हाल ही में मुझे बुंदेलखंड जाने का मौका मिला। वहां यह देख-सुनकर धक्का लगा कि यहां सैकड़ों की संख्या में मवेशियों को चारे-पानी के अभाव में खुला छोड़ दिया जाता है जिससे वे कमजोर और बीमार हो जाते हैं और कई बार तो सड़क दुर्घटनाओं में असमय छोड़कर चले जाते हैं। यहां पानी की कमी कोई नई बात नहीं है और अन्ना प्रथा भी नई नहीं है लेकिन मौसम बदलाव ने जिस तरह खेती और आजीविका के संकट को बढ़ाया है, उसी तरह मवेशियों के लिए भी संकट बढ़ गया है।
यहां पहले अन्ना प्रथा के चलते गर्मियों की शुरूआत में मवेशियों को छोड़ दिया जाता था। अगली फसल के पहले तक वे खुले घूमते थे फिर उन्हें घरों में बांध लेते थे। लेकिन अब वे पूरे समय खुले ही रहते हैं। चाहे बारिश हो या ठंड साल भर खुले इधर-उधर भटकते रहते हैं। ऐसी दुर्दशा मवेशियों की पहले न सुनी और न देखी थी।
यहां सड़कों और सार्वजनिक स्थलों पर सैकड़ों की संख्या में गाय-बैल खड़े रहते हैं। दिन भर इधर-उधर चारे-पानी के लिए भटकते हैं और शाम को सड़कों पर अपना आशियाना बनाते हैं। कई बार सड़कों पर बैठे या सोए हुए दुर्घटना के शिकार हो जाते हैं। भूख से ये इतने दुर्बल हो गए हैं कि इनकी हडिड्यों को गिना जा सकता है।
बदलते मौसम में पानी की बेहद कमी हो गई हैं। ज्यादातर परंपरागत स्रोत सूख गए हैं। तालाब, बावड़ियां या तो सूख गई हैं या उनमें गाद और कचरे से पट गई हैं। पुराने जमाने के तालाब भी कम ही दिखाई देते हैं। यानी बारिश कम हुई और उस बारिश के पानी को सहेजने का जतन भी कम हो गया। इससे संकट बढ़ता ही गया।
हमारे यहां मवेशियों और खासतौर से गाय-बैल के साथ किसानों का एक विशेष लगाव रहा है। वे उनका बच्चों की तरह पालन-पोषण करते रहे हैं। खासतौर से बच्चे और महिलाओं का जिम्मा उनकी देखरेख करने का रहता था। उन्हें चारा या भूसा डालने से लेकर उन्हें पानी पिलाने का काम भी बच्चे करते थे। जब कोई किसान अपने नाते रिश्तेदार के घर जाता था तो वहां परिवार के बाल-बच्चों के साथ पशु धन की कुशल क्षेम पूछी जाती थी।
हमारी कृषि सभ्यता है। हमारे ज्यादातर त्यौहार खेती और गाय-बैल से जुड़े हैं। दीवापली, होली और पोला जैसे त्योहारों पर गाय-बैल की पूजा की जाती है। उन्हें सजाया जाता है और विशेष पकवान खिलाए जाते हैं। गाय तो हमारी गोमाता है, जो हमारी परंपरागत और प्रकृति से जुड़ी खेती पद्धति थी उसमें गाय-बैलों का विशेष महत्व था।
मवेशियों को चरने के लिए चरनोई की जमीन होती थी। पानी के लिए तालाब या नदियां होती थीं। गांव के ढोरों को चराने के लिए चरवाहा होता था। छत्तीसगढ़ जैसी प्रांतों में अब भी यह परंपरा बची हुई है। मवेशियों का स्थानीय स्तर पर जड़ी-बूटियों से इलाज करने वाले जानकार होते थे। आज भी अधिकांश लोग परंपरागत इलाज ही करवाते हैं, पशु चिकित्सकों की पहुंच गांव तक नहीं है।
खेती और पशुपालन एक दूसरे के पूरक थे। अनुकूल मिट्टी, हवा, पानी, बीज, पशु ऊर्जा और मानव ऊर्जा से ही खेतों में अनाज पैदा हो जाता था। अब तक वास्तविक उत्पादन सिर्फ खेती में ही होता है। एक दाना बोओ तो कई दाने पैदा होते हैं और उसी से हमारी भोजन की जरूरत पूरी होती है।
मवेशियों को चरने के लिए चरनोई की जमीन होती थी। पानी के लिए तालाब या नदियां होती थीं। गांव के ढोरों को चराने के लिए चरवाहा होता था। छत्तीसगढ़ जैसी प्रांतों में अब भी यह परंपरा बची हुई है। मवेशियों का स्थानीय स्तर पर जड़ी-बूटियों से इलाज करने वाले जानकार होते थे। आज भी अधिकांश लोग परंपरागत इलाज ही करवाते हैं, पशु चिकित्सकों की पहुंच गांव तक नहीं है। खेती और पशुपालन एक दूसरे के पूरक थे। अनुकूल मिट्टी, हवा, पानी, बीज, पशु ऊर्जा और मानव ऊर्जा से ही खेतों में अनाज पैदा हो जाता था। गाय से खेत में जोतने के लिए बैल मिलते थे। पशु ऊर्जा के दम पर ही कृषि का विकास हुआ है। जमीन को उर्वरक बनाने के लिए गोबर खाद मिलती थी और बदले में खेत में पैदा हुई फसल के डंठलों का भूसा मवेशियों को खिलाया जाता था। खेतों में कई प्रकार के चारे और हरी घास मिला करती थी।
परंपरागत खेती में बैलों से जुताई, मोट और रहट से सिंचाई और बैलगाड़ी के जरिए फसलों व अनाज की ढुलाई की जाती थी। खेत से खलिहान तक, खलिहान से घर तक और घर से बाजार तक किसान बैलगाड़ियों से अनाज ढोते थे। बैलगाड़ियों की चू-चर्र और बैलों के गले में बंधी घंटियां मोहती थी।
परंपरागत खेती में अलग से बाहरी निवेश की जरूरत नहीं थी। न फसलों में खाद डालने की जरूरत थी और न ही कीटनाशक। पशुओं की देखभाल में अतिरिक्त खर्च नहीं होता था। दूसरी तरफ खेत में डंठल व पुआल आदि सड़कर जैव खाद बनाते थे और पशुओं के गोबर से बहुत अच्छी खाद मिल जाती थी। गोबर खाद से खेतों में मिट्टी की उर्वरकता बढ़ती जाती थी। फसलों के मित्र कीट ही कीटनाशक का काम करते थे।
खेती और पशुपालन की जोड़ी का एक अच्छा उदाहरण है जो घुमंतू पशुपालक राजस्थान से भेड़ और ऊंट लेकर मैदानी क्षेत्रों में आते थे तो किसान उन्हें अपने खेतों में ठहरने के लिए बुलाते थे जिससे खेतों को उर्वरक खाद मिले और बदले में ऊंट व भेड़ों को चारा। एक पूरा चक्र था, जो हरित क्रांति के आने के बाद गड़बड़ा गया।
छोटे और गरीब किसानों का ये मवेशी बड़ा सहारा हुआ करते थे। बकरी, मुर्गी, गाय, बैल, भैंस, सुअर,गधा, घोड़ा आदि से उनकी आजीविका जुड़ी हुई है। कोई गरीब आदमी एक बकरी से शुरू करके अपनी आय बढ़ाते जा सकता था। ये मवेशी उनके फिक्सड डिपॉजिट की तरह हुआ करते थे।
लेकिन हरित क्रांति के दौरान देशी बीजों की जगह चमत्कारी हाईब्रीड आए। मिश्रित खेती की जगह एकल और नगदी फसलें आ गईं। गोबर खाद की जगह बेतहाशा रासायनिक खाद, कीटनाशक और खरपतवारनाशकों का इस्तेमाल होने लगा। बैलों की जगह ट्रैक्टर और कंबाईन हारवेस्टर आ गए। खेत और बैल का रिश्ता टूट गया।
लेकिन अब हरित क्रांति का संकट भी सामने आ गया है। देश के कई प्रांतों से किसानों की अपनी जान देने की खबरें आ रही हैं। ऐसे में बिजली और ऊर्जा के संकट के दौर में खेती में पशु ऊर्जा के महत्व को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। जलवायु बदलाव की समस्या है। इससे ग्लोबल वार्मिंग की समस्या बढ़ सकती है। क्या हम पशु ऊर्जा, प्रचुर मानव श्रम और मिट्टी पानी का संरक्षण करते हुए अपनी स्वावलंबी और टिकाऊ खेती को नहीं कर सकते?
लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं
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