हमारे प्रधानमंत्री ने उन अकालग्रस्त क्षेत्रों का दौरा किया था। लोगों की स्थिति देखी थी, समझी थी। जनता के अकाल जनित दारिद्रय और कष्ट के निवारण के लिए कलाहांडी में टी.वी. सेंटर की स्थापना का आश्वासन भी दे दिया था। शायद हमारे प्रिय प्रधानमंत्री टी.वी. सेंटर स्थापना से खाद्य समस्या का हल हो जाने का विश्वास रखते हों।
विनाश की वही योजनाएं। वही विस्थापन। वही शोषण। वही लालच। वही खनन। तो क्या पिछले 25 बरसों में उड़ीसा में कुछ नहीं बदला। जी नहीं। सरकारें बदली हैं। वैध-अवैध खनन करने वाली कंपनियों के नाम बदले हैं। प्रदेश का नाम भी अब बदल कर ओडिसा हो गया है। सन् 1986 में गंधमार्दन पर्वत पर बॉक्साइट का खनन रुकवाने के लिए महिलाएं गोद में जिन बच्चों को उठाकर सत्याग्रह में आती थीं, वे आज वयस्क हो चुके हैं और इस न बदलती वास्तविकता को एक बार फिर से बदलने के लिए अपने घरों से बाहर हैं। गंधमार्दन (गंधमार्दन) का नाम रामायण के पाठकों से अविदित न होगा। राम-रावण युद्ध में आहत, मूर्छित लक्ष्मण की जीवन-रक्षा गंधमार्दन पर्वत से लाए गए विषल्य-कर्णि औषधि से की गई थी। खैर यह तो कहानी है और उस पौराणिक गंधमार्दन पर्वत की सही स्थिति का सटीक प्रमाण तो अभी भी उपलब्ध नहीं है, परंतु जहां कहीं भी औषधियों से भरा-पूरा पर्वत हो, उसे गंधमार्दन नाम ही दे दिया जाता होगा- ऐसा लगता है। दूसरे राज्यों के बारे में तो पता नहीं, लेकिन यहां उत्कल में तो दो पर्वतों का नाम गंधमार्दन है ही। एक बिहार के निकटवर्ती केउंझर जिले में है। उत्कल की सुविख्यात नदी वैतरणी की उद्गम-स्थली इसी पर्वत के ऊपर है। इसी पर्वत में लोहे की खान भी है। यहीं से कच्चा लोहा सीधा पारादीप बंदरगाह भेजा जाता है और वहां से उसे जापान निर्यात किया जाता है।लेकिन मैं यहां दूसरे गंधमार्दन के बारे में लिख रही हूं। यह दूसरा गंधमार्दन पश्चिमांचल में संबलपुर तथा कालाहांडी जिले की सीमा पर मध्य प्रदेश की सीमा के निकट है। अनेक सहृदय पाठक अवश्य ही कालाहांडी के भयानक अकाल के कारण पीडि़त, विवश जनता की कारुणिक दुर्दशा से अपरिचित न होंगे। हमारे प्रधानमंत्री ने उन अकालग्रस्त क्षेत्रों का दौरा किया था। लोगों की स्थिति देखी थी, समझी थी। जनता के अकाल जनित दारिद्रय और कष्ट के निवारण के लिए कलाहांडी में टी.वी. सेंटर की स्थापना का आश्वासन भी दे दिया था! शायद हमारे प्रिय प्रधानमंत्री टी.वी. सेंटर स्थापना से खाद्य समस्या का हल हो जाने का विश्वास रखते हों। यह तो विषयांतर हो गया। खैर!
कालाहांडी और संबलपुर जिले का एक विस्तृत इलाका अनावृष्टि के कारण कई दशकों से अकालग्रस्त रहा है। चिर अकालग्रस्त अत्यंत दरिद्र इस आदिवासी इलाके पर स्वाधीनता से पूर्व शायद ही किसी का ध्यान गया हो। स्वाधीनता के पश्चात् सन् 1964-65 के भयानक अकाल के समय उत्कल के सर्वोदय-जगत् की मां रमादेवी उनके सहयोगियों के साथ यहां आई थीं और उन्होंने काफी सेवा की थी। लेकिन अभी तक उस अकालग्रस्त क्षेत्र की जनता के लिए किसी प्रकार के स्थायी समाधान की व्यवस्था नहीं हो सकी है।
कालाहांडी और संबलपुर के उस अकालग्रस्त इलाके के मध्य भाग में यह गंधमार्दन पर्वत श्रृंखला अवस्थित है। यह पर्वत न केवल दुर्लभ जड़ी-बूटियों का भंडार है, बाईस चिरस्रोत झरनों का भी उद्गम स्थल है। करीब दो हजार वर्ग किलोमीटर के अकालग्रस्त इलाके में सिर्फ यहीं पर पानी मिलता है। अगर यह पर्वत श्रृंखला यहां न होती तो उड़ीसा के पश्चिमांचल का यह विराट भू-भाग मरुभूमि में परिवर्तित हो चुका होता। पर्वत की वन-संपदा तथा झरने यहां के पचास हजार आदिवासी का जीवनाश्रय हैं, जीविकोपार्जन का आधार हैं। अकाल के कारण पूरे कालाहांडी और पदमपुर, संबलपुर के लोग अपना गांव छोड़कर चले जाते हैं, लेकिन यहां के निवासियों को कभी जीविकोपार्जन के लिए कहीं बाहर जाना पड़ा हो, ऐसा नहीं सुना गया।
अब इस पर्वत के ऊपर भारतीय अल्युमिनियम कंपनी की लोलुप दृष्टि पड़ी है। कारण यह समूची पर्वतश्रृंखला अति उत्तम बॉक्साइट से ही गढ़ी हुई है। पूरे एशिया में इस तरह के उम्दा बॉक्साइट का इतना बड़ा भंडार और कहीं अभी तक मिला नहीं है। भारत अल्युमिनियम कंपनी ने इस बारे में जानकारी प्राप्त करने के बाद राज्य सरकार के साथ बातचीत की और यहां के बॉक्साइट के खनन का ठेका ले लिया।
पर्वत की वन-संपदा तथा झरने यहां के पचास हजार आदिवासी का जीवनाश्रय हैं, जीविकोपार्जन का आधार हैं। अकाल के कारण पूरे कालाहांडी और पदमपुर, संबलपुर के लोग अपना गांव छोड़कर चले जाते हैं, लेकिन यहां के निवासियों को कभी जीविकोपार्जन के लिए कहीं बाहर जाना पड़ा हो, ऐसा नहीं सुना गया।
कंपनी तथा राज्य सरकार का यह समझौता गुप्त रूप से हुआ था। यहां के लोगों को इसके बारे में कोई जानकारी नहीं थी। फिर भी समझौते के प्रारंभ से ही स्थानीय शिक्षित नागरिकों के द्वारा इसका विरोध किया गया और हाई कोर्ट में भी याचिका दाखिल की गई थी। कंपनी के उद्घाटन दिवस के अवसर पर भी यहां के लोगों की तरफ से विरोध के बावजूद कंपनी ने अपना काम शुरू कर दिया। पर्वत के ऊपर खान खुदाई की जगह तक जाने के लिए चौड़ी-चौड़ी सड़कें चाहिए। रेलमार्ग बनाना चाहिए। परिवहन की ऐसी सुविधा होने पर ही खनन का काम आरंभ किया जा सकता है। अतः गंधमार्दन के विस्तृत सघन जंगल की कटाई शुरू हो गई। कुछ तो रास्ते की तैयारी के लिए और कुछ रास्ते की तैयारी के नाम पर ही ठेकेदार की जेब भरने के लिए। अनेक बहुमूल्य पेड़ों की कटाई की जाने लगी।जंगलों की बर्बादी का नतीजा एक ही साल में सामने आ गया। झरनों में पानी कम होने लगा। पहाड़ों से मिट्टी बहकर झरनों को पाटने लगी। पहाड़ की तलहटी में बसे लोग जंगल को कटते और मिट्टी को नष्ट होते देख चिंतित और आशंकित हो उठे।
इसी समय संबलपुर विश्वविद्यालय के पर्यावरण विज्ञानियों ने भी इस मामले में चिंता प्रकट की। प्रो. आर्तबंधु मिश्र, प्रो. स्वाधीन पटनायक, श्री प्रसन्न कुमार साहु आदि लोगों ने गंधमार्दन के पर्यावरण की सुरक्षा के लिए विचार विमर्श करना शुरू कर दिया। इस सिलसिले में गंधमार्दन इलाके में नृसिंहनाथ तीर्थ और पर्यटन स्थली पर संबलपुर विश्वविद्यालय की तरफ से एक एन.एस.एस. कैम्प का आयोजन किया गया। राज्य के तथा राज्य के बाहर के विश्वविद्यालय के पर्यावरण-विज्ञानियों को तथा इस विषय में रुचि रखने वाले छात्रों को आमंत्रित किया गया। नृसिंह सर्वोदय मंडल के सदस्य श्री अलेख पात्रा तथा श्री मदनमोहन साहु भी पर्यावरण सुरक्षा के लिए चिंतित थे। उन्होंने भी इस योजना में भाग लिया।
दस दिन के इस कैम्प में आए युवक-युवतियां कैम्प में न रहकर आस-पास के गांवों में चले गए। पास के गांव में रहकर उन्होंने ग्रामीण जनता के साथ संपर्क स्थापित किया, विचार-विमर्श किया। स्थानीय आदिवासी जनता पर्यावरण की इस हानि पर चिंतित थी। लौटकर छात्रों ने अपना अनुभव सबको सुनाया।
संबलपुर विश्वविद्यालय के दो छात्रा श्री निरंजन विद्रोही और श्री आशुतोष विद्रोही श्री किशन पटनायक द्वारा परिचालित युवा छात्रा संघर्ष समिति के भी सदस्य थे। दोनों छात्रों ने उस इलाके में रहकर जनता की राय जानने और उन्हें संगठित करने का निर्णय लिया। श्री प्रसन्न कुमार साहु भी अपना समय देने के लिए तैयार हो गए। एक साल तक गांव-गांव में घूमकर इन तीनों ने स्थानीय युवकों का संगठन शुरू कर लिया। विरोध के लिए संगठित युवकों को लेकर ‘गंधमार्दन सुरक्षा युवा-परिषद’ का गठन किया गया।
अब तक बाल्को कंपनी का काम काफी आगे बढ़ चुका था। रेलमार्ग और सड़क का निर्माण चल रहा था। बॉक्साइट का उत्पादन भी शुरू हो गया था। हाईकोर्ट के स्टे आर्डर के बावजूद कंपनी ने अपना काम चालू रखा था। कागजी विरोध ज्यादा फलप्रद होता नहीं दिखलाई दे रहा था। अतः युवा परिषद की तरफ से बाल्को के काम की जगहों पर सत्याग्रह का कार्यक्रम तय किया गया। तैयारियां शुरू हो गईं। प्रत्येक गांव को बारी-बारी से सत्याग्रह का दायित्व सौंप दिया गया। इस तरह एक व्यापक आंदोलन की शुरूआत हो गई।
अब सड़क, रेलमार्ग और रोपवे निर्माण की जगहों पर धरना दिया जाने लगा। काम के लिए आए हुए श्रमिकों से भी संवाद शुरू किया, उन्हें भी समझाया जाने लगा। ग्रामीण जनता अत्यंत उत्साह और आग्रह से ये सारे काम करने लगी।
कंपनी के अफसर और पुलिस की धमकियों के बावजूद लोग अपने काम पर डटे रहे। महिलाएं इन सब कामों में आगे रहीं। अब तक बाहर से कोई भी महिला इन महिलाओं को नेतृत्व देने नहीं आई थी। लेकिन अपने जंगल की सुरक्षा को अपना कर्त्तव्य मानती हुई ये महिलाएं गोद में बच्चों को लेकर भी सत्याग्रह के स्थान पर डटी रहीं। सत्याग्रह के लिए अपनी-अपनी बारी पर प्रस्तुत होकर पुरुष और महिलाएं दूर-दूर के गांव से जंगल के रास्ते से होते हुए सूर्योदय से पहले ही पूर्व निर्धारित जगह पर आकर पहुंच जाते थे। सत्याग्रह काफी प्रभावशाली रहा। प्रेम से किए गए सतत् संवाद से, बार-बार समझाने से सुदूर कालाहांडी और और छीत्तरागढ़ इलाके से आए हुए श्रमिकों ने भी काम पर आना बंद कर दिया। अब तो बाल्को के लिए मजदूरों का मिलना भी कठिन हो गया।
सत्याग्रह के लिए अपनी-अपनी बारी पर प्रस्तुत होकर पुरुष और महिलाएं दूर-दूर के गांव से जंगल के रास्ते में होते हुए सूर्योदय से पहले ही पूर्व निर्धारित जगह पर आकर पहुंच जाते थे। सत्याग्रह काफी प्रभावशाली रहा। प्रेम से किए गए सतत् संवाद से, बार-बार समझाने से सुदूर कालाहांडी और छीत्तरागढ़ इलाके से आए हुए श्रमिकों ने भी काम पर आना बंद कर दिया।
फरवरी 1986 को युवा परिषद के सदस्यों ने सुविख्यात पर्यावरण प्रेमी श्री सुंदरलाल बहुगुणा को यहां की परिस्थिति से परिचित कराया और परामर्श के लिए आमंत्रित किया। उन्होंने आमंत्रण स्वीकार किया। वे पाइकमाल आकर पांच दिन तक रहे, गांवों में घूमे, परिस्थितियां देखीं। यहां के पर्यावरण का निरीक्षण किया। फिर यहां की पर्यावरण सुरक्षा के लिए बॉक्साइट खनन को बंद करने की अनिवार्यता पर बल दिया। अपनी जगह लौटने के बाद उन्होंने विभिन्न पत्रिकाओं में इस पर लेख भी लिखे। फिर देश के दूसरे पर्यावरण विज्ञानी तथा कार्यक्रम के संयोजकों की दृष्टि भी इस ओर आकर्षित हुई। उड़ीसा और उड़ीसा के बाहर के विभिन्न प्रांतों से कार्यकर्ता और पत्रकार यहां आए। समता संगठन की सदस्या और पत्रकार कुमारी स्मिता ने यहां आकर देहात में रहकर महिलाओं के बीच काम करना शुरू किया। इससे महिलाओं को काफी उत्साह मिला। यहां के हम सभी लोगों को लगा कि उनकी बात को सुनने वाले भी हैं। आंदोलन में तेजी आ गई।अभी तक कंपनी वाले आंदोलन को नजरअंदाज कर रहे थे- लेकिन सत्याग्रह को बढ़ते देख उन्होंने पुलिस की सहायता लेनी शुरू कर दी। जगह-जगह पर सत्याग्रहियों को गिरफ्तार करने की धमकी दी गई। इन धमकियों से लोग डरे नहीं, न जेल जाने से घबराए।
अब धरना और सत्याग्रह भी तेजी से चलने लगा। अब कंपनी के ऑफिस के सामने भी धरना देना चालू हो गया। कंपनी की एक भी गाड़ी को बाहर निकलने नहीं दिया गया। सत्याग्रह में महिलाओं और बच्चों का योगदान खूब होता। बच्चे बढ़-बढ़ कर नारे लगाते थे। फिर गिरफ्तारी भी शुरू हो गई।
पहले दिन सत्याग्रहियों को शाम तक थाने में रखकर छोड़ दिया गया। गिरफ्तारी की खबर सुनते ही सत्याग्रहियों की संख्या काफी अधिक हो गई। दूसरे दिन का सत्याग्रह 68 साल के वयोवृद्ध स्वाधीनता संग्रामी तथा सर्वोदयी श्री अलेख पात्र के नेतृत्व में चला। इस बार 73 सत्याग्रही स्वेच्छा से जेल गए। उनमें 40 तो महिलाएं थीं। जेल की तंग कोठरी में दो दिन तक खड़े-खड़े ही रह जाने के बाद अदालत में विचार हुआ। और 71 जमानत पर चले गए। लेकिन श्री अलेख पात्र और श्री हलधर लौहार ने उन शर्तों पर मुक्त होने से मना कर दिया। जमानत आदेश का विरोध करते हुए उन्होंने सैशन कोर्ट में अपील की। ढाई महीने के बाद ऊपर के कोर्ट से उन्हें ससम्मान रिहाई का आदेश मिला।
इस प्रकार की गिरफ्तारी से आंदोलन अब और अधिक तेजी से चलने लगा। इधर सत्याग्रह बढ़ा और उधर कंपनी का काम लगभग बंद हो गया। श्री पात्र की रिहाई के बाद कंपनी के सभी कामों को बंद करा देने के लिए युवा परिषद की तरफ से निर्णय लिया गया।
उस दिन से आज तक गंधमार्दन के इलाके में बॉल्को कंपनी का काम जहां कहीं भी होता है, सत्याग्रही वहां पहुंच जाते हैं और काम बंद करा कर ही रहते हैं। लगभग हरेक गांव में अधिकांश युवक युवा परिषद के सदस्य बन गए हैं और पर्यावरण की रक्षा के लिए कमर कस कर तैयार हो गए हैं।
कंपनी ने अपनी गाडि़यों पर से कंपनी का नाम मिटा दिया है। कंपनी की गाडि़यों को अब किसी भी गांव में जाने की अनुमति नहीं मिलती। पर्यावरण सुरक्षा को दृष्टि में रखते हुए कंपनी को यहां से हटा देने के लिए प्रधानमंत्री से भी अनुरोध किया गया है। राज्य सरकार के प्रतिनिधि कई दफे यहां आ चुके हैं। लेकिन केन्द्र सरकार से कोई पर्यवेक्षण कमेटी अभी तक आई नहीं है। राजीव गांधी का निर्णय कंपनी के तरफ होगा या यहां के आदिवासियों के तरफ- यह कहा नहीं जा सकता।
अरुंधती पात्र लेखिका नहीं हैं। गांवों में रहकर सर्वोदय के माध्यम से समाज के काम में संलग्न रही हैं। आज थोड़ी अस्वस्थ हैं, विश्राम कर रही हैं फिर भी पूरी विनम्रता से बताती हैं कि इस क्षेत्र में तब से रुका खनन आज भी चालू नहीं किया जा सका है।
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