बुंदेलखण्ड में पानी और डेवलपमेंट आल्टरनेटिव्स


पानी, मनुष्य की मूलभूत आवश्यकताओं में से एक है, मानव के सतत विकास के लिये 'पानी' एक महत्वपूर्ण और अभिन्न घटक होता है। पर्यावरण को बढ़ाने और बचाने दोनों में ही पानी की भूमिका बहुत आवश्यक होती है, साथ ही यह सामाजिक और आर्थिक प्रगति के लिये भी उतना ही जरूरी है। फ़िर भी, आज की तारीख में भारत के ग्रामीण क्षेत्र में प्रति 10 व्यक्तियों में से 3 को पीने का साफ़ पानी उपलब्ध नहीं है, जबकि तीन-चौथाई ग्रामीण जनता को पीने का पानी दूर से लाना पड़ता है, 10 में से सिर्फ़ 3 व्यक्तियों के घरों में टॉयलेट हैं। ग्रामीण भारत, जहाँ देश की लगभग 70% जनसंख्या निवास करती है, उसे पीने के लिये, पशुओं के लिये तथा साफ़-सफ़ाई, स्वच्छता जैसे अन्य घरेलू जरूरतों के लिये पर्याप्त पानी नहीं है। इसी प्रकार देश की 40% से अधिक जनता ऐसे इलाकों में रहने को मजबूर है, जहाँ प्रति दो वर्ष में एक बार भीषण सूखा पड़ता है।

ऐसा माना जाता है कि ग्रामीण जल आपूर्ति के लिये किये गये भारी-भरकम निवेश और योजनाएं ग्रामीणों को पानी की एक न्यूनतम मात्रा सुनिश्चित करने में भी असफ़ल सिद्ध हुई हैं। जबकि विशाल परियोजनाओं ने पानी की समस्या के हल के लिये स्थानीय स्तर पर किये जाने वाले कामों और जनता की भागीदारी को उपेक्षित ही किया है। बारिश की अनिश्चितता, बरसे हुए पानी को सहेजकर न रख पाना, वनों की अंधाधुंध कटाई के कारण मिट्टी और ज़मीन के कटाव तथा रोज़गार के साधनों की कमी की वजह से गाँवों से शहरों की ओर पलायन ने पानी की समस्या को और भी गम्भीर बना दिया है।

बढ़ती जनसंख्या और कम होती जा रही खेती के कारण गरीबी का स्तर और भी बदतर हुआ है। ग्रामीण भारत की परिस्थितियों को बदलने के लिये अभी तक जितने भी योजनाएं-परियोजनाएँ चलाई गयी हैं उनके प्रयास टुकड़ों-टुकड़ों में ही रहे हैं। कभी भी मुख्य समस्या का स्थाई समाधान नहीं किया गया, बल्कि अलग-अलग योजनाओं के माध्यम से केवल कुछ घटकों पर ही काम किया है, जिस कारण समस्या का हल कभी नहीं हो पाया। पानी के संकट को हमेशा अलग-थलग करके ही देखा गया है। नीति निर्माताओं ने हमेशा स्वास्थ्य और ऊर्जा के मुकाबले 'जल प्रबन्धन' को व्यापक नज़रिये से कभी देखा ही नहीं है, और यह क्षेत्र पूरी तरह उपेक्षित ही रहा।

 

बुंदेलखण्ड क्षेत्र -


मध्य भारत के 13 जिलों, जिसमें 7 जिले उत्तरप्रदेश के तथा 6 जिले मध्यप्रदेश के हैं, को मिलाकर बनने वाले क्षेत्र को बुंदेलखण्ड कहते हैं। यह इलाका ग्रेनाईट की विशाल संरचनाओं के ऊपर स्थित है तथा यहाँ बारिश का वार्षिक औसत सिर्फ़ 500 मिमी है। यहाँ की अर्थव्यवस्था मुख्यतः खेती पर आधारित है।

बगैर सोचे-समझे और बिना किसी वैकल्पिक वृक्षारोपण कार्यक्रम के बिना इलाके में पेड़ों की कटाई ने लगभग सारे जंगलों को समाप्त ही कर दिया है, जिस कारण कई जलस्रोत सूख चुके हैं तथा भूजल स्तर में भी भारी गिरावट हुई है। लगभग पूरे वर्ष भर बुंदेलखण्ड क्षेत्र में घरेलू और कृषि कार्यों के लिये पानी की कमी लगातार बनी रहती है। पानी के अधिकतर स्रोत जैसे तालाब, झीलें, नदियाँ और नहरें आदि साल में कुछ समय के लिये ही पानी से भरे होते हैं। खेती द्वारा अधिकतर फ़सलें 'एकफ़सली' होती हैं और उन्हें पानी की आपूर्ति खुले कुंओं से ही की जाती है। इसलिये अधिकतर किसान बारिश के पानी पर ही निर्भर हैं, ताकि भूजल के ये स्रोत पानी से भर सके। सिंचाई और घरेलू उपयोग के लिये यह इलाका अधिकतर भूजल पर ही निर्भर है। मनुष्य, जानवरों और खेती के लिये पानी की बढ़ती मांग की वजह से धरती में पानी के 'रीचार्ज' होने की गति बहुत कम हो गई है। भूजल का लेवल धरती में दिनोंदिन बहुत गहरे होता जा रहा है और क्षेत्र में 'पानी का अकाल' जैसी भीषण स्थिति बन चुकी है। ज़मीन में अधिक से अधिक गहरे से पानी खींचने के कारण पानी की शुद्धता और उसकी क्वालिटी पर भी प्रश्नचिन्ह लगे हैं, भले ही वह मुश्किल से उपलब्ध हो रहा हो।

 

ऐसे में एक नई पहल - 'वाटर फ़ॉर ऑल एण्ड ऑलवेज़' (सभी के लिये हमेशा पानी) प्रोजेक्ट


बुंदेलखण्ड के भीषण सूखे को देखते हुए उत्तरप्रदेश के झाँसी और मध्यप्रदेश के टीकमगढ़ जिलों के दस गाँवों में 'डेवलपमेंट आल्टरनेटिव्स' और 'अर्घ्यम ट्रस्ट' नामक दो संस्थाओं द्वारा 'वाटर फ़ॉर ऑल एण्ड ऑलवेज़' प्रोजेक्ट शुरु किया गया। इस प्रोजेक्ट में स्थानीय व्यक्तियों और संस्थाओं की भागीदारी भी ली गई ताकि जल संरक्षण के लिये किये उपाय स्थाई और लम्बे समय चलने वाले बनें। यह प्रोजेक्ट निम्नलिखित गाँवों में चलाया गया।

मध्यप्रदेश (टीकमगढ़) - बगान, महाराजपुरा, राजपुरा, बिल्त, भमोरी शीतल, पीपरा

उत्तरप्रदेश (झाँसी) - गणेशगढ, हस्तिनापुर, गोपालपुरा, रुण्ड करारी तथा सरमाऊ

यह प्रोजेक्ट, क्षेत्र में पानी और सफ़ाई जैसे बुनियादी सेवाओं में गुणात्मक और मात्रात्मक जरूरतों को खोजने और उन्हें पूरा करने की दिशा में यह एक महत्वपूर्ण कदम है। इस प्रोजेक्ट का डिजाइन एकीकृत जल संसाधनों के मैनेजमेंट का समाधान करने के लिये एक सबक है। बुंदेलखण्ड का इलाका सूखे की विभीषिका झेलने को अभिशप्त हो चुका है, यहाँ प्रति तीन साल में सूखा पड़ता है। लेकिन पिछले तीन वर्षों में बहुत ही कम बारिश की वजह से इस बार का सूखा अधिक भयावह है। बुंदेलखण्ड के गाँव लगातार 5 साल से कठोर जलवायु तथा भीषण जल संकट भुगत रहे हैं। इस प्रोजेक्ट में जनभागीदारी की मदद लेने के कारण, जिस समुदाय को इसका फ़ायदा मिलने वाला है या मिला है उनमें नये उत्साह का संचार हुआ है।

स्थिति के आकलन के लिये अपनाया गया दृष्टिकोण -

बुंदेलखण्ड की सूखे की पृष्ठभूमि देखते हुए और ऊपर बताई गई समस्याओं और चिंताओं को देखते हुए प्रोजेक्ट के लिये ऐसा दृष्टिकोण अपनाया गया ताकि जिसके जरिये नये जलस्रोतों के निर्माण और उनके रखरखाव सहित पानी की मात्रा और गुणवत्ता पर भी पूरा फ़ोकस रहे, साथ ही गाँव, ब्लॉक, तहसील और जिला स्तर पर स्थानीय संस्थाओं के भरोसे काम किया जाये ताकि पानी की चुनौतियों से वे सहजता से निपट सकें।

प्रोजेक्ट की परिकल्पना और डिजाइन कुछ इस प्रकार रखी गई है कि सबसे छोटे स्तर अर्थात गाँव के स्तर पर भी, कम से कम बारिश को भी सहेजा जा सके। 'पानी के समूचे प्रबंधन' प्रणाली में - पानी की मांग कितनी होगी, पानी की आपूर्ति कितनी हो सकेगी, जल प्रबंध करने वाली संस्थाएं कितनी मजबूत हैं, तथा घरेलू और गाँव के स्तर पर स्वच्छता का मैनेजमेंट कैसे किया जायेगा, आदि बातें शामिल हैं।

प्रोजेक्ट का मुख्य विचार यही है कि किस तरह से या किस तंत्र की मदद से पानी की मांग और आपूर्ति के बीच असंतुलन को कम से कम किया जाये। पानी का संरक्षण और जलस्रोतों के संसाधन का लगातार उपयोग पर अधिक जोर दिया गया है। सुरक्षित पेयजल और बेहतर स्वच्छता अभियान को सही ढंग से लागू करने के लिये मुख्य और स्थानीय हितधारकों को शामिल किया गया है। स्थानीय संस्थाओं को एकत्रित करके, विभिन्न कार्यक्रम, कार्यशालाएं, और अन्य गतिविधियाँ शुरु की गई हैं, ताकि जागरूकता का प्रसार हो। गाँवों की महिलाओं और युवाओं को पानी की टेस्टिंग के तरीके समझाये गये हैं साथ ही उन्हें पानी में बैक्टीरिया के शुद्धिकरण के लिये 'जल-तारा' उपकरण लगाने के लिये ट्रेनिंग दी गई है, यह इस क्षेत्र की मुख्य समस्या है।

इस सकारात्मक पहल के नतीजे -

इस कार्यक्रम से ग्रामीणों के जीवन में परिवर्तन साफ़तौर पर देखा जा सकता है। इन गाँवों की महिलाएं और अन्य ग्रामीण पानी की उपलब्धता के कारण विकास की आहट साफ़-साफ़ सुन रहे हैं। पानी के उपयोगकर्ताओं से शुल्क निर्धारित करना, पानी की अत्यधिक खपत पर निगाह रखने के लिये मीटर स्थापित करने, और जितना पानी लिया गया है उसका शुल्क लेना आदि कामों में ग्रामीण संस्थाओं को शामिल किया गया है। मदोर गाँव में पानी की सप्लाई (वितरण) व्यवस्था की जिम्मेदारी समुदाय द्वारा उठाई जा रही है, वहीं दूसरी ओर काछीपुरा गाँव में एक व्यक्ति ने निजी तौर पर इस काम को हाथ में लिया है। छोटे-छोटे महिला स्व-सहायता समूह इस काम में बहुत मददगार साबित हो रहे हैं। इन समूहों की भागीदारी, किये गये उपायों और स्वच्छ पानी की वजह से बाल मृत्यु-दर में काफ़ी कमी आई है। इन दस गाँवों में लगभग 1200 घरों में स्वच्छ पानी उपलब्ध है, जबकि 60% प्रतिशत से अधिक घरों में पक्के टॉयलेट (शौचालय) स्थापित किये जा चुके हैं।

 

 

 

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