बुंदेलखंड और पलायन

बुंदेलखंड पलायन की प्रस्तावना


बुंदेलखंड के गांवों में अब लोग घरों में ताले लगाने के बजाए उनके आगे दीवारे चुन रहे हैं। घरों पर घास उग आई है। पति-पत्नि अपने बच्चों को लेकर जब गांव से बाहर निकलते हैं तो आंसू से भरी आंखों से पीछे पलटकर नहीं देखते क्योंकि पीछे निराश्रित माता-पिता अपनी निर्विकार आंखों से उन्हें ताकते रहते हैं, सिर्फ मां की गोदी में चढ़ा बच्चा मां के कंधे के पीछे अपने बिछुड़ते दादा-दादी को देखता रहता है। उसे नहीं मालूम कि नियति उसे कहां ले जा रही है। पिछले एक दशक में बुंदेलखंड से हो रहे पलायन एवं अकाल की निरंतरता पर काफी कुछ लिखा जा चुका है। कई तरह से यहां की आर्थिक, सामाजिक एवं राजनीतिक स्थितियों का विश्लेषण तकरीबन सभी विधाओं के संत यानि विद्वान लोग कर चुके हैं। इसके बावजूद क्या कहने, सुनने और लिखने को कुछ बच रहता है? निश्चित तौर पर कुछ-न-कुछ तो हमेशा ही बच रहता है। बुंदेलखंड का गौरवशाली अतीत रहा है। यह क्षेत्र कला और साहित्य में भी अग्रणी रहा है। वैसे शस्त्रकला का तो यह स्तंभ रहा है। यहां के जंगल अत्यंत घने एवं जैव विविधता भरे थे। दिल्ली के हुक्मरानों को यहां के जंगलों के हाथियों की खेप भेजी जाती थी और अकाल पड़ने पर भी इस क्षेत्र को बाहर का मुंह नहीं देखना पड़ता था। ओरछा और खजुराहो के मंदिरों व महलों के स्थापत्य से साफ जाहिर होता है कि यहां इस विधा की भी अपने विशिष्ट शैली विद्यमान थी। क्षेत्र के तालाबों की चर्चा तो 10वीं 11वीं शताब्दी के ग्रंथ तक करते हैं। तो आखिर पिछले चार दशकों में ऐसा क्या हो गया कि यहां के निवासी लगातार पलायन को मजबूर हो गए?

बुंदेलखंड के गांवों में अब लोग घरों में ताले लगाने के बजाए उनके आगे दीवारे चुन रहे हैं। घरों पर घास उग आई है। पति-पत्नि अपने बच्चों को लेकर जब गांव से बाहर निकलते हैं तो आंसू से भरी आंखों से पीछे पलटकर नहीं देखते क्योंकि पीछे निराश्रित माता-पिता अपनी निर्विकार आंखों से उन्हें ताकते रहते हैं, सिर्फ मां की गोदी में चढ़ा बच्चा मां के कंधे के पीछे अपने बिछुड़ते दादा-दादी को देखता रहता है। उसे नहीं मालूम कि नियति उसे कहां ले जा रही है। बुंदेलखंड में शायद अब लोगों ने सपने देखने भी छोड़ दिए हैं। क्योंकि वे हकीकत जान गए हैं। लेकिन उनकी समझ ही नहीं आ रहा है कि उनके साथ ऐसा क्यों हो रहा है। बुंदेली कहावत है, ‘बाढ़े पूत पिता के करमें, खेती बाढ़े आपने धरमे’ यानि पिता के सत्कर्मों से पुत्र और स्वयं के परिश्रम से कृषि बढ़ती है। मगर बुंदेलखंड में पिता ने कोई पाप नहीं किए और पुत्र ने खेती में परिश्रम से मुंह नहीं मोड़ा तो इस विपत्ति के आने का क्या कारण है?

बुंदेलखंड पलायन क्यों?


बुंदेलखंड अंचल में आल्हा गायकी अब भी व्यापक तौर पर प्रचलित है। इसका एक पद है-

मानुस देही दुरलभ है और सनै न बारम्बार।
पात टूटकें ज्यों तरवर को, कंभऊ न लौट डार।।
मरद बनाए मर जेवे को, खटिया परके मरै बलाय।
जे मर जैहें रनखेतन माँ, साकौ चलो अंगारू जाय।।


समय बदल गया और युद्ध के मैदान भी बदल गए। आज युद्ध अपनी जमीन को बचाए रखने के बजाए, स्वयं को जिंदा रखने की जद्दोजहद बन चुका है। और बुंदेलखंड जैसे अंचलों से पलायन इसी युद्ध का एक स्वरूप है। पलायन करने वाले शुरूआती वर्षों में तो निरंतर अपने गांव लौटते हैं लेकिन शनैः शनैः यह आवृत्ति कम होती चली जाती है।

अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन ने अपनी रिपोर्ट ‘वाय लेबर लीव्स दि लेण्ड : ए कम्पेरेटिव स्टडी ऑफ मूवमेंट ऑफ लेबर आऊट ऑफ एग्रीकल्चर’ (श्रमिक भूमि क्यों त्याग रहे हैं : कृषि से श्रम के बाहर निकलने का तुलनात्मक अध्ययन/वर्ष 1966) ‘श्रमिकों द्वारा कृषि क्षेत्र से बाहर निकलने का मुख्य कारण है, आमदनी का निम्न स्तर। तकरीबन सभी देशों में कृषि क्षेत्र में अर्थव्यवस्था के अन्य क्षेत्रों के मुकाबले कम आमदनी है।’

सैद्धांतिक तौर पर यह माना जा सकता है कि पलायन के पीछे सबसे महत्वपूर्ण कारण आर्थिक ही है। लेकिन यहां यह भी समझ लेना आवश्यक जान पड़ता है कि यह एकमात्र कारण भी नहीं है।

हेलेन आई साफा एवं ब्रिआन ड्यु टोहर ने अपनी पुस्तक ‘माइग्रेशन एण्ड डेवलपमेंट’ (पलायन एवं विकास) में लिखा है ‘पलायन को सामान्यतया एक आर्थिक गतिविधि के रूप में ही देखा जाता है। लेकिन कुछ गैर आर्थिक कारण भी इसके लिए जिम्मेदार होते हैं। अधिकांश अध्ययनों से यह निष्कर्ष निकला है कि पलायनकर्ताओं ने अपना मूल स्थान वहां आर्थिक संभावनाओं की कमी और अन्य स्थान पर बेहतर अवसर की उम्मीद के चलते छोड़ा था।’

पलायन के एक सिद्धांत के रूप में ‘बाहर धकेलने वाला सिद्धांत’ भी प्रचलन में है। सामान्यतया ग्रामीण क्षेत्रों से शहरों की ओर होने वाले पलायन के संबंध में इस सिद्धांत को प्रयोग में लाया जाता है। ग्रामीण गरीबी जिसमें कि निम्न उत्पादकता, बेरोजगारी, अल्प रोजगार, आमदनी और उपभोग का निम्न स्तर शामिल हैं, लोगों को शहरों की ओर धकेलते हैं।

पिछले पांच वर्षों से पलायन में अत्यधिक तेजी आई है। उनके गांव के करीब 250 घरों से लोग पलायन कर गए हैं। इसकी मुख्य वजह सूखा ही बताई जा रही है। कुछ लोग नजदीक के हरपालपुर और महोबा पलायन कर गए हैं तो कुछ छतरपुर। वैसे कई लोग प्रतिदिन छतरपुर से भी आना जाना करते हैं। अधिकांश लोग पलायन कर दिल्ली और पंजाब चले गए हैं। पंजाब में भी लुधियाना और जालंधर भी अधिक लोग जाते हैं। वे वहां भवन निर्माण क्षेत्र में मजदूरी करते हैं। कई लोगों ने तो दिल्ली की बस्तियों में घर भी बना लिए है।13 सितंबर 1964 के ‘योजना’ के अंक में छपे जीएन आचार्य के लेख में उल्लेख किया गया था कि ‘योजना आयोग की शोध कार्यक्रम समिति के निर्देश पर नौ भारतीय शहरों, बड़ौदा, हुबली, हैदराबाद, सिकंदराबाद, जमशेदपुर, कानपुर, पूना, गोरखपुर, लखनऊ एवं सूरत में किए गए नमूना सर्वेक्षण से यह बात सामने आई कि ‘विपरीत आर्थिक स्थितियां’ पलायन का सबसे बड़ा कारण है।’ आज आधी शताब्दी पश्चात भी यह बात शब्दशः सही मालूम पड़ती है।

यहां इस बात पर भी गौर करना आवश्यक है कि क्या सरकार द्वारा प्रचारित विकास कार्यों से पलायन रूक पाया है? क्या इन कार्यक्रमों से ग्रामीण गरीबी में कमी आई है? क्या सीमांत किसानों एवं भूमिहीन श्रमिकों की स्थिति में कोई सुधार आया है? क्या विकास कार्यों से बहुसंख्य लोग लाभान्वित हो रहे हैं? इसी के साथ इस बात पर भी विचार करना आवश्यक है कि क्या ग्रामीण अर्थव्यवस्था बढ़ती जनसंख्या का भार उठा पाने में असमर्थ है? साथ ही गांव के अपने विशिष्ट रोजगार संसाधनों में आ रही कमी भी क्या पलायन को प्रोत्साहित कर रही है?

इसके अलावा इस बात पर भी विचार करना आवश्यक है कि क्या संयुक्त परिवार प्रणाली का अस्तित्व व पैतृक कानून जो कि बहुत आसानी से विभाजन नहीं होने देते तो कहीं पलायन के लिए जिम्मेदार नहीं है, या दूसरी ओर इसके ठीक विपरीत जवान लोग ‘स्वतंत्रता’ की चाहत में तो शहरों की ओर पलायन नहीं कर रहे हैं? वहीं भूमि का लगातार बंटवारा एवं विखंडन भी कहीं-न-कहीं पलायन को प्रोत्साहित तो नहीं कर रहा है? अत्यंत छोटी जोत की वजह से परिवार पालना और परिवार के सभी सदस्यों की भूमि के उस छोटे टुकड़े पर निर्भरता अधिक तो नहीं होती जा रही है?

हमें यह भी विचार करना होगा कि भूमि सुधारों की असफलता से भी तो कहीं पलायन में वृद्धि नहीं हुई है। क्योंकि बुंदेलखंड क्षेत्र में यह बात स्पष्ट तौर पर नजर भी आती है। भूमि सुधार को लेकर विश्व श्रम संगठन की यह टिप्पणी इसके एक नए आयाम पर रोशनी डालती है। संगठन ने अपने एक अध्ययन में पाया कि ‘भूमि सुधार कार्यक्रमों से उन परिवारों से पलायन में कमी आ सकती है जहां इसके परिणामस्वरूप उनके भूखंड को आकार में पर्याप्त मात्रा में वृद्धि हुई हो, परंतु इसकी वजह उन समूहों से पलायन में वृद्धि हो सकती है जिनकी स्थिति इस सुधार से प्रभावित हुई हो। बड़े भूखंडों के टूटने से श्रमिकों की मांग कम होती है क्योंकि छोटे खेतों में उन्हें काम पर नहीं लगाया जा सकता। हालांकि उनमें अधिक श्रम की आवश्यकता तो होती है लेकिन इन्हें अक्सर परिवार के द्वारा ही संचालित किया जाता है। जिन भूमिहीन श्रमिकों को इस प्रक्रिया में भूमि नहीं मिल पाती उन्हें अंततः पलायन हेतु मजबूर होना पड़ता है।’

अब जेठ में बारिश नहीं होती


गढ़ी मल्हरा, छतरपुर के ओमप्रकाश महतो भी कृषक हैं और इस क्षेत्र की काफी जानकारी भी रखते हैं। जब हमने उनसे महात्मा गांधी ग्रामीण रोजगार गारंटी कानून की वर्तमान स्थिति के बारे में पूछा तो उन्होंने एक पंक्ति में जवाब दिया, ‘सब दिखावा है’ और अधिक पूछताछ करने पर उनका कहना था कि रजिस्टर पर सब हाजिर रहते हैं, लेकिन काम शायद ही किसी को मिलता है। पलायन के इतिहास पर प्रकाश डालते हुए उन्होंने कहा कि पहले 2 से 3 महीने का पलायन चैतुआ (चैत के महीने) में होता था और पलायन करने वाले चैत में फसल कटाई के लिए दूसरे गांवों में जाते थे। कालांतर में ये लोग चेतुआ ही कहलाने लगे। अब तो लोग पूरे वर्ष के लिए जाते हैं। शादी व्याह/त्योहार या गमी के कारण ही लौटते हैं।

ओमप्रकाश का कहना है कि यहां बीसवीं शताब्दी के आखिरी पचीस वर्षों के दौरान कपास की खेती की शुरुआत की गई। उन दिनों जेठ के महीने में बुंदेलखंड में पानी अवश्य बरसता था। लेकिन पिछले एक दशक से जेठ की बारिश होना ही बंद हो गई। इसके ही कारण यहां कपास की खेती होना भी बंद हो गई है। पिछले एक दशक में जब से वर्षा अनियमित हुई तब से खेती भी घाटे का व्यवसाय बन गई है। उनके अनुसार अब तो 4-5 एकड़ वाले किसान भी स्वयं खेती नहीं करते अधिया बटाई या सालाना शुल्क पर अपने खेत दे देते हैं और सिर्फ छुट्टी मनाने ही गांव में आते हैं। पहले कम-से-कम बुआई के समय अवश्य आते थे, अब तो उस समय भी नहीं आते।

उनके अनुसार पिछले पांच वर्षों से पलायन में अत्यधिक तेजी आई है। उनके गांव के करीब 250 घरों से लोग पलायन कर गए हैं। इसकी मुख्य वजह सूखा ही बताई जा रही है। कुछ लोग नजदीक के हरपालपुर और महोबा पलायन कर गए हैं तो कुछ छतरपुर। वैसे कई लोग प्रतिदिन छतरपुर से भी आना जाना करते हैं। अधिकांश लोग पलायन कर दिल्ली और पंजाब चले गए हैं। पंजाब में भी लुधियाना और जालंधर भी अधिक लोग जाते हैं। वे वहां भवन निर्माण क्षेत्र में मजदूरी करते हैं। उनके अनुसार कई लोगों ने तो दिल्ली की बस्तियों में घर भी बना लिए है। इसी के साथ यहां पर कई परिवार बच्चों की शिक्षा की वजह से भी शहरों की ओर पलायन कर गए हैं। स्थानीय अनुमानों के अनुसार इनकी संख्या 2 प्रतिशत से अधिक नहीं है।

यह पूछने पर कि 250 घरों के लोगों का जाना तो बड़ी संख्या नहीं है। इसके जवाब में उनका कहना था कि 250 घरों के पूरे सदस्य पलायन कर गए हैं और बाकि घरों में से अनेक के यहां से एक या अधिक सदस्य पलायन कर गए हैं। साथ ही ऐसे बड़े परिवार जिनके पास 2 से 4 एकड़ जमीन ही है वे तो अपने खेत बेचकर स्थाई रूप से गांव से जा रहे हैं। इसकी एक बड़ी वजह सिंचाई के साधनों का अभाव भी है। गांव व खेतों के तकरीबन सभी कुएं सूख गए हैं। गांव वालों से पूछने पर पता लगा कि अस्सी के दशक तक इस इलाके में भरपूर पानी था इसके बाद धीरे-धीरे इसमें कमी आने लगी और अब तो यहां खेती के लिए पानी कमोबेश समाप्त ही हो गया है।

जल-संवर्धन और किसान


नौगांव, छतरपुर के एक किसान जयनारायण चौरसिया बताते हैं कि इस इलाके में जलसंवर्धन के क्षेत्र में नहीं के बराबर कार्य हुआ है। तालाबों पर एक रुपया भी खर्च हुआ हो ऐसा नजर तो नहीं आता। हो सकता है कागजों पर भले ही खर्च हो गया हो। इसके अलावा उनका कहना था कि पुराने जलस्रोतों पर दबंगों का कब्जा है और वे अपने व अपने व अपने समूह के अलावा किसी को उसका उपभोग नहीं करने देते। बड़े शहरों में लगातार कार्य मिलने की वजह से पलायन हो रहा है।

जिस तरह हमारे नदियों, पहाड़ों व प्रकृति के साथ संबंध समाप्त हो रहे हैं उसी तरह परिवार भी नष्ट हो रहे हैं। कृषि, सामाजिक एवं धार्मिक रीति रिवाजों को जोड़ते हुए उनका कहना था कि नवरात्रि आदि में जो जवारे (गेहूं) लगाए जाते हैं। दरअसल वह गेहूं के बीज के परीक्षण का एक तरीका था। लड़कियां ढेर में से सबसे बेहतरीन बीज चुनती थीं और जवारे बोती थीं। जब जवारे उग जाते थे तो अंदाजा हो जाता था कि किस ढेर से चुने गए हैं और किसान उससे बीच ले लेता था।इसी क्रम में हम महाराजपुर के एक अन्य किसान वृंदावन चौरसिया से भी मिले। उन्होंने आधा एकड़ के खेत में पान का बरेजा लगाया था। इसे लगाने में करीब 2 लाख रु. का खर्च आया। पान के इस छोटे से खेत को संभालने के लिए प्रतिदिन करीब 20 मजदूरों की आवश्यकता पड़ती है। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि इस इलाके में जब पान की भरपूर खेती होती होगी तो कितने लोगों को इससे रोजगार मिलता होगा। इस साल धूप के ज्यादा तेज होने की वजह से उनकी फसल खराब हो गई। वैसे भी उनका यह कहना है कि अब पान के खेत में कार्य करने वाले कुशल मजदूर नहीं मिलते। इसकी एक वजह यह है कि पान खेत मालिक निरंतर कार्य एवं अधिक मजदूरी नहीं दे सकते इस वजह से अब ये मजदूर महाराजपुर में चौक पर खड़े होते हैं। इसके अलावा पान की खेती को एक और समस्या का भी सामना करना पड़ रहा है। जिस खेत में पान की एक बार खेती हो जाती है तो उसी स्थान बदलना पड़ता है। अब नई जगह मिलना भी कठिन होता जा रहा है। इसके अलावा एक बड़ी समस्या यह है कि इसका फसल बीमा भी नहीं होता।

जंगल कटा, बूंदें रूठीं


बुंदेलखंड संसाधन केन्द्र के भारतेंदु प्रकाश कहते हैं कि ‘‘बुंदेलखंड कभी भी विपन्न नहीं था। आज गांवों के साठ प्रतिशत से अधिक घरों में ताले लगे हैं। पलायन तो मजबूरी में होता है और जब पूरा परिवार पलायन कर रहा हो तो इसकी विभीषिका और व्यापकता का सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है। दिक्कत तो यह है कि शासन स्वयं इसे प्रोत्साहित कर रहा है क्योंकि ‘शासन के लिए तो असहायता पूंजी है।’ सन् 1783 में बुंदेलखंड में बड़ा अकाल बड़ा। इसके बाद सन् 1790 में एक युरोपीयन दल यहां आया और दमोह आदि स्थानों के भ्रमण के बाद दल ने अपनी रिपोर्ट में कहा कि गांवों में इतना अमन चैन और सुख उन्होंने और कहीं भी नहीं देखा। तब समाज में समस्या का हल निकालने की हिम्मत थी। लेकिन दुर्भाग्य यह है कि बुंदेलखंड की संपदा ही उसकी दुश्मन बन गई। जंगल कटने से स्थितियां बिगड़ीं, लेकिन अब तो पहाड़ भी ‘कट’ रहे हैं। यानि अब तो पूरे प्रकाृतिक संसाधन नष्ट हो रहे हैं। ऐसे में बाजार एवं सरकार दोनों से मुक्ति ही हमें बचा सकती है। आज मजदूर एवं किसान दोनों की ही स्थित खराब है। आवश्यकता है कि संगठित समाज अपनी नीतियां स्वयं बनाए।’’

बुंदेलखंड की खेती की समस्या पर उनका कहना था नदी में अब बारहमास पानी नहीं रहता। तालाबों के बारे में उनका कहना है कि उसकी जमीन पर खेती (गर्मी के मौसम में) और मछली पकड़ने वाले दोनों आपस में मिले हुए हैं। अंग्रेजों के समय तालाब 15 जून से 15 सितंबर तक खुले रहते थे। अंग्रेजों ने यहां महज 90 बरस राज किया लेकिन उन्होंने यहां बांध नहीं, बराज बनाए थे। पूरे बुंदेलखंड में केन नदी की नहरें थीं। आज बुंदेलखंड में उद्योगों का अभाव है लेकिन कुछ वर्षों पूर्व तक अतर्रा में 32 चावल मिलें थीं। श्रीलंका और बर्मा तक यहां से चावल जाता था। वर्ष 1901 में यहां धान की खेती प्रारंभ हुई थी। अब तो यहां धान के खेत कम ही दिखते हैं। इसके अलावा अधिकांश हाइब्रीड बीजों पर निर्भर हैं। अभी भी स्थानीय बीज मौजूद हैं लेकिन किसान इन्हें बोने में डर रहे हैं। उनके हिसाब से संपत्ति का सृजन तो सिर्फ कृषि में होता है। किसी भी अन्य रोजगार में इतनी वृद्धि एवं स्थायित्व नहीं होता। जैविक खेती से ही बचा जा सकता है। आवश्यकता इस बात की है पुनःचक्रीय संसाधनों का भरपूर इंतजाम किया जाए।

उनका मानना है कि जिस तरह हमारे नदियों, पहाड़ों व प्रकृति के साथ संबंध समाप्त हो रहे हैं उसी तरह परिवार भी नष्ट हो रहे हैं। कृषि, सामाजिक एवं धार्मिक रीति रिवाजों को जोड़ते हुए उनका कहना था कि नवरात्रि आदि में जो जवारे (गेहूं) लगाए जाते हैं। दरअसल वह गेहूं के बीज के परीक्षण का एक तरीका था। लड़कियां ढेर में से सबसे बेहतरीन बीज चुनती थीं और जवारे बोती थीं। जब जवारे उग जाते थे तो अंदाजा हो जाता था कि किस ढेर से चुने गए हैं और किसान उससे बीच ले लेता था।

बुंदेलखंड के घाव


बुंदेलखंड के घाव गहरे होते जा रहे हैं। इस इलाके के ताजा संकट के हल हल्के और सतही अंदाज में खोजने की कोशिशें की जा रही है। एक सुनहरे अतीत से निरंतर सुखाड़ वाले इलाके में बदलने वाले बुंदेलखंड की मौजूदा समस्याओं को एक ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में देखने की जरूरत है। चारों तरफ पहाड़ी श्रृंखलाएं, ताल-तलैये और बारहमासी नालों के साथ काली सिंध, बेतवा, धसान और केन नदियों वाले क्षेत्र का वर्तमान बहुत दुखदायी हो चुका है। यहां की जमीन खाद्यान्न, फलों, तंबाकू और पपीते की खेती के लिए बहुत उपयोगी मानी गई है। यहां सारई, सागौन, महुआ, चार, हर्र, बहेड़ा, आंवला, घटहर, आम, बेर, धुबैन, महलोन, पाकर, बबूल, करोंदा, समर के पेड़ खूब पाए जाते रहे हैं। यह इलाका प्रकृति के कितना करीब रहा है, इसका अंदाजा इसी तथ्य से लगाया जा सकता है कि बुंदेलखंड के ज्यादातर गांवों के नाम वृक्षों के नाम वृक्षों (जमुनिया, इम्लाई), जलाशयों, कुओं (सेमरताल), पशुओं, (बाघडबरी, हाथीसरा, मगरगुहा, झींगुरी, हिरनपुरी), पक्षियों, घास-पात या स्थान विशेष के पास होने वाली किसी खास ध्वनि के आधार पर रखे गए, पर अब इस अंचल को विकास की नीतियों ने यहां खेती को भी सुखा इलाका बना दिया है। पिछले 10 वर्षों में बुंदेलखंड में खाद्यान्न उत्पादन में 55 फीसदी और उत्पादकता में 21 प्रतिशत की कमी आई है, फिर भी सरकार किसान हितैषी कृषि को संरक्षण देने के पक्ष में नहीं दिखती।

अनुपम मिश्र लिखते हैं, “बुंदेलखंड में जातीय पंचायतें अपने किसी सदस्य की अक्षम्य गलती पर दंड में प्रायः उससे तालाब बनाने को कहती थीं।” बुंदेलखंड में औसत बारिश 80 सेंटीमीटर है, जिससे यहां पानी की कमी बनी रहती है। यही कारण है कि यहां कम बारिश में पनपने वाली फसलों को प्रोत्साहन दिया जाए पर सरकार और कुछ बड़े किसानों ने सोयाबीन और कपास जैसे विकल्पों को चुना। पिछले बीस-एक सालों में निजी आर्थिक हितों की मंशा को पूरा करने के लिए नकद फसलों को बढ़ावा दिया, इससे जमीन की नमी चली गई तो गहरे नलकूप खोद कर जमीन का पानी खींच कर निकाल लिया और भूजल स्रोतों को सुखाना शुरू कर दिया। केंद्रीय भूजल बोर्ड बताता है कि बुंदेलखंड क्षेत्र के जिलों के कुओं में पानी का स्तर नीचे जा रहा है और भूजल हर साल 2 से 4 मीटर के हिसाब से गिर रहा है, वहीं दूसरी ओर हर साल बारिश में गिरने वाले 70 हजार मिलियन क्यूबिक मीटर पानी में से मात्र 15 हजार मिलियन क्यूबिक मीटर पानी ही जमीन के अंदर में उतर पाता है। वैसे तो अब पूरे देश में सूखा पड़ रहा है। भारत सरकार सूखा घोषित करे या ना करे, पर संकट तो विकराल हो ही चुका है।

बुंदेलखंड के टीकमगढ़ जिले की ढीमरपुरा पंचायत एक जीवित इतिहास के साथ जिंदा है। गढ़कुढार के ऐतिहासिक किले के करीब ढीमरपुरा पंचायत के लोगों की आजीविका के पुश्तैनी साधन मछली पकड़ना रहा है। विडंबना यह है कि यहां 127 हेक्टेयर में फैले विशाल सिंदूरसागर तालाब पर सूखे की गहरी मार पड़ी है। यह तालाब 100 से ज्यादा परिवारों की आजीविका का केंद्रीय साधन रहा है। यहां पलने वाली रोहू, कतला, बावस और झींगा मछलियां हावड़ा-कोलकाता के बाजारों में अपने खास स्वाद के लिए विख्यात रहीं हैं। पर 170 परिवारों वाले इस गांव के 48 घरों पर बारिश के मौसम में ताले लटक रहे हैं और 67 परिवारों के दो-दो या तीन-तीन सदस्य पलायन करके रोजगार की तलाश में दिल्ली, चंडीगढ़ या गुड़गांव चले गए हैं।

जब सरकार संसाधनों को अपने नियंत्रण में ले लेती है और उनका उपयोग किसी खास क्षेत्र और वर्ग ले लिए करती है तो दूसरा बदहाली की स्थिति में आ जाता है। पीने के पानी के संकट से लेकर, गाय के चारे, रोजगार, अनाज और सांस्कृतिक व्यवहार सभी कुछ सीमित होते जाते हैं। तब लोग अपना अस्तित्व बचाने के लिए एक बिल्कुल अनजाने शहर या गंतव्य के लिए पलायन करते हैं, उन्हें जहां पारिश्रमिक कम और अपमान ज्यादा मिलता है। उनके लिए सबसे पहली शर्त होती है कि वे अपने गीत, त्योहार और सामाजिक व्यवहार को तिलांजलि दे दें। पलायन का यह नया चेहरा चमकदार नहीं है। आज जब संसाधनों और आजीविका के जबरदस्त अभाव में लोग अपने घर और गांव को छोड़ रहे हैं ऐसे में वे अपने गंतव्य का चयन संसाधन और रोजगार मिलने के आधार पर करते हैं। नए विकास ने ऐसा कोई कोना शेष नहीं छोड़ा है जहां आसानी से संसाधन और रोजगार उपलब्ध हों। लूट और एकाधिकार आधारित विकास की नीतियों ने सबका केंद्रीयकरण कर दिया है। अब विकास का केंद्र हैं शहर और प्राकृतिक संसाधन। विकास की नई नीतियां इस मान्यता पर आधारित हैं कि गांव ज्यादा संसाधनों का दोहन करते हैं इसलिए शहरीकऱण का विस्तार किया जाए और गांव खाली कराएं जाएं ताकि वहां के संसाधन स्थानीय मानव समाज के अधिकार क्षेत्र से मुक्त हो जाएं। जब लोग अपने गांव या इलाके को छोड़कर पलायन पर जाते हैं तो उन्हें गंतव्य, यानी जहां के अवसरों की तलाश में पहुंचते हैं, वहां का समाज उनका स्वागत नहीं करता। उस समाज को लगता है कि ये हमारे अवसरों और संसाधनों पर कब्जा करेंगे। चूंकि संसाधन अब कुछ लोगों और समूहों के हाथ में केंद्रित होते जा रहे हैं इसलिए हर जगह व्यापक समाज खुद को असुरक्षित मानने लगा है। ऐसे में पलायन करने वाले चोर माने जाते हैं।

जिस तनाव और अपमानजनक वातावरण में पलायनकर्ता मां अपने बच्चे को दूध पिलाती है, उसका सीधा सा मतलब है अस्तित्वहीनता का यह अहसास उस नई पीढ़ी में प्रवाहित हो रहा है। पलायन के चेहरे और चारित्रिक बदलाव की इसी समकालीन कहानी को इस आलेख में कहने कोशिश की गई है।

पलायन के बारे में सरकार, समाज, नीति बनाने वालों और नीतियों को प्रभावित करने वाले संस्थानों ने अपने-अपने तर्क गढ़े हैं। बढ़ते हुए पलायन को ज्यादातर नीति विशेषज्ञ विकास का सूचक मानते हैं और वे यह मानने को तैयार नहीं कि असमान विकास और बदहाली पलायन का आधार है और ये स्वेच्छा का पलायन नहीं है। जब सरकार संसाधनों को अपने नियंत्रण में ले लेती है और उनका उपयोग किसी खास क्षेत्र और वर्ग ले लिए करती है तो दूसरा बदहाली की स्थिति में आ जाता है। पीने के पानी के संकट से लेकर, गाय के चारे, रोजगार, अनाज और सांस्कृतिक व्यवहार सभी कुछ सीमित होते जाते हैं। तब लोग अपना अस्तित्व बचाने के लिए एक बिल्कुल अनजाने शहर या गंतव्य के लिए पलायन करते हैं, उन्हें जहां पारिश्रमिक कम और अपमान ज्यादा मिलता है। उनके लिए सबसे पहली शर्त होती है कि वे अपने गीत, त्योहार और सामाजिक व्यवहार को तिलांजलि दे दें।

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Post By: Shivendra
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