ब्रह्मपुत्र नदी पर बाँध?

ब्रह्मपुत्र हिमालय से निकलने वाली 19 नदियों में से एक है। चेमा चुंग हुंग हिमनद से निकलकर यह चीन, भूटान, भारत और बांग्लादेश से होकर बहती है। इसकी लम्बाई लगभग 2,900 किलोमीटर है। तिब्बत में इसे लोग यारलुंग सांगपो के नाम से जानते हैं। इसे विश्व की सबसे ऊँची नदी के रूप में जाना जाता हैपिछले कई वर्षों के दौरान चीन के बारे में समाचार माध्यमों से ऐसी कई सनसनीखेज रिपोर्टें आई हैं कि वह ब्रह्मपुत्र अथवा सांगपो नदी पर बाँध बनाने में जुटा है। तिब्बत में ब्रह्मपुत्र नदी को सांगपो के नाम से जाना जाता है। इस प्रस्तावित बाँध के बल पर बिजली पैदा करने के अलावा चीन में पानी की कमी वाले क्षेत्रों में पानी की आपूर्ति भी की जा सकती है। किन्तु चीन ने नियमित रूप से ऐसी रिपोर्ट को खारिज किया है। जब उससे प्रस्तावित बाँध के स्थल तक लोगों, मशीनों और सामग्रियों की आवाजाही के बारे में पूछा गया तो उसने बताया कि तिब्बत में आधारभूत सुविधाओं का विकास और सड़क निर्माण कराया जा रहा है।

पक्के सबूतों के अभाव में हाल तक भी यह मुद्दा भारत की विदेश नीति में प्रमुखता से शामिल नहीं हुआ है। किन्तु ऐसा संकेत है कि भविष्य में यह मुद्दा भारत-चीन सम्बन्धों के केन्द्र में होगा। हाल में भारत के विदेश मन्त्री एम.एम. कृष्णा और चीन के विदेश मन्त्री यांग जीची के बीच मुलाकात हुई थी जिसमें भारत ने ब्रह्मपुत्र नदी पर बाँध के बारे में अपनी चिन्ता से चीन को अवगत कराया।

बाँध के बारे में सूचना की अनुपलब्धता इस कारण से भी समझ आती है, क्योंकि यह काफी संवेदनशील मुद्दा है और इसका व्यापक अन्तरराष्ट्रीय प्रभाव पड़ सकता है। इसके अलावा बाँध तक पहुँच आसान नहीं है और लोग इसे नहीं देख सकते। इसलिए इसके बारे में जानकारी मिलना कठिन है। इस मामले पर चीन की ओर से पर्दा डालने के प्रयासों को इस रूप में समझा जा रहा है कि प्राथमिक चरण में इस प्रस्तावित बाँध के प्रति अन्तरराष्ट्रीय विरोध के कारण मामले पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ने की सम्भावना के कारण ऐसा रवैया है। दूसरी ओर, चीन की ओर से इस परियोजना को पर्दे में रखने और काम पूरा होने पर विश्व के सामने इसकी घोषणा होने पर इसे पहले से किया गया काम माना जाएगा।

बीजिंग स्थित चाइनीज एकेडमी ऑफ इंजीनियरिंग फीजिक्स के दो वरिष्ठ वैज्ञानिकों द्वारा वर्ष 1995 में दाखिल एक शैक्षिक प्रपत्र के माध्यम से शायद पहली ऐसी रिपोर्ट का पता चला। उसके बाद इस मुद्दे की जानकारी दी गई और कई मंचों पर इसके बारे में चर्चा की गई। इसके बाद यह जानकारी मिली कि चीन के जल संरक्षण, बिजली नियोजन और प्रारूपण संस्थान ने इस क्षेत्र में व्यवहार्यता अध्ययन संचालित किया था।

दक्षिणी चीन में 70 करोड़ लोग रहते हैं और इनके पास चीन की कृषि योग्य भूमि का एक-तिहाई भाग और जल संसाधनों का 80 प्रतिशत भाग मौजूद है। वहीं दूसरी ओर उत्तरी चीन में 55 करोड़ लोग रहते हैं और यहाँ दो-तिहाई कृषि योग्य भूमि है और केवल 20 प्रतिशत जल संसाधन हैं। यही कारण है कि वह ब्रह्मपुत्र नदी की धारा को मोड़ना चाहता है।इस परियोजना के बारे में चीन की जरूरत को बेहतर ढंग से समझने के लिए इसे उसकी जनसंख्या वृद्धि, भूमि उपयोग प्रणाली और खाद्य उत्पादन के साथ जोड़कर देखना होगा। वर्ष 2000 में प्रकाशित ‘ग्रेन इश्यू इन चाइना’ नामक रिपोर्ट में चीन की कृषि से जुड़ी स्थिति की चर्चा की गई है। इसमें बताया गया है कि दक्षिणी चीन में 70 करोड़ लोग रहते हैं और इनके पास चीन की कृषि योग्य भूमि का एक-तिहाई भाग और जल संसाधनों का 80 प्रतिशत भाग मौजूद है। वहीं दूसरी ओर उत्तरी चीन में 55 करोड़ लोग रहते हैं और यहाँ दो-तिहाई कृषि योग्य भूमि है और केवल 20 प्रतिशत जल संसाधन हैं। आगामी कुछ वर्षों में चीन की जनसंख्या 1 अरब 60 करोड़ हो जाएगी। इस कारण चीन को खाद्यान्न उत्पादन बढ़ाना होगा। इसके लिए जोत की जमीन का क्षेत्र बढ़ाना एक तरीका हो सकता है।

चीन गोबी मरुभूमि सहित उत्तरी-पश्चिमी क्षेत्र के बड़े हिस्से को सिंचाई के दायरे में लाना चाहेगा। दुर्भाग्यवश यह क्षेत्र चीन की कुल भूमि का लगभग 45 प्रतिशत भाग है किन्तु इसके पास केवल 7 प्रतिशत जल है। यही कारण है कि वह ब्रह्मपुत्र नदी की धारा को मोड़ना चाहता है। इसके लिए उसे न केवल एक विशाल बाँध बनाना पड़ेगा बल्कि हिमालय में कई सुरंगें भी बनानी पड़ेंगी और इसके लिए नियन्त्रित नाभिकीय विस्फोटों का भी इस्तेमाल करना होगा।

इस बीच चीन की सरकार ने ‘यारलुंग सांगपो ग्रैण्ड कैनयोन नेशनल रिजर्वेशन’ स्थापित करने की भी घोषणा की है। इसके अलावा इस प्रस्तावित बाँध और जलधारा को मोड़ने की परियोजना के प्रभावों, उस पर आने वाली लागत और तकनीकी पहलुओं के अध्ययन के लिए कई अध्ययन रिपोर्ट और व्यवहार्यता रिपोर्ट तैयार की गई है। एक अनुमान के अनुसार अपने 26 टर्बाइनों के साथ यारलुंग सांगपो बाँध परियोजना से प्रतिघण्टा लगभग 4 करोड़ किलोवाट पनबिजली तैयार की जा सकेगी। यांग्तसे नदी पर बनी तीन घाटी परियोजनाओं के बिजली उत्पादन की तुलना में यह दोगुना होगा। इसके अलावा जलधारा को मोड़कर देश के जिंजियांग स्थित गोबी मरुभूमि और गंसू प्रदेश के उत्तर-पश्चिमी भाग में सिंचाई करके उसे हरा-भरा बनाया जा सकता है।

चीन के इंजीनियर और वैज्ञानिक इस परियोजना की तकनीकी व्यवहार्यता के बारे में आश्वस्त दिखाई पड़ते हैं। उदाहरण के लिए चाइनीज एकेडमी ऑफ इंजीनियरिंग फीजिक्स का कहना है कि हम निश्चित तौर पर इस परियोजना को नाभिकीय विस्फोटों के साथ पूरा कर सकते हैं। परियोजना के प्रमुख योजनाकार प्रोफेसर चिन चुआन यू के अनुसार हिमालय में 15 किलोमीटर की सुरंग बनाकर बारवा के ‘यू टर्न’ के पहले जलधारा को मोड़ना होगा। इसके परिणामस्वरूप बिजली का काफी उत्पादन हो सकेगा। इसी बिजली के एक हिस्से का इस्तेमाल 800 किलोमीटर दूर चीन के उत्तर-पश्चिमी भाग तक पम्प द्वारा जल भेजने के लिए भी किया जा सकता है।

ब्रह्मपुत्र हिमालय से निकलने वाली 19 नदियों में से एक है। चेमा चुंग हुंग हिमनद से निकलकर यह चीन, भूटान, भारत और बांग्लादेश से होकर बहती है। इसकी लम्बाई लगभग 2,900 किलोमीटर है। तिब्बत में इसे लोग यारलुंग सांगपो के नाम से जानते हैं। इसे विश्व की सबसे ऊँची नदी के रूप में जाना जाता है। बर्फीले हिमनदों से चलकर यह बंगाल की खाड़ी तक अपनी यात्रा में अनेक प्रकार की भौगोलिक संरचना से होकर गुजरती है जिसमें बर्फीले निर्जन क्षेत्र, घास के मैदानी भाग और घनघोर जंगल शामिल हैं।

इस नदी ने जिस पारिस्थितिकीय और मानव विज्ञान सम्बन्धी प्रजाति को जन्म देकर पाला-पोसा है वह अपने-आप में अनोखा है। ऐसे में विचार करने की जरूरत है कि इस परियोजना की पारिस्थितिकीय और मानवीय कीमत क्या होगी? क्या वे विशिष्ट संस्कृतियाँ जो सदियों से इस नदी के तटों पर फली-फूली हैं, वे बच पाएँगी? इस नदी द्वारा पानी के साथ जो रेत की मात्रा ढोकर लाई जा रही है, यह बाँध उस प्रक्रिया को समाप्त कर देगी। पारिस्थितिकी पर इसका क्या प्रभाव पड़ेगा? क्या यह नदी प्रणाली का वही रेत नहीं है जिसने गंगा, मेकोंग और ब्रह्मपुत्र घाटियों का निर्माण किया?

उत्तर-पूर्वी भारत और बांग्लादेश में जून से लेकर दिसम्बर तक मानसून के समय में अवक्षेपण दर 80 प्रतिशत तक रहती है और वर्ष के शेष महीने में घटकर 2 प्रतिशत हो जाती है। जल की कमी के समय ब्रह्मपुत्र के जल की काफी माँग रहती है।इस बात पर भी विचार करने की जरूरत है कि इस क्षेत्र में विशेषकर उत्तर-पूर्वी भारत और बांग्लादेश में जून से लेकर दिसम्बर तक मानसून के समय में अवक्षेपण दर 80 प्रतिशत तक रहती है और वर्ष के शेष महीने में घटकर 2 प्रतिशत हो जाती है। जल की कमी के समय ब्रह्मपुत्र के जल की काफी माँग रहती है। सैद्धान्तिक रूप से यह प्रतीत होता है कि चीन का निजी स्वार्थ जल की कमी वाली अवधि में नदी की धारा को मोड़ने के लिए प्रेरित कर सकता है जिसके बल पर वह अपने लिए बिजली उत्पादन जारी रखने के साथ ही जल आपूर्ति भी कायम रख सकेगा, जबकि भारी वर्षा के समय वह पानी भी छोड़ सकेगा। ये दोनों ही परिदृश्य अन्य देशों के लिए कई प्रकार के दुष्परिणामों के संकेतक हैं। इससे वैश्विक तपन (ग्लोबल वार्मिंग) और जलवायु परिवर्तन की समस्या कई गुना बढ़ सकती है और इसके कारण कई क्षेत्रों में अत्यधिक वर्षा होगी और हिमनदों में बर्फ पिघलने की प्रक्रिया तेज होगी। इस कारण आसपास के क्षेत्रों में जोरदार भूकम्प की सम्भावना बढ़ेगी। मानव निर्मित इस बाँध से प्राकृतिक आपदा की सम्भावना बढ़ेगी।

पारिस्थितिकीय कीमत पर हिमालय में ऐसे बाँधों को बनाकर किसी प्रकार के फायदे का अनुमान नहीं लगाया जा सकता है। दूसरी बात यह है कि सुरंग बनाने की योजना में नाभिकीय विस्फोटों के इस्तेमाल से रेडियो सक्रियता का खतरा उत्पन्न होगा। इसके अलावा नदी की धारा के निचले हिस्से के पास रहने वाले राष्ट्रों के तटवर्ती निवासी के अधिकारों की उपेक्षा नहीं की जा सकती है। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि ब्रह्मपुत्र के थाले लगभग 5,80,000 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैले हुए हैं जिसमें से 50 प्रतिशत चीन में, 33 प्रतिशत भारत में, 8 प्रतिशत बांग्लादेश में और लगभग 7.8 प्रतिशत भाग भूटान में है।

तिब्बत से यह नदी लगभग 3,500 मीटर की ऊँचाई से नीचे उतरती है। यह ‘काय’ नामक स्थान पर आकर विशाल घाटी में प्रवेश करती है। इसे यारलुंग सांगपो घाटी के रूप में जाना जाता है जो विश्व की सबसे बड़ी घाटी है। यह घाटी कोलोरेडो ग्रैण्ड कैनियन से भी अधिक गहरी है। लम्बी दूरी तक फैली यह तंग घाटी भारत के अरुणाचल प्रदेश के पासीघाट में आकर समाप्त होती है। इस स्थान पर यह नदी लगभग 155 मीटर की ऊँचाई पर स्थित है। दूसरे शब्दों में, 200 किलोमीटर से कम दूरी में यह नदी 3,500 मीटर की ऊँचाई से गिरकर 155 मीटर की ऊँचाई तक पहुँचती है। इससे इस नदी की प्रति किलोमीटर 17 मीटर की ढलान का पता चलता है। किसी भी मानक की तुलना में यह अतुलनीय है। वहीं ब्रह्मपुत्र घाटी, गुवाहाटी के क्षेत्र में यह प्रति किलोमीटर 10 से.मी. की ढलान के साथ आगे बढ़ती है।

चीन सरकार इस नदी पर बाँध बनाने के लिए सर्वेक्षण योजना और नीति निर्माण के रास्ते पर चलकर बिजली पैदा करने और अपनी मुख्यभूमि की ओर नदी की राह मोड़ने पर आमादा है। इस प्रक्रिया के किसी भी चरण में चीन ने इससे सम्बन्धित अन्य देशों के सरोकारों के बारे में सुनने की जरूरत नहीं समझी। नदी जल के बँटवारे के मुद्दे पर स्थापित अन्तरराष्ट्रीय कानूनों और समझौतों का अभाव है। ऐसी स्थिति में प्रस्तावित बाँध और यारलुंग सांगपो अथवा ब्रह्मपुत्र की जलधारा को मोड़ने से पारिस्थितिकी के साथ-साथ इस नदी की निचली धारा के किनारे रहने वाले 20 करोड़ से भी अधिक लोगों का जीवन बुरी तरह से प्रभावित हो सकता है। जब तक सम्बन्धित राष्ट्रों के नेता इस राजनीतिक और मानवीय मुद्दे को अच्छी तरह नहीं उठाएँगे, यह मुद्दा निश्चित तौर पर तनाव पैदा करने वाले और भविष्य में विवादों को उभारने वाले एक स्रोत के रूप में उभरेगा।

(लेखक भारतीय प्रबन्धन संस्थान, शिलाँग में धारणीय विकास पढ़ाते हैं)
ई-मेल : skakoty@gmail.com

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