बुन्देलखण्ड केन बेतवा : कशमकश


यहाँ के लोग मुहावरे की भाषा में उम्मीद बाँध बैठे हैं कि जल-जंगल-जमीन को बिना नुकसान पहुँचाये उनकी प्यास मिटाई जाएगी। यह विडंबना ही है कि बूँद-बूँद के लिये तरस रहा बुन्देलखण्ड जल-जंगल के साथ जल को कभी नहीं भुला पाया। ...और कोई भुला भी नहीं सकता।

सरकारी संकल्पों के दीप अगर ईमानदारी से बुन्देलखण्ड की दो नदियों केन और बेतवा की लहरों में जगमगाये तो काफी हद तक सम्भव है कि 2026 में बुन्देलखण्ड की सूखी धरती और प्यासे लोगों के कंठ तर होने लगेंगे। लेकिन इन दीपों को प्रज्वलित करने से पहले स्थानीय नागरिकों की चिन्ताओं को जरूर दूर किया जाना चाहिए। बुन्देलखण्ड के भाग्य को बदलने के लिये ऐसे कोई प्रयास नहीं किये जाने चाहिए, जिससे तात्कालिक फायदा भविष्य की फसल को चौपट कर दे। उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश के इस भूखंड की जीवनदायिनी मानी जानी वाली दो नदियों केन और बेतवा को जोड़ने की योजना पर साल के आखिर तक काम शुरू होने की उम्मीद जगाकर सरकार ने वीर बुंदेलों के सदियों से मुरझाये चेहरों पर खुशियाँ लौटा दी हैं। सरकारी दावा है कि हद से हद 2022 तक यह परियोजना पूरी हो जाएगी। बुन्देलखण्ड के किसानों को सिंचाई के लिये कालिदास के मेघों पर आश्रित नहीं होना पड़ेगा। सरकारी दावे से तो ऐसा लगता है कि यहाँ की फिजा में हरित क्रांति का नया सूरज निकलेगा। ईश्वर से प्रार्थना है कि यह दावा हकीकत में बदले।

देश की करीब तीन दर्जन से ज्यादा नदियों को जोड़ने की इस परिकल्पना का श्रेय अटल बिहारी वाजपेयी सरकार को दिया गया है। उनके अनुयायी मौजूदा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इसे साकार करने की पहल बुन्देलखण्ड से की है। चित्रकूट की पहाड़ियों से बुन्देलखण्ड के सामाजिक सरोकारों को राष्ट्रीय फलक पर उठाने वाले कानूनविद और लेखक आलोक द्विवेदी इसे अच्छा कदम मानते हैं। वह कहते हैं कि इस परियोजना से किसी को कोई तकलीफ नहीं है। बाँधों की विनाशलीला देश कई बार देख चुका है। अगर इस परियोजना के निर्माण में बाँधों से बचा जाए तो बुन्देलखण्ड के लिये और अच्छा होगा। बावजूद इसके बुन्देलखण्ड की प्यास बुझने का वो पल महापर्व होगा। इस बीच इस परियोजना के श्रेय पर भी सवाल खड़े किये जाने लगे हैं। वैसे यह हमारे देश की परम्परा सी हो गई है। बावजूद इसके इस ऐतिहासिक तथ्य को कोई नहीं झुठला सकता कि देश की नदियों को जोड़ने की पहली परिकल्पना 19वीं सदी में सर आर्थर काटन की थी। सत्तर के दशक में इस विचार को और मजबूती के साथ तत्कालीन केन्द्रीय मंत्री डॉ. केएल राव ने गंगा-कावेरी नदी जोड़ का प्रारूप तैयार कर देश के सामने रखा। तो सबसे बड़ा सवाल यह है कि यह सपने हकीकत में नहीं बदले। हकीकत में तो वाजपेयी का सपना बदलने जा रहा है। इसलिये अटल बिहारी वाजपेयी को इसका श्रेय देने में किसी को ऐतराज नहीं होना चाहिए।

बड़ी बात यह है कि डॉ. राव के इस विचार के बाद 80 के दशक में इसके लिये नेशनल वाटर डवलपमेंट एजेंसी बनाई गई। इसने कई दशक तक नदियों को जोड़ने से होने वाले नफा-नुकसान का विस्तृत अध्ययन किया। नदी जोड़ परियोजना पर हाशिम आयोग का गठन किया गया। इस आयोग ने नदी जोड़ परिकल्पना को खयाली पुलाव बताते हुए तमाम तरह के सवाल खड़े किये। इसका नतीजा यह हुआ कि यह ‘परिकल्पना’ सुप्रीम कोर्ट की चौखट पर गई। सुप्रीम कोर्ट ने रंजीत कुमार की याचिका पर 31 अक्टूबर 2002 को नदियों के लिंक के पक्ष में न्यायिक सुझाव के रूप में अपना बड़ा फैसला सुनाया। इसके बाद सरकारें आती-जाती रहीं। अच्छी बात यह रही कि नेशनल वाटर डवलपमेंट एजेंसी का वजूद बरकरार रहा। यह एजेंसी लगातार इस महत्त्वाकांक्षी परियोजना पर अपनी अध्ययन रिपोर्ट तत्कालीन सरकारों को सौंपती रही।

सुप्रीम कोर्ट का फैसला जब आया तब केन्द्र में वाजपेयी की सरकार थी। वाजपेयी के काम करने की अपनी अलग ही शैली रही है। उन्होंने नदी जोड़ परियोजना का विस्तृत प्रारूप राष्ट्र के सामने रखा। और हो सकता है कि इसके बाद अगर वो दोबारा सत्ता में आते तो यह परियोजना अब तक पूरी हो चुकी होती। बहरहाल ऐसा नहीं हो सका। इसके बाद दूसरी सरकार आई और वाजपेयी का सपना फाइलों में कैद हो गया। सरकारें अपने हिसाब से इन पर मीन-मेख निकालती रहीं। अप्रैल 2011 की बात है। तत्कालीन केन्द्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने केन-बेतवा लिंक प्रोजेक्ट को सिरे से खारिज कर दिया था। रमेश का कहना था कि इस परियोजना से पन्ना टाइगर रिजर्व क्षेत्र जमींदोज हो जाएगा। इससे वन्य जीवन को गम्भीर खतरा पैदा हो जाएगा। बहरहाल इसके बाद मोदी सत्ता में आए। उन्होंने पूर्ववर्ती वाजपेयी सरकार के कार्यकाल की योजनाओं में से नदी जोड़ योजना को अपनी प्राथमिकताओं में रखा। यह सुखद है कि इसकी पहल बुन्देलखण्ड से हो रही है। यहाँ के लोग मुहावरे की भाषा में उम्मीद बाँध बैठे हैं कि जल-जंगल-जमीन को बिना नुकसान पहुँचाये उनकी प्यास मिटाई जाएगी। यह विडंबना ही है कि बूँद-बूँद के लिये तरस रहा बुन्देलखण्ड जल-जंगल के साथ जल को कभी नहीं भुला पाया। ...और कोई भुला भी नहीं सकता।

प्रतिमत

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