बलूचिस्तानः गबरबंधों का रहस्य


भारतीय उपमहाद्वीप में सिंचाई की प्राचीनतम व्यवस्था के प्रमाण ई.पू. तीसरी सहस्त्राब्दी में मिलते हैं। तब बलूचिस्तान के किसान वर्षा के जल को जमा करके उसे अपने खेतों में इस्तेमाल करते थे। बलूचिस्तान और कच्छ में पत्थर के बांध और कराची में ईंटों से बने बांध पाए गए। ऐसे ही बांध गुजरात के साबरकांठा और भावनगर जिलों में भी पाए गए। ये सब प्रागैतिहासिक काल की बातें हैं।

बलूचिस्तान में पाए गए इन ढांचों को गबरबंध कहा जाता है। इन्हें पूरे राज्य में पाया गया है। इन्हें बनाने के कई तरीके थे। सबसे प्रचलित तरीका था 60-120 सेंमी ऊंचे चबूतरे बनाने का। उन्हें क्रमशः घटती सीढ़ियों के रूप में बनाया जाता था। ऊपर जाकर वे संकरे हो जाते थे। ऐसे बांध हर घाटी में आम हैं। इनमें से कुछ बांध तो छोटे थे और कुछ एक किमी. से लंबे। इन बांधों को बानाने में काफी श्रम और तकनीकी कौशल की जरूरत होती थी। इन बांधों का उपयोग संभवतः बाढ़ के नियंत्रण और बाढ़ के साथ पहाड़ों से आने वाली मिट्टी को जमा करने में किया जाता था। हो सकता है, कुछ पानी इकट्ठा करने के जलागार के रूप में इस्तेमाल किए जाते थे। लेकिन पुरातत्वविद् ऑरेल स्टेइन का मानना है कि उनमें से कुछ को ही बांध कहा जा सकता है। भूगर्भशास्त्री रॉबर्ट रैक्स के मुताबिक, वे पानी और मिट्टी जमा करने के लिए बनाए गए चबूतरे थे। पुरातत्वविद् ग्रेगरी पोसेल का मानना है कि बलूचिस्तान में अकेला गबरबंध शायद ही मिलता है। वे सीढ़ियों की श्रृंखला के रूप में बने थे जिनसे खेतों को पानी और मिट्टी मिलने में मदद मिलती थी। इनके भीतर और बाहर मलबा भरा था। यह मलबा शायद पहाड़ों से नीचे आया था। यह भी संभव है कि गबरबंध बनाने वालों ने जानबूझकर यह मलबा इकट्ठा किया हो। यह मलबा बाढ़ के तेज बहाव को तोड़ता था और ढांचे को नुकसान से बचाता था।

 

 

हड़प्पा-पूर्व के ढांचे


गबरबंध के काल का पता लगाना कठिन है। वहां पाए गए बर्तनों के आधार पर उन्हें हड़प्पा-पूर्व काल का बताया जाता है। रैक्स का मानना है कि ये बांध ई.पू. चौथी सहस्त्राब्दी के अंत में बनाए गए होंगे। लेकिन इस मान्यता को हाल में चुनौती दी गई है। गबरबंध पारसी (ईरानी) नाम है। स्थानीय परंपरा के मुताबिक, ये बांध पारसियों ने बनाए होंगे।

भारत ई. पू. 526 में ईरान के संपर्क में तब आया था जब फारस के एकेमिनिड वंश के डारियस ने सिंध और पंजाब पर कब्जा किया था। मौर्य काल (323-189 ई.पू.) में यह रिश्ता और मजबूत हुआ। भारत में बांध और सिंचाई व्यवस्था का प्रथम विश्वसनीय प्रमाण मौर्य काल में मिलता है। राजा रुद्रदमन के जूनागढ़ शिलालेख में खास तौर से जिक्र किया गया है कि चन्द्रगुप्त मौर्य (323-300 ई.पू.) के सूबेदार पुष्पगुप्त ने एक बांध बनवाया था और सम्राट अशोक (272-232 ई.पू.) के राज में तुशाष्प नामक व्यक्ति ने नहर बनवाई थी। तुशाष्प नाम किसी पारसी का लगता है। इसलिए लगता है कि गबरबंध उतने प्राचीन काल के आविष्कार नहीं हैं जितना कहा जाता है। फिर भी प्राचीन हैं। वे हड़प्पा-पूर्व नहीं, बल्कि हड़प्पा-बाद के काल के ही होंगे।

सेंटर फॉर साइंस एंड इनवायरोनमेंट की पुस्तक “बूंदों की संस्कृति” से साभार

 

 

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