बरगी बाँध की मानवीय कीमत

story of bargi dam
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भारत वर्ष में अभी तक विभिन्न परियोजनाओं से लगभग 3 करोड़ लोग विस्थापित हो चुके हैं। मध्य प्रदेश में नर्मदा परियोजना के अन्तर्गत नर्मदा नदी पर 30 बड़े बाँध, 135 मझोले बाँध और 3000 छोटे बाँध बनाने की योजना प्रस्तावित है। जिसमें से 6 बड़े बाँध बनाए जा चुके हैं। केवल नर्मदा घाटी से ही 10 लाख परिवार विस्थापित होने वाले हैं। बरगी बाँध से 3 जिलों के 162 गाँव के लगभग 12 हजार परिवार विस्थापित हुए हैं। जिसमें 70 प्रतिशत आदिवासी हैं। इस परियोजना में 14872 हेक्टेयर खाते की तथा 11925 हेक्टेयर जंगल एवं अन्य भूमि डूब में आई है। नर्मदा घाटी में 30 बड़े बाँधों की शृंखला में नर्मदा की सहायक नदियों तवा और बारना पर बाँध बनने के बाद जबलपुर के पास बरगी नामक स्थान पर विशाल बाँध बना। नर्मदा नदी पर बनने वाला यह पहला बड़ा बाँध है। 1968 में केन्द्रीय जल एवं विद्युत आयोग ने इस बाँध के प्रस्ताव को मंजूर किया जिसमें 2.98 लाख हेक्टेयर में सिंचाई तथा 105 मेगावाट विद्युत उत्पादन प्रस्तावित था। बाद में बरगी व्यपवर्तन (डाइवर्जन) योजना (बरगी दाईं तट नहर) को जोड़ा गया जिसमें सिंचाई क्षमता 4.20 लाख हेक्टेयर होने का दावा किया गया। रानी अवंतीबाई सागर परियोजना नामक इस मूल परियोजन की प्रारम्भिक लागत 64 करोड़ रूपए की थी जो 2009-2010 में 1514.89 करोड़ हो गई है। 1997 में बरगी व्यपवर्तन परियोजना (बरगी दाईं तट नहर) की अनुमानित लागत 1100 करोड़ की थी जो 2009-2010 में 4281.55 करोड़ हो गई है एवं पुनरीक्षित बजट 5127 करोड़ किया गया है।

इस परियोजना से मंडला, सिवनी एवं जबलपुर के 162 गाँव प्रभावित हुए हैं, जिसमें 82 गाँव पूर्णतः डूब गए हैं। कुल 26979 हेक्टेयर भूमि डूब में आई है, जिसमें 14570 हेक्टेयर कृषि भूमि, 8478 हेक्टेयर वन भूमि तथा 3569 हेक्टेयर अन्य शासकीय भूमि शामिल है। 7000 विस्थापित परिवार में 43 प्रतिशत आदिवासी, 12 प्रतिशत दलित, 38 प्रतिशत पिछड़ी जाति एवं 7 प्रतिशत अन्य लोग हैं। 1974 से परियोजना का कार्य प्रारम्भ होकर 1990 में जलाशय का गेट बन्द किया गया। इस योजना के मूल लक्ष्यों और वर्तमान उपलब्धि की स्थिति निम्नानुसार है:
 

 

क्रम

शीर्ष

मूल योजना

वर्तमान स्थिति

1.

सिंचाई

बाईं तट नहर से 1.57 लाख हेक्टेयर

दाईं तट नहर से 2.45 लाख हेक्टेयर

30 हजार हेक्टेयर सिंचाई क्षमता निर्माणाधीन

2.

विद्युत

105 मेगावाट

90 मेगावाट मुख्य टरबाइन 10 मेगावाट बाईं नहर से

3.

मत्स्य उत्पादन

325 टन

300 टन

4.

जल आपूर्ति

127 एमडीजी जबलपुर शहर को

नहीं

5.

अतिरिक्त खाद्यान्न उत्पादन

10 लाख टन

नहीं

6.

पुल

एन.एच. 7 नर्मदा पर हाइवे पुल

पूर्ण

7.

पर्यटन विकास

रिपोर्ट

पूर्ण

 

मुआवजा


नर्मदा कछार की उपजाऊ जमीन में बगैर सिंचाई एवं बगैर रासायनिक खाद की खेती होती थी जिसे असिंचित मानकर 500 से 5000 रुपए प्रति एकड़ की दर से मुआवजा की कुल राशि 16.61 करोड़ रुपए भुगतान किया गया। इसमें उनके जमीन पर बंधान, कुआँ, पेड़ तथा मकान की कीमत भी शामिल थी। इस इलाके में बीजासेन, लखनपुर, छिवालिया, पाढ़ा एवं बिजौरा आदि केन्द्रों में व्यापारी लोग बड़े पैमाने पर अनाज एवं लाह (लाख) की खरीददारी करते थे जिससे स्पष्ट है कि इस इलाके में अच्छी खेती और वनोपज होती थी। भूमिहीन कृषि मजदूर एवं कारीगर समुदाय को मुआवजा हेतु पात्र नहीं माना गया।

 

 

गलत सर्वे


सर्वे गलत होने के कारण 1990 में जलाशय का गेट बन्द करने के बाद 75 गाँवों की 366.08 हेक्टेयर भूमि डूब गई एवं फसल बर्बाद हुई। दूसरी ओर 19 गाँवों की 246 हेक्टेयर भूमि का भूअर्जन हो गया परन्तु डूब में नहीं आई। पूर्ण जलाशय जलस्तर 422.76 मीटर का सर्वे गलत होने से 1990 में बीजासेन, गड़घाट, करहैया एवं अन्य गाँव के सैकड़ों मकान दूसरी बार डूब गए। भरी बरसात में लोगों को दुबारा विस्थापन की मार झेलनी पड़ी। पुनर्वास मद से सरकार द्वारा बनाए गए स्कूल/हैण्डपम्प एवं पहुँच मार्ग भी डूब गए। 1992 में बरगी परियोजना के मुख्य अभियंता श्री वी.वी. घोष ने अपने अधीनस्थ को पत्र लिखकर आदेशित किया कि इस बार पूर्ण जलाशय भरा जा चुका है। अतः मौके पर जाकर पूर्ण जलाशय स्तर की मार्किंग की जाये।

 

 

 

 

पुनर्वास


पुनर्वास नीति के अभाव में 1987 में जबलपुर कमिश्नर के.सी. दुबे द्वारा एक पुनर्वास योजना बनाई गई थी, जिसमें अधोसंरचना हेतु काफी बातें की गई परन्तु, आजीविका के प्रश्न की ओर ध्यान नहीं दिया गया। जलाशय भराव के बाद अधिकतर विस्थापित परिवार स्वयं की मदद से पहाड़ी में जाकर बस गए तो वन विभाग ने मंडला जिले के टाटीघाट, पांडीवारा एवं भीलवाड़ा के विस्थापित परिवारों के मकान तोड़ दिये एवं प्रकरण दर्ज कर दिये। विस्थापित परिवार कोर्ट-कचहरी के चक्कर में फँस गए। मुआवजा भी दो किश्तों में दिये जाने के कारण काश्तकार पुनर्वास हेतु कोई ठोस योजना नहीं बना पाये। जहाँ विस्थापित बसे थे वहाँ से काफी दूर में स्कूल भवन/छात्रावास/औषधालय एवं सामुदायिक भवन बनाए गए एवं उनमें काफी भ्रष्टाचार भी हुआ। इन भवनों से विस्थापितों को कोई लाभ नहीं मिला।

 

 

 

 

फर्जी वित्तीय संस्थाएँ एवं दलाली


मुआवजा बाँटते समय शहर की वित्तीय संस्थाओं ने दलालों के माध्यम से किसानों को बताया कि तीन साल में जमा की गई राशि दो गुनी हो जाएगी। ओम समृद्धि संस्था, जबलपुर नामक संस्था मंडला जिले के नारायणगंज विकासखण्ड में अनेक किसानों की राशि जमा कराकर लापता हो गई। लोग सर्टिफिकेट लेकर इधर-ऊधर भटकते रहे परन्तु उन्हें कुछ नहीं मिला।

मुआवजा मिलने के बाद लोग जमीन खरीदने हेतु आस-पास के गाँव में जाने लगे तो सर्वप्रथम जमीन की दर बढ़ाकर बताई जाने लगी एवं दलाल सक्रिय हो गए। सौदा किसी जमीन का हुआ परन्तु रजिस्ट्री दूसरी जमीन की कर दी गई। दलाल ने अग्रिम राशि ले ली और रजिस्ट्री नहीं की एवं अग्रिम राशि भी विस्थापितों को नहीं लौटाईं अनेक लोग ऐसी शिकायत लेकर अधिकारियों के पास गए परन्तु कुछ नहीं हो पाया।

 

 

 

 

पशु आधारित आजीविका


जलाशय भराव के बाद चारागाह एवं खेती खत्म होने के कारण चारे की समस्या उत्पन्न हो गई। लोगों ने अपने मवेशी सस्ते दरों में बेच दिये एवं कुछ मवेशी जलाशय भराव के दलदल में पानी पीने गए तो फँस कर मर गए। अब बीमार व्यक्ति और बच्चों के लिये भी दूध उपलब्ध नहीं हो पाता है।

 

 

 

 

रोजगार हेतु पलायन


रोजगार हेतु गाँव के युवक/युवती जबलपुर में रिक्शा चलाने, नरसिंहपुर में खेती मजदूरी एवं नागपुर-भोपाल में निर्माण की मजदूरी करने हेतु पलायन करते हैं। गाँव में मात्र बुजुर्ग एवं बच्चे होते हैं। जोखिम भरे काम के कारण प्रत्येक वर्ष दुर्घटना के बाद गाँव में लाश आना सामान्य बात हो गई है। अनेक तरह की खतरनाक बीमारी भी बाहर से लेकर गाँव में आते हैं।

 

 

 

 

आवागमन


जलाशय भराव के कारण गाँवों के पुराने रास्ते खत्म हो गए जिसके कारण एक गाँव से दूसरे गाँव की दूरी बढ़ जाने के कारण जलाशय से होकर जाने हेतु पतरे की नाम का इस्तेमाल करने लगे हैं। लहरों के कारण नाव डूबने की घटना आये दिन होती रहती हैं।

 

 

 

 

स्वास्थ्य सम्बन्धी समस्याएँ


खेती एवं जंगल आधारित पौष्टिक आहार खत्म होने के कारण विस्थापितों के स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है। पारम्परिक जड़ी-बूटी जलाशय में डूबने के कारण उसका इस्तेमाल नहीं कर पा रहे हैं। क्षेत्र मेे फेल्सीफेरम मलेरिया एवं पानी जनित रोग बहुतायत में दिखाई देता है। 1996 में मंडला जिले के नारायणगंज विकासखंड में मलेरिया का व्यापक प्रकोप फैला जिसके कारण कई मौतें हो गईं। इन्हीं क्षेत्र के 20 गाँव में मलेरिया रिसर्च सेंटर जबलपुर ने 1996 में खून की जाँच की गई तो 70 प्रतिशत पॉजीटिव पाये गए।

 

 

 

 

भूकम्प का खतरा


22 मई 1997 को जबलपुर में आस-पास के जिलों में 6.2 तीव्रता के भूकम्प आने से 35 मौतें हुई। कुछ वैज्ञानिकों का मानना है कि यह भूकम्प बरगी बाँध के कारण आया है।

 

 

 

 

डाउन स्ट्रीम की स्थिति (बाँध के नीचे की नदी से जुड़े जनजीवन पर प्रभाव)


जलाशय के नीचे वाले इलाके में बड़े पैमाने पर नर्मदा कछार में तरबूज-खरबूज एवं सब्जी की खेती करते हैं परन्तु बरगी जलाशय से अचानक पानी छोड़ने के कारण फसल बर्बाद हो जाती है। नदी के प्रवाह बन्द होने के कारण रेत की मात्रा कम होने से रेत उत्खनन में लगे मजदूरों का काम बन्द हुआ। मछली भी कम हो गई है। नर्मदा नदी में जाल डालने वाले मछुआरों के नाव-जाल बाँध के गेट खोलने से बह जाते हैं। इससे हजारों परिवारों का रोजगार छिन गया। बाढ़ की स्थिति भी बार-बार निर्मित होती है। बरगी बाँध के पानी छोड़ने के कारण 1999 में होशंगाबाद शहर के निचली बस्तियों में पानी भर गया। अतः बाँध से बाढ़ नियंत्रण की बात बरगी के अनुभव से भी गलत साबित होती है।

 

 

 

 

बाईं तट नहर से सीपेज


नरसिंहपुर जिले के गोटेगाँव तहसील में गढ़पेहरा, पचौरी एवं नांदिया ग्राम के 70 किसानों की लगभग 300 एकड़ भूमि में नहर का पानी सीपेज होने से विगत तीन सालों से खेतों में पानी भर रहा है, जिसकी कोई क्षतिपूर्ति किसानों को नहीं दी गई है। कई बार ज्ञापन एवं प्रदर्शन करने के बाद भी समस्या का समाधान नहीं होने के कारण 2009 में उच्च न्यायालय जबलपुर में याचिका दायर की गई है।

 

 

 

 

बाईं तट नहर से विस्थापन


जबलपुर जिले के 840 गाँव की 3788.55 हेक्टेयर भूमि एवं नरसिंहपुर जिले के 309 गाँव 2167.818 हेक्टेयर भूमि बाईं तट नहर बनाने हेतु अर्जित की गई है। अर्थात 1149 गाँव की 5956.168 हेक्टेयर भूमि का अर्जन किया गया है। दाईं तट नहर रीवा-सतना तक जा रही है। इस नहर में भी हजारों हेक्टेयर भूमि जाने का अनुमान है।

 

 

 

 

किसानों के साथ धोखा


बरगी बाँध मूलतः सिंचाई परियोजना है परन्तु बाँध बनने के 20 वर्ष बाद भी अभी तक नहरों को पूरा नहीं बनाया गया है। अभी तक मात्र 30 हजार हेक्टेयर भूमि में सिंचाई क्षमता विकसित की गई है। परन्तु सिंचाई इससे भी कम हो रही है। दूसरी ओर बरगी बाँध का पानी उद्योगों को देने की तैयारी की जा रही हैं सिवनी जिले में झाबुआ थर्मल पावर प्लांट हेतु बरगी जलाशय का पानी देने की अनुमति दे दी गई है एवं मंडला जिले में चुटका में 2800 मेगावाट परमाणु बिजली-घर हेतु बरगी जलाशय को पानी सुरक्षित रखने का कार्यक्रम बन रहा है। अन्य उद्योगों को भी बरगी जलाशय का पानी दिया जा सकता है। सिंचाई के नाम पर बाँध बनाकर उद्योगों को पानी देना इन परियोजनाओं का असली उद्देश्य मालूम होता है।

 

 

 

 

वन एवं वन्य प्राणी


बरगी जलाशय में घने जंगल एवं जैव विविधता खत्म हुए हैं। तथा वन्य प्राणी विलुप्त हो गए। जिसका पर्यावरणीय कीमत ऊपर बताई गई मानवीय कीमत के अतिरिक्त है।

 

 

 

 

बरगी बाँध विस्थापितों का पुनर्वास कार्यक्रम


भारत वर्ष में अभी तक विभिन्न परियोजनाओं से लगभग 3 करोड़ लोग विस्थापित हो चुके हैं। मध्य प्रदेश में नर्मदा परियोजना के अन्तर्गत नर्मदा नदी पर 30 बड़े बाँध, 135 मझोले बाँध और 3000 छोटे बाँध बनाने की योजना प्रस्तावित है। जिसमें से 6 बड़े बाँध बनाए जा चुके हैं। केवल नर्मदा घाटी से ही 10 लाख परिवार विस्थापित होने वाले हैं। बरगी बाँध से 3 जिलों के 162 गाँव के लगभग 12 हजार परिवार विस्थापित हुए हैं। जिसमें 70 प्रतिशत आदिवासी (गोंड) हैं। इस परियोजना में 14872 हेक्टेयर खाते की तथा 11925 हेक्टेयर जंगल एवं अन्य भूमि डूब में आई है। उक्त खाते की भूमि का रुपए 1661 लाख मुआवजा भुगतान किया गया तथा पुनर्वास नीति के अभाव में लोगों को व्यवस्थापन नहीं किया गया है। मात्र सन 1990 में बाँध का कार्य पूर्ण हुआ और पहली डूब आई तब लोगों ने पुनर्वास की माँग को लेकर संघर्ष शुरू किया।

संघर्ष के कारण 1994 में शासन से चर्चा हुई और पुनर्वास आयोजन समिति का गठन किया गया तथा निम्नलिखित पुनर्वास कार्यक्रम हुए:-

1. बरगी-जलाशय में मछली की ठेकेदारी बिचौलिया प्रथा समाप्त कर 54 प्राथमिक सहकारी समितियों का गठन कर उनका एक ‘बरगी मत्स्य सहकारी संघ’ का गठन कर सहकारिता के माध्यम से मत्स्याखेट एवं विपणन की व्यवस्था सन 1994 से 2000 तक किया गया। संघ द्वारा 900 मछुआरों को एवं 100 विस्थापितों प्रबन्धकीय कार्य में रोजगार दिया गया। संघ के कार्यकाल में औसत वार्षिक मत्स्योत्पादन 540 टन रहा है। पूर्व में ठेकेदार द्वारा मछुआरों को 6 रुपए प्रतिकिलो मजदूरी दी जाती थी जो संघ के समय 10 रुपए से लेकर 15 रुपए तक भुगतान की गई तथा इन 6 वर्षों में 313.94 लाख मछुआरों को पारिश्रमिक एवं एक करोड़ सैतीस लाख रुपए शासन को रायल्टी भुगतान की गई।

वर्तमान में पुनः ठेकेदारी व्यवस्था हो जाने से औसत मत्स्योत्पादन में 450 मीट्रिक टन से घटकर 172 मीट्रिक टन हो गया तथा मुछआरों की मजदूरी में भी कोई बढ़ोत्तरी नहीं की गई जिसमें मछुआरों का रोजगार छिना है और पलायन जारी है।

2. क्षेत्र में मूलभूत सुविधाओं हेतु रुपए 8 करोड़ 10 लाख का पुनर्वास फंड बनाया गया। जिसमें से 416 लाख का सड़क निर्माण, 189 लाख का पुल-पुलिया निर्माण, 43 लाख का नलकूप खनन, 28 लाख का शाला भवन, 25 लाख का आदिवासी छात्रावास, 13 लाख का का उद्ववहन सिंचाई योजना एवं 47 लाख का विद्युत सबस्टेशन निर्माण में खर्च किया गया।

3. 15 दिसम्बर को जलाशय का जलस्तर 418 मीटर करने के निर्णय से डूब से खुलने वाली 6000 हेक्टेयर भूमि का 3500 खातेदारों को 10 वर्षीय पट्टे दिये गए।

4. अर्जित किन्तु डूबती नहीं ऐसी भूमि की वापसी 19 ग्रामों के 252 खातेदारों की 246 हेक्टेयर भूमि वापसी के प्रकरण बनाए गए तथा जबलपुर जिले के 38 खातेदारों को भूमि स्वामी अधिकार दिया गया है।

5. विस्थापितों द्वारा लगभग 900 हेक्टेयर वनभूमि पर काबिज हुए हैं जिन्हें पट्टा दिलाने की कार्यवाही की जा रही है। वन विभाग द्वारा बेदखल करने की कोई कार्यवाही नहीं की जा रही है।

6. नर्मदा घाटी आन्दोलन के कारण शासन द्वारा 2002 में विस्थापितों के लिये राज्य की आदर्श पुनर्वास नीति बनाने हेतु बाध्य होना पड़ा।

 

 

 

 

 

 

 

बरगी की कहानी

(इस पुस्तक के अन्य अध्यायों को पढ़ने के लिये कृपया आलेख के लिंक पर क्लिक करें)

क्रम

अध्याय

1

बरगी की कहानी पुस्तक की प्रस्तावना

2

बरगी बाँध की मानवीय कीमत

3

कौन तय करेगा इस बलिदान की सीमाएँ

4

सोने के दाँतों को निवाला नहीं

5

विकास के विनाश का टापू

6

काली चाय का गणित

7

हाथ कटाने को तैयार

8

कैसे कहें यह राष्ट्रीय तीर्थ है

9

बरगी के गाँवों में आइसीडीएस और मध्यान्ह भोजन - एक विश्लेषण

 

 

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