बाद में बहुफसली प्रणाली सम्भव होगी और जिससे उत्पादन बढ़ने की सम्भावना रहेगी। यूरोप के सन्दर्भ में इस बात पर भारी सहमति है कि जलवायु अनुकूलता से खेती बढ़ेगी।
अफ्रीका के लिये पैदावार का जो अनुमान है वह ज्यादातर हिस्सों के लिये नकारात्मक है। वे इलाके इसके अपवाद होंगे जहाँ ज्यादा वर्षा होती है और कुछ ऊँचाई पर स्थित हैं क्योंकि उन्हें बढ़ते तापमान से फायदा पहुँच सकता है। ताजा पानी की कमी के कारण कम अक्षांश वाले बहुत सारे इलाकों पर नकारात्मक असर पड़ेगा। इनमें भारत, चीन और मिस्र के जबरदस्त सिंचित क्षेत्र भी शामिल हैं।एशिया के निचले इलाकों यानी तरहर की जमीनों पर समुद्र का जल स्तर (एसएलआर) बढ़ने से नकारात्मक असर पड़ेगा। यह एशियाई देशों के उन किसानों के लिये चिन्ता का विषय है जो निचली जमीनों और नदियों के डेल्टा में धान पैदा करते हैं और एसएलआर के खतरे में रहते हैं, उदाहरण के लिये वियतनाम का मेकांग डेल्टा और गंगा-ब्रह्मपुत्र डेल्टा।
भारतीय किसान किस प्रकार जलवायु परिवर्तन के नकारात्मक असर का शमन कर सकते हैं और उसी के साथ औसत फसल पैदावार कायम रख सकते हैं?
भारत तमाम फसलों का शीर्ष वैश्विक उत्पादक है और उस पर जलवायु परिवर्तन का जबरदस्त सापेक्ष प्रभाव पड़ने वाला है। भारत का जबरदस्त शमन तंत्र जलवायु परिवर्तन के कारण होने वाली अनियमित वर्षा के प्रभावों का सामना कर लेगा, लेकिन भूगर्भीय जल के भण्डारों का अतिरिक्त दोहन और सतह के पानी के भण्डारों की मानसून की वर्षा पर निर्भरता के कारण खेती के लिये ताजे पानी की उपलब्धता घटेगी और उत्पादकता भी कम होगी।
भारतीय किसान किस प्रकार जलवायु परिवर्तन के असर का शमन कर सकते हैं कि इसका उत्तर एक विशिष्ट स्थानीय सन्दर्भ में बनता है। यह मानते हुए कि स्थानीय कृषि प्रणाली पर जलवायु के एक बहुपक्षीय प्रभाव के आकलन का अध्ययन किया जाये तो सम्भावित समाधान स्थितियों के मुताबिक अलग-अलग होंगे। समाधान खेती के टिकाऊ विस्तार और अनुकूलन व शमन की प्रथाओं पर आधारित होना चाहिए ताकि खाद्य उत्पादन और सुरक्षा को साथ-साथ फायदा पहुँचे।
जलवायु परिवर्तन किस प्रकार वैश्विक खाद्य व्यापार को प्रभावित करेगा? अनाज के दाम बढ़ाने के अलावा इसके और क्या असर पड़ेंगे?
आर्थिक मॉडल यह दर्शाता है कि जलवायु से आने वाले बड़े उत्पादन झटके को व्यापार से झेला जा सकता है और अगर व्यापार निर्बाध रहा तो यह उत्पादन की कमी की भरपाई करेगा और वह जलवायु के कारण विभिन्न इलाकों में उत्पादन की प्रणाली को बदल देगा। इस दौरान व्यापार का प्रवाह मध्य अक्षांश से उच्च अक्षांश की ओर फिर उन कम अक्षांश वाले क्षेत्रों की ओर बढ़ेगा जहाँ उत्पादन और निर्यात की क्षमताएँ घट जाएँगी। जलवायु परिवर्तन के कारण सकल वैश्विक खाद्य आपूर्ति में भारी उथल-पुथल करेगा क्योंकि बार-बार सूखा पड़ेगा और मौसम की स्थितियों में काफी अतिवादी बदलाव होंगे।
व्यापार से जलवायु परिवर्तन पर भी असर पड़ सकता है। व्यापार समेत दूसरी आर्थिक गतिविधियाँ बढ़ने से ग्रीन हाउस और सीएचजी उत्सर्जन बढ़ेगा। कुछ विकासशील देशों में पर्यावरणीय कानून कमजोर होंगे। अनाज की बढ़ती माँग के कारण निर्यात के लिये उत्पादन (मक्का, धान, बायोफ्यूल और चारे की फसलों) का चलन बढ़ेगा। कुछ मामलों में वन उत्पादों के अनियंत्रित निर्यात से वनों की कटाई बढ़ सकती है, जमीन का क्षरण हो सकता है और जैव विविधता को नुकसान हो सकता है।
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