बुंदेलखंड में भूजलः केन नदी के ऊपरी जलग्रहण क्षेत्र संरक्षित करने की आवश्यकता

बुंदेलखंड में भूजलः केन नदी के ऊपरी जलग्रहण क्षेत्र संरक्षित करने की आवश्यकता
बुंदेलखंड में भूजलः केन नदी के ऊपरी जलग्रहण क्षेत्र संरक्षित करने की आवश्यकता

पन्ना का गाँव अलोनी, पन्ना (प्रारंभिक मानसून के बाद जून 2014) फोटो - Seema Ravandale

शाहनगर, पन्ना जिले में स्थित कथाय एक एसटी बहुल गांव है। करीब 75 घरों और जंगलों से घिरे इस क्षेत्र को हर वर्ष गर्मियों में 3-4 महीने पानी की भारी किल्लत का सामना करना पड़ता हैं। सरकारी योजनाओं के तहत पिछले 10-15 वर्षों में 3 कुएं और 2 हैंडपंप भी लगाए गए थे, जिसमें से अधिकांश बेकार हैं या यूं कहे कि चलते ही नहीं। समस्या मई-जून के महीने में सर्वाधिक होती हैं, जब पानी की भारी कमी होती हैं और केवल एक सोता (झरना या स्रोत) 75 परिवारों के पीने का पानी उपलब्ध करवाता है।  महिलाओं को पूरी पूरी रात पानी के लिए कतार में लगना पड़ता हैं। बहुत अध्ययन और मिन्नतों के बाद आखिर ग्राम पंचायत द्वारा एक पानी का टैंकर उपलब्ध करवाया गया है, मगर उसमें भी आपूर्ति रुक-रुक कर आती हैं। कुओं और हैंडपंप की स्थिति देखकर पहली नजर में क्षेत्र की भूजल क्षमता बहुत कम लगी। परन्तु गहन शोध बताता हैं कि स्थिति इससे इतर है। ग्रामीणों के अनुसार, पुट्टन घाट में पहले एक बारहमासी तालाब (भरखा) था , जो तकरीबन 208 मीटर लंबा और 2 मीटर गहरा था। क्षेत्र के एक किसान उजियार सिंह के अनुसार  ‘‘सरकार के तालाब के सामने 2001-02 में स्टॉप डैम बनाने से पूर्व गांव में कभी पानी की समस्या नहीं देखी गई थी।’’ उस वक्त कोई उपाय नहीं किया गया। जिसके फलस्वरूप भरखा में 5 से 6 साल के भीतर मलबा और गाद भर गया। कुछ आधार प्रवाह ( स्थानीय भाषा में झिर) भी मलबे के जमा होने से वक्त के साथ गायब होते गए।

शाहनगर ब्लॉक के 26 गांवों में हुआ पीपुल्स साइंस इंस्टीट्यूट का प्रारंभिक मूल्यांकन दर्शाता है कि यदि एक सही योजना बनाई जाती हैं, तो ना केवल पीने का पानी उपलब्ध कर सकते है अपितु हजारों एकड़ की भूमि को भी सींच सकते हैं। अलोनी के ग्रामीणों को गेंहू की फसल के लिए एक दो सिंचाई की आवश्यकता होती है जहां पानी की आपूर्ति ऐसे ही एक बारहमासी कुंड से होती है, जिसे ‘पनघाता कुंड’ भी कहा जाता है, जो तकरीबन 200 फीट लंबा, 2 मीटर गहरा, और 20 मीटर चौड़ा है।  ऐसे ही दो और कुंड हैं जो गर्मियों में घर की जरूरतों के लिए पानी उपलब्ध करवाते हैं। ग्रामीणों की बात से यह जाहिर है कि ऐसे कुंड करीब 300 वर्षों से अधिक समय से उपयोग में आ रहे हैं और कई पारम्परिक तरीके हैं जिन्हें इस्तेमाल कर इनके दोहन से बचा जा सकता हैं। बंजारी के गणेश सिंह गौड़ के अनुसार ‘‘ ‘राजा कुंड’ गोंड के राजा का नहाने का कुंड हुआ करता था, इसमें भगवान का निवास होता है और यदि पानी उनके नीचे गया (पानी का स्तर कम हुआ) तो उस साल गांव में अकाल जरूर होता है। 2017 में लोगों ने पंप चलाकर कुंड खाली किया जिसके फलस्वरूप 2018 में भयंकर अकाल आया और कई मवेशी भी मर गए। इसलिए दो वर्षों से गांव में गेंहू की सिंचाई नहीं की गई है और पानी जानवरों के लिए रखा गया है।’’  इसी प्रकार का मत रायपुरा तहसील के सिहरान गांव के लोगों का भी है। ग्रामीणों के अनुसार शिवपुरी नामक एक मंदिर का निर्माण कुंड में एक मूर्ति मिलने के बाद किया गया। यह कुंड बहुत ही पवित्र माना जाता है और इसी कारण यहां जानवरों के अलावा किसी को पानी लेने की अनुमति नहीं है।

ऐसे कुंड या भारखा केन नदी के ऊपरी जलग्रहण क्षेत्र में आम बात हैं। विभिन्न भूवैज्ञानिक चमत्कार और विशेषताओं से भरपूर इस नदी को प्रो. ब्रिज गोपाल (आइपसीसी कमेटी के सदस्य और जेएनयू के रिटायर्ड प्रोफेसर) और मनोज मिश्रा ( यमुना जिये अभियान के लिए कार्यरत) ने दस्तावेजों के रूप में सहेजा है। पीपुल्स साइंस इंस्टीट्यूट के अनुसार केन नदी के ऊपरी जलग्रहण क्षेत्र पर कोई लिखित दस्तावेज मौजूद नहीं हैं। ये भारखे और कुंड कुछ भूजल बिंदु हैं । बुंदेलखंड के दक्षिणी पत्थर के रेखांकन को विंध्य श्रेणी के रूप में कहा जाता है और इसकी विशेषता बलुआ पत्थर और चूना पत्थर हैं। हजारों वर्षों से चूना पत्थर के कटाव के कारण गड्ढे (गुहाओ) का निर्माण होना एक आम बात हैं।

बुंदेलखंड सूखे और संकट का पर्यायवाची बन गया है, एक दशक से भी अधिक समय से यह क्षेत्र मौसमी सूखा और कृषि सूखे से ग्रसित है। पीने के पानी की तलाश में हुए ‘गांवो के मरुस्थलीकरण’ ने पिछले वर्ष मीडिया का थोड़ा ध्यान अपनी ओर खींचा था। बदलते वक्त के साथ होते जलवायु परिवर्तन से संकट और बढ़ा है। इसलिए आवश्यकता है जल संसाधनों का सही नियोजन करने की। बुंदेलखंड के जल संसाधनों पर यूं तो प्रचूर मात्रा में साहित्य उपलब्ध हैं परन्तु भूजल पर शायद ही कुछ प्रलेख मौजूद हैं। सीजीडब्ल्यूबी और एमपीडब्ल्यूआरडी की भूजल रिपोर्ट के अनुसार दक्षिण पहाड़ी क्षेत्रों की तुलना में उत्तरी क्षेत्रों में भूजल की स्थिति ज्यादा खराब है। यह सभी मूल्यांकन वेधशाला के कुओं और बोरवैलो पर आधारित हैं, जहां बुंदेलखंड के पन्ना, दमोह, सागर और छतरपुर के पहाड़ी जिलों में घनत्व बहुत ही कम हैं। एमपीडब्ल्यूआरडी के भूजल रिचार्ज मूल्यांकन में वे पहाड़ी क्षेत्र शामिल नहीं हैं जहां 20 प्रतिशत से अधिक ढलान है। 

इन क्षेत्रों के आस पास कोई भी गलत नियोजन इन संसाधनों को नष्ट कर सकता है, कथाय गांव इसका बड़ा उदाहरण हैं। अलोनि गांव के खिलवान सिंह और सराईखेडा के मिथला यादव बताते हैं कि सिंचाई के लिए बिजली के पंप आने के बाद से ग्रामीणों ने कुंडों से भारी मात्रा में पानी निकाला है, जिससे वह सूखने के कगार पर पहुंच गए हैं। इसके कारण 2018-19 में पीने के पानी की गंभीर समस्या का भी सामना करना पड़ा था। भूजल क्षमता हर क्षेत्र की भिन्न होती है, हर जगह एक तरह की जल संरक्षण नीतियां काम नहीं कर सकती। समग्र जल प्रबंधन के लिए भूजल और सतही जल दोनों की सही जानकारी होना आवश्यक है। इन अद्वितीय भूजल संसाधनों को भूजल विभाग द्वारा ध्यान देने की आवश्कता है। किसी क्षेत्र की भूजल गतिशीलता (गतिकी) और जल सुरक्षा एक ऐसा मुद्दा है जिस पर जांच और प्रलेखन की गहन आवश्यकता हैं।

 

  1.  https://www.currentscience.ac.in/Volumes/111/12/1914.pdf
  2.  https://sandrp.in/2016/06/25/river-ken-as-i-saw-it/
  3.  https://timesofindia.indiatimes.com/city/bhopal/panna-villagers-migrate-in-search-of-water/articleshow/69640533.cms

 

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Post By: Shivendra
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