जल वह प्राकृतिक उपहार है, जिसका कोई विकल्प नहीं है। इसीलिए जल को अमृत या जीवन भी कहा गया है। यदि जल स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव डाले या विशाक्तता उत्पन्न करे तो वह जल अमृत नहीं विष है। आज अधिकाँश जलाशयों, नदियों तथा झीलों का जल विषैला हो चुका है, इसके लिए विभिन्न उद्योगों से निकलने वाले ठोस तथा द्रव अपशिष्ट पदार्थ उत्तरदायी हैं।
जल में विभिन्न प्रकार के अपशिष्ट पदार्थाें के मिल जाने से जल के प्राकृतिक संतुलन में गड़बड़ी का आ जाना, असंतुलन उत्पन्न होना, अथवा पारिस्थितिकी-तंत्र का बिगड़ जाना जल प्रदूषण कहलाता है।
जल प्रदूषण के लिए जिम्मेदार पदार्थ जल प्रदूषक कहलाते हैं। ये प्रदूषक प्राकृतिक पारिस्थितिकी तंत्र द्वारा कृषि तथा उद्योग के फलस्वरूप उत्पन्न होते हैं। प्रकृति अपने प्रदूषकों को पुनर्चक्रित करके उन्हें लाभप्रद बना लेती है, किन्तु मनुष्य द्वारा उत्पन्न किए गए प्रदूषकों का पुनर्चक्रण कठिन है, जिससे प्रदूषण में लगातार वृद्धि होती जाती है। ऐसे प्रदूषक अत्यंत घातक बन जाते हैं।
आजकल शहरों के निकटवर्ती भू-भाग पर सब्जियों की खेती बहुतायत में की जा रही है। इन सब्जियों की फसलों की सिंचाई हेतु प्रायः शहरों की नालियों में बहने वाले गन्दे जल (मलजल/सीवेज) का ही प्रयोग किया जाता है। इसके अतिरिक्त खाद के स्रोत के रूप में अवमल (स्लज) का उपयोग भी बहुत लम्बे समय से हो रहा है। प्रयोगों द्वारा अब यह सिद्ध हो चुका है कि इस वाहित मल-जल (सीवेज) एवं अवमल (स्लज) में अनेक विषैली भारी धातुएं पाई जाती हैं। भारी धातुओं के अन्तर्गत वे तत्व आते हैं जिनका घनत्व 5 से अधिक होता है। मुख्य भारी धातुएं हैं- कैडमियम, क्रोमियम, कोबाल्ट, कॉपर, आयरन, मरकरी, मैगनीज, मोलिब्डिनम, निकिल, लेड, टिन तथा जिंक। कुछ भारी धातुएं जैसे- कॉपर, आयरन, मैगनीज, जिंक, मोलिब्डिनम तथा कोबाल्ट की सूक्ष्म मात्रा पौधों के लिए आवश्यक होती है। कुछ भारी धातुएं जैसे क्रोमियम, निकिल तथा टिन की सूक्ष्म मात्रा जानवरों के लिए आवश्यक होती है, किन्तु कैडमियम, मरकरी तथा लेड न तो पौधों के लिए आवश्यक हैं और न ही जानवरों के लिए। अर्थात पर्यावरण में इनकी उपस्थिति वनस्पतियों, जीवों एवं स्वयं मनुष्य के लिए हानिकारक होती है। ये विषैली भारी धातुएं अनुमत सान्द्रण सीमा से अधिक होने पर मृदा के धात्विक प्रदूषण का कारण बनती हैं।
सारणी 1 पेयजल में भारी धातुओं की अधिकतम अनुमय सांद्रता | |
भारी धातु | अधिकतम अनुमय सांद्रता (मिग्रा./ली.) |
मर्करी | 0.001 |
कैडमियम | 0.01 |
सेलिनियम | 0.01 |
आर्सेनिक | 0.05 |
क्रोमियम | 0.05 |
कॉपर | 0.05 |
मैगनीज | 0.05 |
लेड | 0.1 |
आयरन | 0.1 |
जिंक | 5.0 |
स्रोत- विश्व स्वास्थ्य संगठन (1971) |
इन धातुओं का औद्योगिक महत्व होने के नाते रोज नए-नए कारखानों की स्थापना हो रही है। फलतः प्रतिदिन अपशिष्ट के रूप में इन धातुओं का ढेर सा लग जाता है और पर्यावरण में इन धातुओं का प्रचुर अंश विष के रूप में मिलता रहता है। इन अपशिष्टों के हवा, नदी-नाले तथा मिट्टी आदि में पहुँचने से जल तथा मिट्टी के धात्विक प्रदूषण की समस्या उत्पन्न हो जाती है। जल, वायु, मिट्टी ही नहीं अपितु इससे अब खाद्य सामग्री भी प्रदूषित होने लगी है।
जापान में ‘मिनीमाता’ नामक स्थान पर हुई एक दुर्घटना ने सारे विश्व का ध्यान धातु प्रदूषण की ओर आकर्षित किया। इस दुर्घटना में 56 लोगों की मृत्यु हुई थी और काफी लोग विकलांग हो गए थे। माताओं के गर्भ में पल रहे बच्चे भी इस दुर्घटना के दुष्प्रभाव से न बच सके। यह दुर्घटना एक रासायनिक कारखाने की वजह से हुई थी जो अपने अपशिष्ट पदार्थों को मिनीमाता की खाड़ी में फेंक देता था, इन पदार्थों में पारे (मरकरी) के लवण मुख्य थे। इससे खाड़ी का पानी प्रदूषित हो गया था। पारे के लवणों के कारण खाड़ी की मछलियां विषैली हो गई थी। इनकेे खाने से यह विष मनुष्यों के शरीर में भी पहुँच गया था। उस समय खाड़ी के जल में पारे की मात्रा 1.6-3.6 पी.पी.बी. (अंश/बिलियन) थी जबकि सामान्य दिनों में पारे का स्तर केवल 0.1 पी.पी.बी. (अंश/बिलियन) रहता था। वास्तव में अधिकांश उद्योगों (जैसे प्लास्टिक, कागज, रंग, पालिश आदि उद्योग) में पारे के कार्बनिक तथा अकार्बनिक यौगिकों का उपयोग किया जाता है, जिन्हें अंत में बेकार पानी के साथ समुद्र या नदी में प्रवाहित कर दिया जाता है। जब मछलियां इस जल में जाती हैं तो वे अधिक पारा युक्त चारा खाती हैं। जिस मछली में प्रतिकिलो भार पर 1 मि.ग्रा. से अधिक पारा रहता है वह खाने के लायक नहीं रहती।
एक अनुमान के अनुसार यदि प्रतिदिन लगातार कई सप्ताहों तक ऐसी वायु में साँस ली जाए जिसमें प्रतिघन मीटर 0.01 मि.ग्रा. पारा हो तो सिर दर्द, थकान तथा मस्तिष्क शिथिलता का अनुभव होने लगता है। अनुमान है कि मनुष्य प्रतिदिन भोजन से 0.005 मि.ग्रा. पारा ग्रहण करता है। किन्तु यह भी ध्यान रहे कि प्रति सप्ताह 0.3 मि.ग्रा. से अधिक पारा ग्रहण करना हानिकारक है।
विकासशील देशों में प्रतिवर्ष बीजों को उपचारित करने के लिये हजारों टन पारे का प्रयोग होता है जिसके कारण असावधान कृषकों की मृत्यु होती रहती है। कभी-कभी उपचारित बीजों को चिड़ियाँ चुग लेती हैं तो वे भी बड़ी संख्या में मरने लगती हैं। कैडमियम भी एक विषैली भारी धातु है। यह खनन, धातु कर्म, रसायन उद्योग, सुपरफास्फेट उर्वरक तथा कैडमियम युक्त जीवनाशी रसायनों के माध्यम से पर्यावरण में प्रवेश पाता है। चाहे कपड़ा धोने की मशीन हो या कुकर अथवा फ्रिज हो, सभी में कैडमियम प्लेटिंग रहती है। अनुमान है कि मनुष्य के आहार के साथ प्रतिदिन 40 माइक्रोग्राम कैडमियम प्रविष्ट होता है। जापान में ‘इटाइ-इटाइ’ रोग कैडमियम की ही विशाक्तता से होता है। हमारे देश में ही कैडमियम बैटरी बनाने वाले उद्योगों में प्रदूषण के कारण काफी लोगों की मृत्यु हो चुकी है।
मनुष्य में कैडमियम की कुल मात्रा 30 मि.ग्रा. होती है जिसका 1/2 अंश वृक्कों में और 1/6 अंश यकृत में रहता है। प्रदूषण की स्थिति में यकृत में कैडमियम की मात्रा बढ़ती जाती है किन्तु वृक्कों में इसकी मात्रा आयु के अनुसार बढ़ती है। इसकी विशाक्तता से पथरी हो जाती है। इसका विषैला प्रभाव एंजाइम के सल्फहिड्रिन समूह पर पड़ता है। सिगरेट पीने वालों के शरीर में कैडमियम की अधिक मात्रा पाई जाती है। इसकी विशाक्तता से तनाव तथा हृदय रोग बढ़ते हैं।
लेड या सीसा एक संचयी विष है। दैनिक मात्रा थोड़ी होने पर भी लम्बे समय में सीसे का काफी संचय हो जाता है। यह पात्रों, मिट्टी और पानी के पाइपों से पर्यावरण में आता है। अनुमान है कि प्रतिदिन भोजन के द्वारा मनुष्य को 0.2-0.25 मि.ग्रा. सीसा मिलता है। जल के माध्यम से प्रतिलीटर 0.1 मि.ग्रा. सीसा शरीर के भीतर पहुँचता है। मृदु तथा अम्लीय जल में यह मात्रा अधिक हो सकती है।
1977 में आन्ध्रप्रदेश के गुंटूर जिले के मलप्पाडु नामक ग्राम के मवेशी इस बीमारी से ग्रसित हुए थे। मवेशियों को यह बीमारी सीसा मिले रसायनों से प्रदूषित जल पीने के कारण हुई थी। उपरोक्त ग्राम के निकट की नदी में एक रासायनिक कारखाने द्वारा उक्त रसायन छोड़ दिए जाते थे और मवेशी इस नदी का जल पिया करते थे। फलतः कई पशुओं की जानें चली गईं।
शहरों में वाहनों के पेट्रोल से निकला सीसा वायुमण्डल में व्याप्त रहता है। इंजनों की कार्यक्षमता बढ़ाने के लिए पेट्रोल में लेड के रसायन (यथा टेट्रा इथाइल लेड) मिला दिए जाते हैं। यह सीसा श्वाँस द्वारा शरीर में प्रविष्ट होता रहता है। सीसे की विशाक्तता से उल्टी, अरक्तता, गठिया आदि रोग हो जाते हैं। प्राचीन रोम के वासी सीसा से कलई किए गए बर्तनों का अधिक उपयोग करते थे इसके कारण उनके शरीर में सीसा की इतनी अधिक विशाक्तता हो गई थी कि कम आयु में ही उनकी मृत्यु हो जाती थी।
सारणी 2 भारी धातुओं का मनुष्यों पर प्रभाव | |
भारी धातु | मनुष्यों पर शारीरिक प्रभाव |
कैडमियम | मिचली, दस्त, ह्रदय रोग |
लेड | गंभीर संचयी तय़ा उग्र शरीर विष |
मर्करी | मस्तिष्क तथा केंद्रीय तंत्रिका तंत्र को क्षति |
आर्सेनिक | 100 मिग्रा. से उग्र शारीरिक प्रभाव |
क्रोमियम | साँस के साथ जाने पर कैंसर की संभावना |
सेलिनियम | बाल झड़ जाना तथा त्वचा में परिवर्तन |
स्रोत-मिश्र, शिव गोपाल (2009) जल प्रदूषण, ज्ञान गंगा, 205 सी, चावड़ी बाजार, दिल्ली |
ऐलुमिनियम का सर्वाधिक प्रयोग नित्य प्रति व्यवहार में आने वाले बर्तनों के बनाने में होता है। यदि पीने के पानी में फ्लोराइड मिला हो तो ऐसे बर्तनों में से पर्याप्त ऐलुमिनियम शरीर के भीतर प्रविष्ट हो सकता है। इसकी अधिकता से मस्तिष्क कोशिकाओं को क्षति पहुँचती है।
क्रोमियम, निकेल धातुओं से सम्बंधित कारखानों में काम करने वाले मनुष्यों में चर्म तथा श्वांस नली के कैंसर होते देखे गए हैं। आर्सेनिक एक संचयी तथा जीव द्रवीय (प्रोटोफ्लाज्मिक) विष है जो एंजाइमों के सल्फहिड्रिल समूहों को अवरूद्ध करता है। आर्सेनिक का शोषण चमड़ी तथा फेफड़ों से होता है। यह कैंसर जनक माना जाता है। यह जीवनाशी रसायनों के प्रयोग से पर्यावरण में आता है। कृषीय एवं औद्योगिक दोनों ही प्रकार के क्रिया-कलापों से मृदा एवं जल में भारी धातुओं की वृद्धि हो रही है। मृदा में अधिक मात्रा में संचित होने पर ये पौधों द्वारा उद्ग्रहीत कर ली जाती है जिससे इनके उपयोग से मानव एवं पशु स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। इसके परिणामस्वरूप पौधों के खाद्य भागों, विशेष रूप से पत्तियों तथा जड़ों, में भारी धातुओं के संचय की प्रवृत्ति की पुष्टि हो चुकी है।
वैज्ञानिकों के अनुसार मृदा से पौधों द्वारा भारी धातुओं का उद्ग्रहण मृदा पी.एच., भारी धातुओं की घुलनशीलता, पौधों की वृद्धि अवस्था एवं प्रजाति इत्यादि कारकों पर निर्भर करता है।
लेड युक्त ईधनों, लेड आर्सेनेट द्वारा उपचारित बागों, पुराने लेड पाइपों तथा लेड आधारित उद्योगों के द्वारा मृदा एवं जल में लेड का प्रदूषण होता है। चूँकि लेड का जैव-विच्छेदन नहीं होता है अतः एक बार मृदा जब लेड से प्रदूषित हो जाती है तो दीर्घकाल तक मृदा के जैव-मंडल पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।
सारणी 3 विभिन्न धातुओं के लिये सूचक पौधे | |
सूचक पौधा | धातु |
थ्लेस्पी एल्पेस्टर | जिंक |
मिनुएर्टिया वर्ना | लेड |
पियर्सनाई मेटेलीफेरा | क्रोमियम |
मिनुएर्टिया वर्ना | कैडमियम |
ट्रेकीपोगॉन स्पाइकेटस | कॉपर |
स्रोत-मिश्र, शिव गोपाल (2009) जल प्रदूषण, ज्ञान गंगा, 205 सी, चावड़ी बाजार, दिल्ली |
कैडमियम पौधों के द्वारा अवशोषित होकर भोज्य पदार्थों में पहुँचता है और इसकी सूक्ष्म मात्रा भी मनुष्यों तथा जानवरों के लिए हानिप्रद है।
वैज्ञानिकों के अनुसार कैडमियम पौधों द्वारा अवशोषित किए जाने वाले अन्य पोषक तत्वों के अवशोषण को भी कम करता है। फलस्वरूप कैडमियम की उपस्थिति से पौधों की वृद्धि तथा उपज में हृास होता है।
कैडमियम के साथ अन्य प्रदूषक भी पौधों द्वारा अवशोषित होते हैं, जो सम्भवतः फसल की वृद्धि, उपज एवं गुणवत्ता को प्रभावित करते हैं।
कैडमियम प्रदूषित मृदा में फाॅस्फोरस का अधिक प्रयोग लाभकारी पाया गया है। फॉस्फेट, कैडमियम को अमलीकृत करके मृदा विलयन में कैडमियम की मात्रा को कम करता है जिससे पौधों द्वारा इसके उद्ग्रहण में कमी आती है।
कार्बनिक पदार्थ की उपस्थिति में फॉस्फोरस युक्त कार्बनिक पदार्थ एवं उर्वरकों की विलेयता बढ़ती है। कार्बनिक पदार्थ एवं फॉस्फोरस युक्त उर्वरक की उपस्थिति में विषैली भारी धातुओं का उद्ग्रहण पौधों में कम होता है क्योंकि कार्बनिक पदार्थ भारी धातुओं के साथ जटिल यौगिक बनाते हैं।
स्पष्ट है कि ये भारी धातुएं कितनी अधिक विषैली हैं। शहरी गंदे जल (सीवेज-स्लज) से सींची गई मिट्टियों में उपजने वाली फसलों में कैडमियम की उच्च मात्राएं पायी जा सकती हैं। अतएव पौधे तथा फसलें कम से कम कैडमियम ग्रहण करें, इस दिशा में शोध की आवश्यकता बनी हुई है।
यहाँ प्रस्तुत भारी धातुओं के अतिरिक्त अन्य और भी भारी धातुएं हैं जो पर्यावरण प्रदूषण के दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण हैं। सामान्यतः भारी धातुएं वे हैं जिनका घनत्व 5 से अधिक हो किन्तु आजकल इस मूल संकल्पना में परिवर्तन हो चुका है। अब भारी धातुएं उन्हें माना जाता है जिनमें इलेक्ट्राॅन स्थानान्तरण का गुणधर्म पाया जाता है ।
धातु प्रदूषण का पता लगाना मॉनिटरिंग द्वारा संभव है, किन्तु मॉनिटरिंग के लिए बहुत सारे नमूनों का परीक्षण आवश्यक होता है, जो बहुत खर्चीला तथा समय लेने वाला है। यही कारण है कि जब कोई शिकायत आती है तभी परीक्षण किया जाता है, किन्तु पूर्व सूचना जल्दी से जल्दी तैयार की जानी चाहिए।
कुछ पौधे भारी धातुओं के प्रति संवेदनशील होते हैं, जिन्हें सूचकों की तरह प्रयुक्त किया जा सकता है। ये साधन सस्ते हैं तथा स्थानीय रूप से विशेष लाभप्रद हैं।
यह देखा गया है कि शैवालों तथा प्लवकों (प्लैंक्टन) में इन धातुओं का बहुत अधिक संचय होता है अतः इन धातुओं के अस्थाई छुटकारे के लिए शैवालों तथा प्लवकों की खेती पर बल देने की आवश्यकता है। शोधों से पता चला हे कि चीड़ का पेड़ मिट्टी से बेरीलियम अवशोषित कर उसे धातु प्रदूषण से मुक्त कर देने की सामर्थ्य रखता है। हैयुमैनिएस्ट्रम नामक वनस्पति जमीन से तांबे एवं कोबाल्ट का अवशोषण करती है। क्रूसीफेरी परिवार की एक वनस्पति थ्लास्पी रोटण्डीफोलिया जस्ते और सीसे को वातावरण से अवशोषित करती है। इनमें इनकी मात्राएं 1-2 प्रतिशत तक हो सकती हैं। इसी प्रकार सेम, मटर आदि के पौधे जमीन से माॅलिब्डिनम धातु को अवशोषित कर लेते हैं।
वाहित मल जल को कृत्रिम जलाशयों में रोक कर उसमें शैवालों और जलकुम्भी जैसे जलीय पौधों को उगाया जाए तो इस वाहित मल जल का कुछ हद तक शुद्धिकरण हो सकता है। कारखानों द्वारा निकलने वाले वाहित मल जल में कैडमियम, पारा, निकिल जैसी भारी धातुओं को जलकुम्भी अवशोषित कर लेती है। एक हेक्टेअर क्षेत्रफल में उगाई गई जलकुम्भी 240,000 लीटर दूषित जल से 24 घण्टे में लगभग 300 ग्राम निकिल तथा कैडमियम अवशोषित कर लेती है। जलकुम्भी द्वारा परिशोधित जल का पी.एच. मान 6.8 से 9.8 तक हो जाता है। इसी प्रकार यदि मल युक्त ठोस पदार्थ (स्लज) को चूर्ण शैल फॉस्फेट के साथ प्रयोग किया जाए तो भूमि तथा पौधों में इन विषैली धातुओं को एकत्रित होने से रोका जा सकता है।
सम्पर्क डाॅ. दिनेश मणि, एसोसिएट प्रोफेसर, रसायन विज्ञान विभाग, 35/3, जवाहर लाल नेहरू रोड, जार्ज टाउन, पो.जिला इलाहाबाद, उ.प्र.-211002
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