पलायन एक महत्वपूर्ण जनांकिकीय घटना है जो जनसंख्या के आकार, वितरण तथा संरचना को शीघ्र प्रभावित करती है। प्रजननशीलता तथा मृत्यु जनसंख्या को बहुत ही धीमी गति से प्रभावित करते हैं। जबकी प्रवास एक अचानक घटना है जिसमें किसी प्रकार की निश्चितता नहीं होती है तथा इसका मापन और अनुमान लगाना संभव नहीं होता है। यदि व्यक्तियों के एक बड़े समूह का एक साथ स्थानांतरण हो जाए तो इससे देश की संपूर्ण अर्थव्यवस्था, सामाजिक एवं सांस्कृतिक व्यवस्था में खलबली मच जाती है। यह सभ्यता, संस्कृति, आचार-विचार तथा जनसंख्या की संरचना आदि में परिवर्तन ला देती है। बुंदेलखंड में ग्रामीणों का पलायन सबसे भयावह परिदृश्य प्रस्तुत करने वाला है। बुंदेलखंड में पलायन के परिदृश्य को समझने की दृष्टि से महोबा जनपद को लिया गया। जहां देश में ग्रामिणों के पलायन की दर सर्वाधिक दर्ज हुई। ग्रामिणों का यह पलायन न विस्थापन की श्रेणी में आता है और न आवागमन की श्रेणी में आता है क्योंकि इस जनपद के गांव-के-गांव अपने जीवन को बचाने के लिए और एक अदद जीविका कमाने के लिए अपने गांव और प्रदेश से सुदृढ़ क्षेत्रों में आए दिन पलायन करते रहते हैं।
मनुष्य उन्नत जीवन की आशा में एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाकर बसता रहा है। इस तरह जनसंख्या के प्रवास का इतिहास अत्यंत प्राचीन एवं विश्वव्यापी रहा है। यदि हम इतिहास पर दृष्टि डालें तो स्पष्ट जानकारी प्राप्त होती है कि ईसा से बहुत पहले आर्य मध्य एशिया से आकर भारत में बसे। मध्यकाल में अंग्रेज एवं फ्रांसीसी उत्तरी अमेरिका एवं आस्ट्रेलिया को प्रवासित हुए। स्पेनी एवं पुर्तगाली दक्षिणी अमेरिका में बसे। यहूदी एवं अरबी लोग उत्तरी अफ्रीका एवं अरब से यूरोप में जा बसे। इस तरह विभिन्न देशों का इतिहास प्रवास की घटनाओं से भरा पड़ा है। यहां यह ध्यान देने वाली बात है कि लम्बे समय अथवा रूप से जाने को ही प्रवर्जन (देशान्तरण) कहा जाता है।
जन्म, मृत्यु एवं प्रवर्जन किसी देश की जनसंख्या को महत्वपूर्ण ढंग से प्रभावित करते हैं। अत: इन तीनों कारकों का अध्ययन करना अवश्यक समझा जाता है। प्रावैगिक जनांकिकी का अध्ययन तब तक अधूरा समझा जाता है जब तक कि पलायन का अध्ययन न किया जाए। किसी समुदाय कि जनसंख्या में वृद्धि तीनों तरीकों से संभव हो सकती है। उस समुदाय में जन्म लेने वालों की संख्या बढ़े, उस समुदाय में मरने वालों की संख्या घटे अथवा उस समुदाय में बाहर से व्यक्ति आए। इसी तरह समुदाय की जनसंख्या में कमी भी तीन तरह से संभव है - उस समुदाय में मरने वालों की संख्या में वृद्धि हो, जन्म लेने वालों कि संख्या में कमी आए अथवा उस समुदाय से कुछ लोग बाहर चले जाएं। इस तरह प्रवास अथवा प्रवर्जन किसी समुदाय की जनसंख्या के वितरण को महत्वपूर्ण ढंग से प्रभावित करता है। किसी समाज में बाहर से व्यक्तियों का आगमन अथवा उस समुदाय से बर्हिगमन को ही संक्षेप में प्रवर्जन या देशान्तरण अथवा पलायन कहा जाता है।
पलायन एक महत्वपूर्ण जनांकिकीय घटना है जो जनसंख्या के आकार, वितरण तथा संरचना को शीघ्र प्रभावित करती है। प्रजननशीलता तथा मृत्यु जनसंख्या को बहुत ही धीमी गति से प्रभावित करते हैं। जबकी प्रवास एक अचानक घटना है जिसमें किसी प्रकार की निश्चितता नहीं होती है तथा इसका मापन और अनुमान लगाना संभव नहीं होता है। यदि व्यक्तियों के एक बड़े समूह का एक साथ स्थानांतरण हो जाए तो इससे देश की संपूर्ण अर्थव्यवस्था, सामाजिक एवं सांस्कृतिक व्यवस्था में खलबली मच जाती है। यह सभ्यता, संस्कृति, आचार-विचार तथा जनसंख्या की संरचना आदि में परिवर्तन ला देती है। पलायन का आर्थिक उतार चढ़ावों राष्ट्रीय तथा अंतरराष्ट्रीय घटनाओं, भौतिक पर्यावरण की प्रकृति, समूह के सामाजिक संगठन, भौगोलिक राजनैतिक तथा जनसंख्या संबंधी कारकों से घनिष्ठतम संबंध होता है। यही कारण है की पलायन जनांकिकीय अध्ययन का एक महत्वपूर्ण अंग है।
समाज वैज्ञानिक बर्कले का विचार है कि अनिश्चित तथा बहुत ही अल्पकाल में भीषण परिवर्तन कर देने की क्षमता के परिणामस्वरूप ही प्रवास का जनांकिकी के लिए विशिष्ट स्थान है। स्पष्ट है कि जनसंख्या में परिवर्तन के तीन मौलिक कारक हैं – प्रजननशीलता एवं मृत्युक्रम में परिवर्तन तथा पलायन जनांकिकी में प्रजननशीलता तथा मृत्युक्रम का अध्ययन एवं विश्लेषण करना तो सहज है, परन्तु प्रवर्जन का नहीं। इसका कारण यह है कि प्रजननशीलता तथा मृत्युक्रम के आंकड़े तो व्यवस्थित ढंग से पंजीकृत किए जा सकते हैं, परन्तु प्रवर्जन संबंधी सभी सूचनाओं का पंजीकरण नहीं हो पाता है। प्रवर्जन से संबंधित उन्हीं सूचनाओं का रिकॉर्ड रखा जाता है जो एक देश से दूसरे देश के लिए अथवा स्थायी रूप से एक स्थान से दूसरे स्थान के लिए होता है। व्यावहारिक दृष्टि से प्रत्येक व्यक्ति के प्रत्येक स्थान परिवर्तन को पंजीकृत करना संभव नहीं हो पाता है।
गांव से ग्रामीणों का जीविका और मजदूरी के लिए पलायन करना कोई नई बात नहीं है। यह सिलसिला सभ्यता के प्रारंभिक दौर से चलता रहा है और यह दुनिया के तमाम हिस्सों में दिखाई देता है। लेकिन भारत के संदर्भ में जब हम यह सब देखते हैं तो ग्रामीणों का यह आवागमन हमें कहीं विस्थापन लगता है और कहीं पलायन, और कहीं-कहीं सामान्य आवामन लगता है। विशेषज्ञों का अनुमान है कि पलायन की मौजूदा गति जारी रही तो अगले 25-30 वर्षों में शहर और गांव की आबादी बराबर हो सकती है। भारत जैसे कृषि प्रधान अर्थव्यवस्था वाले देश के लिए यह स्थिति हानिकारक और भयावाह है। यूं तो पूरी दुनिया में शहरीकरण के विस्तार की प्रवृत्ति को देखते हुए गांव से शहर की ओर पलायन को पूरी तरह रोक पाना संभव नहीं किंतु इसकी रफ्तार को कम करना शहरों और गांवों दोनों की भलाई के लिए आवश्यक है। भारत गांवों का देश है। भारत की अर्थव्यवस्था कृषि आधारित अर्थव्यवस्था है। ग्रामीण अंचलों और देश का विकास खेत-खलिहानों से होकर गुजरता है।
इस अध्ययन को देश के अति पिछड़े क्षेत्र बुंदेलखंड पर केंद्रित किया गया और पाया कि बुंदेलखंड में ग्रामीणों का पलायन सबसे भयावाह परिदृश्य प्रस्तुत करने वाला है। बुंदेलखंड में पलायन के परिदृश्य को समझने की दृष्टि से महोबा जनपद को लिया गया जहां देश में ग्रामीणों के पलायन की दर सर्वाधिक दर्ज हुई। ग्रामीणों का यह पलायन न विस्थापन की श्रेणी में आता है और न आवगमन की श्रेणी में आता है क्योंकि इस जनपद के गांव-के-गांव अपने अपने जीवन को बचाने के लिए और एक अदद जीविका कमाने के लिए अपने गांव और प्रदेश से सुदृढ़ क्षेत्रों में आए दिन पलायन करते हैं ।
देश के इस भूखण्ड में ग्रामीणों को पलायन के लिए मजबूर करने वाली स्थितियां और वजह बहुत गंभीर हैं और व्यापक भी हैं। उनका स्वरूप बहुत सी भिन्नताएं लिए हुए हैं। यहां से कोई साधारण या सामान्य पलायन नहीं हो रहा है। बल्कि यहां एक समय विशेष में तो गांव-के-गांव खाली हो जाते हैं। हजारों और लाखों की संख्या में ग्रामीण घर-बार छोड़कर कमाने, पेट पालने और अपने आश्रितों के भरण पोषण के लिए बाहर निकल लेते हैं। बुंदेलखंड में यह पलायन बहुत से आयाम लिए है, जो गहन जांच-पड़ताल की मांग करते है। बुंदेलखंड में पलायन की समस्या को गहराई से समझने की आवश्यकता है। भारत की जनगणना 2001 में देश के मानचित्र पर महोबा एक ऐसा जनपद बनकर उभरा जहां की जनसंख्या सबसे कम पाई गई और ग्राफ निरंतर नीचे की तरफ जाता दिख रहा है।
प्रथम दृष्टया इसके मूल में बड़ा कारण बुंदेलखंड के इस जनपद से बड़ी संख्या में ग्रामीणों का पलायन करना ही है। जनपद महोबा के पनवाड़ी ब्लॉक हीमपुर पिरथ्या के ग्रामीणों से लम्बी चर्चाओं के आधार पर कुछ तथ्य निकाले हैं। करीब एक सैंकड़ा ग्रामीणों से कई चरणों में बातचीत की गई। इस गांव के लोग नोएडा, दिल्ली, सूरत, अहमदाबाद, पंजाब, मुम्बई, तथा कुछ देश के अन्य हिस्सों में भट्टों पर काम करने जाते हैं। ग्रामीणों का यह पलायन आम है उनकी कई पीढ़ियां इसी तरह जीवन बसर करती आ रही हैं।
आजादी के 67 वर्ष बीत जाने के बाद भी देश के विभिन्न हिस्सों से ग्रामीणों का इस तरह पलायन करना चिंता का विषय है। 21वीं सदी और नई वैश्विक अर्थव्यवस्था के साथ भूमंडलीकरण के दौर में बुंदेलखंड में जीविका का संकट और उसके परिणामस्वरूप उच्च स्तर पर ग्रामीणों का पलायन हमारे विकास मॉडल पर प्रश्नचिन्ह लगाता है, साथ ही हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था और छदम अर्थव्यवस्था को भी कटघरे में खड़ा करता है।
बुंदेलखंड के गांवों से यह पलायन इतिहास के उस सामान्य क्रम को उलटने-पलटाने वाला दिखाई दे रहा है, जिसमें ये भूखण्ड कभी गौरवशील और वैभव वाला रहा है। महोबा को वीरों की भूमि कहा जाता है और ऐतिहासिक विरासत के तौर पर मजबूत अर्थव्यवस्था वाला हिस्सा रहा है। लेकिन यह सब इतिहास की बाते लगती हैं। आज जो वर्तमान दिखाई दे रहा है उसी से भविष्य भी बनेगा-बिगड़ेगा। बुंदेलखंड का समृद्ध इतिहास भले ही कितना गौरवशाली रहा हो बुन्देली समाज कितना गौरवमयी रहा हो, प्राकृतिक संसाधनों की कितनी भी प्रचुरता प्रकृति ने इस धरती को दी हो किंतु आज इसका वर्तमान इतना अंधकारमय दिखता है जहां विकास का कोई चिन्ह नजर नहीं आता। मेहनत मजदूरी के लिए यहां की एक के बाद एक पीढ़ी पलायन करती है। अपने लिए और अपनों के लिए देश के विभिन्न हिस्सों में दिन-रात खटती है। पलायन बुंदेलखंड के इन बाशिन्दों की नियति बन चुका है।
बुंदेलखंड में ग्रामीणों के पलायन पर केन्द्रित इस अध्ययन में गहन तरीकों से वैज्ञानिक विधियों प्रविधियों का प्रयोग करते हुए पलायन के कारणों की तह में जाने का प्रयास किया गया। क्योंकि बुंदेलखंड से ग्रामीणों का पलायन कोई सामान्य घटना नहीं है, यह आधुनिक सभ्यता पर गंभीर चुनौती है, सूखा, भय, भूख, गरीबी, बेकारी, अशिक्षा, अन्धविश्वाश इस भूक्षेत्र को निरंतर अंधकार की खाई में धकेलते नजर आ रहे हैं। प्रस्तुत अध्ययन पलायन के बदलते परिदृश्य को समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण से समग्रता के साथ समझने का प्रयास है। पलायन के विभिन्न आयामों, उन परिस्थितियों और कारणों को गहराई से चिन्हित करना है, साथ ही पलायन के प्रभाव और परिमाणों के परिणामस्वरूप देश का यह हिस्सा किन सामाजिक सांस्कृतिक समस्याओं का शिकार हो रहा है और किस तरह की आर्थिक-राजनीतिक गतिविधियों को आयोजित कर रहा है। ग्रामीणों के पलायन के कारणों को जानने की दृष्टि से पलायन के समाजशास्त्र को जानने की दिशा में इन बिन्दुओं पर ध्यान केन्द्रित किय़ा गया है कि पलायन करने वाले ग्रामीणों की पृष्ठभूमि क्या है? बुंदेलखंड में ग्रामीणों के पलायन करने के मुख्य कारण/कारक कौन से हैं? ग्रामीणों के जीवन पर पलायन के प्रभाव एवं परिमाण किस रूप में सामने आए हैं?
बुंदेलखंड में ग्रामीणों के पलायन के उभरते परिदृश्य को समझने के लिए तथ्यों/सूचनाओं को जुटाने की कोशिश की गई है। सर्वप्रथम उन ग्रामों को चिन्हित किया गया जहां पलायन अधिक है। पलायन करने वाले ग्रामीणों की सामाजिक आर्थिक पृष्ठभूमि को जानने की कोशिश की गई। ये पलायन करने वाले ग्रामीण कौन है? किस आयु समूह के लोग ज्यादा पलायन कर रहे हैं? किस जाति उपजाति के लोग अधिक पलायन कर रहे हैं? गांव में यह किस मौसम में कम/ज्यादा होता है? पलायन करने वाले किस सामाजिक/राजनीतिक हैसियत के लोग हैं? ग्रामीणों का यह पलायन वैयक्तिक स्तर पर अधिक दिखता है या पारिवारिक और सामूहिक स्तर पर ज्यादा है? पलायन करने वालों की आर्थिक स्थिति कैसी है? पलायन के समाजशास्त्र को सही ढंग से और सही अर्थों में जानने समझने के लिए पहली शर्त यही है कि जो पलायन कर रहे हैं यह पलायन उन ग्रामीणों के लिए कितना जरूरी है और कितनी उनकी मजबूरी है? यह सब जानने की दिशा में उनकी पृष्ठभूमि की जानकारी अहम होगी।
दूसरे ग्रामीणों के पलायन के कारणों को जानने की कोशिश की गई है। आखिर वे कौन से कारण हैं जिनके चलते ग्रामीण बड़े स्तर पर बुंदेलखंड से पलायन कर रहे हैं। चूंकि महोबा जनपद में देश के अन्य इलाकों से ग्रामीणों के पलायन की दर सर्वाधिक है। इस उच्च दर के पीछे कौन से कारक काम कर रहे हैं। पलायन की यह ऊंची दर इन ग्रामीणों में किन वजहों से है? पलायन के लिए ग्रामीणों को प्रेरित करने वाले कारक कहां हैं? कौन से हैं? बुंदेलखंड में ग्रामीणों के पलायन के प्रेरक स्रोत उनके अस्तित्व के लिए संघर्ष से पनपते हैं या व्यक्तित्व विकास की शिथिलता के धरातल का विस्तार करते हैं, इन करकों की प्रकृति क्या है?
बुंदेलखंड में पलायन के कारणों को जानने समझने की दिशा में उन शक्तियों को पहचानने की कोशिश की गई है जो बुंदेलखंड में पलायन को राह देती हैं। इसी उद्देश्य के साथ अध्ययन में उन वजहों को गहराई से खोजने की कोशिश की गई है, जो इस क्षेत्र में पलायन का कारण बन रही है। पलायन के समाजशास्त्र को समझकर उसकी सही समीक्षा कर सकेंगे और बुंदेली समाज मे हो रहे परिवर्तनों की दशा-दिशा और गति को समझने में सफल हो सकेंगे।
तीसरे, पलायन करने ग्रामीणों की पृष्ठभूमि को जानने के साथ पलायन के कारणों की समझ विकसित करते हुए अंतत: यह जानने की कोशिश की गई है कि बुंदेलखंड में ग्रामीणों के जीवन पर पलायन के प्रभाव किस दिशा में सामने आ रहे हैं। ग्रामीणों पर पलायन का प्रभाव किस दिशा में और कैसा है? पलायन के परिणाम ग्रामीणों के जीवन को किस दिशा में परिवर्तित कर रहे हैं। आखिर यह पलायन सकारात्मक ढंग से उनके जीवन को प्रभावित कर रहा है। यदि पलायन के परिणाम मिले-जुले दिखाई दे रहे हैं तो इनमें ग्रामीणों के जीवन और विकास के लिए क्या अहम है। ये प्रभाव उनके लिए अच्छे या बुरे हैं, इन सभी बिंदुओं को ध्यान में रख कर बुंदेलखंड के महोबा जनपद के ग्रामीणें में पलायन के प्रभाव व परिणाम को गहराई से समझने का प्रयास किया गया ताकि उच्च स्तर पर हो रहे ग्रामीणों के पलायन की समस्या को समझा जा सके। उसके समाधान की दिशा में बढ़ा जा सके और पलायन के मूल में क्या है? इस समस्या का समाधान कैसे हो?
अशिक्षा, गरीबी व बेरोजगारी ये तीन प्रमुख कारण हैं जो ग्रामीणों के पलायन का कारण बनते हैं। बुंदेलखंड में परंपरागत जाति व्यवस्था का शिकंजा इतना मजबूत है कि शासन और प्रशासन भी सामूहिक अन्याय का मुकाबला करने वालों के प्रति उदासीन बना रहता है जिसमें सड़ते और दबते रहने की बजाय लोग गांव से पलायन करना पसंद करते हैं।
बुंदेलखंड में ग्रामीणों का रोजी-रोटी की तालाश में शहरों, कस्बों में जाना आवश्यक हो गया। इस प्रकार गांवों में रोजगार की अपर्याप्तता शहरों की ओर पलायन के प्रमुख कारणों में से एक है। आजादी के बाद भारत में देश के आर्थिक विकास को बढ़ावा देने के इरादे से छोटे-बड़े उद्योगों की स्थापना का अभियान चलाया गया। ये सभी उद्योग शहरों में लगाए गए जिसके कारण ग्रामीण लोगों का रोजगार की तालाश एवं अजिविका के लिए शहरों में पलायन करना आवश्यक हो गया। निरंतर कृषि योग्य भूमि का घटता जाना और कृषि की उपेक्षा तथा उस पर आधारित उद्योगों का विलोपन भी बुंदेलखंड के गांवों से ग्रामीणों के पलायन का अहम कारण है।
बुंदेलखंड में ग्रामीणों के गांवों से पलायन कर जाने के परिणाम भयावह रूप में सामने आ रहे हैं। जहां गांवों में सन्नाटा पसरा है। वहीं ग्रामीण सामाजिक संरचना छिन्न-भिन्न नजर आती है। गांवों में सिर्फ बुजुर्ग और बच्चे दिखाई देते हैं। पलायन करने वाले परिवारों के सामाजिक संबंध भी प्रभावित होते हैं जो अपने रिश्ते-नातेदारों से लम्बे समय तक नहीं मिल पाते। वहीं बहुत सारे तीज-त्योहार, प्रथाओं व परंपराओं का निर्वाह नियमित और नियमबद्ध ढंग से नहीं कर पाते हैं।
बच्चों की शिक्षा पर बुरा असर पड़ता है। इन गांवों में ड्रॉप आउट दर उच्च है। महिलों की स्थिति दयनीय है। पलायन के परिणामस्वरूप ये ग्रामीण महिलाएं दोहरे शोषण का शिकार होती है। परिवार में दोहरे कामों का बोझ, परिजनों की हिंसा का शिकार वही बाहरी लोगों द्वारा कार्यस्थलों पर तरह-तरह के शोषण को झेलती है। बही पलायन करने वाले सभी लोगों को कार्यस्थलों पर विषयम परिस्थितियों में कार्य करने को मजबूर होना पड़ता है। निष्कर्षत: पलायन के परिणाम नकारात्मक ढंग से ग्रामीणों को प्रभावित करने वाले हैं और उनके सामाजिक सांस्कृतिक आर्थिक और राजनैतिक जीवन को तबाह करने वाले सिद्ध हो रहे हैं।
ग्रामीण पलायन रोकने के लिए समानता और न्याय पर आधारित सामाजिक व्यवस्था कायम करना भी उतना ही आवश्यक है जितना गांवों की स्थिति में सुधार लाना। इसलिए सभी विकास योजनाओं में उपेक्षित वर्गों और अनुसुचित जातियों व जनजातियों को विशेष रियायतें दी गई इसके अलावा महिलाओं के लिए स्वयंसहायता समूहों के जरिए विभिन्न व्यवसाय चलाने, स्वरोजगार प्रशिक्षण, वृद्धावस्था पेंशन योजना, विधवा पेंशन योजना, छात्रवृत्ति योजना, राष्ट्रीय परिवार लाभ योजना जैसे अनेक कार्यक्रम चलाए जा रहे हैं जिनसे लाभ उठाकर गरीब तथा उपेक्षित वर्गों के लोग अपना तथा अपने परिवार का उत्थान कर सकते हैं। इससे आर्थिक व सामाजिक असमानता कम होगी और ग्रामीण जीवन अधिक खुशहाल बन सकेगा।
बुंदेलखंड के गांवों से ग्रामीणों के पलायन के समाधान की दिशा में स्वयंसहायता समूह एक प्रभावी पहल हो सकते हैं। ये समरूप ग्रामीण निर्धनों द्वारा स्वेच्छा से गठित समूह होते हैं जिसमें समूह के सदस्य आपसी राय से जितनी भी बचत आसानी से कर सकते हैं उसका अंशदान एक सम्मिलित निधि में करते हैं तथा समूह के सदस्यों की उस धनराशि को उत्पादकता अथवा आपातकालीन आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु ऋण के रूप में देने के लिए परस्पर सहमति होती है। इन स्वयंसहायता समूहों का उद्देश्य गरीबों की पहुंच ऋण तक सुनिश्चित करने के लिए कारगर व अल्पव्ययी साधन उपलब्ध कराना और साथ ही बचत व बैंकिंग की आदत डालना है। साथ ही निर्धनों में नेतृत्व क्षमता का विकास करना और उन्हें सामर्थ्यवान बनाना है। स्वयंसहायता समूहों की भूमिका आय संवर्धन में अति आवश्यक है। रोज की मजदूरी/आय से जमा की गई सामूहिक बचत से एक बड़ी धनराशि तैयार हो सकती है जिसके द्वारा छोटा-मोटा रोजगार/उपक्रम खड़ा किया जा सकता है जो रोजगार का साधन बन सकता है और पलायन के परिदृश्य को सकारात्मक रूप दिया जा सकता है।
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं)
ई-मेल- ranasundarsingh.@gmail.com
मनुष्य उन्नत जीवन की आशा में एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाकर बसता रहा है। इस तरह जनसंख्या के प्रवास का इतिहास अत्यंत प्राचीन एवं विश्वव्यापी रहा है। यदि हम इतिहास पर दृष्टि डालें तो स्पष्ट जानकारी प्राप्त होती है कि ईसा से बहुत पहले आर्य मध्य एशिया से आकर भारत में बसे। मध्यकाल में अंग्रेज एवं फ्रांसीसी उत्तरी अमेरिका एवं आस्ट्रेलिया को प्रवासित हुए। स्पेनी एवं पुर्तगाली दक्षिणी अमेरिका में बसे। यहूदी एवं अरबी लोग उत्तरी अफ्रीका एवं अरब से यूरोप में जा बसे। इस तरह विभिन्न देशों का इतिहास प्रवास की घटनाओं से भरा पड़ा है। यहां यह ध्यान देने वाली बात है कि लम्बे समय अथवा रूप से जाने को ही प्रवर्जन (देशान्तरण) कहा जाता है।
जन्म, मृत्यु एवं प्रवर्जन किसी देश की जनसंख्या को महत्वपूर्ण ढंग से प्रभावित करते हैं। अत: इन तीनों कारकों का अध्ययन करना अवश्यक समझा जाता है। प्रावैगिक जनांकिकी का अध्ययन तब तक अधूरा समझा जाता है जब तक कि पलायन का अध्ययन न किया जाए। किसी समुदाय कि जनसंख्या में वृद्धि तीनों तरीकों से संभव हो सकती है। उस समुदाय में जन्म लेने वालों की संख्या बढ़े, उस समुदाय में मरने वालों की संख्या घटे अथवा उस समुदाय में बाहर से व्यक्ति आए। इसी तरह समुदाय की जनसंख्या में कमी भी तीन तरह से संभव है - उस समुदाय में मरने वालों की संख्या में वृद्धि हो, जन्म लेने वालों कि संख्या में कमी आए अथवा उस समुदाय से कुछ लोग बाहर चले जाएं। इस तरह प्रवास अथवा प्रवर्जन किसी समुदाय की जनसंख्या के वितरण को महत्वपूर्ण ढंग से प्रभावित करता है। किसी समाज में बाहर से व्यक्तियों का आगमन अथवा उस समुदाय से बर्हिगमन को ही संक्षेप में प्रवर्जन या देशान्तरण अथवा पलायन कहा जाता है।
पलायन एक महत्वपूर्ण जनांकिकीय घटना है जो जनसंख्या के आकार, वितरण तथा संरचना को शीघ्र प्रभावित करती है। प्रजननशीलता तथा मृत्यु जनसंख्या को बहुत ही धीमी गति से प्रभावित करते हैं। जबकी प्रवास एक अचानक घटना है जिसमें किसी प्रकार की निश्चितता नहीं होती है तथा इसका मापन और अनुमान लगाना संभव नहीं होता है। यदि व्यक्तियों के एक बड़े समूह का एक साथ स्थानांतरण हो जाए तो इससे देश की संपूर्ण अर्थव्यवस्था, सामाजिक एवं सांस्कृतिक व्यवस्था में खलबली मच जाती है। यह सभ्यता, संस्कृति, आचार-विचार तथा जनसंख्या की संरचना आदि में परिवर्तन ला देती है। पलायन का आर्थिक उतार चढ़ावों राष्ट्रीय तथा अंतरराष्ट्रीय घटनाओं, भौतिक पर्यावरण की प्रकृति, समूह के सामाजिक संगठन, भौगोलिक राजनैतिक तथा जनसंख्या संबंधी कारकों से घनिष्ठतम संबंध होता है। यही कारण है की पलायन जनांकिकीय अध्ययन का एक महत्वपूर्ण अंग है।
समाज वैज्ञानिक बर्कले का विचार है कि अनिश्चित तथा बहुत ही अल्पकाल में भीषण परिवर्तन कर देने की क्षमता के परिणामस्वरूप ही प्रवास का जनांकिकी के लिए विशिष्ट स्थान है। स्पष्ट है कि जनसंख्या में परिवर्तन के तीन मौलिक कारक हैं – प्रजननशीलता एवं मृत्युक्रम में परिवर्तन तथा पलायन जनांकिकी में प्रजननशीलता तथा मृत्युक्रम का अध्ययन एवं विश्लेषण करना तो सहज है, परन्तु प्रवर्जन का नहीं। इसका कारण यह है कि प्रजननशीलता तथा मृत्युक्रम के आंकड़े तो व्यवस्थित ढंग से पंजीकृत किए जा सकते हैं, परन्तु प्रवर्जन संबंधी सभी सूचनाओं का पंजीकरण नहीं हो पाता है। प्रवर्जन से संबंधित उन्हीं सूचनाओं का रिकॉर्ड रखा जाता है जो एक देश से दूसरे देश के लिए अथवा स्थायी रूप से एक स्थान से दूसरे स्थान के लिए होता है। व्यावहारिक दृष्टि से प्रत्येक व्यक्ति के प्रत्येक स्थान परिवर्तन को पंजीकृत करना संभव नहीं हो पाता है।
गांव से ग्रामीणों का जीविका और मजदूरी के लिए पलायन करना कोई नई बात नहीं है। यह सिलसिला सभ्यता के प्रारंभिक दौर से चलता रहा है और यह दुनिया के तमाम हिस्सों में दिखाई देता है। लेकिन भारत के संदर्भ में जब हम यह सब देखते हैं तो ग्रामीणों का यह आवागमन हमें कहीं विस्थापन लगता है और कहीं पलायन, और कहीं-कहीं सामान्य आवामन लगता है। विशेषज्ञों का अनुमान है कि पलायन की मौजूदा गति जारी रही तो अगले 25-30 वर्षों में शहर और गांव की आबादी बराबर हो सकती है। भारत जैसे कृषि प्रधान अर्थव्यवस्था वाले देश के लिए यह स्थिति हानिकारक और भयावाह है। यूं तो पूरी दुनिया में शहरीकरण के विस्तार की प्रवृत्ति को देखते हुए गांव से शहर की ओर पलायन को पूरी तरह रोक पाना संभव नहीं किंतु इसकी रफ्तार को कम करना शहरों और गांवों दोनों की भलाई के लिए आवश्यक है। भारत गांवों का देश है। भारत की अर्थव्यवस्था कृषि आधारित अर्थव्यवस्था है। ग्रामीण अंचलों और देश का विकास खेत-खलिहानों से होकर गुजरता है।
इस अध्ययन को देश के अति पिछड़े क्षेत्र बुंदेलखंड पर केंद्रित किया गया और पाया कि बुंदेलखंड में ग्रामीणों का पलायन सबसे भयावाह परिदृश्य प्रस्तुत करने वाला है। बुंदेलखंड में पलायन के परिदृश्य को समझने की दृष्टि से महोबा जनपद को लिया गया जहां देश में ग्रामीणों के पलायन की दर सर्वाधिक दर्ज हुई। ग्रामीणों का यह पलायन न विस्थापन की श्रेणी में आता है और न आवगमन की श्रेणी में आता है क्योंकि इस जनपद के गांव-के-गांव अपने अपने जीवन को बचाने के लिए और एक अदद जीविका कमाने के लिए अपने गांव और प्रदेश से सुदृढ़ क्षेत्रों में आए दिन पलायन करते हैं ।
देश के इस भूखण्ड में ग्रामीणों को पलायन के लिए मजबूर करने वाली स्थितियां और वजह बहुत गंभीर हैं और व्यापक भी हैं। उनका स्वरूप बहुत सी भिन्नताएं लिए हुए हैं। यहां से कोई साधारण या सामान्य पलायन नहीं हो रहा है। बल्कि यहां एक समय विशेष में तो गांव-के-गांव खाली हो जाते हैं। हजारों और लाखों की संख्या में ग्रामीण घर-बार छोड़कर कमाने, पेट पालने और अपने आश्रितों के भरण पोषण के लिए बाहर निकल लेते हैं। बुंदेलखंड में यह पलायन बहुत से आयाम लिए है, जो गहन जांच-पड़ताल की मांग करते है। बुंदेलखंड में पलायन की समस्या को गहराई से समझने की आवश्यकता है। भारत की जनगणना 2001 में देश के मानचित्र पर महोबा एक ऐसा जनपद बनकर उभरा जहां की जनसंख्या सबसे कम पाई गई और ग्राफ निरंतर नीचे की तरफ जाता दिख रहा है।
प्रथम दृष्टया इसके मूल में बड़ा कारण बुंदेलखंड के इस जनपद से बड़ी संख्या में ग्रामीणों का पलायन करना ही है। जनपद महोबा के पनवाड़ी ब्लॉक हीमपुर पिरथ्या के ग्रामीणों से लम्बी चर्चाओं के आधार पर कुछ तथ्य निकाले हैं। करीब एक सैंकड़ा ग्रामीणों से कई चरणों में बातचीत की गई। इस गांव के लोग नोएडा, दिल्ली, सूरत, अहमदाबाद, पंजाब, मुम्बई, तथा कुछ देश के अन्य हिस्सों में भट्टों पर काम करने जाते हैं। ग्रामीणों का यह पलायन आम है उनकी कई पीढ़ियां इसी तरह जीवन बसर करती आ रही हैं।
आजादी के 67 वर्ष बीत जाने के बाद भी देश के विभिन्न हिस्सों से ग्रामीणों का इस तरह पलायन करना चिंता का विषय है। 21वीं सदी और नई वैश्विक अर्थव्यवस्था के साथ भूमंडलीकरण के दौर में बुंदेलखंड में जीविका का संकट और उसके परिणामस्वरूप उच्च स्तर पर ग्रामीणों का पलायन हमारे विकास मॉडल पर प्रश्नचिन्ह लगाता है, साथ ही हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था और छदम अर्थव्यवस्था को भी कटघरे में खड़ा करता है।
बुंदेलखंड के गांवों से यह पलायन इतिहास के उस सामान्य क्रम को उलटने-पलटाने वाला दिखाई दे रहा है, जिसमें ये भूखण्ड कभी गौरवशील और वैभव वाला रहा है। महोबा को वीरों की भूमि कहा जाता है और ऐतिहासिक विरासत के तौर पर मजबूत अर्थव्यवस्था वाला हिस्सा रहा है। लेकिन यह सब इतिहास की बाते लगती हैं। आज जो वर्तमान दिखाई दे रहा है उसी से भविष्य भी बनेगा-बिगड़ेगा। बुंदेलखंड का समृद्ध इतिहास भले ही कितना गौरवशाली रहा हो बुन्देली समाज कितना गौरवमयी रहा हो, प्राकृतिक संसाधनों की कितनी भी प्रचुरता प्रकृति ने इस धरती को दी हो किंतु आज इसका वर्तमान इतना अंधकारमय दिखता है जहां विकास का कोई चिन्ह नजर नहीं आता। मेहनत मजदूरी के लिए यहां की एक के बाद एक पीढ़ी पलायन करती है। अपने लिए और अपनों के लिए देश के विभिन्न हिस्सों में दिन-रात खटती है। पलायन बुंदेलखंड के इन बाशिन्दों की नियति बन चुका है।
बुंदेलखंड में ग्रामीणों के पलायन पर केन्द्रित इस अध्ययन में गहन तरीकों से वैज्ञानिक विधियों प्रविधियों का प्रयोग करते हुए पलायन के कारणों की तह में जाने का प्रयास किया गया। क्योंकि बुंदेलखंड से ग्रामीणों का पलायन कोई सामान्य घटना नहीं है, यह आधुनिक सभ्यता पर गंभीर चुनौती है, सूखा, भय, भूख, गरीबी, बेकारी, अशिक्षा, अन्धविश्वाश इस भूक्षेत्र को निरंतर अंधकार की खाई में धकेलते नजर आ रहे हैं। प्रस्तुत अध्ययन पलायन के बदलते परिदृश्य को समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण से समग्रता के साथ समझने का प्रयास है। पलायन के विभिन्न आयामों, उन परिस्थितियों और कारणों को गहराई से चिन्हित करना है, साथ ही पलायन के प्रभाव और परिमाणों के परिणामस्वरूप देश का यह हिस्सा किन सामाजिक सांस्कृतिक समस्याओं का शिकार हो रहा है और किस तरह की आर्थिक-राजनीतिक गतिविधियों को आयोजित कर रहा है। ग्रामीणों के पलायन के कारणों को जानने की दृष्टि से पलायन के समाजशास्त्र को जानने की दिशा में इन बिन्दुओं पर ध्यान केन्द्रित किय़ा गया है कि पलायन करने वाले ग्रामीणों की पृष्ठभूमि क्या है? बुंदेलखंड में ग्रामीणों के पलायन करने के मुख्य कारण/कारक कौन से हैं? ग्रामीणों के जीवन पर पलायन के प्रभाव एवं परिमाण किस रूप में सामने आए हैं?
बुंदेलखंड में ग्रामीणों के पलायन के उभरते परिदृश्य को समझने के लिए तथ्यों/सूचनाओं को जुटाने की कोशिश की गई है। सर्वप्रथम उन ग्रामों को चिन्हित किया गया जहां पलायन अधिक है। पलायन करने वाले ग्रामीणों की सामाजिक आर्थिक पृष्ठभूमि को जानने की कोशिश की गई। ये पलायन करने वाले ग्रामीण कौन है? किस आयु समूह के लोग ज्यादा पलायन कर रहे हैं? किस जाति उपजाति के लोग अधिक पलायन कर रहे हैं? गांव में यह किस मौसम में कम/ज्यादा होता है? पलायन करने वाले किस सामाजिक/राजनीतिक हैसियत के लोग हैं? ग्रामीणों का यह पलायन वैयक्तिक स्तर पर अधिक दिखता है या पारिवारिक और सामूहिक स्तर पर ज्यादा है? पलायन करने वालों की आर्थिक स्थिति कैसी है? पलायन के समाजशास्त्र को सही ढंग से और सही अर्थों में जानने समझने के लिए पहली शर्त यही है कि जो पलायन कर रहे हैं यह पलायन उन ग्रामीणों के लिए कितना जरूरी है और कितनी उनकी मजबूरी है? यह सब जानने की दिशा में उनकी पृष्ठभूमि की जानकारी अहम होगी।
दूसरे ग्रामीणों के पलायन के कारणों को जानने की कोशिश की गई है। आखिर वे कौन से कारण हैं जिनके चलते ग्रामीण बड़े स्तर पर बुंदेलखंड से पलायन कर रहे हैं। चूंकि महोबा जनपद में देश के अन्य इलाकों से ग्रामीणों के पलायन की दर सर्वाधिक है। इस उच्च दर के पीछे कौन से कारक काम कर रहे हैं। पलायन की यह ऊंची दर इन ग्रामीणों में किन वजहों से है? पलायन के लिए ग्रामीणों को प्रेरित करने वाले कारक कहां हैं? कौन से हैं? बुंदेलखंड में ग्रामीणों के पलायन के प्रेरक स्रोत उनके अस्तित्व के लिए संघर्ष से पनपते हैं या व्यक्तित्व विकास की शिथिलता के धरातल का विस्तार करते हैं, इन करकों की प्रकृति क्या है?
बुंदेलखंड में पलायन के कारणों को जानने समझने की दिशा में उन शक्तियों को पहचानने की कोशिश की गई है जो बुंदेलखंड में पलायन को राह देती हैं। इसी उद्देश्य के साथ अध्ययन में उन वजहों को गहराई से खोजने की कोशिश की गई है, जो इस क्षेत्र में पलायन का कारण बन रही है। पलायन के समाजशास्त्र को समझकर उसकी सही समीक्षा कर सकेंगे और बुंदेली समाज मे हो रहे परिवर्तनों की दशा-दिशा और गति को समझने में सफल हो सकेंगे।
तीसरे, पलायन करने ग्रामीणों की पृष्ठभूमि को जानने के साथ पलायन के कारणों की समझ विकसित करते हुए अंतत: यह जानने की कोशिश की गई है कि बुंदेलखंड में ग्रामीणों के जीवन पर पलायन के प्रभाव किस दिशा में सामने आ रहे हैं। ग्रामीणों पर पलायन का प्रभाव किस दिशा में और कैसा है? पलायन के परिणाम ग्रामीणों के जीवन को किस दिशा में परिवर्तित कर रहे हैं। आखिर यह पलायन सकारात्मक ढंग से उनके जीवन को प्रभावित कर रहा है। यदि पलायन के परिणाम मिले-जुले दिखाई दे रहे हैं तो इनमें ग्रामीणों के जीवन और विकास के लिए क्या अहम है। ये प्रभाव उनके लिए अच्छे या बुरे हैं, इन सभी बिंदुओं को ध्यान में रख कर बुंदेलखंड के महोबा जनपद के ग्रामीणें में पलायन के प्रभाव व परिणाम को गहराई से समझने का प्रयास किया गया ताकि उच्च स्तर पर हो रहे ग्रामीणों के पलायन की समस्या को समझा जा सके। उसके समाधान की दिशा में बढ़ा जा सके और पलायन के मूल में क्या है? इस समस्या का समाधान कैसे हो?
अशिक्षा, गरीबी व बेरोजगारी ये तीन प्रमुख कारण हैं जो ग्रामीणों के पलायन का कारण बनते हैं। बुंदेलखंड में परंपरागत जाति व्यवस्था का शिकंजा इतना मजबूत है कि शासन और प्रशासन भी सामूहिक अन्याय का मुकाबला करने वालों के प्रति उदासीन बना रहता है जिसमें सड़ते और दबते रहने की बजाय लोग गांव से पलायन करना पसंद करते हैं।
बुंदेलखंड में ग्रामीणों का रोजी-रोटी की तालाश में शहरों, कस्बों में जाना आवश्यक हो गया। इस प्रकार गांवों में रोजगार की अपर्याप्तता शहरों की ओर पलायन के प्रमुख कारणों में से एक है। आजादी के बाद भारत में देश के आर्थिक विकास को बढ़ावा देने के इरादे से छोटे-बड़े उद्योगों की स्थापना का अभियान चलाया गया। ये सभी उद्योग शहरों में लगाए गए जिसके कारण ग्रामीण लोगों का रोजगार की तालाश एवं अजिविका के लिए शहरों में पलायन करना आवश्यक हो गया। निरंतर कृषि योग्य भूमि का घटता जाना और कृषि की उपेक्षा तथा उस पर आधारित उद्योगों का विलोपन भी बुंदेलखंड के गांवों से ग्रामीणों के पलायन का अहम कारण है।
बुंदेलखंड में ग्रामीणों के गांवों से पलायन कर जाने के परिणाम भयावह रूप में सामने आ रहे हैं। जहां गांवों में सन्नाटा पसरा है। वहीं ग्रामीण सामाजिक संरचना छिन्न-भिन्न नजर आती है। गांवों में सिर्फ बुजुर्ग और बच्चे दिखाई देते हैं। पलायन करने वाले परिवारों के सामाजिक संबंध भी प्रभावित होते हैं जो अपने रिश्ते-नातेदारों से लम्बे समय तक नहीं मिल पाते। वहीं बहुत सारे तीज-त्योहार, प्रथाओं व परंपराओं का निर्वाह नियमित और नियमबद्ध ढंग से नहीं कर पाते हैं।
बच्चों की शिक्षा पर बुरा असर पड़ता है। इन गांवों में ड्रॉप आउट दर उच्च है। महिलों की स्थिति दयनीय है। पलायन के परिणामस्वरूप ये ग्रामीण महिलाएं दोहरे शोषण का शिकार होती है। परिवार में दोहरे कामों का बोझ, परिजनों की हिंसा का शिकार वही बाहरी लोगों द्वारा कार्यस्थलों पर तरह-तरह के शोषण को झेलती है। बही पलायन करने वाले सभी लोगों को कार्यस्थलों पर विषयम परिस्थितियों में कार्य करने को मजबूर होना पड़ता है। निष्कर्षत: पलायन के परिणाम नकारात्मक ढंग से ग्रामीणों को प्रभावित करने वाले हैं और उनके सामाजिक सांस्कृतिक आर्थिक और राजनैतिक जीवन को तबाह करने वाले सिद्ध हो रहे हैं।
ग्रामीण पलायन रोकने के लिए समानता और न्याय पर आधारित सामाजिक व्यवस्था कायम करना भी उतना ही आवश्यक है जितना गांवों की स्थिति में सुधार लाना। इसलिए सभी विकास योजनाओं में उपेक्षित वर्गों और अनुसुचित जातियों व जनजातियों को विशेष रियायतें दी गई इसके अलावा महिलाओं के लिए स्वयंसहायता समूहों के जरिए विभिन्न व्यवसाय चलाने, स्वरोजगार प्रशिक्षण, वृद्धावस्था पेंशन योजना, विधवा पेंशन योजना, छात्रवृत्ति योजना, राष्ट्रीय परिवार लाभ योजना जैसे अनेक कार्यक्रम चलाए जा रहे हैं जिनसे लाभ उठाकर गरीब तथा उपेक्षित वर्गों के लोग अपना तथा अपने परिवार का उत्थान कर सकते हैं। इससे आर्थिक व सामाजिक असमानता कम होगी और ग्रामीण जीवन अधिक खुशहाल बन सकेगा।
बुंदेलखंड के गांवों से ग्रामीणों के पलायन के समाधान की दिशा में स्वयंसहायता समूह एक प्रभावी पहल हो सकते हैं। ये समरूप ग्रामीण निर्धनों द्वारा स्वेच्छा से गठित समूह होते हैं जिसमें समूह के सदस्य आपसी राय से जितनी भी बचत आसानी से कर सकते हैं उसका अंशदान एक सम्मिलित निधि में करते हैं तथा समूह के सदस्यों की उस धनराशि को उत्पादकता अथवा आपातकालीन आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु ऋण के रूप में देने के लिए परस्पर सहमति होती है। इन स्वयंसहायता समूहों का उद्देश्य गरीबों की पहुंच ऋण तक सुनिश्चित करने के लिए कारगर व अल्पव्ययी साधन उपलब्ध कराना और साथ ही बचत व बैंकिंग की आदत डालना है। साथ ही निर्धनों में नेतृत्व क्षमता का विकास करना और उन्हें सामर्थ्यवान बनाना है। स्वयंसहायता समूहों की भूमिका आय संवर्धन में अति आवश्यक है। रोज की मजदूरी/आय से जमा की गई सामूहिक बचत से एक बड़ी धनराशि तैयार हो सकती है जिसके द्वारा छोटा-मोटा रोजगार/उपक्रम खड़ा किया जा सकता है जो रोजगार का साधन बन सकता है और पलायन के परिदृश्य को सकारात्मक रूप दिया जा सकता है।
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं)
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Post By: Shivendra