बुंदेलखंड को विकास के एक ऐसे देशज क्रांतिकारी नजरिए की जरूरत है जो सूखे को हरियाली में बदल दे। ऐतिहासिक रूप से भी बुंदेलखंड प्रकृति के प्रकोपों से जूझता रहा है। पानी का संकट वहां इसलिए गहराता है क्योंकि वहां की भौगोलिक स्थितियां पानी को टिकने ही नहीं देती हैं। यहां जमीन पथरीली भी है और कुछ इलाकों में उपजाऊ भी।
यही कारण है कि बुंदेलखंड के समाज और राजसत्ता ने तालाबों के निर्माण को तवज्जो दी और ऐसी फसलों को अपनाया जिनमें पानी कम लगता है। भूमि ऊंची-नीची होने के कारण जब तालाब बनाने शुरु किये गये तो ऊपर के तालाबों को नीचे के तालाबों से नालीनुमा नहरों से ऐसे जोड़ा गया जिससे जब ऊपर के तालाब भर जाएं तो पानी उन नालियों के जरिये नीचे के तालाबों की ओर बह कर चला जाए। इससे कम बारिश में भी पानी का अधिकतम उपयोग हो पाता था। बुंदेलखंड का समाज विपरीत परिस्थितियों में जीना सीख चुका था। जल स्त्रोतों के आसपास ही सभ्यताएं पनपी हैं। बुंदेलखंड ने इस सिद्धांत को अच्छे से आत्मसात किया।
बुंदेलखंड में कुल 60,000 हेक्टेयर जंगल है। यहां वन क्षेत्र को और बढ़ाने की बजाए ऐसे उद्योगों को बढ़ावा दिया जा रहा है जो जंगल को बर्बाद कर देंगे और बचे-खुचे पानी के स्त्रोतों का भी विनाश कर देंगे। कम क्षेत्र में जंगल होने के कारण धरती की सतह की उपजाऊ भूमि लगातार बहती गई। फलस्वरूप जमीन पथरीली होती चली गई। इसे सुधारने की जरूरत है। बुंदेलखंड की परिस्थितियों में भू-जल स्त्रोतों का अधिकाधिक दोहन उपयुक्त नहीं है। यह विनाश का कारण हो सकता है। परंतु यहां नलकूपों के जरिए पानी का खूब दोहन किया जा रहा है।
बुन्देलखण्ड क्षेत्र तीस लाख हेक्टेयर में फैला है। इनमें से 24 लाख हेक्टेयर भूमि कृषि योग्य है। परन्तु इनमें से मात्र चार लाख हेक्टेयर भूमि की ही सिंचाई हो पा रही है। इस इलाके में खेती के विकास के लिए सिंचाई की ऐसी योजनाएं ही नहीं बनाई गईं जिनका प्रबंधन कम खर्च में समाज और गांव के स्तर पर ही किया जा सके। बड़े-बड़े बांधों की योजनाओं से 30 हजार हेक्टेयर उपजाऊ जमीन बेकार हो गई। ऊंची लागत के कारण खर्चे बढ़े और तो और ये बांध कभी भी दावों के मुताबिक परिणाम नहीं दे पाए। भारत में जहां 5 वर्ष में एक बार साधारण सूखा पड़ना स्वाभाविक है, परन्तु वास्तविकता यह है कि बुंदेलखंड में पिछले 9 वर्षों में 8 बार गंभीर सूखा पड़ा है।भारत में सबसे ज्यादा बीहड़ मध्यप्रदेश में फैला हुआ है। अब यह संदेह एक सच्चाई का रूप लेता जा रहा है कि सरकार स्वयं जमीन को बीहड़ बनाने में जुटी हुई है। क्योंकि बीहड़ होने का मतलब है ऐसी जमीन को सरकारी तौर पर अनुपजाऊ घोषित किये जाने की प्रक्रिया का शुरु होना। जब जमीन बीहड़ का रूप लेने लगती है तो वह कृषि और जंगल की जमीन की परिभाषा से बाहर हो जाती है और सरकार उसे कारपोरेट व कम्पनियों को बेचने के लिए स्वतंत्र हो जाती है। चम्बल के इलाकों, खास तौर पर मुरैना की हजारों हेक्टेयर जमीन को सरकार ने बड़ी कम्पनियों को सौंपना शुरु कर दिया है। यही प्रक्रिया बुंदेलखंड में भी शुरु हो चुकी है।
आश्चर्य है कि हमारी राज्य और केंद्र सरकारें समुद्र और पहाड़ों से जमीनें निकालने की योजनायें बना रही हैं, परन्तु मध्यप्रदेश में जमीन को बीहड़ होने से बचाने की कोई कार्य योजना दिखाई नहीं देती। जबकि इन जमीनों को समतल करना और उपजाऊ-उपयोगी बनाना आसान है। ऐतिहासिक रूप से बुंदेलखंड ही एक मात्र ऐसा इलाका था जो कभी भी मुगल साम्राज्य के अधीन नहीं रहा।क्योंकि यह प्राकृतिक संसाधनों और बुनियादी जरूरतों जैसे अनाज, पानी और पर्यावरण के मामलों में आत्मनिर्भर राज्य था। इसी आत्मनिर्भरता ने बुंदेलखंड को स्वतंत्र रहने की ताकत दी। इतना ही नहीं अपनी इसी ताकत के दम पर यह इलाका अकबर के साम्राज्य में भी शामिल नहीं हुआ।
यही कारण है कि बुंदेलखंड के समाज और राजसत्ता ने तालाबों के निर्माण को तवज्जो दी और ऐसी फसलों को अपनाया जिनमें पानी कम लगता है। भूमि ऊंची-नीची होने के कारण जब तालाब बनाने शुरु किये गये तो ऊपर के तालाबों को नीचे के तालाबों से नालीनुमा नहरों से ऐसे जोड़ा गया जिससे जब ऊपर के तालाब भर जाएं तो पानी उन नालियों के जरिये नीचे के तालाबों की ओर बह कर चला जाए। इससे कम बारिश में भी पानी का अधिकतम उपयोग हो पाता था। बुंदेलखंड का समाज विपरीत परिस्थितियों में जीना सीख चुका था। जल स्त्रोतों के आसपास ही सभ्यताएं पनपी हैं। बुंदेलखंड ने इस सिद्धांत को अच्छे से आत्मसात किया।बुंदेलखंड में जंगल और जमीन पर घास की गहरी जड़ें न होने के कारण तेज गति से गिरने वाला पानी बीहड़ पैदा कर रहा है। सबको पता है कि चम्बल के इलाके में बीहड़ों में लाखों एकड़ जमीन की बर्बादी ने कई सामाजिक और आर्थिक समस्याएं पैदा की हैं। वर्तमान परिस्थितियों में नदी और जल स्त्रोतों की सीमाओं से सटे क्षेत्रों में बीहड़ बढ़ता जा रहा है।
पिछले 20 वर्षों में यहां अत्यधिक भू-क्षरण हुआ है। बुंदेलखंड में छतरपुर के आसपास और केन-धसान नदी के बीच 1.05 लाख एकड़ के क्षेत्र में जमीन बीहड़ का रूप लेती जा रही है। पन्ना जिले में 50,000 एकड़ जमीन बीहड़ हो रही है। टीकमगढ़ में 12,000 एकड़ में बीहड़ जम रहा है। दतिया में 70,000 एकड़ और दमोह में 62,000 एकड़ जमीन बीहड़ों की चपेट में आती दिख रही है।
ऐसा लग रहा है कि बीहड़ का यह विस्तार बुंदेलखंड को चंबल की घाटियों से जोड़ देगा। ऐसी परिस्थिति में बुंदेलखंड मात्र विकास का नहीं बल्कि कानून-व्यवस्था का मसला भी होगा। बुंदेलखंड के इस बीहड़ीकरण के कारण 471 गांवों के सामने अस्तित्व का खतरा खड़ा हो गया है। यह सब हो रहा है, क्योंकि यहां के विकास की नीतियां स्थानीय समुदाय और प्रकृति से बिना सामंजस्य बिठाये बनाई और लागू की जा रही है।
बुंदेलखंड के अनुभव यह सिद्ध करते हैं कि केवल बारिश में कमी का मतलब सुखाड़ नहीं है, बल्कि व्यावहारिक कारणों और विकास की प्रक्रिया के कारण पर्यावरण चक्र में आ रहे बदलाव सूखे के दायरे को और विस्तार दे रहे हैं। हमारे नीति-नियंता अब भी नहीं समझ पा रहे हैं कि कृषि भारतीय समाज के लिए केवल एक आर्थिक व्यवहार नहीं है। यह भारत की आर्थिक और सामाजिक सुरक्षा का आधार भी है।
यही कारण है कि बुंदेलखंड के समाज और राजसत्ता ने तालाबों के निर्माण को तवज्जो दी और ऐसी फसलों को अपनाया जिनमें पानी कम लगता है। भूमि ऊंची-नीची होने के कारण जब तालाब बनाने शुरु किये गये तो ऊपर के तालाबों को नीचे के तालाबों से नालीनुमा नहरों से ऐसे जोड़ा गया जिससे जब ऊपर के तालाब भर जाएं तो पानी उन नालियों के जरिये नीचे के तालाबों की ओर बह कर चला जाए। इससे कम बारिश में भी पानी का अधिकतम उपयोग हो पाता था। बुंदेलखंड का समाज विपरीत परिस्थितियों में जीना सीख चुका था। जल स्त्रोतों के आसपास ही सभ्यताएं पनपी हैं। बुंदेलखंड ने इस सिद्धांत को अच्छे से आत्मसात किया।
बुंदेलखंड में कुल 60,000 हेक्टेयर जंगल है। यहां वन क्षेत्र को और बढ़ाने की बजाए ऐसे उद्योगों को बढ़ावा दिया जा रहा है जो जंगल को बर्बाद कर देंगे और बचे-खुचे पानी के स्त्रोतों का भी विनाश कर देंगे। कम क्षेत्र में जंगल होने के कारण धरती की सतह की उपजाऊ भूमि लगातार बहती गई। फलस्वरूप जमीन पथरीली होती चली गई। इसे सुधारने की जरूरत है। बुंदेलखंड की परिस्थितियों में भू-जल स्त्रोतों का अधिकाधिक दोहन उपयुक्त नहीं है। यह विनाश का कारण हो सकता है। परंतु यहां नलकूपों के जरिए पानी का खूब दोहन किया जा रहा है।
बुन्देलखण्ड क्षेत्र तीस लाख हेक्टेयर में फैला है। इनमें से 24 लाख हेक्टेयर भूमि कृषि योग्य है। परन्तु इनमें से मात्र चार लाख हेक्टेयर भूमि की ही सिंचाई हो पा रही है। इस इलाके में खेती के विकास के लिए सिंचाई की ऐसी योजनाएं ही नहीं बनाई गईं जिनका प्रबंधन कम खर्च में समाज और गांव के स्तर पर ही किया जा सके। बड़े-बड़े बांधों की योजनाओं से 30 हजार हेक्टेयर उपजाऊ जमीन बेकार हो गई। ऊंची लागत के कारण खर्चे बढ़े और तो और ये बांध कभी भी दावों के मुताबिक परिणाम नहीं दे पाए। भारत में जहां 5 वर्ष में एक बार साधारण सूखा पड़ना स्वाभाविक है, परन्तु वास्तविकता यह है कि बुंदेलखंड में पिछले 9 वर्षों में 8 बार गंभीर सूखा पड़ा है।भारत में सबसे ज्यादा बीहड़ मध्यप्रदेश में फैला हुआ है। अब यह संदेह एक सच्चाई का रूप लेता जा रहा है कि सरकार स्वयं जमीन को बीहड़ बनाने में जुटी हुई है। क्योंकि बीहड़ होने का मतलब है ऐसी जमीन को सरकारी तौर पर अनुपजाऊ घोषित किये जाने की प्रक्रिया का शुरु होना। जब जमीन बीहड़ का रूप लेने लगती है तो वह कृषि और जंगल की जमीन की परिभाषा से बाहर हो जाती है और सरकार उसे कारपोरेट व कम्पनियों को बेचने के लिए स्वतंत्र हो जाती है। चम्बल के इलाकों, खास तौर पर मुरैना की हजारों हेक्टेयर जमीन को सरकार ने बड़ी कम्पनियों को सौंपना शुरु कर दिया है। यही प्रक्रिया बुंदेलखंड में भी शुरु हो चुकी है।
आश्चर्य है कि हमारी राज्य और केंद्र सरकारें समुद्र और पहाड़ों से जमीनें निकालने की योजनायें बना रही हैं, परन्तु मध्यप्रदेश में जमीन को बीहड़ होने से बचाने की कोई कार्य योजना दिखाई नहीं देती। जबकि इन जमीनों को समतल करना और उपजाऊ-उपयोगी बनाना आसान है। ऐतिहासिक रूप से बुंदेलखंड ही एक मात्र ऐसा इलाका था जो कभी भी मुगल साम्राज्य के अधीन नहीं रहा।क्योंकि यह प्राकृतिक संसाधनों और बुनियादी जरूरतों जैसे अनाज, पानी और पर्यावरण के मामलों में आत्मनिर्भर राज्य था। इसी आत्मनिर्भरता ने बुंदेलखंड को स्वतंत्र रहने की ताकत दी। इतना ही नहीं अपनी इसी ताकत के दम पर यह इलाका अकबर के साम्राज्य में भी शामिल नहीं हुआ।
यही कारण है कि बुंदेलखंड के समाज और राजसत्ता ने तालाबों के निर्माण को तवज्जो दी और ऐसी फसलों को अपनाया जिनमें पानी कम लगता है। भूमि ऊंची-नीची होने के कारण जब तालाब बनाने शुरु किये गये तो ऊपर के तालाबों को नीचे के तालाबों से नालीनुमा नहरों से ऐसे जोड़ा गया जिससे जब ऊपर के तालाब भर जाएं तो पानी उन नालियों के जरिये नीचे के तालाबों की ओर बह कर चला जाए। इससे कम बारिश में भी पानी का अधिकतम उपयोग हो पाता था। बुंदेलखंड का समाज विपरीत परिस्थितियों में जीना सीख चुका था। जल स्त्रोतों के आसपास ही सभ्यताएं पनपी हैं। बुंदेलखंड ने इस सिद्धांत को अच्छे से आत्मसात किया।बुंदेलखंड में जंगल और जमीन पर घास की गहरी जड़ें न होने के कारण तेज गति से गिरने वाला पानी बीहड़ पैदा कर रहा है। सबको पता है कि चम्बल के इलाके में बीहड़ों में लाखों एकड़ जमीन की बर्बादी ने कई सामाजिक और आर्थिक समस्याएं पैदा की हैं। वर्तमान परिस्थितियों में नदी और जल स्त्रोतों की सीमाओं से सटे क्षेत्रों में बीहड़ बढ़ता जा रहा है।
पिछले 20 वर्षों में यहां अत्यधिक भू-क्षरण हुआ है। बुंदेलखंड में छतरपुर के आसपास और केन-धसान नदी के बीच 1.05 लाख एकड़ के क्षेत्र में जमीन बीहड़ का रूप लेती जा रही है। पन्ना जिले में 50,000 एकड़ जमीन बीहड़ हो रही है। टीकमगढ़ में 12,000 एकड़ में बीहड़ जम रहा है। दतिया में 70,000 एकड़ और दमोह में 62,000 एकड़ जमीन बीहड़ों की चपेट में आती दिख रही है।
ऐसा लग रहा है कि बीहड़ का यह विस्तार बुंदेलखंड को चंबल की घाटियों से जोड़ देगा। ऐसी परिस्थिति में बुंदेलखंड मात्र विकास का नहीं बल्कि कानून-व्यवस्था का मसला भी होगा। बुंदेलखंड के इस बीहड़ीकरण के कारण 471 गांवों के सामने अस्तित्व का खतरा खड़ा हो गया है। यह सब हो रहा है, क्योंकि यहां के विकास की नीतियां स्थानीय समुदाय और प्रकृति से बिना सामंजस्य बिठाये बनाई और लागू की जा रही है।
बुंदेलखंड के अनुभव यह सिद्ध करते हैं कि केवल बारिश में कमी का मतलब सुखाड़ नहीं है, बल्कि व्यावहारिक कारणों और विकास की प्रक्रिया के कारण पर्यावरण चक्र में आ रहे बदलाव सूखे के दायरे को और विस्तार दे रहे हैं। हमारे नीति-नियंता अब भी नहीं समझ पा रहे हैं कि कृषि भारतीय समाज के लिए केवल एक आर्थिक व्यवहार नहीं है। यह भारत की आर्थिक और सामाजिक सुरक्षा का आधार भी है।
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