बुंदेलखंड : विनाश से सर्वनाश तक का सफर

उन्नीसवीं शताब्दी के आरंभिक दशकों से अंग्रेजों ने भारतीय वनों का अधिग्रहण कर अपने हित में उनके विनाश का कार्य प्रारंभ कर दिया था। आजाद भारत में इक्कीसवीं सदी के आरंभ में अब यह विनाश सर्वनाश में परिवर्तित होता जा रहा है। आश्चर्य की बात है कि सर्वनाश की शुरुआत देश के मध्यभाग बुंदेलखंड से हो चुकी है।जंगल, नदी, पर्वत, जमीन, गांव, किसान, मजदूर, जंगली और पालतू जानवर जब सभी पर संकट आए तो इसे क्या कहा जाएगा? आज बुंदेलखंड में सब ओर विनाश की झलक दिखाई दे रही है। जंगलों का सफाया, ग्रेनाइट पत्थरों तथा हीरों की विस्तृत खदानें, इस कार्य हेतु देशी तथा विदेशी निवेश, उद्योग विकास के नाम पर रोज बढ़ती स्टोन-क्रेशर्स की संख्या, ऊंचाई से भी अधिक गहराई तक कटते तथा खुदते हुए पहाड़, सूखती हुई सिंध, पहूंज, धसान, बेतवा, केन और चित्रकूट की मंदाकिनी जैसी पवित्र एवं निर्मल जलवाही नदियां।

उस पर भी नदियों के जोड़-तोड़ पर गहराती जल राजनीति, अभयारण्यों में भी वनराजों की हत्या, भटकने और कटने के लिए बहिष्कृत अथवा बेची जाने वाली गोमाताएं, बैलों को रौंदते हुए ट्रैक्टर, साल दर साल घटती जमीन की ताकत, घटती पैदावार, लुप्त होते हुए कालजयी बीज, रूठते बादल, सपरिवार पलायन के लिए मजबूर लोग और आत्महत्याओं के बढ़ते आंकड़े, कौन सी कहानी सुना रहे हैं? क्या सर्वनाश का कोई और दूसरा स्वरूप होगा?

सतही पानी के सूखने के साथ जिस तरह जमीन के अंदर का पानी बाहर उलीचा जा रहा है उसके परिणामतः भूगर्भ जल नीचे जा रहा है उससे डर यह है कि भविष्य में यहां पीने के पानी का भी प्रबंध मुश्किल होगा। पेड़ पौधों के साथ जो बलात्कार हो रहा है और जिस तरह के उद्योग यहां डाले जा रहे हैं वह यहां की जमीन तो नष्ट करेंगे ही, हवा में जरुरी ऑक्सीजन को भी नहीं बख्शेंगे। इन सबसे जो लाभान्वित होने वाले हैं ऐसे समाज के चंद नेता, नौकरशाह, व्यापारी तथा तकनीकी विशेषज्ञ क्या भविष्य में बिना ऑक्सीजन जिंदा रह पाएंगे? क्या बाहर से आयात किए भोजन, पानी तथा हवा के बल पर उनकी भावी पीढ़ियां अपना जीवनयापन कर पाएंगी?

गांधीभवन, छतरपुर में अनेकों बार जुटे बुंदेलखंड तथा बाहर से आए समाजकर्मी, किसान, वैज्ञानिक, बुद्धिजीवी तथा पर्यावरणविद् समस्या की गंभीरता से इतने आंशिकत हुए थे कि उन्होंने बुंदेलखंड के भविष्य के साथ-साथ देश की वर्तमान व्यवस्था तथा अपनाई जा रही नीतियों को जीवन के अस्तित्व के विरुद्ध बताया। सारे विश्व में इन दिनों जलवायु परिवर्तन को लेकर गंभीर चिंतन चल रहा है।

विदेशों में जाकर हमारे नेता इस विषय पर विश्व के साथ चिंता जताते हैं। परंतु लौटकर यहां सारी गंभीरता को भुलाकर विकास के घिस पिटे दशकों पुराने स्वरूप को प्रतिष्ठित करने तथा देश के नवधनिकों और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के लिए केवल लाभ कमाने तथा उस हेतु पूरे राष्ट्र की अस्मिता, प्रतिष्ठा तथा जिंदगी दांव में लगा देने भी संकोच नहीं करते। बल्कि उनके लिए पलक पावड़े बिछाते हैं। इस देश में 1947 की स्वतंत्रता स्वच्छंदता लेकर आई और भ्रष्टाचार का बांध तो ऐसे टूटा कि उसमें बड़े छोटे, राजा-प्रजा, साधु, सेठ, मालिक-नौकर सभी बह गए।

विगत कई वर्षों से जारी बुंदेलखंड का सूखा अकेले नहीं आया। पूरे उत्तर भारत में उसकी गूंज सुनाई पड़ी है। गंगा-यमुना पोषित अंचल भी इसमें शामिल हैं। कई वर्षों से पनप रही यहां की त्रासदी से इस देश ने तो क्या कहें उ.प्र. तथा म.प्र. की सरकारों, यहां के प्रतिष्ठित लोगों, जनसेवकों तथा बुद्धिजीवियों ने भी कोई सबक नहीं सीखा है। यह किसी को नहीं महसूस हुआ कि आधी-अधूरी एवं भ्रष्टाचार मूलक राहत बांटने से समस्या का समाधान नहीं होने वाला है और न ही विशेष पैकेज आदि बनाकर राजनीतिक लाभ उठाने की प्रवृत्ति से।

यह मानव लोभजनित पर्यावरण असंतुलन की लंबी प्रक्रिया की परिणिति है, जिसका मूल 19वीं सदी के जंगलों के सरकारी अधिग्रहण से जुड़ा है। उसी के पश्चात इस देश में जंगल, पहाड़ तथा उनमें सुरक्षित खनिजों का ऐसा अंतहीन शोषण प्रारंभ हुआ जिसका परिणाम आज नदियों की दुर्गति तथा वर्षा और मौसम के असंतुलित होने की अपरिवर्तनीय स्थिति तक अनुभव किया जा रहा है। भूमि, कृषि उद्योग, स्वास्थ्य तथा शिक्षा सभी क्षेत्रों में ग्राम निरपेक्ष, सामान्य जन विरोधी, प्रकृति प्रतिकूल नीतियों ने गांवों को वीरान तथा नगरों को कूड़ादान बना दिया।

आज की अनिवार्य आवश्यकता है कि: -
1. पर्यावरण, अभ्यारण्य, कृषि योग्य जमीनों को नष्ट करने, लाखों लोगों को प्रभावित करने वाली तथा संपूर्ण ग्रामीण जनजीवन को अस्त-व्यस्त कर देने वाली केन-बेतवा लिंक जैसी योजनाओं को तत्काल निरस्त कर देना चाहिए।
2. नदियां यदि प्रवाहित होती रहें, बरसात में मौसमी नालों का यदि उचित प्रबंधन हो तथा इन सब स्रोतों पर चेक डैम बनाकर मंगल टर्बाइन जैसे उपयुक्त एवं कम लागत वाले यंत्र प्रयोग में लाए जाएं तो इस क्षेत्र की जरूरत से अधिक विद्युत का उत्पादन भी हो सकता है। उसके लिए ताप विद्युतगृह या नाभिकीय ऊर्जा का प्रयोग में लाना पूर्णतया निरर्थक तथा पर्यावरण के प्रतिकूल होगा।
3. बुंदेलखंड की जलवायु तथा पारिस्थितिकी के अनुरूप कृषि में शोध के लिए आवश्यक है कि यहां अपने कृषि-विश्वविद्यालय/उच्च स्तरीय शोध संस्थान स्थापित किए जाएं जो यहां की कृषि को सजीव, शाश्वत पर्यानुकूल एवं सार्थक दिशा दे सके। यह पूरे देश के हित में होगा।
4. दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति यह है कि यहां प्रकृति के मूल आधार को नष्ट कर देने वाले जंगल विध्वंस तथा पर्वतों के विनाश को बढ़ावा देने वाले उद्योगों को ही बढ़ावा दिया जा रहा है, यह विषम परिस्थिति है और इससे यहां का जन-जीवन पूरी तरह से बर्बाद हो जाएगा। अतः इस प्रकार के उद्योग अविलंब बंद हो जाने चाहिए।
5. शासन तथा प्रशासन को शिक्षा संबंधी नीतियां बनाते समय स्थानीय संस्कृति, जीवन की समग्रता तथा व्यापकता एवं उसकी प्रभावशीलता का ध्यान रखना चाहिए।

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