फादर बुल्के जितने संवेदनशील थे उतने ही भावुक भी अपनी माँ की और अपने देश की स्मृति उन्हें कभी-कभी इतना भावुक बना देती थी कि वह रोने लगते थे फादर पोनेट्ट संवेदनशील थे किन्तु भावुक नहीं अपनी भावनाओं पर उनका अपूर्व नियंत्रण था लेकिन दोनों की धार्मिकता समान रुप से गहरी थी और दोनों का समस्त जीवन भारत की जनता को अर्पित था। दोनों का यह आत्मदान ही उन्हें चिरस्मरणीय बनाता है।
झारखण्ड की राजधानी, राँची नगर का पुरुलिया रोड, वहाँ काथलिक ईसाइयों का एक सदी से भी पुराना चर्च, माता मरियम का महागिरजाघर है। शहर के दूसरे चर्चों से उसकी पहचान अलग करने के लिये जनता उसे 'जोड़ा चर्च’ कहती है, क्योंकि उस चर्च की एक नहीं, दो मीनारें हैं।चर्च की चारदीवारी से लगा हुआ जेसुइट संघ के काथलिक सन्यासियों का मठ मनरेसा हाउस है, जो पहले एक विशाल खपरैल बंगला था। आज वह एक आधुनिक भवन का रूप ले चुका है। सन्त इग्नासियस के साधना स्थल का नाम मनरेसा था। जेसुइट सन्यासियों ने इसी सन्त के सम्मान में अपने राँची स्थित साधना स्थल का नाम मनरेसा हाउस रखा था। इसी मनरेसा हाउस के अन्तेवासियों में थे फादर कामिल बुल्के, फादर पीटर पोनेट्ट, फादर फेइस और अनेकानेक जेसुइट मिशनरी सन्यासी, जिन्हें निकटता से जानने का अवसर मुझे बड़े लम्बे समय तक मिला। आज उनमें से कोई भी हमारे बीच नहीं है, लेकिन उनकी स्मृतियाँ मेरे मन में स्थायी हो गई है।
फादर बुल्के से मेरा वास्तविक सम्पर्क 1960 ई. के बाद ही आरम्भ हुआ। मैं उनके माध्यम से उनके घनिष्ठ मित्र फादर पीटर पोनेट्ट के सम्पर्क में आया। बुल्के जी के माध्यम से ही मैं फादर क्लारिस, फादर डेलबेके, फादर डेलपुट और अन्य कई बेल्जियम मिशनरियों के सम्पर्क में आया और देखते-देखते एक बड़ी बिरादरी के बहुत कम सदस्य इस संसार में हैं। लेकिन उन्हें जानना, धर्म के स्वरूप को नये रूप से परिभाषित करने जैसा सिद्ध हुआ।
अविस्मरणीय देन
फादर कामिल बुल्के, रामकथा साहित्य और तुलसीदास के अद्वितीय विद्वान के रूप में प्रतिष्ठित हैं। उन्होंने 1935 ई. में भारत आने के बाद से ही अपने को भारतीय जन और जीवन के साथ एकाकार कर लिया था। उन्होंने भारत की सांस्कृतिक कुंजी का महत्व रखने वाली संस्कृत और अखिल भारतीय सम्पर्क की लोकभाषा हिन्दी सीखी थी तथा भारत के भाषायी महासमर के एक योद्धा के रूप में हिन्दी की लड़ाई लड़ी थी। उन्होंने बार-बार यह स्पष्ट किया है कि उन्होंने यूरोप की एक विकसित भाषा डच-फ्लेमिशभाषी होने के बावजूद संस्कृत और हिन्दी क्यों सीखी थी तथा हिन्दी भाषा को अपने मन-वचन-कर्म की भाषा क्यों बना लिया था।
वह अपने देश में फ्रेंच और फ्लेमिश का संघर्ष देख चुके थे। वह फ्लेमिशभाषी थे, लेकिन उनके देश की राजभाषा फ्रेंच थी। 1840 ई. के आस-पास ही फ्लेमिशभाषी जनता ने फ्रेंच के वर्चस्व के विरुद्ध संघर्ष प्रखर हो चला था और जब वह लूबेन विश्वविद्यालय में इंजीनियरिंग पढ़ रहे थे, उन्होंने फ्लेमिश आंदोलन के छात्र नेता के रूप में बहुत कार्य किया था। भारत आने पर उन्होंने यह अनुभव किया कि यहाँ की हालत बेल्जियम जैसी है, यहाँ जनभाषा हिन्दी उपेक्षित है और एक विदेशी अँग्रेजी राजभाषा है। वह 1935 ई. के आस-पास गाँधीजी के नेतृत्व में चल रही अँग्रेजी के वर्चस्व के विरुद्ध हिन्दी की प्रतिष्ठा की लड़ाई में एक सैनिक हो गये और आजीवन संघर्ष करते रहे। उन्होंने हिन्दी को अपनी पहचान बना ली और अपने स्तर पर इसके लिये जो करणीय था, वह सारी शक्ति से किया। वह चाहते तो अपने पहले के विदेशी मिशनरियों की तरह अपने सारे अकादेमिक कार्य अँग्रेजी में करते, लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया।
1937 ई. में गुमला में गणित के अध्यापक के रूप में कार्य करने के दौरान उन्होंने हिन्दी सीखना शुरू किया और वह तुलसी साहित्य के अध्ययन में लग गये, उन्होंने बेल्जियम में रहते समय एक विश्व साहित्य के जर्मन अनुवाद ग्रंथ में तुलसी-साहित्य की कुछ पंक्तियां पढ़ी थीं और अभिभूत हो गये थे। उन्होंने यह सोचा था कि यदि कभी उन्हें भारत जाने का अवसर मिलेगा तो वह तुलसी साहित्य को मूल भाषा में पढ़ने का प्रयत्न करेंगे। सम्भवत: तुलसी से उनका यह प्रथम साक्षात्कार नियति का कोई संकेत था, जो कुछ ही वर्ष बाद फलीभूत हुआ। गुमला में तुलसी की भक्ति और कवित्व का जो साक्षात्कार उन्होंने किया, वह उनके हिन्दी और संस्कृत प्रेम का सबसे बड़ा प्रेरक बन गया।
उन्होंने झारखण्ड के सीतागढ़ मठ (हजारीबाग) में हिन्दी और संस्कृत का विशेष अध्ययन किया, कर्सियांग में फादर बनने की उच्च धार्मिक शिक्षा के दौरान 'विशारद' की परीक्षा पास की तथा अपने द्वारा अँग्रेजी में तैयार प्रभु ईसा की समेकित जीवनी 'दि सेवियर' का हिन्दी अनुवाद किया। 1945 ई. में एक छात्र के रूप में उन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय के स्नातकोत्तर हिन्दी विभाग में हिन्दी की पढ़ाई की। तुलसी की रामकथा के नैतिक, मार्मिक और कल्पांत स्थायी स्रोत को समझने के लिये उन्होंने रामकथा पर ही डी.फिल. का शोध कार्य किया। उन्होंने रामकथा की महिमा के उद्घाटन का वह कार्य किया, जो कार्य उनसे पूर्व और उनके बाद का कोई हिन्दू भी नहीं कर सका। आज हम उनके अमर ग्रंथ 'रामकथा : उत्पत्ति और विकास' के माध्यम से यह जानते हैं कि रामकथा की एक नहीं कई परम्पराएं हैं।
भारत की संस्कृत, पाली, प्राकृत और आधुनिक भाषाओं में साहित्य की विभिन्न विधाओं में राम-काव्य की रचना हुई है, किन्तु उनमें उपलब्ध रामकथा का स्वरूप हू-ब-हू एक नहीं है और यह कि दक्षिण पूर्व एशिया की बर्मी, जवानी, थाई, मलय आदि अनेकानेक भाषाओं में एक विस्तृत राम-साहित्य उपलब्ध है। रामकथा के अंतरराष्ट्रीय स्वरूप का जो बोध आज हमें उपलब्ध है, वह अकेले फादर बुल्के की देन है।
लेकिन उनका हिन्दी प्रेम हो या रामकथा संबंधी कार्य या तुलसी-साहित्य संबंधी उनका चिंतन - उस पर विचार करते समय हमें यह स्मरण रखना चाहिये कि यह एक वैसे व्यक्ति का कार्य है, जो ईसाई सन्यासी था। आज जब ईसाई धर्म के विरुद्ध सुनियोजित प्रचार चल रहा है और ईसाई सन्यासी का अर्थ धर्मांतरण करने वाला व्यक्ति माना जा रहा है, अब हमें फादर कामिल बुल्के और उनके समानधर्मियों के कार्यों को भी देखना चाहिये। फादर कामिल बुल्के के लिये ईसाई धर्मी सन्यासी होने का अर्थ ईसाई धर्म प्रचारक होना नहीं था, न ही ईसाई धर्म से इतर अन्य धर्मों का निंदक। धर्म उनके लिये मनुष्य को सभी प्रकार की संकीर्णताओं से मुक्त मानवता मात्र का उपासक बनाना था। जिन लोगों ने बाइबिल नहीं पढ़ी है, वे यह नहीं समझते की मानव की सेवा ईसाई धर्म का सबसे बड़ा मूल्य है।
बहुआयामी सन्त
फादर बुल्के के अकेले, अपने बूते पर, बाइबिल का हिन्दी में अनुवाद बाइबिल की अनुवाद-परम्परा की सबसे बड़ी उपलब्धि है। जीवन के अन्तिम दिनों में उनका बाइबिल अनुवाद छप रहा था और उसके कुछ पृष्ठ अनुवाद के लिये शेष रह गये थे, किन्तु यदि उनके इस कार्य का बहुत छोटा भाग अनूदित नहीं हो पाया था, तो उसका सबसे बड़ा कारण यह था कि वह अपने जीवन-रस की बूंद-बूंद निचोड़ चुके थे और एक तरह से यह उनका सबसे बड़ा आत्मदान था।
फादर बुल्के सेवा धर्म के मूर्तिमत रूप थे। वह अक्सर यह कहते थे - 'मुझे सबसे अधिक सन्तोष तब मिलता है, जब मैं दूसरों के लिये कुछ कर पाता हूं।’ उन्होंने अपने जीवन को इस रूप में ढाल लिया था कि उनके वैदुषिक कार्यों और सेवा धर्म में पूर्ण सामंजस्य स्थापित हो गया था। 1950 ई. में सन्त जेवियर कॉलेज, राँची के हिन्दी-संस्कृत विभागाध्यक्ष के रूप में उन्होंने जब कार्य आरम्भ किया था, जब उनके सामने पमुख समस्या अध्ययन, अध्यापन और शोध की थी। जिस 'रामकथा : उत्पत्ति और विकास’ पर उनको अंतरराष्ट्रीय ख्याति मिली थी, वह उस पर अगले अट्ठारह वर्षों तक कार्य करते रहे। उसमें परिवर्तन और संशोधन का उनका कार्य मृत्यु के पूर्व तक जारी रहा। अध्यापक के रूप में उन्हें एक नये प्रकार की तैयारी में लग जाना पड़ा। वह प्रत्येक कक्षा में व्याख्यान की सामग्री एकत्र करने के लिये कई-कई घण्टे परिश्रम करते।लेकिन एक सच्चे सन्यासी के रूप में उन्होंने यह सोचना शुरू किया कि क्या शोध और अध्यापन का कार्य ही उनके सन्यास धर्म की सीमा है। इसलिये उन्होंने आम जनता और छात्र समुदाय की प्रत्यक्ष सेवा का एक नया मार्ग ढूंढ़ लिया। उन्होंने अपने शयनकक्ष से सटे हुए कमरे में एक पुस्तकालय की स्थापना की और वह नियमत: दिन की पहली बेला में लोगों को किताबें देने लगे। लेकिन उनके लिये एक सप्ताह में केवल रविवार सम्मिलित नहीं था, जिसका उपयोग वह प्रार्थना, आत्ममनन और भ्रमण में करते थे। उनके सप्ताह में शुक्रवार भी एक दिन था, जिसका पूरा उपयोग वह अपने पुस्तकालय से पुस्तकें देने और लौटाने तथा हर आगंतुक से बात करने में करते थे।
शुक्रवार को तो वह पूरी दुनिया को आत्मदान देने को तत्पर रहते थे। उस दिन केवल उनके परिचित अध्यापक, छात्र तथा रामकथा या तुलसीदास संबंधी विचार-विमर्श के लिये बाहर से आये आगंतुक ही एकत्र नहीं होते, बल्कि बहुत-सारे दुखी और परेशान लोग भी उनके परामर्श के लिये जमा होते। मैं यह व्यक्तिगत रूप से जानता हूँ कि उन्होंने न जाने कितने लोगों के दाम्पत्य जीवन को टूटने और बिखरने से बचाया था और क्षुद्र स्वार्थों से उत्पन्न पारिवारिक कलह को दूर किया था। उनके लिये सन्यासी होना सांसारिक जीवन की समस्याओं की उपेक्षा करना नहीं, वरन् जीवन की ज्वाला में दग्ध लोगों को शीतलता प्रदान करना भी था। यही कारण है कि अध्यापकों, छात्रों और विद्वानों की मण्डली में वह भले ही एक बड़े विद्वान के रूप में जाने जाते हों, राँची और बाहर के जन सामान्य की दृष्टि से वह एक सच्चे सन्त थे।
हिन्दी उनके लिये भारत की जनता की सेवा करने का सबसे बड़ा माध्यम थी। वह इसके प्रचार-प्रसार एवं इसमें कार्य द्वारा आम भारतीय जनता के साथ अपने को जोड़ना चाहते थे। वह ब्रिटिश दासता के युग में यहाँ आये थे, इसलिये यह अच्छी तरह जानते थे कि किस प्रकार सामान्य भारतीय जनता ईसाई धर्म को अँग्रेजीपरस्त और विदेशी धर्म मानती है। उन्होंने कई बार यह स्पष्ट किया कि ईसाई धर्म का भारत में प्रवेश यूरोप से बहुत पहले हुआ था। इसका प्रचार 52 ई. के आस-पास केरल में ईसा के बारह शिष्यों में एक, सन्त थॉमस ने किया था। लेकिन उनके सामने भी एक बात स्पष्ट थी - वह यह कि अँग्रेजी और अंग्रेजियत से ईसाई धर्म का भारी संबंध है और इसीलिये यह भारतीय परिवेश में पराई होती गई है।
ईसाई धर्म और ईसाई समाज को विदेशीपन या परायेपन से मुक्त करने के लिये यह जरूरी है कि वे हिन्दी तथा अन्य भारतीय भाषाओं को अपनी पहचान बना लें। फादर बुल्के ने ईसाई जनता को हिन्दी के स्वाभाविक, सरल और परिनिष्ठित रूप से जोड़ने के लिये दो ऐतिहासिक कार्य किये, उन्होंने 'अँग्रेजी-हिन्दी-कोश' की रचना की, जिसका प्रयोजन अँग्रेजी की परावलम्बिता से सामान्य हिन्दी जन को मुक्त करना है। उन्होंने बाइबिल का हिन्दी में अनुवाद किया। यह बात बहुत कम लोगों को मालूम है कि अँग्रेजी में 'किंग जेम्स बाइबिल' के प्रकाशन के कुछ दशक बाद ही हिन्दी में बाइबिल की अनुवाद-परम्परा शुरू हुई थी।
फादर बुल्के के समय तक यह परम्परा लगभग तीन सौ वर्ष पुरानी हो चली थी। लेकिन फादर बुल्के के सामने बाइबिल के हिन्दी अनुवाद के जो नमूने उपलब्ध थे, उनकी भाषा अस्वाभाविक, अटपटी और लगभग दुर्बोध थी। फादर बुल्के के अकेले, अपने बूते पर, बाइबिल का हिन्दी में अनुवाद बाइबिल की अनुवाद-परम्परा की सबसे बड़ी उपलब्धि है। जीवन के अन्तिम दिनों में उनका बाइबिल अनुवाद छप रहा था और उसके कुछ पृष्ठ अनुवाद के लिये शेष रह गये थे, किन्तु यदि उनके इस कार्य का बहुत छोटा भाग अनूदित नहीं हो पाया था, तो उसका सबसे बड़ा कारण यह था कि वह अपने जीवन-रस की बूंद-बूंद निचोड़ चुके थे और एक तरह से यह उनका सबसे बड़ा आत्मदान था।
मुंडारी ज्ञान
फादर पोनेट्ट सन्यासियों की परम्परा के अनुरूप अपने को अपने क्षेत्र की जनता की अधिकाधिक सेवा के योग्य बनाना चाहते थे। इसलिये उन्होंने झारखण्ड की सम्पर्क भाषा सादरी या हिन्दी में प्रवचन देने के बदले सीधे-साधे मुंडारी में पौरोहित्य का कार्य करना चाहा। उन्होंने इस भाषा पर इतना अधिक अधिकार कर लिया कि वह मुंडा की तरह मुंडारी बोलने लगे।
फादर पीटर पोनेट्ट अपने ढंग के अकेले सन्यासी थे। वह फादर बुल्के की तरह बेल्जियन थे, किन्तु उनकी मातृभाषा फ्लेमिश नहीं, फ्रेंच थी। फादर बुल्के से उनकी पहली भेंट ड्रॉग्डेन के नवशिष्यालय में हुई थी। पोनेट्ट कामिल बुल्के से एक वर्ष पहले ही सन्यास ग्रहण कर वहां प्रशिक्षण के लिये आये थे। फिर दोनों दूसरी बार राँची में ही मिले। पोनेट्ट यहाँ पहले ही आ चुके थे। उन दिनों मनरेसा हाउस के आस-पास का इलाका झाड़-झंखाड़ से भरा उजाड़ जैसा था। वहाँ कॉफी के कुछ पौधे थे, जो यह बतलाते थे कि कभी मनरेसा हाउस के परिसर में कॉफी उगाई जाती थी। धीरे-धीरे बेल्जियम तथा अन्य देशों से आने वाले ब्रदर सन्यासियों की संख्या बढ़ रही थी।बुल्के वहां 1935 ई. के नवंबर में आये और जनवरी 1936 ई. में विज्ञान पढ़ाने के लिये दार्जिलिंग भेज दिये गये, पोनेट्ट से उनका परिचय आगे नहीं बढ़ा, किन्तु 1937 ई. में बुल्के के गुमला आ जाने के बाद दोनों की मैत्री आरम्भ हुई, जो आजीवन घनिष्ठ से घनिष्ठतर होती गई। दोनों ने हजारीबाग के सीतागढ़ में एक साथ हिन्दी पढ़ी, किन्तु पोनेट्ट का हिन्दी ज्ञान जीवन भर सामान्य ज्ञान ही बना रहा, किन्तु देखते-देखते उन्होंने अँग्रेजी और मुंडारी पर असाधारण अधिकार प्राप्त कर लिया। फादर बुल्के उनके अँग्रेजी ज्ञान के कायल थे, किन्तु जिस भाषा ने पोनेट्ट को विशेष ख्याति दिलाई, वह भाषा मुंडारी ही थी।
पोनेट्ट से बहुत पहले यहाँ फादर हॉफमैन आये थे। हॉफमैन उन्नीसवीं शताब्दी के अन्तिम दशकों में सन्त जेवियर कॉलेज, कलकत्ता में अर्थशास्त्र का अध्यापन करने जर्मनी से आये थे। राँची जिले के अनुमंडल खूंटी में अल्पकालिक प्रवास के दौरान उनका मुंडारी से इतना प्रेम हो गया कि वह इस भाषा में अपनी विशेषज्ञता बढ़ाने के लिये सन्त जेवियर कॉलेज, कलकत्ता को छोड़ कर स्थायी रूप से बसने यहाँ आ गये और उन्होंने लगभग पाँच हजार पृष्ठों में'एनसाइक्लोपीडिया मुंडारिका' की रचना सत्रह खण्डों में की। आज यह बताना बड़ा कठिन है कि फादर पीटर पोनेट्ट, हॉफमैन की तरह ही मुंडारी के पंडित बने। यदि लोग उन्हें हॉफमैन की परम्परा का सबसे समर्थ व्यक्ति मानते थे तो यह उचित ही था।
मुंडारी के प्रति आकर्षण के कारण जेसुइट मिशन के अधिकारियों ने उन्हें खूंटी अनुमंडल का पल्ली पुरोहित बना कर भेज दिया। फादर पोनेट्ट सन्यासियों की परम्परा के अनुरूप अपने को अपने क्षेत्र की जनता की अधिकाधिक सेवा के योग्य बनाना चाहते थे। इसलिये उन्होंने झारखण्ड की सम्पर्क भाषा सादरी या हिन्दी में प्रवचन देने के बदले सीधे-साधे मुंडारी में पौरोहित्य का कार्य करना चाहा। उन्होंने इस भाषा पर इतना अधिक अधिकार कर लिया कि वह मुंडा की तरह मुंडारी बोलने लगे। उन्होंने अपने धर्पप्रांत के लोगों से, जो मुंडारीभाषी थे, सीधे-सीधे मुंडारी में सम्पर्क स्थापित किया और घार्मिक प्रवचनों में इसी भाषा में लोगों को उपदेश दिया। वह विदेशी थे, लेकिन उनका सारा विदेशीपन और परायापन उनके मुंडारी प्रेम और मुंडारी ज्ञान से धुल गये थे।
वह फ्रेंच भाषी पोनेट्ट न होकर मुंडा पोनेट्ट बन गये और उन्होंने जीवन भर इस भाषा पर कार्य किया और सबसे बड़ी बात तो यह कि अपने सम्पर्क में आने वाले मुंडाभाषियों को मातृभाषा से प्रेम करना सिखाया। उनके लिये यह पहल जरूरी थी। आधुनिक शिक्षा और हिन्दी से परिचय के विस्तार के कारण झारखण्ड की आदिवासी भाषाएं बोलने वाले लोग धीरे-धीरे अपनी भाषा भूलने लगे थे। जिन गाँवों में पहले मुंडारी बोली जाती थी, आज वहाँ मुंडारी नहीं थी। जो गाँव खड़ीया भाषी थे, अब वे खड़िया भाषी नहीं रह गये थे। फादर पोनेट्ट को इस बात की चिन्ता सताती थी कि यदि मुंडा समाज इसी तरह अपनी भाषा भूलता रहेगा तो एक दिन झारखण्ड में एक भी मुंडारी नहीं रहेगा। वह इस भाषा को फिर से जीवित देखना चाहते थे और इसका प्रचार-प्रसार सुनिश्चित करना चाहते थे। वह स्वयं इस दिशा में अपने को एक उदाहरण बनाना चाहते थे। इसका कितना प्रभाव पड़ा यह तो आगे का इतिहास ही बता सकेगा।
किन्तु यह सच है कि वह सही अर्थों में सबसे बड़े मुंडारी पंडित थे। फादर हॉफमैन की 'एनसाइक्लोपीडिया' (विश्वकोश) के पंद्रह खंड प्रकाशित हो चुके थे, लेकिन दो खण्ड पांडुलिपियों के रूप में लगभग सत्तर वर्षों से उपेक्षितप्राय पड़े हुए थे। उनके प्रयत्नों से, उनके संपादन में इन अप्रकाशित खण्डों का प्रकाशन सम्भव हो सका था और इसके लिये उन्होंने फिर से कुछ समय कार्य कर इनमें नई सामग्री का समावेश भी किया था।
मथुराअः कहनि
किन्तु उनके एक महत्वपूर्ण कार्य के रूप में मेनास ओड़ेया के मुडारी उपन्यास 'मथुराअःकहनि' का पुनरुद्धार और प्रकाशन भी है। जब वह खूंटी अनुमंडल की सर्वादा पल्ली में पुरोहित थे तो वहां उन्हें रोमन लिपि में टंकित मेनास ओड़ेया का यह वृहद् उपन्यास मिला था। मेनास ओड़ेया फादर हॉफमैन के स्टेनो थे। उन्होंने हॉफमैन की 'एनसाइक्लोपीडिया' का टंकण कार्य किया था। उसके विशाल आकार को देखते हुए उन्होंने यह सोचना शुरू किया था कि क्या उपन्यास के रूप में समस्त मुंडारी जीवन को समाहित नहीं किया जा सकता। उन्होंने अपनी सोच को संकल्प में बदल दिया और कुछ वर्ष परिश्रम कर मुंडा जीवन का विश्वकोशात्मक उपन्यास 'मथुराअः कहनि' लिखा।
भारत की किसी भी आदिवासी भाषा में इतना बड़ा उपन्यास आज तक नहीं लिखा गया। फादर पोनेट्ट इसकी लगभग दो हजार पृष्ठों की पांडुलिपि कोभविष्य के लिये सुरक्षित रखना चाहते थे। उन्होंने इस दिशा में कई वर्षों तक अनुदान के लिये पहल की और बार-दार निराश हुए। लेकिन उन्होंने हिम्मत नहीं हारी 'मथुरा की कहानी’ (मथुराअः कहनि) की रोमन लिपि में टंकित पांडुलिपि को उन्होंने स्वयं देवनागरी में लिप्यंतरित किया और मृत्यु के कुछ वर्ष पूर्व यह देखकर बड़ा सन्तोष हुआ कि यह उपन्यास चार खण्डों में राँची काथलिक मिशन द्वारा प्रकाशित हो गया है।
पोनेट्ट, फादर बुल्के से अधिक लम्बी उम्र तक जीवित रहे और जीवन के दसवें दशक में परलोकवासी हुए किंन्तु उनमें राँची की सामानय जनता और विशेष रुप से मुंडारी भाषी जनता की सेवा भाव निरंतर बना रहा मुंडा समाज समान्य तौर पर निर्धनों का समाज है। प्रतिदिन फादर पोनेट्ट से याचना करते दो चार मुंडा भाषी आ ही जाते-कभी-कभी तो वह याचकों से परेशान हो जाते थे। लेकिन मैंने कभी उनके चेहरे पर खीझ नहीं देखी। वह निरंतर मुस्कारते रहते और यथासम्भव सबकी सहायता करते। इसलिये आज से लगभग तीन वर्ष पहले जब उनकी मृत्यु हुई और चर्च में उनकी आत्मा की शांती के लिये हुई प्रार्थना सभा के बाद उनका शव बाहर लाया गया, तब चर्च के परिसर का दृश्य देखकर मैं आश्चर्यचकित रह गया। पुरुलिया रोड के माता मरियम महागिरजाघर के विशाल प्रांगण में, जहाँ उनका ताबूत लोगों के अन्तिम दर्शनार्थ रखा गया था, सैकड़ों मुंडाभाषी लोग एकत्र हो गये थे। वे अपनी प्रिय पुरोहित और अपनी भाषा को महान पंडित को अन्तिम श्रद्धांजलि देना चाहते थे और यह चाहते थे कि उन्हें इसी गिरजाघर के प्रांगण में दफ्न किया जाये।
मुझे आज भी याद है कि किस प्रकार खूंटी से आई एक विशेष गाड़ी में उनका ताबूत रखा गया और वह देखते-देखते ओझल हो गए, लेकिन खूंटी के गिरजाघर के परिसर में उनका मक़बरा मौजूद है जहाँ जाकर उनकी चिरंतन उपस्थिति का बोझ सम्भव है।फादर बुल्के जितने संवेदनशील थे उतने ही भावुक भी अपनी माँ की और अपने देश की स्मृति उन्हें कभी-कभी इतना भावुक बना देती थी कि वह रोने लगते थे फादर पोनेट्ट संवेदनशील थे किन्तु भावुक नहीं अपनी भावनाओं पर उनका अपूर्व नियंत्रण था लेकिन दोनों की धार्मिकता समान रुप से गहरी थी और दोनों का समस्त जीवन भारत की जनता को अर्पित था। दोनों का यह आत्मदान ही उन्हें चिरस्मरणीय बनाता है।
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