बुन्देलखण्ड - पानी जैसे मुद्दे पर राजनीति का मतलब


बुन्देलखण्ड के हालात दिन-पर-दिन बिगड़ते जा रहे हैं। वहाँ के कुएँ सूख गए हैं, तालाब सूखने के कगार पर हैं। जबकि दो महीने पहले ही सिंचाई के पानी को रोककर रख लिया गया था ताकि पीने के पानी का इन्तजाम करके रखा जा सके। लेकिन इस सबके बावजूद बुन्देलखण्ड से लोगों के भागने का सिलसिला बदस्तूर जारी है। इस स्थिति में जिस प्रकार से उत्तर प्रदेश और केन्द्र सरकार के बीच एक दूसरे पर आरोप लगाने या अपनी जिम्मेदारी से बचने की राजनीति चली जा रही है उसे किसी भी दृष्टिकोण से सही नहीं कहा जा सकता। यूँ तो पानी का संकट समूचे हिन्दुस्तान में है लेकिन बुन्देलखण्ड में जो हालात हैं और जिस प्रकार से वहाँ पानी पर राजनीति की जा रही है वह बेहद निराशाजनक है। बुन्देलखण्ड में विगत कुछ माह में ही करीब 32 लाख लोगों का पलायन सिर्फ पानी की वजह से हुआ है जिसके कारण यहाँ खेती चौपट हो चुकी है और रोजगार खत्म सा हो चला है। यह लगातार तीसरा बरस है जहाँ सूखा पड़ा है।

सूखे से बुन्देलखण्ड के महोबा, चित्रकूट, झाँसी, ललितपुर, बांदा इत्यादि क्षेत्रों में पेयजल का संकट इतना गहरा हो चला है कि लोग दूषित पानी पीने को विवश हैं। खबर यह है कि गन्दे पानी पीने की वजह से करीब 113 लोगों की मौत पिछले दिनों हो चुकी है। इसके अलावा अनेक लोग किडनी सम्बन्धित बीमारियों की चपेट में आ चुके हैं।

जिस प्रकार से भूजल का दोहन किया गया है और अभी भी किया जा रहा है वो आने वाले समय के लिये और भी घातक सिद्ध हो सकता है। पिछले दो दशकों से पानी के स्तर में लगातार गिरावट देखी जा रही है और सरकारों के पास इसके लिये कोई योजना है नहीं। जल संरक्षण की नीति तो बना दी गई लेकिन अमल कौन करे लिहाजा देश के सभी तालाब व नहरों का जलस्तर गिर कर 30 फीसदी तक बच गया है।

सिर्फ बुन्देलखण्ड में ही तकरीबन आधा दर्जन नदी आस-पास से होकर गुजरती है लेकिन किसी भी नदी में 10 फीसदी से ज्यादा जल है नहीं और सरकार चाहे लखनऊ की हो या दिल्ली की किसी की कोई कार्ययोजना है नहीं तो बिन पानी बुन्देलखण्ड का हाल यही है कि लोग यहाँ बूँद-बूँद को तरस रहे हैं और सरकारें राजनीति के अलावा और कुछ नहीं कर पा रही हैं।

पिछले दिनों जब यह मुद्दा उठा तब आनन फानन में खाली टैंकर केन्द्र के द्वारा बुन्देलखण्ड भेज दिया गया। बाद में सफाई भी दी गई। वहीं लखनऊ में पानी को लोगों तक पहुँचाने की भी कोई योजना नहीं थी बगैर यह पता किये कि पानी टैंकर में है या नहीं है राजनेता राजनीति में लग गए। सपा और भाजपा के लोगों ने एक दूसरे पर आरोप लगाना शुरू कर दिया। यह देश का दुर्भाग्य नहीं तो और क्या है जहाँ जनता के प्रतिनिधि काम कम और राजनीति ज्यादा करते नजर आते हैं।

देश में कृषि सिंचाई के लिये भी पानी का संकट उतना ही गहरा है। लगभग 55 प्रतिशत भूमि सिंचित नहीं है जहाँ कृषि उत्पादन के लिये भी एक समस्या है। जब किसान को पानी नहीं मिलेगा तो वह सिंचाई नहीं कर पाएँगे और इस प्रकार से अन्न की किल्लत का संकट भी भविष्य में हो सकता है।

उधर कृषि योग्य भूमि भी लगातार कम होती जा रही है और जंगल भी कम होते जा रहे हैं यह भी एक समस्या है जिसके कारण बारिश कम हो रही है और पानी का संकट दिन-पर-दिन गहराता चला जा रहा है।

दिल्ली से लेकर महाराष्ट्र और दूर-दराज के अंचलों में पानी की किल्लत जिस प्रकार से लोगों के लिये परेशानी का सबब है उससे कई सवाल खड़े हो रहे हैं। जो संविधान लोगों को जीवन जीने का हक देता है उसी संविधान की शपथ लेकर जब राजनेता सत्ता में आते हैं तो वो लोगों के जीवन के साथ ही खिलवाड़ करने लगते हैं।

बुन्देलखण्ड में स्थिति बेहद खतरनाक हो रही है। 1999 से 2008 के बीच के वर्षों में यहाँ बारिश के दिनों की संख्या 52 से घट कर 23 पर आ गई है। एक तरफ पिछली बरसात में टीकमगढ़ में 56 फीसदी, छतरपुर में 54 फीसदी, पन्ना में 61 फीसदी, सागर में 52 फीसदी, दमोह में 61 फीसदी, दतिया में 38 फीसदी कम बारिश हुई है।

जिस कारण पूरा बुन्देलखण्ड अब तक के सबसे पीड़ादायक सूखे की चपेट में है, पर दूसरी तरफ यह संकट हमें कुछ सीखने के अवसर भी दे रहा है। इससे हमें यह साफ संकेत मिल रहे हैं कि सत्ता और समाज को अपनी विकास की जरूरतों और सीमाओं को संयम के सिद्धान्त के साथ परिभाषित करना चाहिए। हम हमेशा यह नहीं कह सकते हैं कि सरकार की राहत से ही सूखे का मुकाबला किया जाना चाहिए, बल्कि समाज को इस मुकाबले के लिये ताकतवर और सजग बनाना होगा।

सरकार पर निर्भरता सूखे को और भी विकराल बना देगी। यह बेहद जरूरी है कि बुन्देलखण्ड में तत्काल ऐसे औद्योगिकीकरण को रोका जाये जो पर्यावरण के चक्र को आघात पहुँचता हो। यह तय किया जाना जरूरी है कि भू-खनन, निर्वनीकरण और वायुमण्डल में घातक गैसें छोड़ने वाले उद्योगों की स्थापना नहीं की जाएगी और तत्काल वन संवर्धन और संरक्षण का अधिकार वहाँ के जन समुदाय को सौंपा जाएगा।

भारत सरकार के सिंचाई एवं विद्युत मंत्रालय के 1985 के आँकड़ों के मुताबिक बुन्देलखण्ड में बारिश का 131021 लाख घनमीटर पानी हर साल उपलब्ध रहता है। इसमें से महज 14355 लाख घन मीटर पानी का ही उपयोग किया जा पाता है, बाकी का 116666 लाख घन मीटर बिना उपयोग के ही चला जाता है यानी पूरी क्षमता का 10.95 प्रतिशत ही उपयोग में लिया जाता है।

आज भी स्थिति यही है। इसके लिये बुन्देलखण्ड की पुरानी छोटी-छोटी जल संवर्धन संरचनाओं के पुनर्निर्माण और रख-रखाव की जरुरत थी, जिसे पूरा नहीं किया गया। इसके बजाय बुन्देलखण्ड में 15 बड़े बाँध बना दिये गए जिनमें गाद भर जाने के कारण उनकी क्षमताओं का 30 फीसदी हिस्सा ही उपयोग में लाया जा पा रहा है।

इस इलाके के 1600 खूबसूरत ऐतिहासिक तालाबों में से अभी केवल 40 ही बेहतर स्थिति में हैं। जिस तरह का जल प्रबन्धन सरकारें कर रही हैं, उससे नर्मदा तथा सोनभद्र जैसी नदियों का पानी या तो सूख रहा है या फिर कोसी जैसी नदियों में बाढ़ आ रही है।

कुल मिलाकर बुन्देलखण्ड के हालात दिन-पर-दिन बिगड़ते जा रहे हैं। वहाँ के कुएँ सूख गए हैं, तालाब सूखने के कगार पर हैं। जबकि दो महीने पहले ही सिंचाई के पानी को रोककर रख लिया गया था ताकि पीने के पानी का इन्तजाम करके रखा जा सके। लेकिन इस सबके बावजूद बुन्देलखण्ड से लोगों के भागने का सिलसिला बदस्तूर जारी है। इस स्थिति में जिस प्रकार से उत्तर प्रदेश और केन्द्र सरकार के बीच एक दूसरे पर आरोप लगाने या अपनी जिम्मेदारी से बचने की राजनीति चली जा रही है उसे किसी भी दृष्टिकोण से सही नहीं कहा जा सकता।

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