आज राजधानी की आबादी 12 लाख को पार कर गई है और तीनों डैमों की जल धारण क्षमता 50 से 60 फीसदी कम हो गई है। कारण कि इन डैमों की कभी सफाई नहीं हुई। कई फीट तक इसमें गाद भरी है। गाद के कारण डैम के रीचार्ज पॉकेट्स भी बन्द हो गए हैं, जिससे जलग्रहण क्षेत्र में भी जल भरण नहीं हो पा रहा है। इसी तरह अनियंत्रित शहरीकरण ने प्रकृति के सारे नियम-कानूनों को तोड़ते हुए अपनी राह बनाई है। 30 साल पहले जब मैं लोहरदगा, महुआडांड़, नेतरहाट जाता था, तो रास्ते भर पहाड़ी नालों और झरने के न सिर्फ सुन्दर दृश्य दिखते थे, बल्कि उनकी गुर्राती आवाज से कानों में प्रकृति का राग गूँजने लगता था। इलाके के पुराने लोगों से अगर पूछें तो वे बीते समय को आज की तबाही से तुलना कर सारे पहाड़ी नालों और झरनों की बातें बताएँगे। मतलब यह कि ज्यों-ज्यों हम औद्योगिक विकास की ओर आगे बढ़े, त्यों-त्यों हमारे प्राकृतिक संसाधनों का नाश हुआ।
आज एक बोतल पानी के लिये 12 रुपये खर्च करने के लिये हम मजबूर हो चुके हैं। दरअसल, जो चीजें हमें आसानी से मिल जाती हैं, उसका मोल हम नहीं समझ पाते। प्रकृति ने जिन संसाधनों का उपहार झारखंड को दिया, वही उसके लिये अभिशाप साबित हुआ और हो रहा है। पानी का सवाल भी इससे जुदा नहीं है। अभी देखिए, मेरा कुआँ-तेरा कुआँ, उसका चापाकल, इसका तालाब, जैसे भाव समाज में आ गए हैं।
पहले तो ऐसी मारामारी की स्थिति नहीं थी, लोग पानी पिलाना पुण्य समझते थे। इसका जवाब बेहद आसान है, हमने कभी भी प्रकृति के उपहार को सहेजकर रखने की कोशिश नहीं की। राजस्थान में सालाना बारिश 500 मिमी से अधिक नहीं होती, लेकिन वहाँ के लोग बूँद-बूँद को अमृत समझकर बचाते हैं, उनका संरक्षण करते हैं। हमारे यहाँ राजस्थान की तुलना में तीन गुना अधिक वार्षिक वर्षा होती है। इसके बावजूद हमारी फसल ही नहीं, हमारे कंठ भी सूखे रह जाते हैं। कारण, पानी को लेकर कभी भी समाज और सरकार सचेत नहीं हुई। जल चेतना का विकास ही नहीं हो सका। जब भी जल संकट, सिंचाई सुविधा की बात हुई, तो बड़े-बड़े डैमों और नदी परियोजनाओं को हम पर जबरन थोप दिया गया।
स्वर्णरेखा, डीवीसी के उदाहरण से इस बात को समझना मुश्किल नहीं कि बड़े डैमों से कितनी फसलें सींची गईं, कितने लोगों को पीने का पानी मिला। मकसद, साफ है कि किसी भी तरह झारखंड के संसाधनों का व्यापारिक इस्तेमाल कर लिया जाए, चाहे लोगों की जान जाए, चाहे गाँव के गाँव उजड़ें, चाहे नदी, नाले, झरने, सब मर जाएँ और लोग तड़पते रहें। हम लोग अगर बड़े-बड़े डैमों का विरोध कर रहे हैं तो पलामू में हमने इसका व्यावहारिक विकल्प तैयार करके भी दिखाया, वह भी दो दशक पहले ही। पानी चेतना मंच बनाकर पलामू के विभिन्न गाँवों में 127 चेक डैम, आहर बनाए। सरकार को दिखाया कि दस गुना कम खर्च पर भी डैम बनाए जा सकते हैं, वह भी लोगों को उजाड़े बगैर। झारखंड की भौगोलिक बनावट के कारण पानी यहाँ ठहर ही नहीं सकता। इसे समझे बगैर नीतियाँ और परियोजनाएँ बनती रही हैं।
दो-तीन दशक पहले जल संसाधन पूरे गाँव की सम्पत्ति होती थी और उसका उपयोग-उपभोग सब मिलकर करते थे। मजबूत मेंड़ पानी को रोकने का काम करते थे, जिससे भूमिगत जलस्तर बना रहता था। साथ ही पोखर, तालाब भी कभी नहीं सूखते थे। गलत नीतियों और योजनाओं का नतीजा है कि झारखंड में कुल सिन्चित भूमि का प्रतिशत आज के मुकाबले 60 साल पहले अधिक था।
पेड़-पौधों की भरमार के कारण पानी के बहने की गति धीमी थी, जिस कारण जमीन में समाने का अतिरिक्त वक्त वर्षाजल को मिल पाता था। आज जब जंगल उजड़े, उद्योगों, खनन के लिये खेती नष्ट हुई, तब ढलुवा बनावट के कारण न तो पानी ठहर रहा है और न ही प्राकृतिक जल संसाधनों का प्राकृतिक चक्र और वार्षिक भरण ही सन्तुलित और स्वाभाविक ढंग से चल रहा है। गाँवों में जल संकट का मतलब सीधे तौर पर भूख और अकाल से जुड़ जाता है। खेती मारी जाती है। पानी चेतना मंच ने 30 साल पहले ही इस स्थिति से निपटने के लिये क्रिटिकल इरिगेशन सिस्टम को डवलप किया था। स्लोप वाली जमीन पर श्रृंखलाबद्ध कई चेक डैम्स, आहर, तालाब, पोखर बनाकर साबित किया था कि छोटी-छोटी योजनाएँ किस तरह हिल एरिया में जल संकट को दूर करने में क्रान्तिकारी साबित हो सकती है। 30 फीट चौड़े और 40 फीट लम्बे क्षेत्र को हापा का रूप दिया जा सकता है, जिसमें वर्षाजल बहने के बजाय जमा हो जाए। फसल के मौसम में जब मानसून अनियमित होगा तो आपात स्थिति में यह हापा किसानों के लिये जीवन जल से कम नहीं होगा। झारखंड जहाँ पहाड़ी नालों, पइनों की भरमार है, वहाँ यह मॉडल तो और भी कारगर साबित होगा।
सरकार ने भी अन्ततः चेक डैम, आहर, पइन, कुएँ, तालाब के महत्त्व को स्वीकार किया, जिसकी वकालत हम लोग 30 साल पहले से करते आए हैं। शहरों में जल संकट के कारणों को असंगत योजना और सामुदायिक चेतना के अभाव के रूप में देखना उचित होगा। राँची में 60 के दशक में तीन डैम बनाए गए। चार-पाँच दशक पहले राँची की जनसंख्या आज के मुकाबले करीब 15 गुना कम रही होगी, लेकिन पेयजल के लिये गोंदा, कांके और रुक्का डैम मौजूद थे।
आज राजधानी की आबादी 12 लाख को पार कर गई है और तीनों डैमों की जल धारण क्षमता 50 से 60 फीसदी कम हो गई है। कारण कि इन डैमों की कभी सफाई नहीं हुई। कई फीट तक इसमें गाद भरी है। गाद के कारण डैम के रीचार्ज पॉकेट्स भी बन्द हो गए हैं, जिससे जलग्रहण क्षेत्र में भी जल भरण नहीं हो पा रहा है। इसी तरह अनियंत्रित शहरीकरण ने प्रकृति के सारे नियम-कानूनों को तोड़ते हुए अपनी राह बनाई है। भू-माफिया की मजबूत मौजूदगी ने शहरों की हरियाली को उजाड़ दिया है। वाटर हार्वेस्टिंग को क्यों नहीं अपनाया जा रहा, इसका जवाब लचर और भ्रष्ट व्यवस्था से अपने आप मिल जाता है। पानी का अगर सिर्फ पीने के लिये उपयोग हो तो संकट कभी नहीं आएगी। झारखंड जिसे औद्योगिक राज्य घोषित कर दिया गया, वहाँ कल-कारखानों द्वारा पानी का सबसे अधिक दोहन होता है और जल संसाधनों पर उसी बेरहमी से अत्याचार भी। हर संकट तो एक-दूसरे से जुड़े हैं, जिसे सम्पूर्णता के साथ समझने की कोशिश नहीं की गई। जिस दिन ऐसा होगा, उसी दिन रिच लैंड-पूअर पीपुल के बदले रिच लैंड-रिच पीपुल का समाज बन जाएगा झारखंड।
गम्भीरता से करना होगा विचार
जल संरक्षण के प्रति सामुदायिक चेतना जरूरी है, वरना जल संकट का अन्तिम अन्जाम भुगतने के लिये सबको तैयार रहना होगा।
1. अपलैंड के स्लोप पर आहर बनाकर पानी को रोका जा सकता है।
2. चेक डैम की श्रृंखला इस तरह तैयार करनी होगी कि अधिक से अधिक पानी को हम ज्यादा से ज्यादा समय तक रोक सकें।
3. छोटे-छोटे डैमों, आहर, पोखर, तालाबों को प्राथमिकता देनी होगी।
4. प्रदान जैसी संस्था ने 1991 में दिखा दिया था कि लिफ्ट इरिगेशन सिस्टम को अगर ईमानदारी से लागू कराया जाए तो इससे कितना लाभ मिल सकता है।
5. पानी जहाँ गिरे, उसे वहीं रोकने के उपाय किए जाएँ।
6. जंगलों की हरियाली फिर से वापस लानी होगी। वेस्टलैंड को हरा-भरा करने के ठोस उपाय करने होंगे।
7. कोल माइनिंग समेत वैसे उद्योगों को बन्द करने की जरूरत है जिनमें पानी की बहुत अधिक जरूरत होती है।
8. लैंड कंजर्वेशन डिपार्टमेंट पूरी तरह नाकाम हो गया है। उसे फिर से सक्रिय बनाना होगा, ताकि मिट्टी में पानी को पकड़कर रखने की क्षमता कायम हो सके। पानी के बहाव के कारण मृदा अपरदन ने उपजाऊ मिट्टी को बर्बाद कर दिया है ।
9. पुराने जलस्रोतों को फिर से जीवित करना होगा।
और कितना वक्त चाहिए झारखंड को (इस पुस्तक के अन्य अध्यायों को पढ़ने के लिये कृपया आलेख के लिंक पर क्लिक करें।) | |
जल, जंगल व जमीन | |
1 | |
2 | |
3 | |
4 | |
5 | |
6 | |
7 | |
8 | |
9 | |
10 | |
11 | |
12 | |
13 | |
14 | |
15 | |
16 | |
17 | |
18 | |
19 | |
20 | |
21 | |
22 | |
23 | |
24 | |
25 | |
26 | |
27 | |
28 | |
29 | |
30 | |
31 | |
32 | |
33 | |
खनन : वरदान या अभिशाप | |
34 | |
35 | |
36 | |
37 | |
38 | |
39 | |
40 |
Path Alias
/articles/bauunda-bauunda-kao-amarta-samajhanaa-haogaa
Post By: Hindi