चेरापूँजी की इकलौती पहचान बारिश ही नहीं है। यहाँ हर कदम पर ऐसे मंजर हैं, जो किसी के भी मन की डोर को घंटों बाँधें रख सकते हैं। झर-झर बहते खूबसूरत झरने, मनोरम घाटियाँ, गुफाएँ, पेड़ों की जड़ों से बने कलात्मक पुल… और भी बहुत कुछ। बता रही हैं शबनम खान
एशिया के सबसे साफ-सुथरे गाँवों में से एक, मेघालय स्थित मावलिनॉन्ग की मजेदार और रोमांचक यात्रा के बाद सुबह करीब साढ़े नौ बजे हम कार से ‘चेरापूँजी’ के लिये निकल पड़े। यहाँ से निकलते समय आसमान बिल्कुल साफ था, लेकिन आधे घंटे बाद ही बादल घिर आये। ठंड बढ़ने लगी, कोहरे की वजह से दिखाई देना कम हो गया और हरियाली से भरे नजारे धुंधले हो गए। मावलिनॉन्ग से चेरापूँजी की दूरी लगभग 89 किमी है। साढ़े तीन घंटे का सफर तय करके हम चेरापूँजी पहुँचे।
चेरापूँजी को स्थानीय लोग सोहरा के नाम से जानते हैं। समुद्र तल से करीब 4,500 फुट की ऊँचाई पर स्थित चेरापूँजी में देखने लायक बहुत कुछ है। खूबसूरत झरने, घाटियाँ, गुफाएँ और पेड़ों की जड़ों से बना डबल डेकर लिविंग रूट्स ब्रिज।
दोपहर के एक बज चुके थे। अब हमें रहने के लिये कोई जगह ढूँढनी थी। सोहरा मार्केट होते हुए लगभग 100 मीटर ऊपर चढ़ाई के बाद हमें एक बोर्ड दिखाई दिया। हमारे ग्रुप ने यहीं रुकना तय किया। वहाँ थोड़ी देर आराम करने के बाद पास ही के एक रेस्तरां में लंच करने गए। बैठने के लिये हमने खिड़की के साथ वाली टेबल चुनी। खाना आने में देर थी। मैं खिड़की का पर्दा हटाकर बाहर झाँकने लगी। नजारा अद्भुत था, बादलों के बीच से एक झरना नजर आ रहा था।
नोजनिथायंग नाम के इस झरने की ऊँचाई लगभग 315 मीटर है। इसे ‘सेवन सिस्टर्स वॉटरफॉल’ भी कहा जाता है। हमने तय किया कि इस अद्भुत झरने को व्यूप्वाइंट से जाकर देखेंगे। फिर क्या था, जल्दी-जल्दी लंच किया और पहुँच गए व्यूप्वाइंट पर। वहाँ पहुँचे ही थे कि अचानक तेज बारिश होने लगी। चेरापूँजी को बेशुमार बारिश के लिये जाना जाता है। यहाँ हर साल औसतन 11,777 मिलीमीटर बारिश होती है। यहाँ ज्यादा बारिश होने का एक कारण इसकी पर्वतीय संरचना है। दक्षिण की तरफ से आते बादलों को हवा के दबाव से तेजी मिलती है और ये खासी हिल्स से टकराते हैं, जिसकी वजह से भारी बारिश होती है। हर पल बदलता मौसम यहाँ का आकर्षण है।
हम पूरी तरह भीग चुके थे। ऐसे में हमने रूम पर वापस लौटना ही बेहतर समझा। घंटा भर भी नहीं बीता होगा कि बारिश बन्द हो गई। मौके का फायदा उठाने के मकसद से हमने फिर व्यूप्वाइंट पर जाने की योजना बनाई, जो सिर्फ 10 मिनट की दूरी पर था। बारिश होने के बाद का आसमान बिल्कुल साफ था। दूधिया झरना दूर से स्पष्ट दिखाई दे रहा था। जंगलों से आता हल्का कुहासा बादलों जैसा प्रतीत हो रहा था। ऐसा दृश्य मैंने पहले कभी नहीं देखा था। अंधेरा घिरने लगा तो हम रूम पर वापस लौट आये।
अगले दिन सुबह पाँच बजे ही मेरी नींद खुल गई। या यूँ कहूँ कि अगले गन्तव्य स्थल, नोहकालिकाई झरना और डबल डेकर लिविंग रूट्स ब्रिज देखने की ललक ने हमें सोने ही नहीं दिया था। चेरापूँजी आना हमेशा से ही मेरा सपना था। सुबह करीब 7 बजे ड्राइवर कार लेकर दरवाजे पर खड़ा था। हालांकि हमने तैयार होकर निकलने में काफी देर लगा दी थी। नोहकालिकाई का रास्ता चेरापूँजी के अन्य आकर्षणों की राह से थोड़ा अलग था। इस ऊँचे-नीचे रास्ते के दोनों ओर जंगली घास और झाड़ियों की सुन्दरता देखते ही बनती थी।
कुछ ही देर में हमारे सामने था वह भव्य दृश्य। व्यूप्वाइंट पर काफी चहल-पहल थी, लेकिन सबके चेहरों पर बेचैनी, क्योंकि घने बादलों की वजह से कुछ दिखाई नहीं दे रहा था। कुछ लोग बादलों की ही फोटो लेकर अपना मन बहला रहे थे तो कुछ वापस जाने की बात कर रहे थे। हम वहाँ से टले नहीं। इतने अच्छे मौसम में उस जगह खड़े रहने का ही अपना आनन्द था। हमारी जिद मानो बादलों ने मान ली और कुछ ही समय बाद बादल छँटने लगे। झरने पर से परदा धीरे-धीरे उठ रहा था। सूरज की किरणों में लगभग 340 मीटर ऊँचा झरना अद्भुत लग रहा था। यह भारत के सबसे ऊँचे झरनों में से एक है। वहाँ लगभग दो घंटे बिताने के बाद हम वहाँ से निकल पड़े।
हमारी अगली मंजिल थी लिविंग रूट्स ब्रिज। उत्सुकता अपने चरम पर थी, क्योंकि डबल डेकर लिविंग रूट्स ब्रिज तक पहुँचने का सफर हमें ट्रैकिंग करके पूरा करना था। ट्रैकिंग प्वाइंट तक पहुँचने के लिये हमें कार लेनी पड़ी। रास्ते में हर 100 मीटर की दूरी पर एक साइन बोर्ड लगा था, जिस पर सुन्दर-सुन्दर कोटेशन और वन लाइनर लिखे हुए थे, जो हमें प्रोत्साहित कर रहे थे।
लगभग दो बजे हम ट्रैकिंग प्वाइंट ‘तिरना गाँव’ पहुँच गए और चल पड़े अपनी अगली मंजिल की ओर। करीब आधे घंटे की पैदल यात्रा में हमें किसी तरह की परेशानी या थकान महसूस नहीं हुई। लेकिन अब चलते-चलते 40-50 मिनट हो चुके थे। पैरों ने जवाब देना शुरू कर दिया था। तभी हमें झूलता हुआ एक पुल दिखाई दिया, जिसे पार करते हुए हमें आगे बढ़ना था। लिविंग रूट्स ब्रिज तक पहुँचने में हमें 1 घंटे 10 मिनट का समय लगा।
लेकिन पेड़ की जड़ों से बने उस अनोखे ब्रिज की अनोखी बनावट व सुन्दरता को देखकर सारी थकान दूर हो गई। यह एक दोहरा पुल है, जो खास देसी तकनीक के जरिए पेड़ों की जड़ों को उमेठकर बनाया गया है। इस ब्रिज को फिकस इलास्टिका पेड़ की लचकदार जड़ों से बनाया गया है। बताते हैं कि इस तकनीक से बना सबसे पुराना पुल 500 साल पहले बना था। बहते पानी की आवाज और पत्तों की सरसराहट मन को सुकून पहुँचा रही थी।
शाम 5 बजे हमने वापसी का सफर शुरू किया। अंधेरा होने को था। हल्की बूंदा-बांदी में भीगते हुए हम तिरना गाँव पहुँच गए। यह बहुत ही मजेदार यात्रा थी, जो समाप्ति की ओर थी। ड्राइवर गाड़ी लेकर तैयार था। करीब 15 किमी दूरी तय करते हुए हम वापस रूम पर पहुँच गए।
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