हे नन्हीं बूंदों!
जीवन के लिए
धरा पर कुछ देर थमो
जमीन की नसों में बहो
और धरती की सूनी कोख
पानी से भर दो.....!!
इन्हीं पंक्तियों को अक्सर गुनगुनाने वाले शख्स हैं सुनील चतुर्वेदी। भूजलविद् और लेखक। पानी के लिए प्रायः सेमिनार में व्याख्यान देकर लोगों को जागरूक करते हैं। लेकिन, जनाब का पानी से कुछ पुराना और निकट का नाता भी रहा है। एक-दो नहीं, कई-कई दिनों तक नदियों के किनारे बैठकर उनके साथ बतियाना। कुछ अपनी कहना, कुछ नदी का सुनना। और जब लौटते तो कविताओं का सिलसिला भी नदी के प्रवाह की भांति थमने का नाम ही नहीं लेता। बूंदें, व्याख्यान, तकनीकी बातें और कागज-कलम में गुत्थम-गुत्था ये रिश्ते एक नया आशियाना खोजते-खोजते देवास जिले के कन्नौद ब्लाक के पानपाट व उसके आसपास के गांवों में जा पहुंचे। इस बार सुनील का लक्ष्य था- ‘गांव वालों को साथ लेकर बूंदों की मनुहार को जमीनी हकीकत देना।’
और ये हैं- श्री सुनील बघेल। आव देखा न ताव। पेशे से इंजीनियर सुनील मुम्बई और पुणे की मशहूर कंपनियों की स्टार कैरियर वाली नौकरियां छोड़कर चतुर्वेदी के साथ इन गांवों में पानी बचाने के आंदोलन में कूद पड़े।
और इनसे मिलिए- सोनल शर्मा। मध्यप्रदेश शासन के एक उच्चाधिकारी की बिटिया एमफिल. उत्तीर्ण तमाम सुख-सुविधाओं से भरी दुनिया को अलविदा कह धूल और धूप के सायों में बंजारा महिलाओं के बीच ऐसे गुम हो जाती हैं, मानों सदियों पुराना कोई रिश्ता फिर नया हो गया हो। कैसा कैरियर, कैसी चाह बस एक ही मकसद इन गांवों में पानी रोककर देहातियों की जिंदगी बदलनी है। यह एक ‘टेस्ट’ है सोनल के लिए समाज के लिए आखिर क्या-क्या कर सकती हैं वे!
........इस टीम को सही मायने में नेतृत्व दे रहे हैं श्री हरीशचन्द्र चतुर्वेदी। इनकी कहानी भी कम रोचक नहीं है। आध्यात्मिक मूल्यों के साथ जीवन भर बच्चों को तालीम देने वाले श्री हरीशचंद्रजी ने तय कर लिया था कि सेवानिवृत्ति के बाद अपना शेष जीवन हिमालय की कंदराओं में बिताएगें। भावना वस्त्र भी तैयार कर लिए थे। बस जाने की तैयारी थी.... लेकिन सामने दूसरा विकल्प भी आया। इस भीषण सूखे के दौरान कन्नौद के गांवों में पानी रोकने के लिए कार्य किया जाये। सोचा होगा..... पानी के लिए इन पगडंडियों पर चलना और बंजारों से संवाद कायम करना किस मायने में हिमालय की कंदराओं में चिंतन करने से कम है। कौन जाने, बूंदों की मनुहार में ही ईश्वर, जीवन और आत्मा से साक्षात्कार हो जाये! सो हरीशचन्द्र जी भी अब इन्हीं गांवों के होकर रह गये।
जरूर आप हमसे रश्क करेंगे। क्योंकि बूंदों के लिए इस हद तक समर्पित, इन पात्रों के साथ हमें रहने का मौका खूब मिला। इन गांवों के बाशिंदों के साथ ढोल-ढमाकों के बीच पानपाट से नर्मदा किनारे फतेहगढ़ तक की जल यात्रा में हम इनके साथ चल पड़े थे। ‘पानी के लिए जागा समाज’ – लोकगीतों के माध्यम से किस तरह अपनी भावनाएं व्यक्त करता है इसकी अभिव्यक्ति इतनी आसान नहीं है – जो हम यहां झटपट लिख दें। यह एक और शोध का विषय है। सही मायने में हमने पानी आंदोलन के विराट स्वरूप के दर्शन किये, जिस गांव से यात्रा निकलती वहां उसका ऐसा स्वागत होता, मानो भागवत कथा की शोभायात्रा चल रही हो। गांव के लोग खुद-ब-खुद उसमें शामिल होते जाते। बूंदों के लिए इस जज्बे का आधार आखिर क्या रहा? सुनील चतुर्वेदी कहते हैं- हमने पानपाट और आसपास के गांवो में लोगों से एक बात पूछी :-
‘आप नर्मदा मैया की पूजा करते हैं?’
जवाब आया - ‘हां।’
....‘क्या आपको पता है, नर्मदा मैया आपके घर-आंगन के सामने से गुजर रही हैं?’
.....‘नहीं।’
..... ‘थोड़ा सोचिये, ये बूंदें ही तो फतेहगढ़ में जाकर नर्मदा बन जाती हैं!....इन्हीं बूंदों में नर्मदा के दर्शन करिए। इन्हें पूजिये। इन्हें रोकिये। इन्हें प्रसन्न करिये तो नर्मदा अपने आप प्रसन्न हो जायेंगी।’
.......फिर समवेत स्वर में सभी लोग बोलते.....‘नर्मदे हर!!’
इस अवधारणा ने पानी रोकने के लिए एक जमीन का काम किया। इस तरह के हमने अनेक रोचक किस्से पानी बचाने के लिए आगे आई संस्था “विभावरी” के इन कार्यकर्ताओं से सुने। पानपाट और इसके आसपास के गांवों में पानी आंदोलन की जमीन तैयार होने की दास्तान आप भी जानिये :-
देवास से 135 किलोमीटर दूर वनांचल में बहती नर्मदा और उसके ऊपर एक के बाद एक बसे गांव – टिपरास, नारानपुरा, झिरन्या, बांई जगवाड़ा और एक छोटी-सी पहाड़ी पर बसा गांव पानपाट में दूर तक फैले थे पत्थर उगलते ढालू खेत, प्यासी धरती, प्यासे लोग। पिछड़े वर्ग के बंजारा समाज के लोगों की इस बस्ती में जीवन ठहरा हुआ-सा था।
यूं तो पानपाट से ही एक नाला निकलता है जो बांई जगवाड़ा, झिरन्या, नारानपुरा, टिपरास गांव की सीमाओं को छूता हुआ फतेहगढ़ के समीप नर्मदा में विलीन हो जाता है। अपने उद्गम पर यह नाला बरसात खत्म होते-होते एक सूखी लकीर भर रह जाता है। ढलान वाली भौगोलिक स्थिति के कारण तेज गति से बरसात का सारा पानी न सिर्फ बहकर निकल जाता है, बल्कि अपने साथ खेतों की उपजाऊ मिट्टी भी बहा लिये जाता है। पानपाट के हिस्से में शेष रहते हैं रेतीले खेत और नाले की तलहटी में पानी बहने के निशान।
जल संकट यहां की समाजर्थिक स्थिति पर किसी कालग्रह की तरह पिछले 53 वर्षों से छाया हुआ है। प्रशासनिक आंकड़ों औऱ नक्शों पर पानपाट डार्क जोन के रूप में अंकित है। पानपाट यानी कन्नौद ब्लॉक का एक मात्र गांव जहां हर वर्ष परिवहन कर पानी पहुंचाया जाता है। पीने के लिए जल परिवहन कर जीवन तो बचाया जा सकता है, लेकिन पानी के बिना पानपाट की रेतीली जमीन पर हरितिमा कैसे पैदा की जा सकती है। बरसात की नेमत से खेतों में जो धान पैदा हो गया, वही वर्ष भर का आसरा है। शेष आठ महीनों में बेकारी और अर्थसंकट का दमन चक्र अपनी गति से घूमता रहता है। दो जून की रोटी के लिए जहां मजदूरी मिल जाये उसी देस की यात्रा और चेत कटाई में वहीं बसेरा – यहां के बाशिंदों की नियति बन चुकी है। ऐसे में गांव में विकास, शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी बुनियादी सोच के लिए लोगों के पास अवसर ही नहीं था। ऐसे सुदूर गांव में पानी आंदोलन की जमीन तैयार करने पहुँचे विभावरी के इन साथियों के सामने एक गंभीर चुनौती थी। पानपाट सहित इन पांच गांवों में यदि कुछ चेकडेम, तालाब जैसी संरचनाएं ही निर्मित करनी होतीं तो मालवा-निमाड़ की इस तपती हुई संधि भूमि पर ‘विभावरी’ को कैम्प करने की आवश्यकता नहीं थी। बरसात के व्यर्थ बहने वाले पानी को कुछ संरचनाओं के माध्यम से धरती को कोख में उतारने से ज्यादा अहम् काम था-लोगों को जगाना, उन्हें प्रेरित करना और खुद के दम पर आगे बढ़ने के लिए उनके खोये आत्मविश्वास को लौटाना। बकौल सुनील चतुर्वेदी (सचिव, विभावरी)- ‘एक अनजानी धरती पर नकारात्म्क माहौल में काम करना आसान नहीं था। व्यवस्था के प्रति पुराना अविश्वास और नेताओं की आश्वासन वाली भाषा ने यहां के ग्रामिणों को निराश कर दिया था।’
गांव वालों का मानना था कि उनके विकास की बात लेकर उन तक पहुंचने वाले साहब लोग आंकड़ों की खानापूर्ति करने के लिए ही आते रहे हैं। विकास के लिए आये पैसे का आधा-अधुरा उपयोग और बाकी बंदरबांट में खत्म हो जाता है। झिरन्या गांव के बाबूलाल पटेल कहते हैं कि पहले-पहल हमने भी इन लोगों से साफ कह दिया था कि हम गरीबों को मत सताओं, जहां दस्तखत लेने हैं ले लो। हमारे भले की बड़ी-बड़ी बात मत करो। उसने कहा था - ‘थें तो सब लोग हो, थांको कंई भरोसो। दो साल पेलां भी थांका जैसा साब लोग आया था। नाला पर स्टांपडेम को सर्वे भी करयो। वी बी कइके गया था कि बस 5-7 दिन में काम शुरु हो जाएगा। गांव में पानी रूकेगा. फसलों को फायदा होगा- दो साल बीत गया, नो तो साब लौट के आया, नी स्टापडेम बनयों। थें तो जाओ साब! आज आया हो, कल आओगा, ई बात को कंई भरोसो।’
‘विभावरी’ ने उन लोगों का भरोसा टूटने नहीं दिया। काम की रूपरेखा बनी और भरोसा जुड़ा। एक बार भरोसा जुड़ा तो फिर ये ‘साब’ गांव वालों के लिए न जाने कब ‘भैया’ और ‘जीजी’ हो गये। सुनील कहते हैं कि गांव में पानी आंदोलन की जमीन तैयार करने में दूसरी सबसे बड़ी अड़चन यह थी कि शासकीय योजना में कुछेक लोगों को मिलने वाले अनुदान ने खुद के लिए अपनी तईं कुछ करने की सोच को खत्म ही कर दिया था। हर छोटी-छोटी बात के लिए हाथ पर हाथ धरे शासन की ओर निगाह लगाये बैठे रहना उनती आदत हो गयी थी। अपने खेत की मिट्टी बहकर उपजाऊ जमीन को उसर बना रही है। इसके लिए मेड़बंदी स्वयं करने के बजाए यह सोचना कि शासन आकर करेगा, इस जड़ता को तोड़ना हमारे लिए एक बड़ा काम था।
बार-बार की समझाइश के बाद गांव के कुछ लोग जुटे। ग्रामसभा आयोजित की गई और इस सभा में गांव के लिए तालाब बनाने का निर्णय लिया गया अब परेशानी यह थी कि तालाब के लिए आस्थामूलक कार्य में स्वीकृत राशि कम थी और तालाब में अधिक पैसा लगना था। इसका भी हल ग्रामसभा में निकला। चार दिन मजदूरी करेंगे और तीन दिन श्रमदान। इस तरह दुगना बड़ा तालाब बन जायेगा। कुछ लोगों ने विरोध भी किया। हम क्यों करे श्रमदान? सरकार बनवा रही है तो सरकार पूरा पैसा दे, लेकिन “हमारे लिए हमारा तालाब बनाना है” की भावना ने इस विरोध को भी समाप्त कर दिया। गांव का ही बीए. द्वितीय वर्ष में पढ़ रहा विजय आगे आया और 11 महीलाओं ने अपनी समिति बनाकर तालाब निर्माण की डोर अपने हाथों में संभाली। चूल्हे-चौके और खेतों में मजदूरी करने वाली बंजारा महिलाओं के लिए यह एक नया अनुभव था। उनके अंदर आत्मविश्वास भर देने वाला अनुभव।
गांव के लोगों ने पहली बार चौपाल पर एक साथ बैठकर अपने गांव के लिए न सिर्फ तालाब बनाने का निर्णय लिया, बल्कि अपने ही हाथों से इस काम को अंजाम भी दिया। इस पानी समिति की अध्यक्ष 55 वर्षीय रेशमीबाई गांव झिरन्या, नारानपुरा, टिपरास में होने वाली सभाओं में माइक से समझाती हैं- ‘हमारे गांव में हम तालाब बणाया। अपनों हाथों से पैसा बांटा और अपने तालाब में हमने श्रमदान भी करया। आप गांव वालों को भी अपणे गांव के लिए ऐसो काज करना चाहिये जिससे गांव की और हमारी दशा सुधरे।’
‘विभावरी’ के ही सुनील बघेल कहते हैं कि तालाब निर्माण में होने वाले एक-एक पैसे का हिसाब प्रत्येक सप्ताह ग्रामसभा में पढ़कर सुनाया जाता था। अंत में पूरा हिसाब एक ड्राइंग शीट पर लिखकर स्कूल भवन पर चस्पा भी किया गया। आज गांव के बच्चों को भी पता है कि उनका तालाब कितने का बना है। पिछड़े वर्ग की इन महुलाओं को आगे लाने में जुटीं कुमारी सोनल शर्मा कहती हैं कि गांव में तालाब निर्माण का कार्य महज एक संरचना के निर्माण तक सीमित नहीं रहा बल्कि सामाजिक एकरूपता का माध्यम भी बना है। महिला-पुरुषों के साथ-साथ बच्चे भी अपने इस तालाब के निर्माण में पीछे नहीं रहे। तालाब पर काम कर रहे मजदूरों को खाना-पानी पहुंचाने के लिए इस नन्हीं आर्मी ने तालाब किनारे आम के पेड़ के नीचे ही अपना डेरा डाल रखा था। खाना चाहिए.. पानी चाहिए या फिर तगारी-फावड़ा संकेत मिलते ही ये नन्हें जवान दौ़ड़ लगाकर हवा से बातें करते गांव तक जाते और पल में ही सामान लेकर लौट आते। इस तालाब निर्माण ने गांव की नन्हीं पीढ़ी में पानी आंदोलन का संस्कार भी रोपा है।
गांव वालों के लिए यह तालाब ‘हमारा तालाब’बन चुका है। कभी घड़े-दो-घड़े पानी के लिए 5-6 किलोमीटर तक भटकने वाले इस गांव में अब भाटबर्डी, निमासा, बिचकुआ, गोला और गाड़ागांव के मवेशी पानी पीने आते हैं। पानी को लेकर बरसों तक गरीब रहा यह गांव अब एक धनी गांव में बदल चुका है। गांव की ही काली बाई बड़े फक्र से कहती हैं- ‘पहले हमारे मवेशी पानी पीने बांई के तालाब पर जाते थे। अब दूसरे गांव के ढोर हमारे तालाब पर आते हैं। पानी पीने यहां नहीं आयेंगे तो कहां जाएंगे। आसपास के 6-7 गांवों मे एक हमारा ही गांव तो तालाब वाला गांव है।’
7 एकड़ क्षेत्र में फैले इस तालाब में मछलियों के बीज डाले गये हैं। गांव के ही पुरुष-महिलाओं की पृथक समिति बनाकर यह तालाब उन्हें सौंप दिया गया है. महिलाओं की समिति देख-रेखकर मछली पालन करेंगी और मछलियों के बड़े हो जाने पर 15 या 20 रुपये किलो के भाव से तालाब पर ही पुरुषों की समिति को सौंप देगी। पुरुषों की समिति सतवास जाकर 30-35 रूपये किलो में मछलियां बेचेगी। इस तरह यह तालाब गांव के लोगों के लिए आर्थिक स्वावलंबन की कहानी भी बन गया।
पानपाट में यह एक शुरुआत है। अपने लिए अपने पैरों पर खड़े होने की ताकत को लौटने की सिलसिला अब प्रारंभ हो चुका है। इस यात्रा को तो अर्थ है- ‘इति’ के पहले एक लंबी दूरी तय करना। पानी बचाने के साथ-साथ आर्थिक आत्मनिर्भरता, शिक्षा, स्वास्थ्य और पर्यावरण जैसे कितने ही मुद्दों पर ढेर से काम बाकी हैं। लेकिन चार महीने पूर्व नक्शे में पानपाट को ढूंढ़ते-ढूंढ़ते पहुंचे ‘विभावरी’ के सुनील चतुर्वेदी, सोनल शर्मा औऱ सुनील सिंह बघेल हताश नहीं है। इनका मानना है कि सबसे ज्यादा वक्त औऱ ऊर्जा पहली बार अपने पैंरों पर खड़े होने में लगती है। जब एक बार खड़े हो जाएं तो सरपट दौड़ने में ज्यादा वक्त नहीं लगता और पानपाट अपने पैरों पर खड़ा हो चुका है। इसलिए आगे की मंजिल अब आसान है।....उम्मीद भरी भी।
.....और जब हमने इन गांवों से बिदा ली तो जल यात्रा में सुने गये लोकगीत बार-बार याद आते रहे। याद आता रहा, बूंद-बूंद में नर्मदे हर!!’ यह संदेश मानों पानपाट ने हमें दिया। –सुनील चतुर्वेदी और उनकी टीम सुविधाओं से भरी जिंदगी को अलविदा कह इन गांवों में पानी बचाने के काम में जुटी हुई है। तकलीफों और संघर्षों से भरा यह रास्ता बता रहा है कि समाज खुद तो जाग्रत हो ही रहा है। लेकिन अनेक महानुभाव अपना सब कुछ छोड़कर बूंदों की मनुहार के लिए समाज को प्रेरित भी कर रहे हैं।
.......बूंदों के इन पुजारियों को प्रणाम!!
.......और उन शहरी लोगों से पानपाट की कहानी से प्रेरणा लेने का अनुरोध जो या तो हाथ पर हाथ धरे बैठकर पानी का रोना रोते हैं। या खड़े होते हैं तो पानी के लिए घंटों चक्काजाम कर देते हैं.....।
बूँदों की मनुहार (इस पुस्तक के अन्य अध्यायों को पढ़ने के लिये कृपया आलेख के लिंक पर क्लिक करें।) |
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