बंजर भूमि की प्यास बुझाते ‘कुल’


हिमाचल प्रदेश की अनूठी जल प्रणाली ‘कुल’ ऊँचे पहाड़ों से घिरे स्पीति क्षेत्र की प्रतिकूल परिस्थितियों में भी खेती करने में मददगार साबित हुई है। लेकिन विकास की अन्धाधुन्ध रफ्तार के कारण यह सदियों पुरानी सिंचाई व्यवस्था अब विनाश के कगार पर है
कजा गाँव का एक तालाबहिमाचल प्रदेश का स्पीति इलाका ठंडी मरुभूमि है, फिर भी यहाँ के जीवन का मुख्य आधार खेती है। इसका श्रेय यहाँ सदियों से चली आ रही सिंचाई की एक सीधी-सादी प्रणाली है जिससे ग्लेशियरों का पानी खेतों तक लाया जाता है। इस प्रणाली का ही चमत्कार है कि स्पीति की बंजर भूमि में फसलें लहलहाती हैं। लेकिन विकास की अदूरदर्शी नीतियों के कारण सिंचाई की यह अद्भुत प्रणाली और इसे टिकाऊ रखने वाली चेतना विनाश के कगार पर है।

स्पीति, लद्दाख और हिमाचल प्रदेश के मैदानी भाग को जोड़ने वाले मार्ग का महत्त्वपूर्ण व्यापारिक पड़ाव हैं। स्पीति सब-डिविजन के गाँव 3,000 से 4,000 मीटर की ऊँचाई पर बसे हैं। साल में छह महीने ये गाँव बर्फ से ढके रहते हैं। ऊँचे पहाड़ों से घिरे होने की वजह से बादल यहाँ तक नहीं पहुँच पाते, लिहाजा वर्षा नाम मात्र की होती है। मिट्टी सूखी है और इसमें पेड़-पौधों और जीव-जन्तुओं का अभाव है। इन विषम परिस्थितियों में भी मानवीय सूझबूझ ने स्पीति घाटी को आबाद बनाया है।

स्पीति में फसल का मौसम मई से अक्टूबर के दौरान होता है। काली मिट्टी में गेहूँ और बाकला, बलुई मिट्टी में हरा मटर और पीली मिट्टी में बाकला और जौ की खेती होती है। स्पीति में खेती-बाड़ी की एक खास बात यह है कि जमीन के छोटे से छोटे टुकड़े का भी इस्तेमाल किया जाता है। खेतों की मेड़ और सड़कों के किनारों पर चारा उगाया जाता है। मानव मल का खाद के रूप में इस्तेमाल किया जाता है। स्पीति के सभी दो मंजिला घरों में ऊपर की मंजिल पर शौचालय होता है और मल नीचे के कक्ष में इकट्ठा होता है। इस तरह बनी खाद को सर्दियों में खेतों में डाला जाता है।

लेकिन स्पीति में खेती का सबसे महत्त्वपूर्ण साधन ‘कुल’ से सिंचाई है। इनके माध्यम से दूर स्थित ग्लेशियर का पानी गाँवों तक पहुँचता है। ये जलमार्ग अक्सर काफी लम्बे होते हैं और ऊबड़-खाबड़ पर्वतीय ढलानों और चट्टानी मार्गों से गुजरते हैं। यहाँ कुछ ‘कुल’ तो 10 किलोमीटर लम्बे और सदियों पुराने हैं।

जल पर अधिकार


‘कुल’ का महत्त्वपूर्ण भाग ग्लेशियर का मुहाना है, जहाँ पानी जमा होता है। इस हिस्से को कूड़े-कचरे से साफ रखना जरूरी है। जलमार्ग को बन्द होने से रोकने और रिसाव कम करने के लिये ‘कुल’ के दोनों तरफ पत्थरों की कतार बनाई जाती है। ‘कुल’ से आने वाले पानी को गाँव में गोल आकार के तालाब में इकट्ठा किया जाता है और सिंचाई की जरूरत होने पर थोड़ा-थोड़ा करके पानी निकाला जाता है। ‘कुल’ से आने वाला पानी रात भर तालाब में इकट्ठा होता है और सुबह निकासी का मार्ग खोल दिया जाता है शाम होने तक तालाब लगभग खाली हो जाता है और तब निकास मार्ग बन्द कर दिया जाता है। यह क्रम रोज दोहराया जाता है।

इस प्रणाली के कारगर होने की वजह यह है कि स्पीति के लोग एक-दूसरे के सहयोग और साझेदारी से इसे चलाते हैं। यहाँ की कृषि योग्य भूमि की उर्वरा शक्ति को बनाए रखने में संस्कृति का भी योगदान है। वैसे, सदियों से चली आ रही इस प्रणाली को सरकारी दखलंदाजी के कारण खतरा पैदा हो गया है।

पानी की कमी के कारण स्पीति में उत्तराधिकार कानूनों का स्वरूप ऐसा है ताकि खेतों का बँटवारा न हो। बड़े बेटे को विरासत में न सिर्फ जमीन और खेती के उपकरण, बल्कि घर और पानी के इस्तेमाल का अधिकार भी मिलता है। छोटे भाई-बहन या तो संयुक्त परिवार में काम करते हैं या फिर, जैसा कि आमतौर पर होता है, बौद्ध मठ में भिक्षु बन जाते हैं। इस तरह से यहाँ की आबादी भी नियन्त्रित रहती है और खेतों पर जनसंख्या का दबाव नहीं पड़ता।

पानी पर बड़े घर के सदस्यों का ही अधिकार होता है। ये लोग गाँव के संस्थापक के वंशज होते हैं। इस प्रणाली ने बड़े घर का प्रभुत्व स्थापित करने के साथ ही स्थानीय सामाजिक क्रम परम्परा का निर्माण भी किया है। जिस परिवार के पास पानी का ज्यादा अधिकार होगा, उसके पास ज्यादा जमीन भी होगी। मिसाल के तौर पर, कजा गाँव में 32 हेक्टेयर जमीन की सिंचाई करने वाले कूल के पानी पर 18 बड़े घरों का अधिकार है। कजा के बाकी परिवारों को बड़े घरों से पानी खरीदना पड़ता है। भुगतान आमतौर पर वस्तु के रूप में या मुफ्त मजदूरी करके होता है। कई बार पानी मुफ्त में भी दे दिया जाता है। पानी का लेन-देन विश्वास के आधार पर होता है। इसका लेखा-जोखा नहीं रखा जाता।

भरपूर हिमपात होने से पर्याप्त पानी मिलने की उम्मीद होती है। वैसी हालत में खुलकर पानी खर्च किया जाता है। लेकिन पानी की किल्लत होने पर पहले बड़े घर के सदस्य अपने खेतों की सिंचाई करते हैं और दूसरों के खेतों को पानी बाद में ही मिल पाता है। इससे फायदा यह होता है कि फसल कटाई के पूरे मौसम में मजदूर मिल जाते हैं। बड़े घरों की फसलें पहले तैयार हो जाती हैं और दूसरे परिवारों के लोग फसल काटने के लिये उपलब्ध रहते हैं। फसल तैयार होने के समय में फर्क की वजह से पूरी घाटी में एक ही समय मजदूरों की माँग में इजाफा नहीं होता। सामुदायिक श्रम को इस तरह मजबूत आधार मिलता है। इस वजह से किसान और मजदूरों के बीच विवाद भी नहीं होता है।

वैसे, ‘कुल’ के पानी के बँटवारा को लेकर तनाव पैदा हो सकता है, क्योंकि पानी की कमी होने पर बड़े घर को ‘कुल’ पर प्रभुत्व के कारण कम कठिनाई होती है। बाकी लोगों को पानी के लिये बारी का इन्तजार करना पड़ता है। इस बात की कोई गारण्टी नहीं है कि उन्हें पर्याप्त पानी मिल ही जाएगा।

बड़े घरों के बीच भी पानी के बँटवारे में असमानता हो सकती है। उनके बीच हिस्सेदारी तय करने का कोई पक्का आधार नहीं है और सम्भवतः ‘कुल’ के निर्माण के समय ही अधिकारों का निर्धारण कर लिया गया था।

‘कुल’ के पानी को मापने की इकाई एक दिन की आपूर्ति होती है। अप्रैल में बीज बोने से लेकर सितम्बर में फसल कटने तक पानी की उपलब्धता करीब 70 दिन होती है। यदि किसी परिवार का ‘कुल’ में हिस्सा 30 दिन का है और उसे सिर्फ 20 दिन पानी की जरूरत है, तो बाकी पानी को वह बेच सकता है।

जरूरत के हिसाब से हर मौसम में पानी की हिस्सेदारी नए सिरे से तय होती है, लेकिन हिस्सेदारी की न तो खरीद-फरोख्त होती है और न ही उसे किराए पर दिया जा सकता है। इस पाबन्दी की वजह से बड़े घरों की प्रतिष्ठा बरकरार रहती है।

नियन्त्रण के नियम


पिछले 35-40 वर्षों में स्पीति घाटी में केन्द्र सरकार ने खुद को आधुनिकीकरण के दूत के रूप में स्थापित करना शुरू किया है। केन्द्र की गतिविधियों की वजह से यहाँ उत्पादन के पारम्परिक तरीकों और सामाजिक ढाँचे में काफी बदलाव आया है। स्कूलों और अस्पतालों के खुलने से कई तरह की सरकारी नौकरियाँ मिलने लगी हैं और कुछ ‘कुलों’ में रबर की पाइप लगा दी हैं। पुराने ‘कुलों’ की मरम्मत की गई है और नए ‘कुल’ बनाए गए हैं।

इस तरह के हस्तक्षेप और बाजार के बढ़ते दबाव, काम के सिलसिले में मजदूरों के बाहर जाने और रोजगार के दूसरे साधन उपलब्ध होने की वजह से ‘कुलों’ के रख-रखाव की पारम्परिक व्यवस्था तबाह हो गई है। पारम्परिक रूप से ‘कुलों’ की मरम्मत सामुदायिक श्रम के जरिए होती थी और इसमें हर परिवार का योगदान होता था। लेकिन किब्बर, लोसर और सगनाम गाँवों के निवासियों की शिकायत है कि सिंचाई विभाग के हस्तक्षेप और श्रमिकों की कमी की वजह से पारम्परिक प्रणाली ध्वस्त हो गई है।

इसके अलावा सरकार द्वारा ‘कुल’ के पानी के समान बँटवारे पर जोर देने से घाटी की परम्परागत सामाजिक व्यवस्था को खतरा पैदा हो गया है। बड़े घरों का पानी और सामाजिक अनुक्रम में अपनी स्थिति पर ये नियन्त्रण टूटा है। लेकिन इसकी वजह से समानता नहीं आई है, क्योंकि नई उभरती समाज व्यवस्था बाजार की ताकत और सम्पदा पर आधारित है। यानी ‘कुल’ के पानी का बँटवारा उपलब्धता और जरूरत के आधार पर नहीं होगा और इस व्यवस्था पर पैसे की मार की वजह से स्पीति के कई परिवार कंगाल हो जाएँगे।

सीएसई से वर्ष 1998 में प्रकाशित पुस्तक ‘बूँदों की संस्कृति’ से साभार

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