बूंदें रचतीं जलकथा

पूरब दिसि से उठी बदरिया
रिमझिम बरसत पानी


मॉनसून ऊंचे आकाश पर बसे बादल, हवा के पंखों पर सवार बादल, अपने अंक में चपल बिजली को समेटे बादल, देखने में श्याम बादल, गर्जन में घोर बादल द्रवित हुए जा रहे थे.. कालिदास ने बादलों की स्तुति उन्हें उच्च कुलोत्पन्न कह कर की है। ये उच्च कुलोत्पन्न बादल आज जलबूंदों का रूप लेकर मिटते जा रहे हैं।

ये पागल बादल अपनी बूंदों के माध्यम से सच ही कोई जलकथा लिखने तो नहीं बैठ गए। बूंदों को प्रबल जलधार का रूप लेते देख रहा हूं। बरसती बूंदों की टपटप जैसे सधी हुई अंगुलियां की-बोर्ड पर नाच रही हों। सड़क पर उफनता जलप्रवाह जैसे कोई कथा छपकर निकल रही हो। अक्षर जैसे महाकाव्य बन रहे हों, नाद जैसे संगीत में ढल रहा हो, पाद संचलन जैसे नृत्य में अभिव्यक्त होने लगा हो। बूंदें कुछ उसी प्रकार जलधार का रूप लेने लगी हैं।

बादल वर्षा ऋतु के स्थानीय; आकाशीय अधिष्ठाता हैं और जलधार उनकी पार्थिव परिणति बूंदें उनके बीच की कड़ी हैं। बूंदें पृथ्वी से मिलाने का उपक्रम है। आकाश का वैभव धरती को मिले, बूंदें इसी में अपने अस्तित्व की सार्थकता समझतीं हैं। वाष्प की अमूर्त अवस्था से जल का बूंदों में मूर्त हो उठना विज्ञान की नजर में भले ही भौतिक घटना मात्र हो, पृथ्वी पर जीवन के साधारण के लिए यह एक शर्त है।

धरती पर जीवन की रक्षा हो, उसमें वृद्धि हो इसके लिए बूंदें मेघमाला रूपी आकाशीय गौओं की दुग्ध धाराओं के रूप में फूटतीं हैं जिसे धरती रूपी ग्वालिन अपने आधानों में भर लेने को सदा आतुर रही है। इसी दुग्धधार से धरती की प्यास बुझती है और वह वनस्पतियों, औषधियों तथा शस्यों का कारण बन पाती है।

बूंदों के इसी उपक्रम को कवि ने जलकथा की रचना कहा है। हमारे ऋषियों ने बूंदों से जलकथा रचने का आवाहन करते हुए अपनी आकांक्षा इन शब्दों में व्यक्त की है- पर्जन्य समय पर बरसे, पृथ्वी शस्य से सजे, देश यह क्षोभरहित रहे तथा ज्ञानीगण निर्भय रहें।

बूंदें अनादि काल से जलकथाओं की रचना करती आईं हैं। कहते हैं आरंभ में धरती जल के आवरण में लिपटी हुई थी सुकरात के पूर्व यूनान में हुए प्रख्यात दार्शनिक थेलेस ने जल को ही सृष्टि का मूल बताया। भारतीय परंपरा में सृष्टि के मूल जल की सत्ता स्वीकार की गई है।

जल में निवास करने के कारण ही श्री विष्णु नारायण कहलाए, हर सभ्यता में जलप्लावन की कल्पना किसी न किसी रूप में मिलती है। लोक साहित्य में यह कल्पना कथा-कहानियों तथा गीतों में प्रतीकों के रूप में आती है तथा लोक गीतों में आलंबन बनती है।

वर्षा के आगमन पर प्रसन्नता प्रकट करना, गीत गाना तथा विभिन्न प्रकार के अनुष्ठान करना बूंदों की इसी शाश्वत जलकथा से प्रेरित उपकर्म हैं। बूदें संस्कृति के निर्माण में गुलाब का ही नहीं गेहूं का भी अर्घ चढ़ातीं हैं। वे जलधार बनकर कृषि का ही पोषण नहीं करतीं हैं धरा को सस्य-श्यामला भी बनातीं हैं।

कृषि की सफलता से जहां मनुष्य की उदर पूर्ती होती हैं वहीं धरती की सस्य-श्यामलता से तृणभोजी पशुओं को चारा मिलता है। नदियों का प्रवाह तथा पोखरों-झीलों का सर्वस्व तो ये ही बूंदें हैं।

भीगने तथा भिगाने का कोई वर्णन वर्षा के उल्लेख के बिना कहीं पूरा होता है। स्नेह की वर्षा, रोमांस की फुहार तथा कृपा की धार बूंद रचित जलकथा के ही कुछ उपवास हैं। वैसे हमारे साहित्य में, खासकर क्लासिकी तथा लोक साहित्य तथा चित्रकला में वर्षा के रोमानी प्रभावों को बारीकी से उकेरा गया है। पर वास्तविकता सदैव ऐसी नहीं रही है।

इस कथा में सबकुछ लुभावना ही नहीं है यहां बहुत कुछ रोमांचक तथा भयावह भी है। इसमें है धारासार वृष्टि के तले रौंदे जाते अकिंचनों के संसार की करुण गाथा तथा बाढ़ के शिकार लोगों की बेबसी, उदासी, भुखमरी तथा जान-माल की हानि का आंखों देखा वृत्तांत भी। इस बात पर ध्यान दिए जाने की आवश्यकता है कि क्लासिकी साहित्य में जहां आमतौर पर वर्षा के मनोरम प्रभावों के चित्रण में रुचि ली गई है, हमारे लोक साहित्य का स्वर कहीं ज्यादा संतुलित है।

खासकर लोक गीतों में बूंदों की जलकथा के शुक्ल तथा कृष्ण, दोनों ही पक्ष मुखर हुए है- आश्लेषा नक्षत्र में हमारा घर चूने लगता है .. जलकथा वस्तुत: मानवीय जीजीविषा का इतिवृत्त है। पानी न हो तो उसे लाने के लिए संघर्ष, पानी हो तो उसे पाने के लिए संघर्ष तथा पानी का अतिशय हो जाए तो उससे बचने के लिए संघर्ष। संघर्ष ही संघर्ष।

आज का आदमी इसी संघर्ष का परिणाम तो है यही पानी कभी उसके शरीर से पसीना बनकर बहता है और कभी आंसू बनकर टपकता है। पसीने ने लिखी है वह बुलंद कहानी जिस पर किसी भी इतिहास को गर्व हो सकता है तथा आंसुओं में प्रतिबिंबित हुई है वह मनोदशा जो शब्दों में ढलकर कालजयी साहित्य बन सकी है। बूंदों द्वारा रचित जलकथा की इस चर्चा में पसीने तथा आंसू की अनदेखी नहीं की जा सकती।

बूंदें अनादि काल से जलकथाओं की रचना करती आईं हैं। कहते हैं आरंभ में धरती जल के आवरण में लिपटी हुई थी सुकरात के पूर्व यूनान में हुए प्रख्यात दार्शनिक थेलेस ने जल को ही सृष्टि का मूल बताया। भारतीय परंपरा में सृष्टि के मूल जल की सत्ता स्वीकार की गई है। जल में निवास करने के कारण ही श्री विष्णु नारायण कहलाए, हर सभ्यता में जलप्लावन की कल्पना किसी न किसी रूप में मिलती है। लोक साहित्य में यह कल्पना कथा-कहानियों तथा गीतों में प्रतीकों के रूप में आती है तथा लोक गीतों में आलंबन बनती है। बूंद-रचित जलकथा के विमर्ष में एक ही साथ दो कवि स्मृति पटल पर उभर रहे हैं- कालिदास तथा कबीर नामों के अक्षर के अतिरिक्त इन कविरत्नों में अन्य किसी प्रकार की समता खोजने की चेष्टा को सहृदय शायद ही सराहें, पर बूंदों के नृत्यमान अस्तित्व पर इन कवियों के विचारों में मुझे बहुत समता दिखती है।

इन दोनों ही कवियों ने वर्षा को कृषिकर्म के साथ जोड़कर देखा है। इन दोनों की रचना में वर्षा एक मंगलकारी प्राकृतिक घटना के रूप में वर्णित हुई है। कालिदास ने वर्षा का प्रियतर स्वरूप ललित पदावली में निखारा है। कबीर ने अनेक प्रतीकों की रचना में वर्षा की बूंदों से सहायता ली है। मानवीय संवेदनाओं के चित्रण में कालिदास को अभूतपूर्व सफलता मिली है। प्रेम उनका बीज शब्द है।

उच्छृंखल प्रेम को उन्होंने तपस्या की आंच में तपाया और कुंदन बनाकर प्रस्तुत किया है। अरण्य उनके साहित्य में विस्तार से व्याप्त है। अरण्य सिर्फ परिस्थिति का पोषण ही नहीं करते वरन् ये अपने शरण्यों को सहअस्तित्व की भी शिक्षा देते हैं, उनको समावेशी आश्रय प्रदान करते हैं तथा तपोमय जीवन का परिवेश रचते हैं। अरण्य का अस्तित्व ही वर्षा पर टिका हुआ है।

कालिदास ने मेघदूतम् में कहा है- खेती के फल तुम्हारे द्वारा ही प्राप्त होते हैं कबीर की रचना में वर्षा तथा बादल के चित्र मिलते हैं। कबीर ने अपना आध्यात्मिक संदेश देने के लिए घटा तथा बादल के बिंबों से यथोचित सहायता ली है।

बरसात का आना, घटाओं का घिरना, तथा बूंदों का बरस पड़ना कबीर की रचना में खूबसूरती के साथ व्यक्त हुआ है एक पद में कबीर ने बादल के घिरने तथा बरसने का सरस वर्णन करते हुए सांसारिकों को अप्रमत्त जीवन के प्रति प्रबोधित किया है-

गगन घटा घहरानी साधो, गगन घटा घहरानी
पूरब दिसि उठी बदरिया, रिमझिम बरसत पानी


बादल के बिंब के सहारे एक अन्य स्थान पर कबीर कहते हैं - छिनहर घर अस झिरहर टाटी, घन गरजत कंपे मोरी छाती... बादलों के घिर आने पर कच्ची मिट्टी के आशियाने में जिसकी फूस भी सलामत नहीं है, बैठी किसी ग्रामीण स्त्री की घबराहट इन पंक्तियों में व्यक्त हो रही है।

एक दूसरी दृष्टि से देखों तो उदास स्त्री जीवात्मा है, टूटी झोंपड़ी जीर्ण-शीर्ण शरीर है तथा बादल जीवन का उत्तरार्ध है। वर्षा के चार मास हमारी संस्कृति में चातुर्मास के रूप में मनाए जाते रहे हैं। आवागमन के साधन जब आज की तरह उन्नत न थे, वर्षा ऋतु के ये चार माह लंबी यात्राओं के अनुकूल नहीं होते थे, ऐसे में धर्म-प्रवर्तक चार-माह के लिए किसी जनपद में टिकते तथा सबको अपने साहचर्य तथा उपदेश से लाभांवित करते, सावन में माह पर्यंत भागवत आदि की कथा के सत्र चला करते, बुद्ध में अपने चातुर्मासों में अनवरत धर्म-चर्चा की, जैनाचार्य आज भी इस परंपरा का निर्वाह कर रहे हैं।

कहते हैं वर्षा के चातुर्मासों में ही शिल्पियों ने अजंता तथा एलोरा की गुफाओं को शिल्प समृद्ध किया था। भारतीय संस्कृति की रचना में बूंदों की जलकथा की भूमिका की यह भी एक बानगी है। बूंदों की जलकथा से हमारा लोक साहित्य भरपूर है। भोजपुरी अंचल के लोक-परंपरा का सबसे ललित विस्तार वर्षा का ही मुखापेक्षी रहता है। किशोरियों तथा वधुओं के झूले वर्षा के बहाने ही लगा करते हैं। वर्षा के बूंदों के स्पर्श से ही उनके कंठ से कजरी के बोल फूटते हैं।

राधे झूलन पधारो झुकि आई बदरा

श्रृंगार के ही नहीं बूंदों की जलकथा में भक्ति के अध्याय भी हैं। गीतगोविंदम् के मंगलाचरण में जयदेव होते हैं-शाम के आकाश में मेघ के घिर आने पर, तमाल के लंबे पेड़ों से शाम की प्रभा रुद्ध हो जाने पर नंदजी के निर्देश पर राधा कृष्ण को उसके घर पहुंचाने निकलती है।

रास्ते में, यमुना तट पर कुंजवन में राधा-माधव लीलारत हो उठते हैं। जयदेव कहते हैं ऐसी लीलारत युगलमूर्ति की जय हो। भक्तिमार्गी को बाहर की ही नहीं भीतर की बूंदें भी भिगातीं हैं। गोपियों की सुनिए सदा रहत पावस रितु हम पे जब से श्याम सिधारे। कृष्ण के चले जाने पर गोपियों की आंखें सदा बरसती रहीं और इस प्रकार पावस ऋतु वहां से गई ही नहीं।

आंसू की ये बूंदे वियोग में ही बरसी हों ऐसा नहीं। राम के पांव पखारते केवट के आंसू तो संयोग में ही झरे थे। पावस की बूंदें हों या आंखों की जब टपक पड़तीं तो भावना का ज्वार उमड़ने लगता है। इस उमड़न में जलकथा का एक अभिनव अध्याय रच जाता है। बूंद रचित यह जलकथा हमारे साहित्य तथा हमारी कलाओं में युगों-युगों से प्रतिबिंबित होती आ रही है।

मानसूनी जलवायु के हमारे देश में बूंदों की कथा इंद्रधनुषी रंग ग्रहण कर लेती है। इसने हमारी संवेदना को सींचा ही नहीं आप्ययित भी किया है। वर्षा की प्रतीक्षा में पथराती आंखों में झांक कर आप इस कथा का करुणपक्ष देख सकते हैं। ठीक इसके विपरीत यदि आप किसी भावुक की आंखों में देखें तो बूंदों की इस जलकथा का रागपक्ष मुखरित होता हुआ मिलेगा।

clous_with_raindrops_1231वर्षा की बूंदे ताप का हरण ही नहीं वर्धन भी करतीं हैं। कलाओं में बूंदों के जलकथा के अनेक अध्याय सुरक्षित हैं। बूंदों के इस जलकथा में नन्हें-मुन्नों को कागज की नाव चलाने, भीगने-भिगाने के अनेक चित्र सुरक्षित हैं। मुझे अपनी बेटी के अस्फुट कंठ से बादल का आह्वान करना अभी भी याद है-

आ रे बादल, काले बादल,
गर्मी दूर भगा रे बादल।
रिमझिम बूंदें बरसा बादल,
झमझम पानी बरसा बादल।
लो घनघोर घटाएं छाईं,
टपटप-टपटप बूंदें आईं।
बिजली चमक रही अब चमचम,
लगा बरसने पानी झमझम।


एक बार फिर से सावन दस्तक दे रहा है। मन का मयूर नाचने को तैयार है। खिड़की के बाहर लान में नन्हें-नन्हें पौधे बूंदों के लिए आकाश की ओर निहारते से लग रहे हैं। पृथ्वी हरियाली की चादर ओढ़ने के लिए तैयार है। नदियां इस आस में हैं कि कब बादल बरसे औ वे उद्दाम नर्तन कर सकें। कदंब फूलने के लिए, चातक बूंदों के लिए तथा जामुन फलने के लिए वर्षा का इंतजार कर रहे हैं मन में यह भाव लिए कि माता जैसे अपनी संतान के लिए पयस्विनी बनती है हे बादल हम सबके लिए तुम उसी प्रकार पयस्वान बनो।

(लेखक कोलकाता में यूको बैंक के मुख्यालय में वरिष्ठ राजभाषा प्रबंधक हैं)

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Post By: Shivendra
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