बुंदेलखंड प्राकृतिक संपदा का धनी इलाका है। यहां का भौगोलिक स्वरूप समतल, पठारी व वनों से आच्छादित है। प्राकृतिक सुंदरता तो देखते ही बनती है। बुंदेलखंड में पानी की बात करें तो यहां प्राकृतिक जल स्रोतों का एक बड़ा व सशक्त जाल है। उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश के दो भागों में फैले बुंदेलखंड में छोटी-बड़ी करीब 35 नदियां हैं। यमुना, बेतवा, केन, बागै समेत लगभग 7 नदियां राष्ट्रीय स्तर की हैं।
हरियाली के लिए पौधारोपण तो हर साल होता है लेकिन इसके ज्यादातर अभियान महज पौधे लगाने तक ही सिमट कर रह जाते हैं। यही कारण है कि हर साल लाखों की संख्या में पौधे लगाने के बावजूद बुंदेलखंड में वन क्षेत्र का औसत नहीं बढ़ रहा है। जिस तरह से प्राकृतिक संसाधन उपेक्षा के चलते सिमटने लगे हैं, उन्हें बचाने के लिए, अब खानापूर्ति की नहीं बल्कि निष्ठा व निस्वार्थ भाव से काम करने की जरूरत है।
बुंदेलखंड में साढ़े 17 हजार से अधिक प्राचीन तालाब हैं, सरकारी व निजी प्रयासों से काफी संख्या में नए तालाब भी खोदे जा चुके हैं। पेयजल के लिए कुएं हमारी अमूल्य धरोहर हैं, इनकी संख्या 35 हजार से ज्यादा है। बुंदेलखंड में जल संरक्षण का जो प्राचीन फार्मूला है, वह अकेले तालाब व कुंओं तक ही सीमित नहीं था। इसमें बावड़ी व बिहार का भी अहम रोल रहा। आज भले ही ये दोनों गुमनामी की कगार पर हैं लेकिन बुंदेलखंड में इन दोनों की संख्या करीब 400 रही है इसमें 360 बीहर व 40 बावड़ी शामिल हैं। दस विशेष प्राकृतिक जल स्रोत हैं, जिन्हें हम कालिंजर दुर्ग, श्री हनुमान धारा पर्वत, गुप्त गोदावरी व बांदा के तुर्रा गांव के पास नेशनल हाईवे पर विसाहिल नदी में देखते हैं।
इन प्राकृतिक स्रोतों से हर समय जलधाराएं निकलती रहती हैं। यहां बांधों की संख्या आधा सैकड़ा से ज्यादा है। मोटे तौर पर देखा जाए तो आज ही बुंदेलखंड में प्राकृतिक व परंपरागत स्रोतों की कमी नहीं है। फिर भी यहां के लोगों को अक्सर सूखा जैसी आपदाओं का सामना करना पड़ता है। सर्वोदय आदर्श ग्राम स्वराज अभियान समिति के संयोजक उमा शंकर पांडेय कहते हैं कि बुंदेलखंड में जल को संरक्षित करने वाले संसाधनों की कमी नहीं है। हमने जो नए तालाब व कुंए बनाए उनके साथ ही पूर्वज हमें इतने तालाब, कुंए, बीहर और बावड़ी दे गए कि यदि उनका संरक्षण कर लिया जाए तो बारिश का ज्यादा से ज्यादा पानी संरक्षित करने में सक्षम हो जाएंगे। घटती हरियाली को बचाना होगा क्योंकि पेड़ काटे तो जा रहे हैं लेकिन नए पौधे लगाकर उन्हें वृक्ष नहीं बना पा रहे हैं।
हरियाली के लिए पौधारोपण तो हर साल होता है लेकिन इसके ज्यादातर अभियान महज पौधे लगाने तक ही सिमट कर रह जाते हैं। यही कारण है कि हर साल लाखों की संख्या में पौधे लगाने के बावजूद बुंदेलखंड में वन क्षेत्र का औसत नहीं बढ़ रहा है। जिस तरह से प्राकृतिक संसाधन उपेक्षा के चलते सिमटने लगे हैं, उन्हें बचाने के लिए, अब खानापूर्ति की नहीं बल्कि निष्ठा व निस्वार्थ भाव से काम करने की जरूरत है। मेरा गांव जखनी जलग्राम बन गया है, यह उपाधि यूं ही नहीं मिली बल्कि पूरे गांव वालों के सामुदायिक सहयोग से परिश्रम कर इसे हासिल किया है। 31 मई 2016 को तत्कालीन मंडलायुक्त एल वेकेटेश्वर लू, जिलाधिकारी योगेश कुमार द्वारा जखनी गांव को जलग्राम घोषित किया गया था।
तब से बराबर गावं के लोगों द्वारा आज और कल के लिए जल पर काम किया जा रहा है। सर्वोदयी कार्यकर्ता श्री पाण्डेय बताते हैं कि जल के महत्व और उसके संरक्षण की सीख मां से मिली थी। जब मैं छोटा था तीर्थ यात्रा कर घर लौटीं तो साथ में एक लोटा लिए थीं। मेरे पूछने पर उन्होंने जल के महत्व को बताया तभी से मेरे मन में जल संरक्षण की अवधारणा बनी जो आज भी मेरे साथ है। श्री पांडेय कहते हैं कि जिस तरह से हम अपने घरों में तीर्थों का जल सहेज कर रखते हैं। उसी प्रकार गांव के तालाब, कुंओं, बीहर और बावड़ी को बचाकर रखा जा सकता है। ऐसे ही संकल्प व प्रयासों से जखनी की तरह हर गांव जलग्राम बन जाएगा।
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