विकास की सम्भावनाएँ, शासकीय विकास योजनाएँ, धरातलीय जल संसाधन विकास, अंतर्भौम जल संसाधन विकास, नगरीय एवं ग्रामीण पेयजल आपूर्ति विकास, मत्स्य पालन, मनोरंजन, नौ परिवहन एवं जल नियंत्रण के क्षेत्र में विकास, विकास के लक्ष्य एवं सुझाव।
जल-संसाधन विकास एवं नियोजन
जल संसाधन विकास की सम्भावनाएँ : बस्तर जिले में जल संसाधन की कमी है। जिले में वर्षा की वार्षिक मात्रा 1234 मिमी है। जिले का लगभग 75 प्रतिशत भाग पठारी एवं पहाड़ी होने के कारण अधिकांश जल व्यर्थ बह जाता है। संसाधन विकास का आयोजन अत्यंत कठिन प्रक्रिया है, क्योंकि इसके तहत योजनाकार भूत एवं वर्तमान से प्राप्त निष्कर्षों के आधार पर भविष्य का आयोजन करता है।
बस्तर जिले में जल संसाधन का पर्याप्त विकास हो रहा है। जिले के समस्त जल संसाधनों के वर्तमान उपयोग (घरेलू एवं सिंचाई) एवं विकास की दृष्टि से जिले को निम्नलिखित विभागों में विभक्त किया जा सकता है :
उपयोग गहनता सूचकांक
1. न्यूनतम जल उपयोगिता प्रदेश- 5 प्रतिशत से कम
2. न्यून जल उपयोगिता प्रदेश- 5-10 प्रतिशत
3. मध्यम जल उपयोगिता प्रदेश- 10-15प्रतिशत
4. उच्च जल उपयोगिता प्रदेश- 15 प्रतिशत से अधिक
(1) न्यूनतम जल उपयोगिता प्रदेश : बस्तर जिले के भैरमगढ़ बीजापुर, कोंटा, सुकमा, गीदम, दंतेवाड़ा, कुवाकोंडा, कटेकल्याण, बास्तानार, विकासखंड जल संसाधन विकास की दृष्टि से न्यूनतम विकसित क्षेत्र हैं इन क्षेत्रों में वार्षिक वर्षा की मात्रा सही है तथा जल संसाधन प्रचुर मात्रा में है, तथापि तकनीकी समस्याओं, भौतिक (भौगोलिक) अवरोधों एवं अशिक्षा के कारण जल संसाधनों का समुचित विकास नहीं हो पाया है। इन विकासखंडों में जल संसाधन के विकास का स्तर 5 प्रतिशत से भी कम है। ये क्षेत्र जिले के दक्षिणी-मध्य भाग में मैदानी पठारी क्षेत्र में स्थित है।
(2) न्यून जल उपयोगिता प्रदेश : न्यून जल संसाधन विकास का स्तर 5-10 प्रतिशत रखा गया है। बस्तर जिले के छिंदगढ़, दुर्गकोंदल, बड़ेराजपुर, अंतागढ़, नारायणपुर, कोंडागाँव, माकड़ी, फरसगाँव, जगदलपुर, तोकापाल, लोहाण्डीगुड़ा, बस्तर, बकावंड आदि भाग पूर्णत: पठारी क्षेत्र हैं। यहाँ सिंचाई के विकास की संभावना अधिक है।
(3) मध्यम उपयोगिता प्रदेश : जिले के उत्तर पूर्वी क्षेत्र में केशकाल, भानुप्रतापपुर, बड़ेराजपुर, उसूर, कोंडागाँव, विकासखंडों में जल संसाधन का अच्छा विकास हुआ है। इस क्षेत्र में अधिक जनसंख्या, परिवहन साधनों के सुगमता, अधिक साक्षरता होने के कारण जल की मांग अधिक है। जैव कारकों के प्रभाव के कारण जल संसाधन विकास तीव्र गति से हो रहा है। यहाँ मध्यम सिंचाई योजना निर्मित है। इस क्षेत्र में उपयोगिता सूचकांक 10 से 15 प्रतिशत है।
(4) उच्च उपयोगिता प्रदेश : जिले के उत्तरी भाग में चारामा, कांकेर, सरोना, कोयलीबेड़ा तथा पश्चिमी भाग में भोपालपटनम विकासखंडों में जल संसाधन का अच्छा विकास हुआ है। इन क्षेत्रों में मध्यम जलाशय से सिंचाई होती है। यह पूर्णत: मैदानी भाग है। जिले की समतल भूमि की उपलब्धता अधिक है। इस क्षेत्र में उपयोगिता सूचकांक 15 प्रतिशत से अधिक है।
जिले के उत्तरी भाग को छोड़कर शेष 75 प्रतिशत भाग पिछड़ा हुआ है। जिले में वार्षिक वर्षा की प्रचुर मात्रा को देखते हुए जल संसाधन विकास की असीम सम्भावनाएँ हैं।
जल संसाधन विकास की शासकीय योजनाएँ :
धरातलीय जल संसाधन : बस्तर जिले में वर्तमान रूपांकित सिंचित क्षेत्र 66812 हेक्टेयर है, लेकिन वर्तमान में सिंचित क्षेत्र 37,993 हेक्टेयर है। जिले के मध्य और दक्षिणी क्षेत्रों में सिंचाई का विकास कम हुआ है। शासन द्वारा सिंचाई विकास की इन विषमताओं को दूर करने हेतु विभिन्न सिंचाई योजनाएँ क्रियान्वित की जा रही है। शासन द्वारा जिले में 48 निर्माणाधीन, 101 सर्वेक्षित, 109 सर्वेक्षणाधीन एवं 87 चिह्नित लघु सिंचाई परियोजनाएँ निर्मित की जा रही हैं।
इस प्रकार आगामी दस वर्षों में इन सभी योजनाओं के पूर्ण होने के पश्चात जिले की कुल फसली क्षेत्र का 10.97 प्रतिशत सिंचित हो जायेगा। उत्तरी क्षेत्र में सिंचाई घनत्व अधिक है, जबकि दक्षिणी क्षेत्र में कम है। अत: निर्माणाधीन, सर्वेक्षित, सर्वेक्षणाधीन, चिह्नित, परियोजनाओं के निर्मित हो जाने पर कुल फसली क्षेत्र के 83.40 प्रतिशत सिंचित हो जाने की संभावना है।
अंतर्भौम जल संसाधन विकास : बस्तर जिले में वर्तमान में भूमिगत जल द्वारा कुल फसली क्षेत्र का 1.72 प्रतिशत सिंचित है। जिले में पठारी पहाड़ी क्षेत्र अधिक होने कारण धरातल की जल सोखने की क्षमता कम है। जिले की मिट्टी की धारण क्षमता 200-250 मिमी है। अंतर्भौम जल कुएँ हैंडपंप द्वारा कुल 12509 निर्मित स्रोत द्वारा सिंचाई होती है। सिंचाई के लिये निर्माणाधीन 125, 210 सर्वेक्षित, 222 सर्वेक्षणाधीन एवं 1028 चिह्नित कुओं एवं हैंडपंपों की प्रस्तावित योजना है।
इन सभी स्रोतों के पूर्ण होने के पश्चात जिले की भूमिगत जल द्वारा कुल फसली क्षेत्र का 5.23 प्रतिशत सिंचित हो जायेगा। जिले में सिंचाई सम्बन्धी अनेक समस्याएँ हैं। उसके निराकरण हेतु निम्नलिखित सुझाव प्रस्तुत है :-
सिंचाई व्यवस्था में विकास हेतु सुझाव :
(1) जिले में सिंचाई सुविधा के विस्तार की विभिन्नताओं को दूर करने एवं दक्षिणी क्षेत्र में सिंचाई सुविधा में वृद्धि हेतु लघु एवं मध्यम सिंचाई योजनाओं का प्रबंध करना होगा।
(2) प्रशासकीय समस्याओं को यथासंभव दूर करने का प्रयास किया जाना चाहिए, जिससे समय एवं धन के अपव्यय के कारण योजनाओं के क्रियान्वयन में होने वाली बाधाएँ दूर हो सकें।
(3) दक्षिणी क्षेत्र में अधिसंख्य छोटे-छोटे नाले एवं नदियाँ हैं, जिनका जल व्यर्थ प्रवाहित हो रहा है। अत: इन क्षेत्रों में इन नालों पर ही छोटे-छोटे बांध निर्मित करके सिंचाई की सुविधा का विस्तार किया जा सकता है।
(4) उत्तरी मैदानी क्षेत्र के नदी-नालों पर स्टॉप बांध कम लागत पर बनाया जा सकता है, इससे वर्षा कालीन अधिकांश जल का उपयोग किया जा सके।
(5) जिले के दक्षिणी क्षेत्र में सिंचाई की सुविधा के अभाव का प्रमुख कारण कृषि योग्य भूमि का बिखरा होना एवं पठारी पहाड़ी क्षेत्र होने के कारण नहर प्रणाली का निर्माण आर्थिक दृष्टि से अलाभप्रद होना है। इन क्षेत्रों में छोटी नदियाँ, नाले एवं भू-गर्भिक जल पर्याप्त है। अत: इन क्षेत्रों में सिंचाई का विकास किया जा सकता है तथा इससे सामुदायिक, सिंचाई व्यवस्था का विकास किया जा सकता है। जिससे सिंचित क्षेत्र में वृद्धि की सम्भावनाएँ हैं।
(6) फसलों की उत्पादकता बढ़ाने की दृष्टि से सिंचाई प्रणाली में सुधार एवं विस्तार की आवश्यकता है। तथा मिट्टी की उत्पादकता के अनुसार फसल उगाना तथा चकबंदी योजना इस दिशा में एक सफल प्रयास हो सकता है, जिसके अंतर्गत बड़ी नहरों से खेतों तक सिंचाई हेतु छोटी-छोटी नालियाँ बनायी जाती है। जिससे प्रत्येक किसान को समय पर जल की प्राप्ति हो जाती है तथा इसमें किसान अपनी आवश्यकतानुसार जल को अपने खेत से निकाल सकता है। इस प्रकार जल जमाव की स्थिति भी समाप्त हो जाने से उससे सम्बन्धित समस्याओं से बचा जा सकता है।
(7) सिंचाई परियोजनाओं का प्रमुख उद्देश्य उपलब्ध जल द्वारा अधिकतम सिंचाई की व्यवस्था करके पैदावार बढ़ाना है। यह तभी संभव है, जब सिंचाई क्षमता के निर्माण एवं जल उपयोग में वृद्धि लायी जाए तथा पैदावार को सिंचित क्षेत्रों में बढ़ाया जाये।
नगरीय एवं ग्रामीण पेयजल आपूर्ति विकास : वर्तमान में जिले की कुल ग्रामीण जनसंख्या 21,09,431 है, जिसकी कुल जल की जरूरत 19,40,16 किलो लीटर प्रतिदिन है। वर्तमान में विभिन्न स्रोतों से 94635 किलो लीटर की आपूर्ति की जाती है। इस प्रकार ग्रामीण क्षेत्रों में आज भी 50-60 प्रतिशत जनसंख्या शुद्ध पेयजल के अभाव की स्थिति में है। ग्रामीण पेयजल की आपूर्ति हेतु केंद्र शासन द्वारा 1244.93 लाख की एक बस्तर (प्लान भाग-2) योजना को स्वीकृति प्रदान की गई है। इस स्वीकृत योजना के अंतर्गत 3,746 पारों, टोलों, में पेयजल व्यवस्था प्रस्तावित है, जिसके अंतर्गत 2265 नलकूप एवं 1481 खुले कुओं का निर्माण प्रस्ताव स्वीकृत है तथा राज्यशासन द्वारा विशेष कार्य के अंतर्गत प्रतिवर्ष 100 नलकूप एवं 113 खुले कुओं के निर्माण कार्य की स्वीकृति है।
अत: स्वीकृत नलकूप एवं खुले कुओं का निर्माण हो जाने पर जल आपूर्ति हो जायेगी। हैंडपंप की स्थापना के पश्चात उसका रख-रखाव भी अत्यंत आवश्यक है, उचित देख-रेख के अभाव में अनेक हैंडपंप उपयोग की स्थिति में नहीं रहते, जिससे पेयजल प्राप्ति में कठिनाई रहती है।
वर्तमान में जिले की कुल नगरीय जनसंख्या 161883 है, जिसकी कुल जल जरूरत 24281 किलो लीटर प्रतिदिन है। वर्तमान में विभिन्न स्रोतों से कुल 18460 किलो लीटर जल की आपूर्ति की जाती है। इस प्रकार नगरीय क्षेत्र में आज भी लगभग 50-60 प्रतिशत जनसंख्या शुद्ध पेयजल योजना के अभाव की स्थिति में है। नगरीय क्षेत्र में पेयजल की आपूर्ति हेतु कांकेर शहर के लिये 4.5 लाख लीटर की पानी टंकी बनाना प्रस्तावित है। जगदलपुर शहर के लिये लगभग 5.5 लाख लीटर की दो टंकियाँ प्रस्तावित है। जिले के विभिन्न ग्रामीण तथा नगरीय क्षेत्रों में पेयजल आपूर्ति में सुधार एवं विकास हेतु निम्नलिखित उपाय किए जाने चाहिए :-
(1) नगरीय एवं ग्रामीण क्षेत्रों में पेयजल की कमी को देखते हुए भू-गर्भ जलस्रोतों का विकास किया जाना चाहिये।
(2) जल शोधन प्रक्रिया हेतु क्लोरीनेटर, अवसादी करण एवं एअरीएशन संयंत्र निर्मित किए जाने चाहिए। शहरों की टंकियों में प्रत्येक सप्ताह क्लोरीन डाली जानी चाहिए, जिससे जल में निहित सभी प्रकार की अशुद्धियाँ नष्ट हो सकें।
(3) नगरीय क्षेत्रों में पेयजल की सबसे महत्त्वपूर्ण समस्या उसकी वितरण प्रणाली है। अत: पेयजल के वितरण की व्यवस्था में सुधार किया जाना आवश्यक है। जल संग्राहकों एवं रिहायशी स्थानों के मध्य जल वितरण की अच्छी व्यवस्था की जानी चाहिए, क्योंकि दूरस्थ क्षेत्र में प्राय: पेयजल का अभाव रहता है। प्रत्येक क्षेत्र में जल संग्राहकों की स्थापना करके जल वितरण सुगम बनाया जा सकता है तथा जल आपूर्ति क्षेत्र के मध्य की दूरी की समस्या का समाधान भी संभव है।
मत्स्य पालन विकास हेतु सुझाव : जिले में संप्रति लगभग 7431.953 हेक्टेयर में मत्स्यपालन किया जाता है, जिससे उत्पादन 1246.47 टन प्रतिवर्ष उत्पादन होता है और लगभग 310.53 लाख रुपये की आय होती है। जिले में मत्स्य पालन के अंतर्गत क्षेत्र को और बढाने की गुंजाईश है, अत: नये मत्स्य क्षेत्रों को विकसित करना चाहिये।
बस्तर जिले में मत्स्योत्पादन क्षेत्र की वृद्धि हेतु तालाबों का विस्तार किया जा सकता है। जिले में वर्षा की पर्याप्तता होने के कारण छोटे-छोटे गढ्ढों में भी पानी भरकर उन्हें मत्स्य पालन क्षेत्र के रूप में विकसित किया जा सकता है तथा जिले में तालाबों की संख्या की पर्याप्तता को देखते हुए मत्स्यपालन के अंतर्गत क्षेत्र में वृद्धि की जा सकती है।
जिले के विभिन्न लघु जलाशयों में नौका विहार आदि का प्रबंध करके मनोरंजन हेतु इसका विकास किया जा सकता है। जिले में लौह अयस्क तथा बाक्साइट की खानें हैं, जिनमें उत्खन्न के पश्चात वर्षाकालीन जल एकत्रित हो जाता है, जिनका उपयोग किया जाए, तो इन क्षेत्रों में छोटे-छोटे मनोरंजनात्मक केंद्रों का विकास किया जा सकता है। जिले में चित्रकूट, तीरथगढ़ जैसे खूबसूरत जल प्रपात तथा कई छोटे जल प्रपात हैं, जहाँ मनोरंजन का केंद्र स्थापित किया जा सकता है।
बस्तर जिले में मनोरंजन हेतु जल संसाधन का विकास नहीं किया गया है। नदियों में भी नौ-परिवहन बहुत कम दूरी में ही कुछ मात्रा में ही होता है, अत: नदियों में भी जल परिवहन एवं मनोरंजन का विकास किया जा सकता है।
सारांश एवं उपसंहार
संदर्भ ग्रंथ सूची
भौगोलिक पृष्ठभूमि :
भौतिक स्वरूप : बस्तर जिला दक्षिणी मध्य प्रदेश के 39144 वर्ग किमी क्षेत्रफल में 17046’ उत्तरी अक्षांश से 20035’ उत्तरी अक्षांश तक तथा 80015’ पूर्वी देशांतर से 82015’ पूर्वी देशांतर तक विस्तृत है। इसमें 13 तहसीलें एवं 32 विकासखंड हैं। आदि कालीन शैल, ग्रेनाइट, नाइस कडप्पा, प्राचीन ट्रेप एवं धारवाड़ क्रम (प्राचीन शैल) की चट्टानें बस्तर जिले के भौतिक स्वरूप को निर्धारित करती हैं। बस्तर जिले को 6 भौतिक प्रदेशों में विभाजित किया जा सकता है, यथा :-
(1) उत्तर का मैदानी भाग - इस प्रदेश का विस्तार उत्तर बस्तर में परालकोट, भानुप्रतापपुर, कोयलीबेड़ा, अंतागढ़ और कांकेर क्षेत्र में (300-430 मी.) है। (2) केशकाल की घाटी - यह घाटी उत्तर में तेलीनसत्ती घाटी से प्रारंभ होकर जगदलपुर के दक्षिण में स्थित तुलसी डोंगरी तक 750 मीटर की ऊँचाई में स्थित है। (3) अबुझमाड़ की पहाड़ी क्षेत्र - यह प्रदेश जिले के मध्य भाग में स्थित है। इसकी ऊँचाई 600 से 750 मीटर तक है, (4) उत्तर-पूर्वी पठार - यह पठार कोंडागाँव एवं जगदलपुर के क्षेत्र में फैला हुआ है। तीव्र ढाल वाला यह प्रदेश 600 से 750 मीटर तक ऊँचा है, (5) दक्षिणी पहाड़ी क्षेत्र - इस भाग में दंतेवाड़ा एवं कोंटा का उत्तरी भाग आता है। यह प्रदेश 300 मीटर से 600 मीटर तक ऊँचा है, तथा (6) दक्षिणी निम्न भूमि - कोंटा, बीजापुर, सुकमा, भोपालपटनम के क्षेत्र इस प्रदेश में सम्मिलित है। इसकी ऊँचाई 150 मीटर तक है।
मिट्टी : धरातलीय आर्द्रता को बनाये रखने में मिट्टी की प्रमुख भूमिका होती है। बस्तर जिले के मिट्टियाँ मुख्यत: लाल बलुई एवं लाल दोमट प्रकार की है। जिन्हें स्थानीय रूप से 4 प्रकारों यथा कन्हार, मटासी, डोरसा एवं भाठा मिट्टी में विभक्त किया जाता है। कन्हार मिट्टी चीका-युक्त आर्द्रता धारण करने वाली काली मिट्टी है। यह मिट्टी कांकेर, सरोना (नरहरपुर), जगदलपुर, बस्तर, तोकापाल तथा बकावंड क्षेत्र में पायी जाती है। मटासी मिट्टी में लाल एवं पीली मिट्टी की प्रमुखता होती है, जिसमें आर्द्रता धारण करने की क्षमता अपेक्षाकृत कम होती है। इसका विस्तार भानुप्रतापपुर, अंतागढ़, दुर्गकोंदल, कोयलीबेड़ा, बीजापुर, दंतेवाड़ा तथा कोआकोंडा विकासखंडों में है। डोरसा मिट्टी कन्हार एवं मटासी मिट्टियों का मिश्रण है। यह मिट्टी बड़ेराजपुर, फरसगाँव, माकड़ी, नारायणपुर तथा कोंडागाँव विकासखंडों में मिलती है। इस मिट्टी की जल धारण क्षमता 200 मिमी से 250 मिमी तक होती है। भाठा मिट्टी जिले के उच्च अथवा पर्वतीय क्षेत्रों में पायी जाने वाली अनुपजाऊ मिट्टी है। इसकी जल धारण करने की क्षमता कम होती है। अत: यह कृषि के लिये अनुपयोगी है।
अपवाह : बस्तर जिले का 94.42 प्रतिशत गोदावरी एवं 5.58 प्रतिशत भाग महानदी प्रवाह क्षेत्र के अंतर्गत आता है। जिले में गोदावरी बेसिन का निर्माण गोदावरी, इंद्रावती, नारंगी, नवभारत, कोटरी, सबरी नदियों के द्वारा होता है। इंद्रावती जिले की प्रमुख नदी है। यह उड़ीसा के कालाहांडी भु-आमुल पहाड़ से निकलकर बस्तर को उत्तरी एवं दक्षिणी दो खंडों में विभाजित करती है। जिले में इस नदी की कुल लंबाई 372 किमी है। इस नदी पर दरभा के पास झीयम मध्यम जलाशय का निर्माण किया गया है, जिससे जिले के पूर्वी भाग में सिंचाई होती है। कोटरी नदी पर परालकोट मध्यम जलाशय का निर्माण हुआ है, जिससे उत्तर-पश्चिमी भाग में सिंचाई होती है।
बस्तर जिले में महानदी की लंबाई मात्र 64 किमी है। इसकी प्रमुख सहायक नदियाँ - टूरी, हटकूल, दूध एवं सेंदूर है। कांकेर तहसील के आगे रायपुर जिले में इसका विस्तृत अपवाह रूप है।
जलवायु : किसी स्थान की जलवायु वहाँ के जल संसाधन के वितरण को प्रभावित करने वाला सबसे प्रमुख कारक है। बस्तर जिले की जलवायु मानसूनी है। दैनिक एवं वार्षिक तापांतर, वर्षा की अनियमितता, जलवायु का ऋत्विक क्रम जिले की जलवायु की प्रमुख विशेषता है, जो ऋत्विक जलाधिशेष या जलाभाव को प्रभावित करते हैं। जिले का अधिकतम तापक्रम मई में (46.10 से.) एवं न्यूनतम तापक्रम फरवरी में (9.30 से.) रहता है। सबसे अधिक वायुदाब दिसंबर में (959.9 मिली बार) तथा सबसे कम जुलाई में (941.2 मिलीबार) रहता है। जिले में वर्षा प्रमुखत: मानसून अवधि में होती है। इस अवधि में जिले में सर्वाधिक वर्षा अंतागढ़ में (1538 मिमी) तथा सबसे कम वर्षा कोंटा में (1206 मिमी) होती है।
वनस्पति : बस्तर जिले के 934319 हेक्टेयर भूमि पर (38.49 प्रतिशत) वनों का विस्तार है। वनों का अधिक विस्तार जिले के पश्चिम क्षेत्र - भैरमगढ़ विकासखंड में है। जिले के उत्तरी क्षेत्र - कांकेर विकासखंड में सबसे कम (7.39 प्रतिशत) क्षेत्र पर वन पाया जाता है। जिले में साल, सागौन, शीशम, आम, आंवला, बांस के वन पाए जाते हैं।
जनसंख्या : बस्तर जिले की कुल जनसंख्या 2271314 (1991) है। जनसंख्या का सर्वाधिक केंद्रीकरण जिले के पूर्वी भाग में है। बस्तर जिले की जनसंख्या का औसत घनत्व 58 व्यक्ति/वर्ग किमी है। जिले की 93 प्रतिशत जनसंख्या ग्रामीण है, जो 3715 ग्रामों में तथा 7 प्रतिशत नगरीय जनसंख्या 4 नगरों में निवास करती है। जिले की जनसंख्या का लिंगानुपात 997 है। जिले की 30.99 प्रतिशत जनसंख्या साक्षर है। जिले में कुल जनसंख्या का 5.85 प्रतिशत अनुसूचित जाति एवं 67.35 प्रतिशत अनुसूचित जनजाति का है। जनजातियों में मुख्यत: गोंड, मुरिया, माड़िया है।
भूमि उपयोग : बस्तर जिले के कुल क्षेत्रफल के 38.49 प्रतिशत में वन, 8.94 प्रतिशत में कृषि के लिये अनुपलब्ध भूमि, 6.20 प्रतिशत में अन्य अकृषि भूमि, जिसमें पड़ती सम्मिलित नहीं है, 7.11 प्रतिशत में कृषि योग्य बेकार भूमि, 3.98 प्रतिशत में पड़ती भूमि, 35.28 प्रतिशत में निरा फसल क्षेत्र है।
कृषि : जिले में कुल फसली क्षेत्र के 66.04 प्रतिशत में धान, 15.43 प्रतिशत में कोदो कुटकी, 6.62 प्रतिशत में दालें, 4.72 प्रतिशत में तिलहन उगाया जाता है। जिले में कुल 95.98 प्रतिशत क्षेत्र में खरीफ फसल तथा 3.8 प्रतिशत क्षेत्र में रबी फसल ली जाती है। जिले में सबसे अधिक पशुधन कोंटा विकासखंड में तथा सबसे कम पशुधन तोकापाल विकासखंड में है।
खनिज एवं उद्योग : बस्तर जिला खनिज संसाधन की दृष्टि से संपन्न है। जिले में लौह अयस्क का 300 करोड़ टन का विशाल संभाव्य संचित भंडार है। इसमें वर्ष 1992 में 61.3 लाख टन लौह अयस्क का उत्पादन हुआ था। चूना पत्थर, बॉक्साइड, तांबा, कोरंडम, अभ्रक इत्यादि खनिज भी जिले में पाये जाते हैं। जिले में पंचवर्षीय योजना के अंतर्गत अधिकांशत: कुटीर उद्योगों (1275) का विकास हुआ है।
परिवहन : जिले का भौतिक स्वरूप रेलमार्ग के विकास में मुख्य बाधक है। अत: सड़कों का विकास अधिक हुआ है। राष्ट्रीय राजमार्ग क्र. 43 (रायपुर से विशाखापट्टनम) रायपुर से जगदलपुर तक गई है। जिले में सड़कों की लंबाई 5288.95 किमी है। जिसमें 2385.86 किमी पक्की सड़कें और 2903.09 किमी कच्ची सड़के हैं। जिले में परिवहन के साधनों का विकास अत्यंत सीमित है।
जल संसाधन का मूल्यांकन -
वर्षा का वितरण : बस्तर जिले में जल संसाधन प्राप्ति का प्रमुख स्रोत वर्षा है। सर्वाधिक वर्षा जुलाई में होती है। जुलाई में कुल वार्षिक वर्षा की 60 प्रतिशत वर्षा प्राप्त होती है। सितंबर एवं अक्टूबर में निवर्तनकालीन मानूसन में 5 से 20 प्रतिशत तक वार्षिक वर्षा प्राप्त होती है। वार्षिक वर्षा की मात्रा पश्चिम से मध्य पूर्व की ओर घटती जा रही है तथा पूर्वी जगदलपुर क्षेत्र में वर्षा की मात्रा बढ़ती जाती है।
वर्षा की परिवर्तनशीलता : जिले में वर्षा की औसत वार्षिक विचलनशीलता 22.56 प्रतिशत है। वर्षा की विचलनशीलता का विस्तार न्यूनतम 11.89 प्रतिशत (जगदलपुर) व अधिकतम 39.78 प्रतिशत (दंतेवाड़ा) के बीच में है। सामान्यत: सितंबर एवं अक्टूबर में विचलनशीलता सर्वाधिक (70-80 प्रतिशत) है।
वर्षा की प्रवृत्ति एवं संभाव्यता : बस्तर जिले में वर्षा की मात्रा में वर्ष दर वर्ष ह्रास की प्रवृत्ति है। ह्रास की अधिकतम दर दंतेवाड़ा में (-3.10 सेमी) तथा न्यूनतम कोंडागाँव में (-0.36 सेमी) है। जिले के अन्य केंद्रों जगदलपुर, भानुप्रतापपुर, नारायणपुर, कांकेर, सुकमा, बीजापुर, कोंटा, केशकाल, अंतागढ़, एवं भोपालपटनम में ह्रास दर क्रमश: 0.58, 0.62, 0.84, 1.00, 1.01, 1.30, 1.32, 1.62, 1.89 एवं 1.99 सेमी है (मानचित्र क्र. 2.3)। यद्यपि वर्षा की यह ह्रास दर कम है, तथापि धान उत्पादक क्षेत्र के लिये यह संकट का सूचक है। अत: क्षेत्र में जल संसाधन विकास हेतु उचित एवं सही प्रबंधन की ओर गंभीरता पूर्वक ध्यान देना होगा। दंतेवाड़ा में वर्षा का प्रभाव विचलन जिले में न्यूनतम 700 मिलीमीटर है। यहाँ भविष्य में फसलों का उत्पादन करना अत्यंत कठिन होगा।
वाष्पन क्षमता (जलाधिशेष) : जिले में तापक्रम मिट्टी की संचित आर्द्रताग्राही क्षमता, वनस्पति आवरण एवं वार्षिक वर्षा की मात्रा में क्षेत्रीय भिन्नता के कारण औसत सामान्य वाष्पोत्सर्जन की मात्रा उत्तर से दक्षिण की ओर घटती जाती है। उत्तरी क्षेत्र में औसत संभाव्य वाष्पीय वाष्पोत्सर्जन 1691 मिमी एवं दक्षिणी क्षेत्रों में 1280 मिमी है।
जलाभाव : जिले में जलाभाव की मात्रा में दक्षिण से उत्तर की ओर क्रमश: वृद्धि होती है। जिले के उत्तर में स्थित भानुप्रतापपुर, बीजापुर में अधिक औसत वार्षिक जलाभाव क्रमश: 709.27, 819.36 मिमी है, जबकि न्यून जलाभाव जगदलपुर, भोपालपटनम में क्रमश: 515.77, 644.16 मिमी है।
जिले में जलाभाव की सामान्यत: दो स्थितियाँ निर्मित होती है। प्रथम, मानसून काल में सिंचित आर्द्रता से शीतकालीन जलीय आवश्यकता पूर्ण नहीं हो पाती और शुष्कता की स्थिति निर्मित हो जाती है। द्वितीय, मार्च तक मिट्टी में संचित आर्द्रता की समाप्ति के साथ शुष्कता की द्वितीय स्थिति निर्मित हो जाती है।
जलाधिक्य : सामान्यत: अधिक वर्षा वाले क्षेत्र अधिकतम जलाधिक्य के क्षेत्र है, इनमें अंतागढ़ (1239 मिमी) भोपालपटनम (1199.86 मिमी), बीजापुर (1181.61 मिमी) सम्मिलित है।
बस्तर जिले की औसत आर्द्रता पर्याप्तता 52.73 प्रतिशत है। अधिक आर्द्रता पर्याप्तता वाले केंद्र - जगदलपुर (70.00 प्रतिशत), भोपालपटन (60.38 प्रतिशत), कोंटा (60.78 प्रतिशत) है। जबकि न्यून आर्द्रता पर्याप्तता भानुप्रतापपुर (51.65 प्रतिशत), अंतागढ़ (52.35 प्रतिशत) एवं केशकाल (54.63 प्रतिशत) में है। वर्षा की लंबी अवधि, कुल वार्षिक वर्षा की प्राप्ति एवं मिट्टी की उच्च जल धारण क्षमता अधिक आर्द्रता पर्याप्तता के कारण है। जिले में आर्द्रता पर्याप्तता सर्वाधिक मानसून काल में 90 प्रतिशत होती है, जो अक्टूबर के पश्चात क्रमश: कम होती जाती है।
शुष्कता : जल संसाधन अध्ययन में शुष्कता का विशेष महत्त्व है। जिले के विभिन्न केंद्रों में वर्ष 1957-92 की अवधि में सर्वाधिक सूखाग्रस्त अंतागढ़ क्षेत्र में (19 वर्ष भीषणतम शुष्क) रहा, जबकि कांकेर, कोंडागाँव, बीजापुर, दंतेवाड़ा, भोपालपटनम, जगदलपुर क्षेत्रों में 18 वर्ष सूखे के रहे। जिले में शुष्कता गहनता सर्वाधिक उत्तरी क्षेत्र में है। लेकिन अध्ययन अवधि में 50 प्रतिशत वर्ष भीषणतम सूखा वर्ष रहा है। अत: जिले में लगभग प्राय: पूरे क्षेत्र में सूखे की स्थिति बनी रहती है।
जलवायु विस्थापन : जिले को आर्द्रता सूचकांक के आधार पर (1) सीमांत आर्द्र (2) नम आर्द्र (3) आर्द्र (4) शुष्क उपार्द्र प्रकार के प्रदेशों में विभक्त किया गया है। जिले के मुख्य भाग में भानुप्रतापपुर, सुकमा, नारायणपुर, दंतेवाड़ा, कोंडागाँव, क्षेत्र में नम आर्द्रता है। इनका औसत आर्द्रता सूचकांक क्रमश: 21.59, 28.06, 20.68, 26.26 एवं 21.28 प्रतिशत है। जिले के उत्तर में कांकेर, केशकाल एवं दक्षिण में कोंटा में शुष्क उपार्द्र प्रदेश है। इनका औसत आर्द्रता सूचकांक क्रमश: 24.70, 23.06 एवं 30.00 प्रतिशत है। बीजापुर, अंतागढ़ क्षेत्र में आर्द्र जलवायु प्रदेश है। इसका औसत आर्द्रता सूचकांक क्र. 37.47 एवं 32.58 प्रतिशत है, तथा जिले के जगदलपुर और भोपालपटनम क्षेत्र सीमांत आर्द्र प्रदेश है। इनका औसत आर्द्रता सूचकांक 44.80 एवं 51.80 प्रतिशत है। जिले में नम आर्द्र जलवायु प्रदेश का क्षेत्रीय विस्तार अपेक्षाकृत अधिक है।
धरातलीय जल, अपवाह तंत्र : जिले में उपलब्ध सतही जल का 69.20 प्रतिशत इंद्रावती नदी द्वारा संग्रहित होता है। जबकि सबरी नदी द्वारा 14.33 प्रतिशत, निम्न गोदावरी क्रम की नदियों द्वारा 10.87 प्रतिशत एवं महानदी क्रम की नदियों द्वारा 5.58 प्रतिशत जल संग्रहित होता है।
जलप्रवाह : जिले की विभिन्न नदियों में वार्षिक जल प्रवाह की मात्रा में पर्याप्त क्षेत्रीय विषमताएँ हैं। इंद्रावती नदी (जगदलपुर प्रवाह मापी केंद्र) का उच्चतम मासिक जलप्रवाह 915.75 लाख घन मीटर है, जबकि इस केंद्र का न्यूनतम मासिक जल प्रवाह की मात्रा 4.03 लाख घन मीटर है। महानदी का उच्चतम मासिक जल प्रवाह 690.93 लाख घन मीटर एवं न्यूनतम 2.42 लाख घन मीटर है। सामान्यत: इंद्रावती एवं महानदी का 95 प्रतिशत जल प्रवाह जुलाई से सितंबर की अवधि में होता है। जिले में वर्षा की अवधि लंबी है। सामान्यत: मासिक जल प्रवाह मासिक वर्षा का अनुसरण करती है। मानसून अवधि उच्च जल प्रवाह की अवधि है। सितंबर के पश्चात वर्षा की घटती दर के साथ-साथ जल प्रवाह की मात्रा भी कम होती जाती है। इस अवधि में महानदी में अधिकतम 6.19 लाख घन मीटर तथा न्यूनतम 0.76 लाख घन मीटर और इंद्रावती नदी में अधिकतम 9.97 लाख घन मीटर न्यूनतम 4.03 लाख घन मीटर जल प्रवाह होता है।
सतही जल का मूल्यांकन : जिले में जल प्रवाह की मात्रा भी वर्षा के वितरण की भाँति दक्षिण - पश्चिम एवं पूर्व से उत्तर की ओर क्रमश: घटती जाती है। अधिकतम जल प्रवाह 2760.30 लाख घन मीटर जगदलपुर (इंद्रावती) में है। न्यूनतम जल प्रवाह मारी केंद्र में 229.5 लाख घन मीटर है। वार्षिक वर्षा की अनियमितता के कारण औसत वार्षिक जलावाह की मात्रा में भी अत्यधिक विचलनशीलता है। जिले में वार्षिक विचलनशीलता की मात्रा 312.35 लाख घन मीटर (कोयलीबेड़ा) एवं 1928.07 लाख घन मीटर (लखनपुर) के मध्य है।
तालाब एवं जलाशय की संग्रहण क्षमता : तालाब तथा जलाशय, धरातलीय जल संग्रहण अथवा उपलब्धता के प्रमुख स्रोत हैं। जिले में गहरे, छिछले एवं अधिक फैले तालाबों की संख्या अधिक है। वर्षा अवधि में इन तालाबों से छोटी नालियों की सहायता से ढाल में स्थित खेतों में सिंचाई हेतु जल उपलब्ध होता है। जिले में 40 हेक्टेयर से कम सिंचाई क्षमता युक्त तालाबों की संख्या 31 है। इन तालाबों की संख्या उत्तरी मैदानी क्षेत्र के चारामा, कांकेर तथा सरोना विकासखंड में अधिक है। 40 हेक्टेयर से अधिक सिंचाई क्षमता युक्त तालाबों की संख्या 235 है।
जल संसाधन विकास की दृष्टि से तालाबों का वितरण महत्त्वपूर्ण है। सामान्यत: जिले के उत्तर एवं दक्षिण पश्चिम क्षेत्र में तालाबों के सघन वितरण से इस क्षेत्र में तालाब द्वारा सिंचाई होती है। जिले में लगभग 10291 हेक्टेयर क्षेत्र में तालाबों से सिंचाई की जाती है। जो संपूर्ण सिंचित क्षेत्र का 27.08 प्रतिशत है। जिले की 8473 तालाबों में से 266 तालाबों द्वारा सिंचाई होती है।
जिले में सतही जल के संग्रहण हेतु मानव निर्मित अथवा प्राकृतिक जलाशय है। जिले में तीन मध्यम जलाशय एवं बाकी लघु जलाशय हैं।
परालकोट जलाशय कोटरी नदी पर निर्मित है। इसकी जल संग्रहण क्षमता 663.5 लाख घन मीटर है। इस जलाशय से 636.3 लाख घन मीटर जल सिंचाई के लिये उपयोग होता है तथा 27.3 लाख घन मीटर अन्य कार्य के उपयोग में आता है। मयाना जलाशय की जल संग्रहण क्षमता 59.8 लाख घन मीटर है। इसके 56 लाख घन मीटर जल का सिंचाई के लिये उपयोग होता है। इससे चारामा, सरोना, कांकेर विकासखंडों को सिंचाई सुविधा प्राप्त होती है। झीयम जलाशय दरभा विकासखंड में इंद्रावती नदी पर निर्मित है। इसकी जल संग्रहण क्षमता 472.1 लाख घन मीटर है। इसमें 451.3 लाख घन मीटर जल का सिंचाई के लिये उपयोग होता है।
बस्तर जिले में उपर्युक्त तालाबों, जलाशयों एवं नदियों से 66812 हेक्टेयर (भौगोलिक क्षेत्र का 17.08 प्रतिशत) में सिंचाई होती है।
जल की गुणवत्ता : जल की गुणवत्ता ज्ञात करने के लिये जिले के विभिन्न स्थानों के 138 नमूनों का रासायनिक एवं जीवाणु विश्लेषण किया गया। इन नमूनों में से 16 नमूनों में कुल घुलित ठोस की मात्रा 700 पीपीएम तथा बाकी 122 नमूनों में 500 पीपीएम तक है। जिले में कठोर जल - चारामा, कांकेर, भानुप्रतापपुर, दुर्गकोंदल विकासखंडों में पाया गया है। बाकी जल क्षेत्र सामान्य कठोर है। जिले के ग्रामीण तालाबों के नमूनों में 188/100 से 490/100 मिली कॉलीफार्म जीवाणु पाया गया। जगदलपुर के शहरी क्षेत्र के तालाब में 2105/100 मिमी कॉलीफार्म जीवाणु है। अत: जिले के जलाशयों का जल बिना उपचार किये पीने योग्य नहीं है। ये जल सिंचाई एवं उद्योग के लिये उपयुक्त है।
अंतर्भौमजल का स्थानीक प्रतिरूप : भू-गर्भ जल मुख्यत: चट्टानी सरंध्रता, चट्टानों की जलवहन क्षमता एवं चट्टानी रवों की विभिन्नता पर निर्भर होता है। जिले में कड़प्पा क्रम की बलुआ प्रस्तर, चूना पत्थर, चूना पत्थर एवं आर्केइयन क्रम की ग्रेनाइट, नीस, सिस्ट, चट्टानें पाई जाती है। ये सभी चट्टानें ठोस तथा कठोर होती है। ग्रेनाइट, नीस चट्टानों में प्राथमिक सरंध्रता के अभाव में अपक्षयित संधियों एवं दरार भू-गर्भ जल उपलब्धता को सुगम बनाते हैं। बालूका, प्रस्तर एवं चूना प्रस्तर जिले के अच्छे भू-गर्भ जल के स्रोत है। जिले में अपक्षयित चट्टानों की मोटाई 15 से 35 मीटर तक है। बस्तर जिले में भू-गर्भ जल स्तर की समोच्च रेखाओं की रचना हेतु 120 कूपों का निरीक्षण किया गया। भूजल स्तर समोच्च रेखाओं की अधिकतम ऊँचाई दक्षिण मध्य में समुद्र सतह से 848.21 मीटर एवं न्यूनतम ऊँचाई 206.66 मीटर (बड़ेगुडरा में) है।
अंतर्भौम जल स्तर की सार्थकता - मानसून पूर्व काल में : जिले में मानसून पूर्व काल में भू-गर्भ जलस्तर की अधिकतम गहराई 15.96 मीटर (पंडरीपानी में) तथा न्यूनतम 2.90 मीटर (हाथीधारा) के मध्य रहता है।
मानसून पश्चात काल में : मानसून पश्चात भू-गर्भ जलस्तर की अधिकतम गहराई 6.60 मीटर (संकनपाली) एवं न्यूनतम 0.66 मीटर (माडीड) के मध्य रहता है।
भूजल स्तर में उतार चढ़ाव : भूजल स्तर में अधिक उतार-चढ़ाव 6 से 8 मीटर जगदलपुर, दुर्गकोंदल एवं सुकमा क्षेत्र में है तथा जिले के अन्य भाग में यह परिवर्तन 2 से 6 मीटर के मध्य है। भूजल में अधिकतम उतार-चढ़ाव 9.97 मीटर (धनपुँजी) एवं न्यूनतम 1.52 मीटर (संकनपाली) के मध्य है।
अंतर्भौम जल का पुन: पूरण : बस्तर जिले में कुल भू-गर्भ जल पुन: पूर्ति 3586.50 लाख घन मीटर है। जिले में भू-गर्भ जल पुन: पूर्ति सर्वाधिक कोंटा विकासखंड में (27,905 हेक्टेयर मी.) एवं न्यूनतम बास्तानार विकासखंड में (4373 हेक्टेयर मी.) है।
अंतर्भौम जल की निकासी : जिले में वार्षिक भू-गर्भ जल निकासी 48.31 लाख घन मीटर है। जो कुल भू-गर्भ जल पुन: पूर्ति का केवल 1.35 प्रतिशत है। भू-गर्भ जल निकासी की सर्वाधिक मात्रा सरोना विकासखंड में 9.97 लाख घन मीटर (कुल भू-गर्भ जल प्राप्यता का 10.6 प्रतिशत) है। न्यूनतम निकासी ओरछा, बास्तानार, विकासखंड में 0.05 लाख घन मीटर (0.002 प्रतिशत) है। जिले के अन्य विकासखंड में जल निकासी 1 से 3 लाख घन मीटर है।
सिंचाई का विकास : जिले में योजना पूर्व कोई सिंचाई योजना नहीं थी। लोग परंपरागत साधनों (तालाब, डबरी, कुआँ) से सिंचाई किया करते थे। सामान्य योजना के तहत 1960-61 में तालाबों से 57 हेक्टेयर सिंचाई योजना बनायी गयी। विशेष योजना के तहत 1968-69 में दूध नदी पर मायना जलाशय का निर्माण किया गया है। इससे छोटी नहर प्रणाली का विकास किया गया, जिससे 1103 हेक्टेयर भूमि की सिंचाई की जाती है। पंचम पंचवर्षीय योजना के अंतर्गत वर्ष 1985-86 में झीयम जलाशय का निर्माण हुआ। जिसकी क्षमता 48699 हेक्टेयर में सिंचाई करने की थी, लेकिन वास्तविक सिंचाई 22102 हेक्टेयर में हुई। सातवीं पंचवर्षीय योजना के अंत तक 3 मध्यम एवं 263 लघु जलाशय निर्मित हुए हैं। जिसकी रूपांकित सिंचाई क्षमता 66812 हेक्टेयर है। वर्ष 1990 से 95 तक वास्तविक सिंचाई 22762 हेक्टेयर में हुई है, जो कुल फसली क्षेत्र का 2.57 प्रतिशत है।
सिंचाई का वितरण : जिले के उत्तरी एवं दक्षिणी मैदानी क्षेत्रों में सिंचाई का केंद्रीकरण अधिक हुआ है। जिले में कुल 37993 हेक्टेयर (कुल फसली क्षेत्र का 4.30 प्रतिशत) सिंचित है। जिले में सिंचाई प्रबलता 5 से 15 प्रतिशत तक है। उच्च सिंचाई प्रबलता (15 प्रतिशत से अधिक) चारामा विकासखंड एवं भानुप्रतापपुर विकासखंड क्षेत्र में है, जहाँ कुल फसली क्षेत्र का क्रमश: 24.97 प्रतिशत एवं 23.50 प्रतिशत क्षेत्र सिंचित है। सामान्य सिंचाई प्रबलता वाले क्षेत्र (10 से 15 प्रतिशत सिंचित क्षेत्र) नरहरपुर (12.26 प्रतिशत), कांकेर (11.74 प्रतिशत), एवं कोयलीबेड़ा (11.30 प्रतिशत) है। निम्न सिंचाई प्रबलता वाला क्षेत्र (5 से 10 प्रतिशत सिंचित क्षेत्र) उसूर विकासखंड का क्षेत्र है। इंद्रावती दोआब में स्थित इस क्षेत्र में कुल फसली क्षेत्र का 7.25 प्रतिशत सिंचित है। अति निम्न सिंचाई प्रबलता वाले क्षेत्र में (5 प्रतिशत से कम) जिले के 32 विकासखंडों में से 26 विकासखंड सम्मिलित है। ये क्षेत्र पठारी एवं पहाड़ी है, जहाँ उपलब्ध कृषि भूमि कम है, जिससे सिंचाई की आवश्यकता भी कम क्षेत्र में है।
सिंचाई के साधन : बस्तर जिले में नहरों से सिंचाई 1968-69 में प्रारंभ हुई है, जिले में नहर द्वारा 9018 हेक्टेयर क्षेत्र सिंचित है, जो कुल सिंचित क्षेत्र का 23.73 प्रतिशत और कुल फसली क्षेत्र का 1.02 प्रतिशत है। जिले के केवल 10 विकासखंडों में नहर द्वारा सिंचाई होती है। नहरों के द्वारा सर्वाधिक सिंचित क्षेत्र कोयलीबेड़ा में (87.71 प्रतिशत) है, इसके पश्चात नरहरपुर (87.15 प्रतिशत) एवं छिंदगढ़ (83.06 प्रतिशत) का स्थान है। 7 विकासखंडों में 5 से 25 प्रतिशत तक सिंचाई नहरों से होती है। जबकि बाकी 22 विकासखंडों में नहर द्वारा सिंचाई नहीं होती। जिले में 27.08 प्रतिशत क्षेत्र में तालाबों द्वारा सिंचाई की जाती है। सिंचाई युक्त तालाबों का केंद्रीयकरण मैदानी क्षेत्र में अधिक है। इनकी संख्या 266 है, जिनसे 10291 हेक्टेयर में (कुल फसली क्षेत्र का 1.16 प्रतिशत) सिंचाई होती है। सबसे अधिक भोपालपटनम विकासखंड का 93.38 प्रतिशत क्षेत्र तालाबों द्वारा सिंचित है, इसके पश्चात लोहांडीगुडा (82.35 प्रतिशत), चारामा (63.30 प्रतिशत), एवं कोंटा (55.55 प्रतिशत) विकासखंड का स्थान है। कोयलीबेड़ा, नरहरपुर, अंतागढ़ क्षेत्र में सिंचाई गहनता 5 प्रतिशत से कम है।
जिले में कुओं द्वारा सिंचाई का स्थान पहला है। जिले में कुओं से 15095 हेक्टेयर क्षेत्र में सिंचाई होती है, जो कुल सिंचित क्षेत्र का 39.73 प्रतिशत तथा कुल कृषि क्षेत्र का 1.70 प्रतिशत है। जिले में कुल 12470 सिंचाई के कुएँ हैं। सभी विकासखंडों में कुओं से सिंचाई होती है। कांकेर में 1.794 हेक्टेयर तथा चारामा में 1782 हेक्टेयर क्षेत्र में कुओं से सिंचाई होती है। लेकिन दुर्गकोंदल का 98.73 प्रतिशत, नारायणपुर का 85 प्रतिशत, अंतागढ़ का 78.20 प्रतिशत, कुवाकोंडा और कटेकल्याण में 100 प्रतिशत क्षेत्र कुओं से सिंचित है। कुओं द्वारा कम सिंचित क्षेत्र उसूर (1.87 प्रतिशत), भोपालपटनम (2.58 प्रतिशत) एवं छिंदगढ़ (3.36 प्रतिशत) में है।
बस्तर जिले में ट्यूबवेल (नलकूप) से कुल सिंचित क्षेत्र का केवल 0.35 प्रतिशत (कुल फसली क्षेत्र का 0.01 प्रतिशत) क्षेत्र सिंचित होता है। जगदलपुर विकासखंड में 37 हेक्टेयर तथा नरहरपुर विकासखंड में 54 हेक्टेयर क्षेत्र नलकूप से सिंचित है। बस्तर जिले में कुल सिंचित क्षेत्र का 9.08 प्रतिशत अन्य साधनों से सिंचित है। इन साधनों में मौसमी नाले एवं पोखर आदि हैं। बीजापुर विकासखंड का 57.22 प्रतिशत, दंतेवाड़ा विकासखंड का 55.22 प्रतिशत क्षेत्र इन्हीं साधनों से सिंचित है।
सिंचित फसलें : जिले में विभिन्न फसलों के अंतर्गत जल का सर्वाधिक (96.43 प्रतिशत) उपयोग धान की कृषि में तथा शेष (3.57 प्रतिशत) अन्य फसलों की कृषि में होता है। जिले में कुल धान क्षेत्र का 6.26 प्रतिशत क्षेत्र ही सिंचित होता है।
जिले में सभी स्रोतों से सिंचाई क्षमता लगभग 4008 लाख घन मीटर है। 1995 तक सभी स्रोतों से 172 लाख घन मीटर सिंचाई क्षमता हासिल की गई है। इस प्रकार केवल 4.30 प्रतिशत जलस्रोत क्षमता का वर्तमान में उपयोग किया जा रहा है।
जिले में कुल उपलब्ध सतही जल की मात्रा 3160 लाख घन मीटर है। इसमें से 114.2 लाख घन मीटर जल का सिंचाई के लिये उपयोग होता है। चारामा विकासखंड में सबसे अधिक जल (34 लाख घन मीटर) का सिंचाई में उपयोग होता है।
अंतर्भौम जल की उपयोगिता : जिले में भू-गर्भ जल की संभाव्य क्षमता 840.8 लाख घन मीटर है, जिसमें से 57.8 लाख घन मीटर जल का सिंचाई के लिये उपयोग किया जाता है। कांकेर विकासखंड में सर्वाधिक 11.9 लाख घन मीटर जल से सिंचाई होती है।
जिले में जल संसाधन विकास की पर्याप्त सम्भावनाएँ हैं। जिले में उपलब्ध कुल जल 4008 लाख घन मीटर है, जिसमें से 126.1 लाख घन मीटर जल ही सिंचाई के कार्यों में उपयोग में लाया जाता है। अत: शेष जल राशि का उपयोग घरेलू या अन्य कार्यों में किया जाता है। जिले में जल का उपयोग लगभग 4 प्रतिशत हुआ है। अत: जिले में जल संसाधन विकास की अत्यधिक सम्भावनाएँ है।
सिंचाई की समस्याएँ : जिले के उत्तरी क्षेत्र में जल संसाधन, दक्षिण क्षेत्र की अपेक्षा अधिक है। उत्तरी क्षेत्र में पर्याप्त जल संसाधन के होते हुए भी विकास का स्पष्टत: अभाव है। जिले में सिंचाई सम्बन्धी समस्याओं के निम्नलिखित कारण हैं - प्रशासकीय समस्याएँ, अवैज्ञानिक सिंचाई पद्धति, वित्तीय समस्या, भौगोलिक समस्या, शिक्षा का अभाव आदि।
जल का घरेलू और औद्योगिक उपयोग : जिले के ग्रामीण एवं नगरीय क्षेत्रों में पेयजल की आपूर्ति अपर्याप्त है।
ग्रामीण जल प्रदाय : जिले की 2109431 ग्रामीण जनसंख्या के लिये 194016 लाख किलो लीटर पेयजल की प्रतिदिन आवश्यकता है। जिले के ग्रामीण क्षेत्रों में पेयजल आपूर्ति के स्रोत तालाब हैं। इन तालाबों का पेयजल के अतिरिक्त अन्य कार्यों के लिये भी उपयोग किया जाता है। फलस्वरूप जल में प्रदूषण की समस्या उत्पन्न होती है। जिले के ग्रामीण क्षेत्रों में पेयजल आपूर्ति के अन्य स्रोतों में नाले, नदियाँ एवं कुएँ हैं। जिले के 2.74 प्रतिशत ग्रामों में नदी नाले एवं 95 प्रतिशत ग्रामों में कुएँ पेयजल के प्रमुख स्रोत हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में शुद्ध पेयजल आपूर्ति हेतु प्रत्येक गाँव में हस्तचलित पंप (एक हस्तचलित पंप प्रति 250 व्यक्ति) लगाये गये हैं। जिले में 14623 हैंडपंप के माध्यम से लगभग 40 प्रतिशत पेयजल की आपूर्ति होती है। जिले में ग्रीष्मावधि में जलस्रोतों के जलस्तर के नीचे चले जाने के कारण जलाभाव की स्थिति निर्मित हो जाती है। जिले के 3563 ग्रामों को समस्यामूलक ग्राम घोषित किया गया है। जिले के 152 ग्राम (4.09 प्रतिशत) में ग्रीष्मावधि में जल विद्यमान रहता है। ऐसे ग्रामों की सर्वाधिक संख्या कोंडागाँव, कोयलीबेड़ा, नारायणपुर, कोंटा एवं भैरमगढ़ विकासखंडों में है। जिले के 470 ग्राम आंशिक पेयजल आपूर्ति वाले ग्राम तथा 203 स्रोतहीन ग्राम हैं। ऐसे ग्राम बीजापुर में 59 तथा दंतेवाड़ा में 32 हैं। इन गाँवों में कठोर चट्टानयुक्त क्षेत्र पाया जाता है। जिसमें पानी का रिसाव कम होता है।
इस तरह जिले में 15577 कुओं, 8473 तालाबों एवं 14623 हेंडपंपों के माध्यम से 94635 किलो लीटर जल ग्रामीणों को उपलब्ध कराया जाता है।
नगरीय जल प्रदाय : जिले के नगरीय क्षेत्र के 161883 व्यक्तियों को प्रतिदिन 24281 किलो लीटर जल की जरूरत होती है। इसकी तुलना में शहर में प्रतिदिन केवल 18460 किलो लीटर जल की आपूर्ति होती है। वर्तमान में जिले के शहरों में लगभग 57.64 प्रतिशत नदियों से, 10.97 प्रतिशत नलकूपों से, 9.45 हैंडपंपों से और 21.94 प्रतिशत तालाबों से जल आपूर्ति होती है। जिले के सभी नगरीय क्षेत्रों में ग्रीष्मावधि में पेयजल की समस्या विद्यमान है। इन क्षेत्रों में जल की आवश्यकता का केवल 76.02 प्रतिशत ही पूरा किया जा सका है। इस प्रकार नगरीय क्षेत्रों में पेयजल योजना के विकास की आवश्यकता है।
जल की मात्रा तथा गुणवत्ता एवं शुद्धिकरण प्रक्रिया का विकास : बस्तर जिले की 138 जल के नमूनों का रासायनिक एवं जीवाणु विश्लेषण किया गया। जल की कठोरता या खारापन विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा निर्धारित मापक के आधार पर ज्ञात किया गया है। जिले में छिंदगढ़, कटेकल्याण, दरभा, गीदम, कोंडागाँव, बस्तर, लोहंडीगुड़ा, बकावंड, तोकापाल, जगदलपुर विकासखंडों में एक लीटर जल में 75 मिग्रा से कम कठोरता पायी गयी है, तथा अधिक कठोर जल (225 मिग्रा से अधिक) चारामा, कांकेर, सरोना, भानुप्रतापपुर, दुर्गकोंदल, विकासखंडों में पाया गया है। इस जल को घरेलू कार्यों में उपयोग में लाया जा सकता है। जिले के बाकी क्षेत्रों में 75 से 225 मिग्रा तक जल की कठोरता पायी गयी है।
जल प्रदूषण नियंत्रण का मुख्य उद्देश्य पानी से उत्पन्न होने वाली बीमारियों को रोकना है। कॉलीफार्म जीवाणु की पहचान के लिये जिले के विभिन्न क्षेत्रों तथा विभिन्न जलस्रोतों से 65 नमूने (10 नदी-नाले से 23 ग्रामीण तालाबों से 1 शहरी तालाब से, 26 कुओं से तथा 5 हस्तचलित पंपों से) एकत्रित किये गये। अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान शोध संस्थान के अनुसार कॉलीफार्म जीवाणु की अधिकतम सीमा 10/100 मिली होना चाहिए। जबकि बस्तर जिले के कुओं में इस जीवाणु की मात्रा 10 (तोकापाल विकासखंड) से 89 (दुर्गकोंदल विकासखंड) के मध्य है। शहर के तालाब में यह मात्रा 2105/100 मिली लीटर तथा ग्रामीण तालाबों में यह मात्रा 188 (माकड़ी विकासखंड) तथा 490/100 मिली लीटर (भोपालपटनम विकासखंड) के मध्य है तथा नदी-नालों के जल में कॉलीफार्म जीवाणु की संख्या 150 से 200/100 मिली लीटर तक है। प्रदूषण की दृष्टि से यह मात्रा अत्यधिक है।
अत: प्रदूषण मुक्त करके जल का उपयोग करना चाहिए।
मत्स्य उत्पादन : बस्तर जिले में 7431.953 हेक्टेयर में मत्स्य पालन किया जाता है। यहाँ स्वच्छ जल में व्यापारिक मछली (कतला, मोंगरी, रेहू) का मुख्य रूप से उत्पादन एवं पालन किया जाता है। जिले में मत्स्य पालन मुख्यत: शासकीय एवं निजी इकाइयों द्वारा किया जाता है। जिले का 77.21 प्रतिशत मत्स्योत्पादक क्षेत्र सिंचाई विभाग के अधीन है। निजी स्वामित्व के अंतर्गत 18.23 प्रतिशत क्षेत्र है तथा ग्राम पंचायत के अंतर्गत 4.57 प्रतिशत क्षेत्र में मत्स्योत्पादन होता है। जिले में मत्स्योपत्पादन मुख्यत: जगदलपुर, दंतेवाड़ा, बीजापुर, कोंडागाँव, कांकेर, नारायणपुर, परियोजना में होता है।
जिले में वर्ष 1993-94 की अवधि में 1246.474 मीट्रिक टन मत्स्योत्पादन तथा 235.23 लाख मत्स्य बीज का उत्पादन हुआ।
परिवहन तथा मनोरंजन : जल संसाधन का मनोरंजन की दृष्टि से उपयोग वर्तमान में महत्त्वपूर्ण होता जा रहा है। जिले में इंद्रावती नदी पर चित्रकूट एवं कांगेर नदी पर तीरथगढ़ प्राकृतिक जल प्रपात बना है। यहाँ सिर्फ वर्षा ऋतु में पानी अधिक होने से नौका विहार होता है। जल परिवहन एवं जल मनोरंजन की दृष्टि से जिले में विकास नगण्य है।
जल जनित रोग : जिले में जल जनित रोगों में (1990-94) प्रतिवर्ष औसतन आंत्रशोध से 1043 व्यक्ति मियादी बुखार से 372 व्यक्ति, अतिसार से 4875 व्यक्ति, खूनी पेचिस से 638 व्यक्ति, गिनीवर्म से 1493 व्यक्ति, जल जन्य अन्य रोगों से 324 व्यक्ति प्रभावित होते हैं। जिले में तोकापाल, बस्तर, दरभा, उसूर विकासखंडों में जल जन्य रोग से अधिक व्यक्ति प्रभावित होते हैं। जल जनित रोगों से सर्वाधिक प्रभावित गाँव बास्तानार विकासखंड में हैं। जिले के प्राय: सभी विकासखंडों में चिकित्सा सुविधा का अभाव है। जनजाति के लोग पीने के लिये नलकूपों के जल का उपयोग नहीं करते हैं तथा बीमार होने की स्थिति में औषधि सेवन करने के बदले में झाड़-फूक पर अधिक विश्वास करते हैं।
अत: जल संसाधन के समुचित प्रबंधन से ही जल जन्य रोग को नियंत्रित किया जा सकता है।
जल प्रदूषण के स्रोत : जिले में जल प्रदूषण प्राकृतिक स्रोत के द्वारा पेड़ पत्तियाँ घास फूस, आदि के झड़ जाने से, मानवीय स्रोत - घरेलू मलिन पदार्थ, जानवरों द्वारा नि:सृत मल एवं औद्योगिक बहिस्राव के कारण जल प्रदूषण की समस्या बनी हुयी है। जिले के अधिकतर ग्रामीण क्षेत्रों में ग्रीष्मावधि में जलाभाव की स्थिति निर्मित हो जाती है। ग्रामीण क्षेत्रों में तालाबों के जल के उपयोग के परिणामस्वरूप जल प्रदूषण की समस्या जन्म लेती है। जो विभिन्न जल जन्य रोगों का कारण है। नगरीय क्षेत्रों में जल आपूर्ति भी पर्याप्त नहीं है, साथ ही वितरण प्रणाली दोषपूर्ण है। सार्वजनिक नलों द्वारा जल आपूर्ति क्षेत्र में रख-रखाव का पर्याप्त प्रबंध न होने के कारण जल के अपव्यय एवं दुरुपयोग की समस्या है। नगरीय क्षेत्रों में जल संग्राहकों से दूरस्थ क्षेत्र में जल आपूर्ति एक बड़ी समस्या है।
जिले में 4.30 प्रतिशत सिंचित क्षेत्र है, किंतु सिंचाई के वितरण में पर्याप्त क्षेत्रीय विषमताएँ है। प्रशासकीय कारणों के फलस्वरूप सिंचाई विकास योजनाओं में विलम्ब होता है। जिले के उत्तरी क्षेत्रों में कुएँ, नहर एवं तालाब आदि है। मायाना जलाशय के द्वारा सिंचाई योजना संभव हुई है। बाकी क्षेत्रों में लघु सिंचाई योजना है। यहाँ के सूखे खेतों में सिंचाई की असीम सम्भावनाएँ है, वित्तीय समस्या जल संसाधन विकास की धीमी गति का कारण है, जिले के दक्षिणी क्षेत्रों में धरातलीय विषमता एवं वनाच्छादित क्षेत्रों के कारण खेत बिखरे हुए हैं। अत: सिंचाई योजनाओं के बिखरे स्वरूप के कारण भी समस्या बनी हुई है।
जल प्रदूषण की समस्या के निराकरण के उपाय : जिले में जल संसाधन विकास की विभिन्न समस्याओं के निराकरण हेतु अनेक प्रबंध किए जाने चाहिए। जिनमें सिंचाई की दोषपूर्ण प्रणाली में सुधार हेतु बाड़ाबद्री योजना महत्त्वपूर्ण है। पुन: प्रशासकीय बाधाओं को यथासंभव दूर करने का प्रयास किया जाना चाहिए। जिले के उत्तरी क्षेत्रों में सिंचाई के विकास हेतु 50 हेक्टेयर के छोटे-छोटे खंडों में सामूहिक सिंचाई व्यवस्था का निर्माण किया जा सकता है। छोटे-छोटे नालों पर मिट्टी के बांध बनाकर सिंचाई की सुविधा में विस्तार किया जा सकता है। पेयजल आपूर्ति हेतु भू-गर्भ स्रोतों के विकास को पर्याप्त महत्त्व दिया जाना चाहिए। साथ ही वितरण व्यवस्था में सुधार, जल के दोषपूर्ण उपयोग की रोकथाम, वित्तीय प्रबंधन आदि किये जाने चाहिए। जल प्रदूषण की समस्या के समाधान हेतु घरेलू मल को पानी के स्रोत में नहीं बहाना चाहिए। जल को सप्ताह अंतराल में प्रदूषण मुक्त करना चाहिए।
औद्योगिक और घरेलू जल का पुन: चक्रण : बस्तर जिले में वर्तमान में घरेलू एवं औद्योगिक जल का पुन: चक्रण नहीं होता। जिले में घरेलू बहिस्राव से 3700 वहित मल से 1000 एवं औद्योगिक बहिस्राव से 1200 किलो लीटर जल व्यर्थ बह जाता है। इसे उपचार करके पुन: उपयोग में लाया जा सकता है।
जल संसाधन विकास की संभावना : जिले को जल संसाधन के वर्तमान उपयोग की दृष्टि से निम्नांकित विभागों में विभक्त किया गया :-
(1) न्यूनतम जल उपयोगिता प्रदेश
(2) न्यून जल उपयोगिता प्रदेश
(3) मध्यम जल उपयोगिता प्रदेश एवं
(4) उच्च जल उपयोगिता प्रदेश।
भैरमगढ़, बीजापुर, कोंटा, सुकमा, गीदम, दंतेवाड़ा, कुआकोंडा, कटेकल्याण, बास्तानार, विकासखंड जल संसाधन विकास की दृष्टि से न्यूनतम विकसित क्षेत्र है। इन क्षेत्रों में जल संसाधन प्रचूर मात्रा में है, तथापि तकनीकी समस्याओं, भौतिक अवरोधों एवं अशिक्षा के कारण जल संसाधन का समुचित विकास नहीं हो पाया है। यहाँ विकास की दर 5 प्रतिशत से कम है।
मैदानी क्षेत्रों में जल संसाधन का विकास अन्य क्षेत्रों की तुलना में अच्छा हुआ है। इन क्षेत्रों की विकास दर 15 प्रतिशत से अधिक है। चारामा, भोपालपटनम, कांकेर, सरोना एवं कोयलीबेड़ा क्षेत्र जल संसाधन विकास की दृष्टि से सर्वोपरि है। इस क्षेत्र में मायना जलाशय एवं परालकोट जलाशय सिंचाई योजना के परिणामस्वरूप जल संसाधन विकास की दर उच्च है।
जिले में 972.22 लाख घन मीटर जल उपलब्ध है। जिसमें से लगभग 210 लाख घन मीटर जल का उपयोग हो रहा है। अत: उपयोग की गई राशि को देखते हुए जिले में जल संसाधन की विकास की असीम सम्भावनाएँ हैं।
शासकीय विकास योजना : धारातलीय जल : जिले में जल संसाधन विकास हेतु 48 लघु योजनाएँ निर्माणाधीन है। इसकी रूपांकित क्षमता 30086 हेक्टेयर है इनके निर्माण के बाद जिले में 10.97 क्षेत्र सिंचित हो जाएगा।
अंतर्भौम जल विकास योजना : अंतर्भौम जल संसाधन विकास हेतु 125 कुएँ एवं हैंडपंप निर्माणाधीन है। इनके पूर्ण हो जाने के 5.23 प्रतिशत क्षेत्र सिंचित हो जाएगा।
नगरीय एवं ग्रामीण पेयजल आपूर्ति विकास : नगरीय एवं ग्रामीण पेयजल विकास हेतु केंद्र शासन द्वारा 2265 नलकूप, 1481 खुले कुओं का निर्माण प्रस्तावित एवं स्वीकृत है। राज्य शासन द्वारा विशेष कार्य के अंतर्गत 100 नलकूप एवं 1481 खुले कुओं का प्रत्येक वर्ष निर्माण कार्य स्वीकृत है। नगरीय क्षेत्र के लिये 1 लाख गैलन (4,54,609 लीटर) पानी टंकी कांकेर शहर के लिये तथा 1 लाख 20 हजार गैलन (5,45,530 लीटर) की 2 टंकियां जगदलपुर शहर के लिये प्रस्तावित है।
मत्स्य विकास : मत्स्य पालन विकास हेतु 97-98 में 699 हेक्टेयर जल क्षेत्र मत्स्य पालन हेतु प्रस्तावित है।
जल मनोरंजन परिवहन विकास : जिले के विभिन्न लघु जलाशयों में नौका विहार आदि का प्रबंध करके मनोरंजन हेतु विकास किया जा सकता है। जिले में लौह अयस्क तथा बॉक्साइड की खाने में उत्खन्न के पश्चात वर्षा कालीन जल एकत्रित हो जाता है। जहाँ पर छोटे मनोरंजन केंद्र का विकास किया जा सकता है तथा नौ परिवहन हेतु नदियों में भी मनोरंजनात्मक विकास किया जा सकता है।
जिले में जल संसाधन के विभिन्न स्रोतों के निर्माण की योजना चल रही है। जिनके निर्मित होने के बाद जिले में लगभग जल की उपलब्धता थोड़ी बढ़ जाएगी। इसके बाद भी जिले में जल संसाधन के विकास की असीम सम्भावनाएँ हैं।
बस्तर जिले का यह शोध प्रबंध जिले में जल संसाधन के वितरण, उपयोग और विकास को समझने में सहायक सिद्ध होगा, इस आशा के साथ समर्पित है।
बस्तर जिले में जल संसाधन मूल्यांकन एवं विकास एक भौगोलिक विश्लेषण, शोध-प्रबंध 1997 (इस पुस्तक के अन्य अध्यायों को पढ़ने के लिये कृपया आलेख के लिंक पर क्लिक करें।) | |
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2 | बस्तर जिले की भौगोलिक पृष्ठभूमि (Geography of Bastar district) |
3 | बस्तर जिले की जल संसाधन का मूल्यांकन (Water resources evaluation of Bastar) |
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5 | बस्तर जिले का अंतर्भौम जल (Subsurface Water of Bastar District) |
6 | बस्तर जिले का जल संसाधन उपयोग (Water Resources Utilization of Bastar District) |
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8 | बस्तर जिले के जल का अन्य उपयोग (Other uses of water in Bastar District) |
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11 | बस्तर जिले के जल संसाधन विकास एवं नियोजन (Water Resources Development & Planning of Bastar District) |
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