धूसर, वीरान, अंतहीन प्रांतर॥// पतिता भूमि, परती जमीन, बंध्या धरती...॥/ धरती नहीं, धरती की लाश, जिस पर कफन की तरह फैली हुई है बालुचरों की पंक्तियां। उत्तर नेपाल से शुरू होकर, दक्षिण गंगा तट तक पूर्णिया जिले को दो संभागों में विभक्त करता हुआ- फैला-फैला यह विशाल भूभाग। संभवत: तीन-चार सौ वर्ष पहले इस अंचल में कोसी मैया की महाविनाश लीला शुरू हुई होगी। लाखों एकड़ जमीन को अचानक लकवा मार गया होगा। महान कथाशिल्पी फणीश्वर नाथ रेणु के उपन्यास 'परती परिकथा' का है यह संपूर्ण उद्धरण। आज रेणु जिंदा तो नहीं हैं लेकिन तीन सौ वर्ष पूर्व की कोसी मैया एक बार फिर से इस भाग में महातांडव कर रही है। तब की विनाशलीला पूरी तरह प्राकृतिक थी और इस बार मानव निर्मित है। चाहे लोग इसे जितना जोर देकर प्राकृतिक आपदा कहें- यह है कोसी क्षेत्र के लोगों का सामूहिक नरसंहार। रेणु का गांव औराही हिंगना इस प्रकोप से विलुप्त तो नहीं हुआ है लेकिन ऐसे दर्जनों गांव है इस कोसी क्षेत्र में, जो अब सिर्फ इतिहास व कथाओं में ही बचे रहेंगे। इतना बड़ा नरसंहार और बुद्धिजीवियों की चुप्पी इस समाज को दहशत में भर रही है।
समकालीन हिन्दी कहानी के दो महत्वपूर्ण कहानीकार चंद्रकिशोर जयसवाल व रामधारी सिंह दिवाकर के गांव बिहारीगंज व नरपतगंज जलप्लावित हैं। त्रिवेणीगंज के रहने वाले कवि अरुणाभ सपरिवार पटना में प्रवास कर रहे हैं। मधेपुरा की गीतकार शांति यादव शहर छोड़कर दिल्ली चली गई हैं। यहीं के कवि उल्लास मुखर्जी राहत कैंप में शरण लिए हुए हैं। कवि अरविंद श्रीवास्तव पता नहीं कहां शरण लिए हुए हैं। पूर्णियां के ही एक युवा कवि ने इन पंक्तियों के लेखक को बतलाया कि हजारों-हजार की संख्या में लोग घरबार छोड़कर पशुओं और बाल-बच्चों के साथ विस्थापन का दंश झेल रहे हैं। उसने यह भी बतलाया कि यह पूरा समूह कहां जा रहा है इसका कोई ठोस जवाब नहीं। भारत विभाजन के समय भी इतना बड़ा पलायन व विस्थापन का दंश शायद लोगों ने नहीं झेला होगा। लाखों लोग बेघर हो गए हैं। कोसी ने इस बार अपने तांडव का तीन सौ वर्ष पुराना क्षेत्र ढूंढ लिया है।
पटना विश्वविद्यालय में कार्यरत मधेपुरा के एक प्रोफेसर कहते हैं कि जलस्तर धीरे-धीरे घट रहा है पर अपने पीछे चार से छह फीट सिल्ट (गाद) छोड़कर जाएगी। फिर से हो जाएगी धरती बंजर और पूरी की पूरी उपजाऊ धरती कास-पटेर ही उपजा पाएगी।'फणीश्वर नाथ रेणु के उपन्यास 'परती परिकथा' के गांव परानपुर, जिसके पश्चिम में बहने वाली धारा दुलारीदाय अभी जलप्लावित है। डा. एफ. बुकानन (1807-13) व डा. एलएलएसओ मेली (1911) के “डिस्ट्रिक्ट गजेटियर ऑफ पूर्णियां" में इस कोसी नदी के बहाव क्षेत्रों का जिक्र आता है। उसी तरह 1892 में जे.इंगलिस द्वारा लिखित 'टेंट लाइफ इन टाइगरलैंड' और 1916 में राजा कृत्यानंद सिंह द्वारा लिखित पूर्णियां- ए.शिकारलैंड में भी कोसी के जल प्रवाह, स्थान परिवर्तन और उसके बाद जंगलों- कछारों में परिवर्तित होता हुआ यह क्षेत्र तरह-तरह के दुःखों की कथा का क्षेत्र बनता हुआ दिखाई पड़ता है।
पूर्णियां जिले की मिट्टी का एक-एक कण का निर्माण कोसी से ही हुआ है। भवानीपुर, ब्रह्मज्ञानी, रुपौली व सुपौलथान कोसी नदी का छाड़न है। बूढ़-पुरान कहते हैं कि यहां की कोसी रूठ गई है और पूरब की तरफ बहने लगी है। कुंवारी कोसी को मनाना किसी के बस की बात नहीं। बुद्धिजीवियों के सामने आज यह यक्षप्रश्न है कि कोसी के इस बिगडैल रूप को, जो राजनीतिक कारणों से हुआ है, कौन ईमानदारी से चित्रित करेगा और कोसी के इस अश्रुमय आनन पर कौन खुशियां लौटा पाएगा।
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