जल, वायु, जमीन पर लगातार प्रदूषण का स्तर बढ़ता जा रहा है। इससे भी गम्भीर बात यह है कि हम सब इसके खतरों के प्रति सजग नहीं हैं। सब कुछ जानते हुए भी हम लापरवाह बने हुए हैं। इस लापरवाही के भीषण परिणाम हमारे सामने है। यदि हम समय पर नहीं सम्भले तो यह कोताही और भी घातक साबित हो सकती है। 23 नवम्बर को सर्वोच्च न्यायालय ने दिल्ली में पटाखे बिक्री पर प्रतिबन्ध लगाकर एक बार फिर लोगों का ध्यान दिल्ली के बढ़ते वायु प्रदूषण स्तर की और खींचने का कार्य किया है।
असल में तो यह कार्य प्रशासन और कार्य पालिका को करना चाहिए था। वोट राजनीति के चलते थोड़े कड़वे किन्तु जरूरी निर्णय लेने से सरकारें कन्नी काटती रहती हैं। ऐसे में न्यायालय को प्रशासनिक भूमिका में आना पड़ता है। पब्लिक ट्रांसपोर्ट व्यवस्था में सीएनजी का प्रयोग सुनिश्चित करते समय भी न्यायालय की सख्ती की वजह से ही यह सम्भव हो सका था। उससे दिल्ली की वायु गुणवत्ता में निश्चय ही सुधार हुआ था। किन्तु अब फिर दिल्ली में वायु गुणवत्ता का स्तर खतरनाक स्तर तक गिर गया है।
30 अक्टूबर से 2 नवम्बर के बीच वायु गुणवत्ता इंडेक्स 201 से 297 के बीच रहा। यह बहुत खतरनाक स्तर है। यह समस्या केवल दिल्ली तक ही सीमित नहीं है, पूरे देश की स्थिति ही खराब होती जा रही है। बढ़ती वाहनों की संख्या, फॉसिल ईंधनों से ऊर्जा उत्पादन, ठोस कचरा खुले में जलाया जाना, फसलों के अवशेष खासकर पराली का जलाया जाना वायु प्रदूषण के मुख्य कारण हैं।
शहरों में आबादी के घने होने के कारण यह प्रभाव ज्यादा प्रकट दिखाई देता है। इसलिये कुछ शोर भी मचने लगता है। अन्यथा सब सोए रहते हैं। सर्दियों में धुन्ध पड़ना एक प्राकृतिक प्रक्रिया है, किन्तु इसके साथ जब विभिन्न प्रकार का जहरीला धुआँ मिल जाता है, तो इसे स्मॉग कहने लगते हैं। ठंड के कारण स्मॉग संघनित होकर जमीन के नजदीक ही इकट्ठा हो जाता है। इसके कारण सारे प्रदूषित तत्व श्वास के साथ अन्दर चले जाते हैं।
दिवाली के दौरान पटाखों का अन्धाधुन्ध प्रयोग वायु को और जहरीला बना देता है। इससे स्वास्थ्य के लिये बड़ा खतरा पैदा होने लगा है। दिल्ली को तो दमा की राजधानी कहा जाने लगा है।
दिल्ली के पास पंजाब और हरियाणा में धान के मौसम के दौरान लगभग 70 से 80 लाख मीट्रिक टन पराली जलाई जाती है। इससे बड़ी मात्रा में मिट्टी के पोषक तत्व नष्ट हो जाते हैं, साथ ही कई तरह की जहरीली गैसें वायु में मिल जाती हैं। पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश के शहरों की वायु गुणवत्ता की हालत भी कोई अच्छी नहीं है।
प्रदूषित हवा केवल शहरों तक ही सीमित नहीं रह सकती। गाँव भी तो इसकी चपेट में आ जाते हैं। अत: आम आदमी के स्वास्थ्य के लिये जो खतरा पैदा हो गया है। उस पर किसान बनाम अन्य, उद्योग बनाम अन्य, परिवहन बनाम अन्य, शहर बनाम गाँव जैसी राजनीति करना ठीक नहीं। वायु प्रदूषण के प्रमुख कारकों को पहचान कर सभी समान रूप से चिन्तित हों और समाधान खोजने में अपना-अपना योगदान दें, तभी इस खतरे से बचा जा सकता है।
पराली जलाने का क्रम कंबाइन हार्वेस्टर आने के बाद का मामला है। यह मशीन धान को आधे बीच से काटती है। नीचे का तना गेहूँ बिजाई के लिये खेत तैयार करने के लिये जलाया जाता है। किसान इसे कम लागत समाधान मानकर चलता है, किन्तु इसके स्वास्थ्य पर दुष्प्रभाव की लागत को यदि गिना जाये, तो यह दीर्घ काल में घाटे का सौदा तो हो ही जाता है, जीवन के लिये खतरा भी बन जाता है। जैसे जहरीले रसायनों के खेती में प्रयोग से कैंसर बेल्ट जैसी समस्याओं का जन्म हुआ उसी तरह यह जहरीला धुआँ दमा और कई अन्य बीमारियों का कारण बनेगा।
स्मॉग में फसल अवशेषों का योगदान 25-30 प्रतिशत तक है। शेष, प्रदूषण कारक तत्वों में मुख्य हिस्सेदारी वाहन जनित धुआँ, थर्मल पावर संयंत्रों का धुआँ, ठोस कचरा खुले में जलाने का धुआँ और पटाखों के धुएँ की है। इन सभी प्रदूषक कारकों के समाधान और विकल्प तो हमें ढूँढने ही होंगे।
पराली को जलाने के बजाय जीरो टिलेज यानी बिना जोताई के 'हैप्पी सीडर’ मशीन से बिजाई की जा सकती है। इस मशीन द्वारा पराली को काटे बिना रोटर से कुचल कर उचित दूरी और गहराई में गेहूँ का बीज डाला जाता है। पराली मल्च का काम करती है, जिसका खाद बन जाता है और फसल में घास भी नहीं उगता है। इससे खाद, पानी और ऊर्जा की बचत होती है। एक अनुमान के अनुसार प्रति हेक्टेयर गेहूँ की खेती में 2000 रुपए से ज्यादा बचत होती है। ऐसे नवाचारों को अनुदान देकर प्रोत्साहित करने की जरूरत है।
पटाखों के मामले में उत्पादन स्तर पर ही नियंत्रण करना प्रभावकारी हो सकता है। एक सीमा से बड़े पटाखे तो बनाने की इजाजत ही नहीं होनी चाहिए। केवल कम धुएँ वाले छोटे-छोटे पटाखे ही बनें तो कुछ राहत मिलेगी। परिवहन वाहन वायु प्रदूषण की बड़ी वजह बनते जा रहे हैं।
सार्वजनिक परिवहन व्यवस्था में सीएनजी का प्रयोग सुनिश्चित करने से दिल्ली में वायु प्रदूषण में काफी सुधार हुआ था, किन्तु निजी वाहनों में तो ऐसी व्यवस्था नहीं है। वाहनों की संख्या पर भी कोई नियंत्रण नहीं है। न केवल दिल्ली बल्कि हर शहर-कस्बा इस समस्या से जूझ रहा है। इस समस्या को बहुआयामी समाधान की तलाश है। इसमें सबसे जरूरी कदम सार्वजनिक परिवहन व्यवस्था को चुस्त-दुरुस्त करना है, ताकि निजी वाहनों की अनावश्यक ललक और मजबूरी पर रोक लग सके।
बसों की संख्या पर्याप्त हो, बसें आरामदेह हों, और चालक-परिचालकों का व्यवहार नम्र और जिम्मेदारी पूर्ण हो तो स्थिति में निश्चित ही सुधार होगा। निजी वाहनों की संख्या में कमी से भयंकर जाम से भी राहत मिल सकेगी। परिवहन के नए विकल्प भी तलाशे जाने चाहिए। जाम से त्रस्त शहरों में प्रभावित रूटों पर केबल-कार अच्छा विकल्प हो सकता है, जिसमें ऊर्जा की बचत होगी, जाम कम होंगे, सस्ता विकल्प उपलब्ध होगा, बनाने में कम समय लगेगा और विस्थापन और अन्य असुविधा भी दूसरे विकल्पों से बहुत कम होगी।
लैटिन अमेरिका के मेडेलिन और रियो जैसे शहरों में इसे पर्यटक आकर्षण से आगे बढ़कर मुख्यधारा परिवहन के रूप में स्थापित करने के सफल प्रयोग हुए हैं। मेडेलिन में तीन केबल-कार लाइनें बनाकर उन्हें मेट्रो-रेल व्यवस्था और द्रुतगामी बस सेवा से जोड़ा गया है। इन लाइनों में 3000 यात्री प्रति घंटा इधर-उधर ले जाने की क्षमता है। यह प्रणाली 2006 से सफलतापूर्वक चल रही है, इसमें दुर्घटना की सम्भावना भी न के बराबर है। रियो में तो रियो- कार्ड जारी करके इस व्यवस्था में दो फेरे प्रतिदिन स्थानीय यात्रियों को नि:शुल्क लगाने की सुविधा है। इससे उन क्षेत्रों में अन्य गाड़ियों की सघनता में कमी आई है।
ताप विद्युत भी वायु प्रदूषण का बड़ा कारक है, जिसमें पत्थर के कोयले का प्रयोग होता है। जापान और दक्षिण कोरिया के पास तुलनात्मक रूप से इसकी स्वच्छ तकनीक है। हमें अपने ताप बिजलीघरों का तकनीकी सुधार करने के साथ-साथ प्रदूषण रहित हरित तकनीकों से बिजली बनाने पर जोर देना चाहिए। सौर ऊर्जा, पवन-ऊर्जा, भूगर्भीय-ताप ऊर्जा अच्छे विकल्प हो सकते हैं।
बिना बाँध या लम्बी सुरंगें बनाए हाइड्रो- काईनेटिक तकनीक से नदियों नहरों, और समुद्र की लहरों से बड़ी मात्रा में बिजली बनाई जा सकती है। शहरों में कुछ मार्गों को साइक्लिंग और साइकिल रिक्शा के लिये आरक्षित करना चाहिए। पशु शक्ति का समुचित प्रयोग और गोबर गैस से ऊर्जा उत्पादन क्षमता का भी पूरा दोहन किया जाना चाहिए।
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