खेती, उद्योगों व शहरी ज़रूरतों के लिये पानी का दोहन देश के कई भागों में इस स्तर तक पहुँच चुका है कि भूमिगत जलधाराएँ तेजी से सूखती जा रही है। ग्रामीण भारत में आधी से ज्यादा भूमिगत जलराशियों की भरपाई उतनी तेजी से नहीं हो रही है जितनी तेजी से उनका दोहन हो रहा है। संसद के एक सवाल के जवाब में सरकार ने भी कहा था कि देश के एक तिहाई जिलों में भूमिगत पानी पीने के लायक नहीं है, क्योंकि उसमें लोहे, फ्लोराइड, आर्सेनिक और खारेपन की मात्रा बहुत ज्यादा है। जल की असुरक्षा का मामला काफी गम्भीर रूप ले चुका है। ग्रामीण और शहरी दोनों इलाकों के करोड़ों लोगों के पास पीने के लिये पानी नहीं है।
भूमिगत जलधाराओं का कुप्रबन्धन, वर्षाजल संचय करने वाले इलाकों का क्षरण, बार-बार सूखे और सतही तथा भूमिगत जलस्रोतों का प्रदूषण आदि इसके प्रमुख कारण हैं। इन समस्याओं के मूल में नीतियों की विफलता सबसे प्रमुख है। ऐसे में जरूरत इस बात की है कि हम बीमारियों से निपटने पर खर्च करने की बजाय पानी के प्रबन्धन पर ध्यान दें।
प्रबन्धन, प्रदूषण तथा पानी के मूल्य से सम्बन्धित नीतियों के अलावा जल संसाधनों पर महाकाय कारपोरेशनों और अभिजात तबके का कब्जा भी प्रमुख कारण है। भूमिगत पानी एक सबसे गम्भीर चिन्ता का विषय बन गया है। खेती, उद्योगों व शहरी ज़रूरतों के लिये पानी का दोहन देश के कई भागों में इस स्तर तक पहुँच चुका है कि भूमिगत जलधाराएँ तेजी से सूखती जा रही है।
ग्रामीण भारत में आधी से ज्यादा भूमिगत जलराशियों की भरपाई उतनी तेजी से नहीं हो रही है जितनी तेजी से उनका दोहन हो रहा है। संसद के एक सवाल के जवाब में सरकार ने भी कहा था कि देश के एक तिहाई जिलों में भूमिगत पानी पीने के लायक नहीं है, क्योंकि उसमें लोहे, फ्लोराइड, आर्सेनिक और खारेपन की मात्रा बहुत ज्यादा है।
इण्डिया वाटर पोर्टल के केसर सिंह ने कहा कि देश के 20 राज्यों के 2.5 करोड़ लोग फ्लोरोसिस एवं अन्य जल विषाक्तता से जुड़ी बीमारी से ग्रस्त हैं। ऐसे में जरूरत इस बात की है कि हम बीमारियों से निपटने पर खर्च करने की बजाय पानी के प्रबन्धन पर ध्यान दें। फ्लोराइड नॉलेज एंड एक्शन नेटवर्क तथा इण्डिया वाटर पोर्टल की रिपोर्ट में जल में फ्लोराइड विषाक्तता से निपटने के लिये सुदूर इलाकों पर केन्द्रित ठोस कार्यक्रम बनाकर जमीनी स्तर पर इसे क्रियान्वित करने की जरूरत बताई गई है।
आज से तीन-चार दशक पहले तक पानी का बँटवारा कम-से-कम कृषि जल, पेयजल, कच्चा पानी जैसी विभिन्न परिभाषाओं के रूप में नहीं होता था। कुओं, तालाब, झीलों और नदियों में कचरा डालकर इन्हें गन्दा किया गया। पिछले तीस-चालीस वर्षों में हमारी निर्भरता भूजल पर हो चली है।
भूजल की निर्भरता ने भूतल में स्थित लवणों को पेयजल में ला दिया है। आज भूजल में फ्लोराइड, आर्सेनिक, यूरेनियम, आयरन, नाइट्रेट आदि काफी मात्रा में पाये जा रहे हैं। इन तत्वों से युक्त पानी ही बच्चों में होने वाली अधिकतर बीमारियों का कारण है। गरीब और विकासशील देशों में 80 फीसद से ज्यादा रोग जलजनित ही हैं।
एक शोध में पाया गया है कि झाबुआ एवं इससे लगे क्षेत्रों में फ्लोराइड की मात्रा 1.24 पीपीएम से 7.38 पीपीएम तक है जो सामान्य स्तर 1.5 पीपीएम से बहुत ज्यादा है। विशेषज्ञों के अनुसार छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, राजस्थान, बिहार समेत कई राज्यों में फ्लोरोसिस से लोगों के शरीर पर घातक प्रभाव पड़ रहा है।
इससे असमय बच्चों से लेकर बुजुर्गों की हड्डियाँ और दाँत कमजोर हो रहे हैं। इसकी रोकथाम के लिये उठाए जा रहे कदम कारगर साबित नहीं हो रहे हैं क्योंकि इस बारे में नीतियाँ और कार्यक्रम ज़मीनी हकीक़त को ध्यान में रखकर नहीं तैयार किये जा रहे हैं।
एक रिपोर्ट में कहा गया है कि हमारे देश के 20 राज्यों के 2.5 करोड़ लोग फ्लोरोसिस एवं जल विषाक्तता से जुड़ी अन्य बीमारियों से ग्रस्त हैं। पश्चिम बंगाल, छत्तीसगढ़ तथा मध्य प्रदेश के कई हिस्सों में आर्सेनिक की विषाक्तता तथा देश के अनेक राज्यों के भूजल में फ्लोरिन एवं नाइट्रेट का कहर है। अत: इस दिशा में समुचित प्रयास करने की जरूरत है।
भारत में पानी का इस्तेमाल लगभग 750 अरब घनमीटर है। यह अब भी उपलब्ध जलभण्डारों से काफी कम है। मगर यह अनुमान लगाया जा रहा है कि 2025 तक हमारे जल भण्डार और हमारा इस्तेमाल दोनों बराबर हो जाएँगे। और 2050 तक पानी का उपयोग उपलब्ध पानी की मात्रा से ऊपर जा चुका होगा।
यह स्थिति तो तब है जब हम पानी के केवल मानवीय उपयोग की बात करते हैं। यदि हम प्राकृतिक पारिस्थतिकीय तंत्र तथा दूसरी प्रजातियों के लिये पानी की ज़रूरतों का हिसाब जोड़ दें तब तो हम पहले ही संकट में पहुँच चुके हैं।
भूमिगत जलधाराओं का कुप्रबन्धन, वर्षाजल संचय करने वाले इलाकों का क्षरण, बार-बार सूखे और सतही तथा भूमिगत जलस्रोतों का प्रदूषण आदि इसके प्रमुख कारण हैं। इन समस्याओं के मूल में नीतियों की विफलता सबसे प्रमुख है। ऐसे में जरूरत इस बात की है कि हम बीमारियों से निपटने पर खर्च करने की बजाय पानी के प्रबन्धन पर ध्यान दें।
प्रबन्धन, प्रदूषण तथा पानी के मूल्य से सम्बन्धित नीतियों के अलावा जल संसाधनों पर महाकाय कारपोरेशनों और अभिजात तबके का कब्जा भी प्रमुख कारण है। भूमिगत पानी एक सबसे गम्भीर चिन्ता का विषय बन गया है। खेती, उद्योगों व शहरी ज़रूरतों के लिये पानी का दोहन देश के कई भागों में इस स्तर तक पहुँच चुका है कि भूमिगत जलधाराएँ तेजी से सूखती जा रही है।
ग्रामीण भारत में आधी से ज्यादा भूमिगत जलराशियों की भरपाई उतनी तेजी से नहीं हो रही है जितनी तेजी से उनका दोहन हो रहा है। संसद के एक सवाल के जवाब में सरकार ने भी कहा था कि देश के एक तिहाई जिलों में भूमिगत पानी पीने के लायक नहीं है, क्योंकि उसमें लोहे, फ्लोराइड, आर्सेनिक और खारेपन की मात्रा बहुत ज्यादा है।
इण्डिया वाटर पोर्टल के केसर सिंह ने कहा कि देश के 20 राज्यों के 2.5 करोड़ लोग फ्लोरोसिस एवं अन्य जल विषाक्तता से जुड़ी बीमारी से ग्रस्त हैं। ऐसे में जरूरत इस बात की है कि हम बीमारियों से निपटने पर खर्च करने की बजाय पानी के प्रबन्धन पर ध्यान दें। फ्लोराइड नॉलेज एंड एक्शन नेटवर्क तथा इण्डिया वाटर पोर्टल की रिपोर्ट में जल में फ्लोराइड विषाक्तता से निपटने के लिये सुदूर इलाकों पर केन्द्रित ठोस कार्यक्रम बनाकर जमीनी स्तर पर इसे क्रियान्वित करने की जरूरत बताई गई है।
आज से तीन-चार दशक पहले तक पानी का बँटवारा कम-से-कम कृषि जल, पेयजल, कच्चा पानी जैसी विभिन्न परिभाषाओं के रूप में नहीं होता था। कुओं, तालाब, झीलों और नदियों में कचरा डालकर इन्हें गन्दा किया गया। पिछले तीस-चालीस वर्षों में हमारी निर्भरता भूजल पर हो चली है।
भूजल की निर्भरता ने भूतल में स्थित लवणों को पेयजल में ला दिया है। आज भूजल में फ्लोराइड, आर्सेनिक, यूरेनियम, आयरन, नाइट्रेट आदि काफी मात्रा में पाये जा रहे हैं। इन तत्वों से युक्त पानी ही बच्चों में होने वाली अधिकतर बीमारियों का कारण है। गरीब और विकासशील देशों में 80 फीसद से ज्यादा रोग जलजनित ही हैं।
एक शोध में पाया गया है कि झाबुआ एवं इससे लगे क्षेत्रों में फ्लोराइड की मात्रा 1.24 पीपीएम से 7.38 पीपीएम तक है जो सामान्य स्तर 1.5 पीपीएम से बहुत ज्यादा है। विशेषज्ञों के अनुसार छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, राजस्थान, बिहार समेत कई राज्यों में फ्लोरोसिस से लोगों के शरीर पर घातक प्रभाव पड़ रहा है।
इससे असमय बच्चों से लेकर बुजुर्गों की हड्डियाँ और दाँत कमजोर हो रहे हैं। इसकी रोकथाम के लिये उठाए जा रहे कदम कारगर साबित नहीं हो रहे हैं क्योंकि इस बारे में नीतियाँ और कार्यक्रम ज़मीनी हकीक़त को ध्यान में रखकर नहीं तैयार किये जा रहे हैं।
एक रिपोर्ट में कहा गया है कि हमारे देश के 20 राज्यों के 2.5 करोड़ लोग फ्लोरोसिस एवं जल विषाक्तता से जुड़ी अन्य बीमारियों से ग्रस्त हैं। पश्चिम बंगाल, छत्तीसगढ़ तथा मध्य प्रदेश के कई हिस्सों में आर्सेनिक की विषाक्तता तथा देश के अनेक राज्यों के भूजल में फ्लोरिन एवं नाइट्रेट का कहर है। अत: इस दिशा में समुचित प्रयास करने की जरूरत है।
भारत में पानी का इस्तेमाल लगभग 750 अरब घनमीटर है। यह अब भी उपलब्ध जलभण्डारों से काफी कम है। मगर यह अनुमान लगाया जा रहा है कि 2025 तक हमारे जल भण्डार और हमारा इस्तेमाल दोनों बराबर हो जाएँगे। और 2050 तक पानी का उपयोग उपलब्ध पानी की मात्रा से ऊपर जा चुका होगा।
यह स्थिति तो तब है जब हम पानी के केवल मानवीय उपयोग की बात करते हैं। यदि हम प्राकृतिक पारिस्थतिकीय तंत्र तथा दूसरी प्रजातियों के लिये पानी की ज़रूरतों का हिसाब जोड़ दें तब तो हम पहले ही संकट में पहुँच चुके हैं।
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Post By: RuralWater