मैं तो पहाड़ में ही पैदा हुआ, पहाड़ से बाहर रहने की अवधि को, पहाड़ में रहने की अवधि ने पीछे छोड़ दिया है और पहाड़ में ही राजनीतिक-सामाजिक सक्रियता भी है। इसी सक्रियता में खूब पहाड़ चढ़ना-उतरना भी किया। पर खालिस पहाड़ चढ़ने के लिए पहाड़ पहली बार चढ़ा मैं। जी हाँ, गंतव्य था- पहाड़, मकसद था-पहाड़ का सौन्दर्य निहारना।
बात की शुरुआत यूँ हुई कि भाकपा (माले) की राज्य स्थाई समिति के सदस्य कॉमरेड कैलाश पांडेय, गढ़वाल में पार्टी की बैठक के लिए राज्य कमेटी की तरफ से आ रहे थे। कैलाश भाई ने प्रस्ताव रखा कि बेदनी बुग्याल चले क्या ? मैंने भी हामी भर दी। श्रीनगर (गढ़वाल) की गर्मी असह्य लगी तो हम एक दिन पहले ही शाम को अपने एक अध्यापक मित्र के यहाँ देवाल पहुँच गए। इस क्रम में अपने गाँव जसोली (जिला रुद्रप्रयाग) लौट रहे साथी मदन मोहन चमोली को भी हमने अपने साथ कर लिया। तय हुआ कि 2 जुलाई को हम तीन लोग बेदनी बुग्याल जाएँगे, लेकिन बेदनी बुग्याल जाने की योजना बनाने वाले कैलाश भाई को अपने व्यक्तिगत कारणों से हल्द्वानी वापस लौटना पड़ा। अब रह गए हम दो यानि मदन मोहन चमोली जी और मैं। कैलाश भाई का साथ होना आश्वस्तिकारक था क्योंकि ट्रैकिंग उनका पुराना शौक रहा है। छात्र जीवन में वे लगातार ही ट्रैकिंग किया करते थे। उस समय पहाड़ पर चढ़ने की उनकी रफ्तार भी देखने लायक होती थी। पहाड़ की चढ़ाई पर ऐसा लगता था कि वे चलते नहीं थे बल्कि दौड़ रहे होते थे। ट्रैकिंग के उनके अनुभव के चलते हम आश्वस्त थे कि अंजाने, अनदेखे रास्ते पर वे हैं ही, तो न कुछ चिन्ता करनी है, न कुछ सोचना है। अचानक उनका कार्यक्रम बदल गया तो हम असमंजस में पड़ गए-जाएँ कि न जाएँ। एक विचार यह आया कि ट्रैकिंग की जानकारी रखने वाले और यह योजना बनाने वाले साथी कैलाश पांडेय ही नहीं जा रहे हैं तो हम जा कर क्या करेंगे ? एक ख्याल यह भी आया कि कैलाश भाई के साथ न जाने से जो उदासी हमको घेर रही है, उस उदासी को प्राकृतिक सुंदरता ही दूर कर सकती है। हम जाने और न जाने के पशोपेश में ही फंसे थे कि हमारे अध्यापक मित्र ने हमें जाने की दिशा में लगभग ठेल दिया। उन्होंने हमसे पूछा ही नहीं कि हमारे जाने की योजना में कोई बदलाव है या नहीं बल्कि हमको बता दिया कि ऐसे-ऐसे जाना है। सो हम चल पड़े। देवाल से वांण तक गाड़ी में और वहाँ से ऊपर पैदल।
‘राज्य सरकार को निर्देशित किया जाता है कि सभी बुग्यालों में यात्रियों की संख्या (200 से अधिक नहीं) नियंत्रित करे। ’राज्य के सार्वजनिक उपक्रम/निजी उद्यमी समेत कोई भी व्यक्ति उत्तराखण्ड राज्य के किसी बुग्याल में किसी स्थाई ढाँचे का निर्माण नहीं करेगा। बुग्यालों में रात को रहना प्रतिबंधित होगा। बुग्यालों में पशुओं का व्यावसायिक चरान प्रतिबन्धित होगा। केवल स्थानीय चरवाहों को ही अपने पशुओं को चराने की अनुमति होगी और उनके पशुओं की संख्या को युक्तिसंगत पाबंदियों के जरिए नियंत्रित किया जाएगा।
ट्रैकिंग से हमारा वास्ता कभी रहा नहीं, सो क्या जरूरी तैयारी होती है, इसका न हमको पता था, न हमने कोई तैयारी की। हमारे शिक्षक मित्र ने हमको स्लीपिंग बैग दे दिया तो हमने ले लिया। कैलाश पांडेय जी ने चढ़ाई चढ़ने के लिए चार चॉकलेट खरीदे थे, वो हमने रख लिए। उन्हीं 4 चॉकलेट के भरोसे हम 13 किलोमीटर की चढ़ाई चढ़ने निकल पड़े। रास्ते में एक स्थानीय व्यक्ति वीरेन्द्र सिंह ने लिफ्ट मांगी। पता चला वो टूरिस्ट गाइड का काम भी करते हैं। उन्होंने लोहाजंग में बलबीर दानू की दुकान दिखा दी, जहाँ से हमने एक स्लीपिंग बैग और ले लिया। बलबीर दानू ने हमसे कहा कि ऊपर बारिश होगी, उससे बचने के लिए हम पंचू भी रख लें। पंचू नाम बड़ा मजेदार लगा। पंचू दरअसल रेनकोट यानि बरसात की प्रजाति का वस्त्र है। सो दो पंचू भी हमने रख लिए। ये जगह जहाँ से हमने एक स्लीपिंग बैग और दो पंचू किराए पर लिए, उसका नाम भी काफी रोचक है-लोहाजंग। स्थानीय गढ़वाली एक्सेण्ट में तो यह-ल्वाजिंग-पुकारा जाता रहा है पर हिन्दी में आते-आते हो गया-लोहाजंग। और फिर आया मोटर मार्ग का अन्तिम गंतव्य-वांण। पहाड़ की तलहटी में बसा गाँव है-वांण। दोपहर में अलसाया, ऊँघता हुआ सा मिला वांण। एक-आध दो दुकान खुली, बाकी बंद। वहीं दो युवाओं-महीपत भाई और नरेन्द्र सिंह से हमने पूछा कि बेदनी बुग्याल कैसे जाएँगे तो उन्होंने कहा यहीं से जाएँगे। महीपत भाई ने हमको कुछ-कुछ पहचान लिया। सब सोशल मीडिया की मेहरबानी है। इस पहचान के चलते वन विभाग के कर्मचारी को उन्होंने बुला दिया। वांण से ऊपर बेदनी बुग्याल तक चढ़ने के लिए वन विभाग से अनुमति पत्र बनाना होता है और गैरोली पातल में रात को रहने के लिए कुछ शुल्क भी जमा करवाना होता है। बेदनी बुग्याल और अन्य किसी बुग्याल में रात रहने पर उच्च न्यायालय का प्रतिबन्ध है। इस पर बाद में चर्चा करेंगे। वन विभाग के कर्मचारी गोपाल सिंह शुल्क लेने और रसीद देने के बाद हमें ऊपर चढ़ने का रास्ता भी दिखा देते हैं।
थोड़ी दूर ही चले थे कि बारिश भी शुरू हो गई। ल्वाजिंग अर्थात लोहाजंग वाले पंचू काफी काम आए जिन्होंने हमें भीगने नहीं दिया। चढ़ाई पर पहला गाँव जो दिखा, उसका नाम मनरेगा के कामों के लेखन से पता चला-कुमतोली। यहां गेहूँ की फसल अभी खेत में खड़ी दिखाई दी, कुछ हरी, कुछ पकी हुई, कुछ कटी हुई। यहीं से बारिश की फुहारों और हल्की चढ़ाई चढ़ते हुए हम जहाँ पहुँचे, उस जगह का नाम बताया गया-रौणियाधार। बारिश में भीगी हुई हरियाली चारों ओर नजर आती है। रौणियाधार से रास्ता हमें एकाएक नीचे की ओर ले जाता है। पहाड़ में चलने के अनुभव से नीचे की ओर जाता रास्ता चिन्तित करता है। चिन्ता के दो कारण हैं। रास्ता नीचे को जा रहा है, मतलब जहाँ यह उतार खत्म होगा, समझिए वहाँ से कड़ी चढ़ाई आपके इंतजार में है। दूसरी चिन्ता यह है कि जो अभी उतराई है, वही वापसी में चढ़ाई भी होगी।
यह उतराई नीचे एक पुल पर ले जाती है। इसके नीचे एक छोटी, लेकिन वेगवति नदी बह रही है- नील गंगा। नील गंगा के इस पुल से बेदनी बुग्याल, भगुवावासा रूपकुंड आदि को ले जाने वाली चढ़ाई शुरू होती है। यह चढ़ाई विकट खड़ी चढ़ाई से कुछ ही दर्जा कम है। चढ़ाई है और घना जंगल है। बांज के पेड़ हैं, बुरांश के पेड़ हैं पर निचले पहाड़ी क्षेत्रों में पाए जाने वाले इसी प्रजाति के पेड़ों के मुकाबले ये पेड़ कहीं अधिक विशालकाय हैं। इतना सघन वन है कि वन आसमान भी पेड़ों की छाया के बीच से केवल कहीं-कहीं पर कतरा-कतरा सा ही दिखता है। सघन वन के पेड़ों के बीच से दिखता, ऐसा आसमान का कतरा, यह भ्रम पैदा करता है कि जैसे वो कोई जगह हो। चढ़ाई चढ़ने से थका हुआ मन यह विश्वास करना चाहता है कि यह जो कतरा दिख रहा है, वही गंतव्य है और वह बस चार पेड़ों को पार करने भर की दूरी पर है। पर अच्छा ही हुआ वह सफेद कतरा, गंतव्य न हुआ, वरना सोचिए तो कितना अरसा लग जाता, उस सफेद कतरे तक पहुँचने में।
घना वन है, पेड़ों की हरियाली है, हरियाली गंवा कर भूरे हो चुके पत्ते, चढ़ाई वाले रास्ते पर बिखरे हुए हैं। हम दो लोगों की आवाज के अलावा कोई आवाज नहीं है। नील गंगा के वेगवान पानी का स्वर भी धीरे-धीरे दूर हो रहा है। एक खामोशी है, लेकिन यह खुशगवार खामोशी है। चारों ओर बिखरी हरितिमा की छटा को आँखों और साँसों में समेट लेने को जी चाहता है। पर चढ़ाई पर चलते-चलते लम्बा अरसा बीत रहा है तो यह व्यग्रता भी घेर रही है कि आखिर और कितना चलना होगा ? इस बियाबान जंगल में हम दो प्राणी कब तक चढ़ाई चढ़ते रहेंगे ? चढ़ाई का ओर-छोर कहीं नजर भी आएगा या नहीं! और लगभग छह-साढ़े छह घंटे, चलने के बाद हम पहले दिन के पड़ाव स्थल-गैरोली पातल पहुँचे। गैरोली पातल जो वांण से 8-10 किलोमीटर की दूरी पर है। स्थानीय लोगों से पूछा कि उन्हें कितना वक्त लगता है यहाँ तक पहुँचने में तो अलग-अलग लोगों ने डेढ़ से तीन घंटे तक की अवधि बताई। पर चलने के मामले में बचपन में पढ़ी हुई कछुए और खरगोश की कहानी में से कछुआ अपना प्रेरणास्रोत है, इसलिए कछुआ गति अपनी प्रिय गति है। खासतौर पर पहाड़ चढ़ते हुए तो हॉर्सपावर की तर्ज पर अपनी चाल में कछुआ पावर अनायास ही समा जाती है।
गैरोली पातल पेड़ों की हरियाली से घिरा हुआ एक छोटी-सी ढलवां जगह है। यहाँ अन्दर से फाइबर और बाहर से टिन की बनी हरे रंग की दो हट्स हैं। घंटों अकेले चलने के बाद यहाँ तीन मनुष्यों से मुलाकात हुई। दो स्थानीय लोग हैं। गैरोली पातल में लोगों के रहने-खाने की व्यवस्था संभालने वाले सुरेन्द्र सिंह हैं। वे ही एक तरह से यहाँ वन विभाग के प्रतिनिधि हैं, जो हट्स के आवंटन की व्यवस्था भी देखते हैं। सुरेन्द्र सिंह के अलावा ट्रैकिंग के लिए यहाँ आए हुए विदेश घनसाला भी गैरोली पातल में मिले। वे पौड़ी के रहने वाले हैं और कर्णप्रयाग उनकी ससुराल है। अब तक मुम्बई में फाइनेंस और शेयर से सम्बन्धित कंपनी में नौकरी करते थे, अब दिल्ली आ गए हैं। शेयर बाजार के अच्छे जानकार हैं। उनके साथ गाइड के तौर पर वांण गाँव के हीरा सिंह विष्ट ‘गढ़वाली’ हैं। यह कमाल का युवक है। बेहद होशियार और मिलनसार। हमसे पूछता है कमल जोशी जी को जानते थे ? ललिता प्रसाद भट्ट जी को जानते हैं ? संजय चैहान जी को जानते हो ? इस बात पर चैंकता है कि वो जिन-जिन को जानता है, उन सबको हम भी कैसे जानते हैं। दिवगंत फोटो पत्रकार, घुमक्कड़ कमल जोशी से हीरा का अच्छा परिचय था। कमल दा ने युगवाणी के जुलाई 2015 के अंक में हीरा पर एक लेख भी लिखा था। हीरा बताता है कि वह जब देहरादून गया तो उसने युगवाणी देखी। सहसा उसे विश्वास नहीं हुआ कि कवर पर जो फोटो है, वह उसी का है। अपने पर लिखे कमल दा के लेख को पढ़कर भी वह काफी रोमांचित हुआ।
बातों के इस सिलसिले के चलते हीरा हमसे काफी घुलमिल गया। फिर तो वह हमारा भी गाइड हो गया। ऊपर बेदनी बुग्याल कब चढ़ेगें, कितनी देर रहेंगे आदि-आदि हीरा ने ही तय कर दिया। सुरेन्द्र सिंह के बनाए सादे लेकिन स्वादिष्ट भोजन को खा कर हम स्लीपिंग बैग के अन्दर सो गए। सुबह उठे तो सुरेन्द्र भाई ने नाश्ता करवा दिया। फिर बेदनी बुग्याल के लिए मदन मोहन चमोली, विदेह घनसाला, हीरा सिंह बिष्ट ‘गढ़वाली’, सुरेन्द्र सिंह और मैं चल पड़े। बेदनी बुग्याल को जाने वाला रास्ता भी चढाई का ही रास्ता है। लगभग तीन किलोमीटर चढ़ कर गैरोली पातल से बेदनी बुग्याल पहुँचा जाता है। बुग्याल (alpine meadows) पहाड़ में ऊँचाई पर पे जाने वाले मखमली घास के उन मैदानों को कहते हैं, जो कि ट्री लाइन यानि वृक्ष रेखा और स्नो लाइन यानि हिम रेखा के बीच अवस्थित होते हैं। बेदनी बुग्याल लगभग 11 हजार फीट की ऊँचाई पर है।चढ़ते-चढ़ते जैसे ही पेड़ पीछे छूटने लगते हैं, वैसे ही हरियाली सौन्दर्य का एक अप्रतिम दृश्य सामने उपस्थित हो जाता है। चारों ओर हरियाली-ही-हरियाली। हरियाली के बीच खिले पीले फूल हैं। बेदनी बुग्याल के बगल वाले आती बुग्याल में तो बेदनी से भी कहीं अधिक हरियाली है। ऐसा प्रतीत होता है कि जमीन पर प्रकृति ने हरी, मुलायम, मखमली घास का दरीचा बिछा दिया हो। यह हरा मखमली घास का दरीचा किलोमीटरों तक पसरा हुआ है। हरियाली का बिखरा हुआ निश्चल, निर्मल सौन्दर्य।
इन बुग्यालों में चूहे की वो प्रजाति पाई जाती है, जो भूरे रंग की है और जिसकी पूँछ नहीं है। बुग्याल की इस खूबसूरत छटा में ये बिन पूँछ के चूहे भी सुन्दर लगते हैं। उड़ता हुआ मोनाल भी नजर आता है पर इतनी दूर पर है कि उसका रूप सौन्दर्य नहीं निहारा जा सकता। बर्फ से ढका पहाड़ नजर आ रहा है। साथ चलने वाले बता रहे हैं, वो नन्दा घुंघटी है, वो कैलाश है। मैं सोचता हूँ कि क्या ये बर्फीले पहाड़ भी जानते होंगे कि इनके नाम भी हैं, जिनसे ये पहचाने जाते हैं ? मुझे तो ऊँची पर्वत श्रृंखलाओं का एक ही नाम भाता है- हिमालय यानी हिम का आलय मतलब बर्फ का घर। तो ये जो हिम का आलय यानि बर्फ का घर है, जिसे कैलाश, नन्दा आदि नामों से पुकारा जा रहा है, उसकी हिमाच्छादित श्वेताब्ध्ता आँखों को शीतल करती है। पर पहाड़ बड़े छलिया होते हैं। आँखों से ऐसे दिखते हैं, जैसे हाथ भर की दूरी पर हों। बस थोड़ा और आगे बढ़ जाएँ तो हाथ से छू सकेंगे, उसकी बर्फीली सफेदी को। पर हकीकत में वे कोसों दूर हैं। आँखों से हाथ भर की दूरी पर नजर आती, इस बर्फीली सुन्दरता को मोबाइल के कैमरे में समेटने की कोशिश करता हूँ तो वहाँ यह विस्तृत बर्फीली सफेदी, बस बूँद भर ही नजर आती है। बार-बार की कोशिश के बाद भी तस्वीर वैसे नहीं आती, जैसा नयनाभिराम दृश्य आँखें देख पा रही हैं। बेदनी और आली के सौन्दर्य को आँखों और दिल में समेटे हम उतर पड़ते हैं। पहाड़ में चढ़ाई कठिन है पर उतराई भी आसान कहाँ है!
बुग्यालों की इस यात्रा के सन्दर्भ में यह जिक्र करना जरूरी है कि बुग्यालों में रात रहने पर उच्च न्यायालय, नैनीताल द्वारा रोक लगाई हुई है। वो लोहाजंग के दलबीर दानू और वीरेन्द्र सिंह हों या फिर वांण के महीपत सिंह और नरेन्द्र सिंह हों, इस बात से निराश हैं कि इस रोक से ट्रैकिंग का व्यवसाय धीमा पड़ गया है। वन विभाग के कर्मचारी गोपाल सिंह से भी यह सवाल किया कि बुग्यालों पर लगी रोक को वो कैसे देखते हैं तो उन्होंने जवाब दिया कि बुग्यालों के लिए तो अच्छा हुआ। औली-बेदनी-बगजी बुग्याल संरक्षण समिति द्वारा दाखिल एक जनहित याचिका पर फैसला सुनाते हुए 21 अगस्त, 2018 को उच्च न्यायालय, नैनीताल के तत्कालीन कार्यवाहक मुख्य न्यायाधीश, न्यायमूर्ति राजीव शर्मा और न्यायमूर्ति लोकपाल सिंह की खंडपीठ ने फैसला सुनाया कि ‘राज्य सरकार को निर्देशित किया जाता है कि तीन महीने के अन्दर औली-बेदिनी-बगजी समेत सभी बुग्यालों से सभी स्थाई निर्माण कार्यों को हटवाए।’ राज्य सरकार को निर्देशित किया जाता है कि राज्य के सभी ईको सेंसटिव जोन्स में 6 हफ्तों के अन्दर ईको डेवलपमेंट कमेटी (परिस्थितिकी संवर्धन समिति) गठित करें ताकि प्रकृति, पर्यावरण और परिस्थितिकी की रक्षा हो सके।
‘राज्य सरकार को निर्देशित किया जाता है कि सभी बुग्यालों में यात्रियों की संख्या (200 से अधिक नहीं) नियंत्रित करे। ’राज्य के सार्वजनिक उपक्रम/निजी उद्यमी समेत कोई भी व्यक्ति उत्तराखण्ड राज्य के किसी बुग्याल में किसी स्थाई ढाँचे का निर्माण नहीं करेगा। बुग्यालों में रात को रहना प्रतिबंधित होगा। बुग्यालों में पशुओं का व्यावसायिक चरान प्रतिबन्धित होगा। केवल स्थानीय चरवाहों को ही अपने पशुओं को चराने की अनुमति होगी और उनके पशुओं की संख्या को युक्तिसंगत पाबंदियों के जरिए नियंत्रित किया जाएगा। इस फैसले के चलते बुग्यालों में रात में रहने पर रोक लग गई है, जिसे आम तौर पर ट्रैकिंग व्यवसाय के लिए बड़ा धक्का समझा जा सकता है। इस फैसले के प्रभाव के सन्दर्भ में जब सुरेन्द्र सिंह और हीरा सिंह की राय जाननी चाही तो वे कहते हैं कि बुग्यालों को बचाया जाना जरूरी है। ये बुग्याल हमारी धरोहर हैं, ये ही नहीं रहेंगे तो फिर हम कहाँ रहेंगे। हीरा सिंह कहते हैं कि बुग्याल में भारी संख्या में लोगों के आने और रहने से बुग्याल नष्ट हो रहा था। इस फैसले से बुग्याल पुनर्जीवित हो गया है। हरियाली फिर खिल उठी है। वे कहते हैं कि कैम्पिंग की अनुमति भगुवावासा में मिलनी चाहिए जो पूर्णतः पथरीली जगह है। इससे बुग्याल भी बचेंगे और ट्रैकिंग व्यवसाय भी चलेगा। हीरा ने इस बारे में एक चिट्ठी भारत के प्रधानमंत्री को भी भेजी है। दरअसल ये बुग्याल बहुत सुन्दर हैं, प्रकृति का उपहार हैं, इनके व्यावसायिक उपयोग कर पाबंदी भले ही न हो पर इन्हें उजाड़ने, तहस-नहस करने की इजाजत तो नहीं दी जा सकती। इन्हें बचाना, इन्हें संरक्षित रखना बेहद जरूरी है ताकि प्रकृति के हरे मखमली दरीचे अपनी खूबसूरती यूँ ही बिखेरते रहें।
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