और किसानों की आत्महत्या
देविंदर शर्मा
नारायण दास निरंजन किसी भी पैमाने पर बड़े किसान थे। बुंदेलखंड में जालौन जिले की उरई तहसील के गरहड़ गांव में उनके पास 16 एकड़ जमीन थी। उनका गांव अपने जिले में संपन्न कहा जाता है। गरहड़ गांव से थोड़ी ही दूर पर उन्हीं के नाम के एक किसान नारायण दास रहते थे। माधोगढ़ तहसील के मिनांगी गांव के नारायण के पास तीन बीघा जमीन थी। उनकी गिनती सीमांत किसानों में होती थी। उन दोनों किसानों के सिर्फ नाम ही एक नहीं थे, किस्मत ने भी उनके साथ एक ही खेल खेला। दोनों बुंदेलखंड में पिछले पांच साल से लगातार पड़ रहे सूखे के शिकार हुए।
गुजरते वक्त के साथ सिंचाई के लिए पानी की कमी, गिरते जलस्तर और सूखे की मार के कारण कृषि संकट बढ़ता जा रहा है। तमाम कोशिशों के बावजूद जब उनके खेतों तक नहर का पानी नहीं पहुंचा, तो दोनों किसान अपने उजड़ी फसल देखकर इतने निराश हुए कि हृदयाघात से मर गए। अपने-अपने गांव के नजदीक की नहरों को अनगिनत बार झांकने के बाद भी उनके खेतों तक पानी नहीं पहुंचा। तकनीकी आधार पर देखा जाए, तो यह आत्महत्या का मामला नहीं है, लेकिन गहराते कृषि संकट ने ही उनकी जान ली।
विडंबना देखिए कि यह त्रासदी पूरी तरह इनसान की अपनी करतूतों का नतीजा है। यह एक ऐसी दोषपूर्ण कृषि नीति का परिणाम है, जिसे अनुकूलता, जरूरत और संगति की परवाह किए बिना थोप दिया गया। इसके साथ किसानों की लगातार उपेक्षा, उदासीनता, अनियंत्रित भ्रष्टाचार, भारी पैमाने पर पर्यावरण विनाश और बढ़ती गुंडागर्दी के कारण महान ऐतिहासिक अतीत का साक्षी रहे इस क्षेत्र की धरती जर्जर हो गई है। कभी यह इलाका समृद्ध था। सात जिलों को मिलकर बना कृषि पर आधारित यह क्षेत्र अब उत्तर प्रदेश की कब्रगाह नजर आता है।
पड़ोस के सूबे मध्य प्रदेश के छह जिले भी बुंदेलखंड में आते हैं। उन छह जिलों की हालत भी खराब है। राज्य सरकार इनकार के चाहे जितने तरीके ढूंढ़ ले, यह हकीकत है कि मध्य प्रदेश के बुंदेलखंड क्षेत्र के किसान भी हाशिये पर धकेल दिए गए हैं और उनमें से कई भुखमरी का शिकार हो चुके हैं। कर्ज के बढ़ते बोझ के कारण अपमान झेलने से बचने के लिए बुंदेलखंड के सैकड़ों किसान पलायन का सुरक्षित रास्ता अख्तियार कर रहे हैं। सूदखोर महाजन वसूली करने के लिए किसानों को प्रताçड़त कर रहे हैं। जिले के ग्रामीण बैंक और सहकारी बैंक भी ऋण उगाही के लिए उनकी बांह मरोड़ रहे हैं। ऐसे में हैरानी नहीं है कि ज्यादातर किसानों के पास अपनी जान देने के अलावा और कोई चारा नहीं है।
विपत्ति में फंसे बुंदेलखंड के किसान रोजी-रोटी की तलाश में पंजाब, दिल्ली, मुंबई और हरियाणा की ओर भाग रहे हैं। ट्रकों में जानवरों की तरह भर कर इलाके से बाहर ले जाए जा रहे किसानों के दृश्य यहां आम हैं। बुंदेलखंड की हालत इतनी खराब है कि वह मृत्युशैया पर पड़ा नजर आ रहा है। हालांकि यह क्षेत्र हमेशा से ही ऐसा नहीं रहा है। कुदरत ने कभी उसके साथ इतनी बेरहम नहीं रही है। बुंदेलखंड में औसत वर्षा होती थी। लेकिन पिछले कुछ दशकों में जंगलों की अंधाधुंध कटाई ने पर्यावरण को क्षत-विक्षत कर दिया है। जल संरक्षण के उपायों के अभाव और जल संग्रहण के परंपरागत तरीकों के प्रति उदासीनता ने इस संकट को और बढ़ाया है। दरअसल, इस इलाके में जल संकट इतना गहरा हो गया है कि पीने के पानी की आपूर्ति प्रभावित होने की आशंका प्रबल हो गई है। कुख्यात डकैतों की शरणस्थली रही बुंदेलखंड की घाटियों का फैलाव हो रहा है।
बढ़ते रेगिस्तान पर अंकुश लगाने के बजाय वन विभाग ने कुछ वर्ष पूर्व विलायती बबूल के बीजों का हवाई छिड़काव किया था। बुंदेलखंड की भौगोलिक परिस्थितियों के लिए प्रतिकूल यह विदेशी प्रजाति अब इस क्षेत्र के लिए खतरा बन चुकी है। पर्यावरण पर छाए इस संकट से कोई सबक सीखने के बजाय इस क्षेत्र में मेंथा की खेती को बढ़ावा दिया जा रहा है। इसकी खेती वही समृद्ध किसान कर रहे हैं, जिनके पास सिंचाई के सुनिश्चित साधन हैं। बिना यह सोचे कि एक किलोग्राम मेंथा ऑयल के उत्पादन में सवा लाख लीटर पानी का इस्तेमाल होता है, इसकी खेती को बढ़ावा देना आत्मघाती साबित हो रहा है। भूमि जलस्तर लगातार नीचे गिरता जा रहा है। कहना न होगा कि बुंदेलखंड को एक ऐसी विकास नीति की सख्त जरूरत है, जो जल संरक्षण के परंपरागत तरीकों पर आधारित हो। इस नीति को दो भागों में लागू किया जाना चाहिए। पहले चरण में संकट को हल करने की फौरी कार्ययोजना होनी चाहिए और दूसरे चरण में कृषि क्षेत्र के लिए दीघाüवधि की नीति का ऐलान किया जाना चाहिए। जब तक टैंकर माफिया पर अंकुश नहीं लगाया जाता और किसानों को जल संरक्षण के लिए प्रोत्साहित नहीं किया जाता, तब तक लगातार पड़ रहे सूखे की समस्या और गंभीर होती जाएगी।
परंपरागत रूप से बंुदेलखंड के हर गांव की परिधि में कम से कम पांच तालाब होते थे, जो अब गायब हो चुके हैं। इसके अलावा हर गांव में पांच कुएं भी हुआ करते थे। तालाबों और कुओं की श्रृंखला टूटने के कारण ही यह कृषि संकट पैदा हुआ है। अब जरूरत इस बात की है कि राष्ट्रीकृत बैंकों को सिंचाई के परंपरागत साधनों के विकास के लिए ग्राम पंचायतों को वित्तीय सहायता मुहैया कराने का निर्देश दिया जाए।
खेती को भी अपने तेवर बदलने की जरूरत है। ज्यादा मात्रा में पानी, रासायनिक खाद और उन्नत बीजों इस्तेमाल करने वाली फसलों के बजाय मोटे अनाजों और दलहनों की खेती को बढ़ावा दिया जाना चाहिए। बाहरी संसाधनों का कम से कम इस्तेमाल करने वाली जैविक खेती के तरीकों को प्रचलित किए जाने की जरूरत है। उत्तर प्रदेश सरकार को बुंदेलखंड के लिए अलग से कृषि नीति घोषित करना चाहिए, जो इस क्षेत्र के पर्यावरण और पारिस्थितिकी को नुकसान न पहुंचाए। इस नीति को पशुपालन और वानिकी के साथ जोड़ने की आवश्यकता है।
नब्बे फीसदी किसान और ग्रामीण आबादी कर्ज के बोझ तले कराह रही है। इसलिए बुंदेलखंड को फिर समृद्ध बनाने केलिए किसानों को ऋण माफी की सौगात देने पर विचार करना चाहिए। कर्नाटक सरकार ने हाल ही में अपने संकटग्रस्त किसानों की रक्षा के लिए उनके कर्ज माफ कर दिए हैं। बहरहाल, यह सब करने के लिए मजबूत राजनीतिक इच्छाशक्ति की दरकार है। चूंकि सूबे की सत्ताधारी पार्टी ने अपने राजनीतिक सफर की शुरुआत बुंदेलखंड से की थी, लिहाजा उसका कर्ज चुकाने के लिए उस क्षेत्र में `सोशल इंजीनियरिंग´ के नए युग का सूत्रपात करने का यही उचित समय है।
(लेखक कृषि एवं डब्लूटीओ मामलों के विशेषज्ञ हैं)
साभार - अमर उजाला
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