बीमारी बहाओ और भूल जाओ की

नदियों पर संकट
नदियों पर संकट

केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के अध्यक्ष ने कहा है कि भारत की नदियों के पानी की गुणवत्ता के हास में मुख्य योगदान अनुपचारित अथवा आंशिक रूप से उपचारित मल-जल (सीवेज) का होता है। हालांकि यह बात पहले से ही लोगों को पता थी, परंतु सीपीसीबी की विभागीय पत्रिका ने हमारे देश की पतनशील नदी प्रणालियों की कड़वी सच्चाई की पुष्टि कर दी है। पत्रिका के अनुसार प्रतिदिन लगभग 3 अरब 30 करोड़ लीटर मल-जल निकलता है, परंतु हमारी उपचार क्षमता केवल 70 करोड़ लीटर अर्थात कुल मल-जल के 21 प्रतिशत की ही है। इसमें विभिन्न राष्ट्रीय नदी कार्ययोजनाओं के अंतर्गत निर्मित क्षमता भी सम्मिलित है।

इस संकट की जड़ों तक जाने के लिए किसी को बहुत पीछे जाने की जरूरत नहीं है। नदियों के किनारे बसे आज के अधिकतर नगरों और कस्बों ने कभी भी आवासीय क्षेत्रों से निकलने वाले कचरे, विशेषकर मल-जल के बारे में गंभीरता से सोचा ही नहीं। उनके लिए नदियां मल-जल को बहाने का सबसे आसान साधन थीं। इससे गंदे पानी (मल-जल) के उपचार की जिम्मेदारी से उनकों मुक्ति मिल गई। परंतु उन दिनों देश शहरीकरण की ओर अपना पहला कदम बढ़ा रहा था और शहरी विकास की दिशा में तेजी आनी शुरू ही हुई थी। अतएव, मल-जल उपचार प्रणालियों की रूपरेखा तैयार करने और निर्माण के लिए जो थोड़े बहुत प्रयास किए गए, वे जनसंख्या के वास्तविक अनुमान पर आधारित नहीं थे।

इसके फलस्वरूप केवल कुछ गिने-चुने शहरों और कस्बों में मल-जल उपचार प्रणाली काम कर रही थी और अनेक छोटे-बड़े शहर/कस्बे बिना किसी मल-जल प्रणाली के अनियोजित ढंग से उभरते, बसते रहे। आज स्थिति यह है कि यह सारा का सारा मल-जल नदियों में, विशेषकर शहरी इलाकों के पास से गुजरने वाली नदियों में बहा दिया जाता है। मल-जल के बेतहासा बहाव के कारण नदियां अत्यधिक प्रदूषित हो चुकी हैं या फिर मृत हो गई हैं। मल-जल के अलावा औद्योगिक और कृषिजन्य कचरे के कारण भी नदियां मृतप्राय हो रही हैं।
 

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