आम चुनाव की इस बेला में राजनीतिक जमातों को पर्यावरण की कितनी सूध रहती है? क्या कभी राजनीतिक पार्टियां बताती हैं कि जिस जलवायु परिवर्तन के चलते देश के पहाड़ों से मैदानों तक हर साल बाढ़, सूखा, अचानक भारी बारिश से होने वाले भूस्खलन, तेजी से मिलते ग्लेशियर से हमारा भविष्य दांव पर लगा है। उसे बचने के लिए ये क्या करेंगी? जमीन पर भले न करें, कम-से-कम चुनावी वादा ही कर दें। लेकिन बेहद अफसोस और चिंता की बात है कि ऐसे गंभीर विषय देश के नीति-नियंताओं को प्राथमिकता सूची से बाहर है।
यही वजह है कि मार्च के अंतिम हफ्ते में जब हिमालयी राज्यों से जुड़े तमाम सामाजिक, पर्यावरणीय कार्यकर्ताओं और जन-संगठनों, स्वैच्छिक समूहों ने सभी पर्टियों के लोकसभा प्रत्याशियों के लिए एक डिमांड-चार्टर पेश किया तो मुख्यधारा के मीडिया के लिए यह कोई खबर ही नहीं थी, जबकि यह बेहद संवेदनशील, अहम और हम सबके भविष्य से जुड़ा मसला है।
दरअसल, पीपुल फॉर हिमालय कैम्पेन' एक गैर दलीय राजनीतिक पहल है। इसकी शुरुआत हिमाचल में फरवरी के अंत में हुई एक बैठक से हुई थी। इसमें लगभग सभी हिमालयी राज्यों से जुड़े करीब 67 संगठन, कार्यकर्ता, वैज्ञानिक आदि शामिल हैं। गवर्नेस और नीति निर्माण में दखल देने के लिए राजनीतिक ताकत बनाने और बढ़ाने की जरूरत को देखते हुए यह अहम पहल है।
इसकी पहली बैठक में पांच बिंदुओं का दृष्टि-पत्र जारी किया गया था, इसी के आधार पर पांच ही बिंदुओं का डिमांड चार्टर बना है। इसका मुख्य लक्ष्य आपदा मुक्त हिमालय को मुहीम है। आज पूरा हिमालयी क्षेत्र भयंकर संकट के दौर से गुजर रहा है। आपदाएं हैं जो अलग-अलग तरीके से सामने आ रही है। इसमें जलवायु परिवर्तन की वजह से ग्लेशियर का पिघलना , उससे जुड़ी नदियों में पानी का कम होना, भू-जल का सूखना, भूस्खलन, बाढ़ और इसकी वजह से पहाड़ी लोगों के जीवन, रोजगार पर पड़ रहे विनाशकारी प्रभाव आदि शामिल है।
हिमालय की बात ज्यादातर तभी आती है जब इसे या तो पर्यटन की नजर से देखा जाता है या फिर इस नजरिए से कि ये सीमावर्ती राज्य है, जहां निर्माण कार्यों की जरूरत है। दुखद यह है कि जब कोई बड़ी आपदा आती है, मुख्यधारा मीडिया की नजर उसी समय हिमालयी राज्यों पर पड़ती है, लेकिन हिमालय में क्या कुछ घट रहा है, हिमालय के लोग किन चुनौतियों का, किन हालात में सामना कर रहे हैं। ऐसे कौन से कारण हैं, जिनकी वजह से आपदा का प्रभाव कई गुना बढ़ जाता है। ऐसे तमाम मुद्दों पर मीडिया और नेता सभी मौन रहते हैं। नीतियां ऊपर से बनती हैं, असर जमीन के लोगों पर होता है। ऐसे में इस डिमांड चार्टर को लोकसभा चुनाव के दौरान हर पार्टी और हर प्रत्याशी तक पहुंचाने की लोकसभा चुनाव 2024 में कोशिश हो रही है, ताकि नीतिगत बदलाव के लिए जमीन तैयार हो सके। लोगों के मुद्दे, उनकी जरूरतें नीति बनाते समय ध्यान में रखी जा सकें, नीति निर्माताओं पर यह दबाव बने कि वे पहाड़ों के संरक्षण को देखते हुए विकास की नीति बनाएं।
इस डिमांड चार्टर को जारी करने की प्रेस कांफ्रेंस को देश के कई अहम सामाजिक, पर्यावरणीय कार्यकर्ताओं ने संबोधित किया। इस दौरान उन्होंने जो कुछ कहा वह जानना भी महत्वपूर्ण है। हिमालय में जलवायु परिवर्तन और लोगों के अधिकार का माहौल हाल में लद्दाख में सामाजिक कार्यकर्ता सोनम वांगचुक के 21 दिन लंबे उपवास और संघर्ष के चलते कुछ हद तक मीडिया में भी उठा है। उनका अनशन खत्म हो चुका है, लेकिन बड़ी संख्या में महिलाए अब भी अनशन पर बैठी हैं।
सोनम कहते हैं कि पूरे हिमालय में जलाशय हैं। इन्हें केवल लोहा, तांबा या लीथियम के खजाने की तरह न देखकर, उत्तर-भारत के अहम जलस्रोत की तरह देखा जाना चाहिए। लद्दाख में संविधान की छठीं अनुसूची के तहत स्थानीय लोगों की भागीदारी की बात करते हुए सोनम कहते हैं कि यह जिम्मेदारी केवल हिमालय के लोगों को नहीं है, इसमें पूरे भारत के लोगों का साथ जरूरी है। हम दांडी मार्च की तरह 7 अप्रैल को 'पश्मीना मार्च' कर रहे हैं। उन्होंने अपील की कि देश के लोग विकास के नाम पर हुए विनाश को दर्शाने के लिए 7 अप्रैल को मार्च निकालें।
कश्मीर के पर्यावऱण कार्यकर्ता और लेखक रजा मुजफ्फर भट्ट कहते हैं कि ग्लेशियर पर्यावरणीय भूगर्भीय धरोहर और खजाने हैं, जिन पर 'एनजीटी में आठ केस लंबे समय में पेंडिंग हैं। 'क्लाइमेट फ्रंट’ जम्मू के 'यूथ फॉर हिमालय से जुड़े अनमोल कहते हैं कि हमारे ऊपर जबरन विकास थोपा जा रहा है। जब हम हिमायल की बाढ़ या जोशीमठ में दरकते Iरों को देखते हैं तो इस विकास का भविष्य सामने नजर आता है। हमारे यहां डोडा में भी कई घर रातोंरात कह गए, लेकिन इस पर बनी रिपोर्ट गोपनीय रखी गई।
हिमाचल के गुमान सिंह ‘हिमालय नीति अभियान’ के समन्वयक हैं। वे कहते है, केंद्रीकृत विकास पहाड़ के विनाश का मुख्म कारण है। राजनीतिक दल अपने घोषणा-पत्र में पर्यावरणीय मुद्दों को भी स्थान दें, यह जरूरी है। हम पहाड़ के लोग यह सवाल भी पूछेंगे कि पहाड़ों में सुरंग बनाकर लोगों की जिंदगी खतरे में डालने वाली कंपनियों को ‘इलेक्टोरल बॉन्ड' खरीदने पर राहत कैसे दे दे जाती है?
सामाजिक कार्यकर्ता बिमला देवी कहती हैं कि मसला केवल जल, जंगल जमीन तक सीमित नहीं है, इसमें जाति का मुद्दा भी अहम है। जल, जंगल, ज़मीन के मसलों का असर जिन पिछड़ी जातियों पर होता है, उनकी बात कोई नहीं करता। प्राकृतिक आपदाएं झेलने में पिछड़ी जातियां सामान्य या ऊंची जातियों से पीछे नहीं होती, पर जब मुआवजा या मदद मिलने की बात आती है तो ये पीछे रह जाती हैं।
"जोशीमठ बचाओ संघर्ष समिति के अतुल सती ने 2013 और 2021-22 में पहाड़ों पर हाइडल प्रोजेक्ट्स की वजह से आई आपदाओं का जिक्र करते हुए बताया कि विस्थापन-पुनर्वास की यहां कोई नीति ही नहीं है। मौसम, कृषि आदि से होने वाले विस्थापन को भी इसमें शामिल करना जरूरी है। हिमालय में कृषि क्षेत्र घट रह है, इससे भी पलायन बढ़ रहा है। चार-धाम सड़क योजना, कर्णप्रयाग तक आ रही रेल परियोजनाओं में बन रहे सुरंगों से पर्यावरण के खतरे बढ़ते जा रहे हैं। आपदा मुक्त हिमालय बनाने के लिए पहाड़ों के विकास की नीतियों की समीक्षा जरूरी है। हमें इन चुनाओं में ऐसे जनप्रतिनिधि चुनने चाहिए, जो पर्यावरण के सवालों को अपने चुनावी एजेंडे में शामिल करें। पहाड़ों के संरक्षण की बात करें। उन्होंने कहा कि अगर आधिकारिक तौर पर पार्टियों ने अपने चुनाव घोषणा पत्र में इस चार्टर की मांगों को नहीं रखा तो उनका बहिष्कार भी किया जाएगा।
अरुणाचल के इबो मेली कहते हैं कि सरकार वहां पॉम-आयल-ट्री-प्लांटेशन पर भारी निवेश कर रही है। नदियों पर बांध बनाने, हाइडल प्रोजेक्ट के लिए 100 से ज्यादा 'एमओयू पर दस्तखत किए जा चुके हैं। 'एनएचपीसी' 'सीएसआर फांड के नाम पर 94 करोड़ रुपए खर्च कर रहे है, ताकि ऐसे लोगों को खरीदा जा सके तो इन प्रोजेक्ट के नदियों, पहाड़ों और स्थानीय लोगों पर पड़ने वाले नकारात्मक असर को सामने लाने की कोशिश कर रहे हैं।
सिक्किम को जोम्बू बेली को मायामिथ तीस्ता नदी पर बन रहे बांध से प्रभावित हो रहे लोगों से जुड़ी हैं। उन्होंने बताया कि सिक्किम में 30 बांध, 58 फार्मास्यूटिकल कंपनी काम कर रही हैं। सिलीगुड़ी के सेबोक से सिक्किम में रंगपों तक रेलवे पहुंचाने के लिए 14 सुरंगे बनाई जा रही है, ताकि देश की सीमा तक रेलवे की पहुंच है। इन सुरंगों से पहाड़ों पर संकट आ सकता है।
पिछले साल 4 अक्टूबर को यहां बड़ी आपदा आई थी जब स्लेशियर के बहने से 14 हजार करोड़ लागत के हाइवल प्रोजेक्ट को भारी नुकसान हुआ था। 'एनएचपीसी के मुताबिक करीब 233 करोड़ का नुकसान हुआ था। आज भी सरकार के पास इस बात का कोई डेटा नहीं है कि 4 अक्टूबर के हादसे में कितने लोग बहे, कितने मरे, कितना नुकसान हुआ। मामामिथ कहती हैं, कि हमारा पैसा जमीन, पर्यावरण सब खत्म हो रहा है। इस पर बोलने पर हमारे साथ ऐसा व्यवहार किया जाता है जैसे हम आतंकवादी हैं।
असम के मोहन चंद्र सैकिया कहते हैं पहाड़ों पर बड़े बांध बनाए जा रहे हैं, इससे हमारे लिए खतरे बढ़ते जा रहे हैं। इन बांधों से अचानक पानी छोड़ने से बाढ़ आती है, नीचे रहने वाले लोगों को बहुत नुकसान होता है। जमीन के क्षरण से लोगों को पलायन के लिए भी मजबूर होना पड़ता है। यही नहीं, असम में बड़े पैमाने पर रिजर्व फारेस्ट खत्म किए जा रहे हैं। जंगलों में खनन की
मंजूरी मिल रही है, इससे घने असल खत्म हो रहे हैं।
नार्थ ईस्ट डायलॉग फोरम' की ओर से सैकिया कहते है कि हम अपने मूल निवासियों, उनके जल, जीवन, जंगल को बचाने के लिए एकजुट हैं, हमें उम्मीद है कि हम इसमें कामयाब होंगे। (सप्रेस)
लेखक अमन नम्र वरिष्ठ पत्रकार हैं।
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