बुन्देलखण्ड की सीता

भारत के ग्रामीण इलाकों में जीवन-यापन दिनोंदिन कठिन होता जा रहा है, खासकर उन इलाकों में जहाँ जल संकट की भयावहता प्रतिवर्ष गहराती जा रही है। ऐसा ही इलाका है मध्यप्रदेश का बुन्देलखण्ड क्षेत्र। पानी की कमी और सूखे की मार झेल रहे इस इलाके को पुनर्जीवन प्रदान करने के लिये सरकार द्वारा एक “चेक-डेम” परियोजना का प्रारम्भ किया था ताकि उसके द्वारा ज़मीन में जल का पुनर्भरण करके खेती को उन्नत बनाया जा सके।

बुन्देलखण्ड इलाके में कम वर्षा के चलते सूखे की स्थिति और भूजल स्तर में कमी हो गई, इस कारण खेती पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ा है। 1989 में “भारत वैकल्पिक विकास” (DA) के क्षेत्रीय ऑफ़िस ने “चेक-डेम” परियोजना का प्रारम्भ किया ताकि बुन्देलखण्ड क्षेत्र के प्राकृतिक संसाधनों को समृद्ध बनाया जा सके और स्थानीय ग्रामीणों को कर्ज़ और गरीबी से मुक्त किया जा सके।

सीता की कहानी –


बुन्देलखण्ड की “सीता” जिनकी उम्र लगभग 60 से 70 के बीच है, इनके बड़े परिवार के पास मात्र 4 एकड़ ज़मीन है जिस पर ये लोग वर्ष भर में गेहूँ, ज्वार और मूँगफ़ली उगाते हैं। जब उनसे मुलाकात की गई उस वक्त भी वे खुले आसमान के नीचे रोटियाँ बनाने में व्यस्त थीं, रोटियाँ सेंकते-सेंकते उन्होंने “चेक-डेम” योजना, उसकी सफ़लता और उसके प्रभाव के बारे में सरल शब्दों में बताया।

सामाजिक सन्दर्भ –


“हम तो गरीब हैं, हम अपनी समस्याओं के हल के लिये हम क्या कर सकते थे…” सीता बताती हैं कि उनके गरीब माता-पिता की तरह जो कि इधर-उधर खेत मजदूरी करके जीवन-यापन करते थे, सीता भी कभी स्कूल नहीं गई और दस वर्ष की आयु में उनका विवाह भी हो गया। अपने बचपन को याद करके वे बताती हैं कि हमारे यहाँ तो उस समय भी पानी की समस्या थी, मेरे पास भविष्य के कोई सपने नहीं थे, मेरी माँ की मौत मेरे बचपन में ही हो गई थी और मेरी सास मुझे बहुत बुरी तरह पीटती थी… ऐसे माहौल में भला मैं “खेती” और “पानी” के बारे में क्या सोचती? हम तो अनपढ़ औरतें हैं, हम ऐसी समस्याओं के बारे में क्या सोचते। सीता ने देखा कि उसके बच्चे भी उन्हीं समस्याओं से दो-चार हो रहे हैं जिनसे कभी वह हुआ करती थी, उसके परिवार के सभी सदस्य खेतों में दिन-रात काम करते थे और पानी की समस्या से जूझते रहते थे। फ़िर भी सीता ने उम्मीद नहीं छोड़ी थी, उसे आशा थी कि किसी न किसी दिन उसके बच्चों का जीवन भी आसान होगा। सीता कहती हैं “मैं चाहती थी कि पानी की समस्या का हल निकले ताकि मेरे बच्चे और नाती-पोते खुश रहें…”। बुन्देलखण्ड इलाके में खेती के न पनपने के पीछे सबसे बड़ी मुश्किल थी पानी की। मैं अपनी खेती और बच्चों को लेकर सबसे ज्यादा चिन्ता करती थी, लेकिन मेरी सबसे बड़ी चिन्ता पानी की थी।

चेक-डेम प्रोजेक्ट का प्रभाव –


1990 में DA के अधिकारियों और कार्यकर्ताओं ने सीता के गाँव में “चेक-डेम” बनाने की योजना रखी। उन्होंने गाँव के सरपंच और स्थानीय ग्रामीणों से चर्चा की, और तय किया कि चेक-डेम कहाँ बनाया जाये और उसके निर्माण में स्थानीय लोगों को ही रोजगार दिया जाये। सीता बताती हैं कि “चेक-डेम बनने से काफ़ी सुविधा हुई है, कुओं का जलस्तर तो बढ़ा ही है, हमें भी खेती के लिये चेक-डेम से पानी मिल जाता है…”। DA कार्यकर्ताओं को सिर्फ़ रोज़गार बढ़ाने की फ़िक्र नहीं थी, बल्कि वे चाहते थे कि स्थानीय लोगों की गरीबी दूर हो और एक साधारण जीवनयापन करने लायक आमदनी बढ़े ताकि उसका फ़ायदा सभी को मिले। इस योजना का चिंताजनक पहलू यह था कि चेक-डेमों से सभी किसानों को बराबरी से पानी नहीं मिल पाता था। सीता कहती हैं कि “डेम के पास बने खेत के मालिक को सबसे ज्यादा फ़ायदा होता था…”। दूसरी बात यह थी कि इन चेक-डेम की निगरानी और रखरखाव किस प्रकार किया जाये। इन छोटे-छोटे चेक-डेम का रखरखाव आसान नहीं है, खासकर लम्बे समय इनके उपयोग को देखते हुए, लेकिन तय किया गया कि गाँववासी ही आपस में मिलजुलकर इनका रखरखाव करेंगे।

“अनपढ़”(?) सीता कहती हैं कि “अच्छे जीवन के लिये हमें प्राकृतिक संसाधनों के करीब और उनसे सम्बन्धित रहना चाहिये, कुएं कभी ना सूखें, हमारे पास एक अच्छा घर हो और गेहूँ और मूंगफ़ली की खेती के लिये खूब पानी चाहिये, बस…” सीता के अनुसार, अब हम परम्परागत खेती के अलावा खाली समय में भी कुछ और उगा लेते हैं और उसे बाज़ार में बेचकर कमा लेते हैं। उन्होंने देखा कि पहले वे वर्ष भर में सिर्फ़ 4-6 माह के गुज़ारे लायक ही खेती कर पाते थे, उसके बाद उन्हें मजदूरी और बाज़ार पर ही निर्भर होना पड़ता था, जहाँ वे दैनिक खेती-मजदूरी करते थे। जबकि अब “पानी के प्रबन्धन” और चेक-डेम के निर्माण के बाद वे उतने गरीब नहीं रहे। चेक-डेम की तकनीक बुन्देलखण्ड जैसे पिछड़े और गरीब इलाके के लिये एकदम उपयोगी है। छोटे-छोटे चेक-डेम के कारण स्थानीय ग्रामीण गरीबों को फ़ायदा पहुँचा है, एक तो उन्हें रोज़गार भी मिला है और उनकी आमदनी भी बढ़ी, जिसके कारण इस क्षेत्र से पलायन में भी कमी आई है। हालांकि अभी तो शुरुआत है, और भारत के कुछ गरीब भूभाग में से एक इस बुन्देलखण्ड की तस्वीर पूरी तरह से बदलने में अभी वक्त लगेगा, लेकिन गाँववासियों ने आशा नहीं छोड़ी है। सीता कहती हैं कि “सभी ग्रामीण अपने गाँव और अपनी तकदीर बदलने के प्रति आशान्वित हैं और साथ मिलकर काम करने को तैयार हैं…”। जब उनसे पूछा गया कि उनके जीवन का सबसे अच्छा समय कौन सा रहा, तो वे कहती हैं कि “मैंने अपने जीवन में कोई खास अच्छा समय नहीं देखा, लेकिन मैं महिलाओं से सिर्फ़ एक बात कहना चाहती हूँ कि ‘एकता’ में बड़ी ताकत होती है…”।

खेतों में रोटियाँ बेलते हुए सीता लगातार भूख, गरीबी, बीमारी और बेरोज़गारी पर बात करती चलती हैं, लेकिन “पानी” को वे सबसे जरूरी और सबसे बड़ी जरूरत मानती हैं… चेक-डेम के पानी के बारे में पूछने पर वे मुस्कराकर सिर्फ़ इतना ही कहती हैं “मीठा है…” क्योंकि वे जानती हैं कि पानी की क्या कीमत होती है… अफ़सोस इस बात का है कि इस साधारण सी, लेकिन महत्वपूर्ण बात को एक अनपढ़ महिला जानती समझती है जबकि शहरी पढ़े-लिखे नहीं समझ रहे…

अनुवाद – सुरेश चिपलूनकर

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